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इंटरव्यू

केवल कलम चलाने गाल बजाने से कुछ न होगा

मुकेश कुमारइंटरव्यू : मुकेश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार और निदेशक, मौर्य टीवी) : टेलीविज़न में ज़्यादातर काम करने वालों के पास न तो दृष्टि होती है न ज्ञान : ‘सुबह सवेरे’ की लोकप्रियता का आलम ये था कि हर दिन बोरों मे भरकर पत्र आते थे : सहारा प्रणाम के चक्कर में प्रभात डबराल जी से बोलचाल बंद है : लाँच के वक्त सुब्रत रॉय का संदेश चलने के बजाय उनके मेकअप के शाट्स चलने लगे : विजय दीक्षित ऐसे लोगों के चंगुल में फँस गए जिन्होंने चैनल को ठिकाने लगा दिया : वीओआई में मालिकान ने तय किया कि ख़बरों का धंधा कराना है तभी मैंने इस्तीफा देने का फैसला कर लिया : टीआरपी की वजह से कंटेंट घटिया हुआ, मीडिया की साख गिरी है, पत्रकार-पत्रकारिता बदनाम हुए हैं : मीडिया की सबसे बड़ी खराबी है समाज-सरोकारों से हटना : मुझमें सबसे बड़ी बुराई है साहस की कमी : हिंदी का अंतरराष्ट्रीय स्तर का अंतरराष्ट्रीय चैनल शुरू करना-चलाना चाहता हूँ :

मुकेश कुमार

मुकेश कुमारइंटरव्यू : मुकेश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार और निदेशक, मौर्य टीवी) : टेलीविज़न में ज़्यादातर काम करने वालों के पास न तो दृष्टि होती है न ज्ञान : ‘सुबह सवेरे’ की लोकप्रियता का आलम ये था कि हर दिन बोरों मे भरकर पत्र आते थे : सहारा प्रणाम के चक्कर में प्रभात डबराल जी से बोलचाल बंद है : लाँच के वक्त सुब्रत रॉय का संदेश चलने के बजाय उनके मेकअप के शाट्स चलने लगे : विजय दीक्षित ऐसे लोगों के चंगुल में फँस गए जिन्होंने चैनल को ठिकाने लगा दिया : वीओआई में मालिकान ने तय किया कि ख़बरों का धंधा कराना है तभी मैंने इस्तीफा देने का फैसला कर लिया : टीआरपी की वजह से कंटेंट घटिया हुआ, मीडिया की साख गिरी है, पत्रकार-पत्रकारिता बदनाम हुए हैं : मीडिया की सबसे बड़ी खराबी है समाज-सरोकारों से हटना : मुझमें सबसे बड़ी बुराई है साहस की कमी : हिंदी का अंतरराष्ट्रीय स्तर का अंतरराष्ट्रीय चैनल शुरू करना-चलाना चाहता हूँ :


शहडोल के स्थानीय अखबार ‘समय’ से 300 रुपये माहवार से करियर की शुरुआत करने वाले मुकेश कुमार आज मौर्य टीवी के निदेशक हैं. बीच में कई न्यूज चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं में विभिन्न पदों पर रहे. साहित्य में दखल रखने वाले मुकेश कुमार जितने विनम्र हैं, उतने ही तार्किक और जुझारू. खरी-खरी बात कहने से डरते नहीं, दूसरों की बात सुनते हुए धैर्य खोते नहीं. जो चीज नापसंद करते हैं, उसके लिए चैनल या अखबार छोड़ने से चूकते नहीं. भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने मुकेश कुमार से उनके जीवन, करियर, साहित्य, पत्रकारिता, महत्वाकांक्षा, कमजोरियों, अच्छाइयों आदि पर विस्तार से बात की. पेश है उस बातचीत के अंश-


  • मौर्य टीवी की सफल लांचिंग का श्रेय आपको दे दिया जाए?

मुकेश कुमार

बिल्कुल नहीं। न्यूज़ चैनल लाँच करने और उसे चलाने में बहुत बड़ी टीम का हाथ होता है। सबसे ऊपर बैठे व्यक्ति से लेकर दूर-दराज़ से तमाम मुश्किलों के बीच ख़बरें भेजने वाले अंशकालिक संवाददाताओं तक हर व्यक्ति की अहम भूमिका होती है। इसलिए किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को इसका श्रेय देना ठीक नहीं होगा। ये मौर्य टीवी में काम करने वाले ढाई सौ लोगों की मेहनत और लगन से संभव हुआ है इसलिए इसका श्रेय सबको जाता है।  मैं तो उन्हें भी श्रेय देना चाहूँगा जो अब चैनल के साथ नहीं हैं। उनकी भी भूमिका रही है। मुझे ठीक से जानकारी नहीं है मगर हो सकता है कि कुछ लोगों का काम नकारात्मक रहा हो। मगर नकारात्मता भी कई बार अच्छा काम करने की स्थितियां निर्मित करने में सहायक होती है, प्रेरक होती हैं, इसलिए ऐसे लोगों को भी श्रेय मिलना चाहिए।

  • शुरू में प्रकाश झा के इस प्रोजेक्ट को लेकर काफी कुछ बातें हुईं थीं. अब क्या स्थिति है?

मुकेश कुमारन्यूज़ चैनल शुरू करना एक लंबी और पेचीदा कवायद होती है और आप पाएंगे कि कमोबेश हर प्रोजेक्ट में शुरूआती अड़चनें आती हैं। कहीं व्यक्तियों का चयन गलत हो जाता है तो कहीं योजना सही नहीं बनती और कभी-कभी तो चैनल लाने वाले खुद ही ग़लत होते हैं इसलिए मुश्किलें पैदा होती जाती हैं। आप एक-एक करके चैनलों का इतिहास उलटना शुरू कीजिए, आपको ज़्यादातर में ये चीज़ें देखने को मिल जाएंगी।

फिर हो सकता है नोएडा-दिल्ली में कम समस्याएं आएं। यहां साधन, संसाधन सब कुछ आसानी से उपलब्ध हैं। मगर यदि आप किसी ऐसी जगह से चैनल शुरू करने जाएंगे जहां पहले टीवी चैनल से संबंधित गतिविधियाँ बहुत कम या न के बराबर रही हों तो दुश्वारियां तो आएंगी ही। मौर्य टीवी पटना से शुरू किया जाना था, यानी एक बिल्कुल नई ज़मीन पर खेती की जानी थी। ज़ाहिर है कि ज़मीन को ठीक करने में वक्त लगा, लेकिन एक बार जब ज़मीन ठीक हो गई तो अच्छे से बुआई भी हुई और अब तो आप देख सकते हैं कि चैनल किस तेज़ी के साथ खड़ा हो रहा है। बिना किसी विवाद के चैनल चल रहा है और अच्छा चल रहा है। लोग पूरी मेहनत और लगन से काम कर रहे हैं। सब जानते हैं कि वे बिहार में टीवी पत्रकारिता की नई इबारत लिख रहे हैं। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास है और वे अपना सर्वश्रेष्ठ देने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। इसलिए दिक्कतों को सफर का हिस्सा मानकर भूल जाना ही ठीक होता है। याद केवल इतना रखा जाना चाहिए कि अतीत की गलतियों को दोहराया नहीं जाए।

  • मीडिया में आपका लंबा अनुभव है. सिलसिलेवार ढंग से बताएंगे कि कैसे मीडिया में आए और यह मुकाम किस प्रकार हासिल किया?

आपका ये सवाल है तो डेढ़ लाइन का है मगर लंबा जवाब माँगता है। एक शेर याद आता है- ”अपने अफसाने का न ओर है न छोर कोई, वीरान रातों के सीने पर लिखी सर्द आहों की तरह ”। बहरहाल, सवाल किया है तो जवाब देना ही होगा।

बुढ़ार (मेरा अपना गाँव) से निकलकर शहडोल के कॉलेज में पहुँचा तो संपर्क का दायरा बढ़ा। पढ़ने-लिखने वाले लोगों से साबका पड़ने लगा। लिखने का कुछ हुनर आ गया था। इस तरह कविताएं लिखने का सिलसिला शुरू हुआ और फिर व्यंग्य लेख लिखने लगा। स्थानीय अख़बारों में छपने भी लगा। शहडोल से एक अख़बार निकलता है ‘समय’। एम. एससी. करने के बाद 300 रुपए माहवार पर वहाँ काम करने लगा। पता नहीं था कि आगे क्या करना है, मगर शहडोल में ही प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े एक बेहद सम्मानित और जागरूक शिक्षक-लेखक सुखदीप उप्पलजी से परिचय हुआ। उन्होंने मुझे सागर से पत्रकारिता का कोर्स करने की सलाह दी। संयोग से सागर में उस समय उनकी बहन दविंदर उप्पलजी विभागध्यक्ष थीं। उनसे मिला तो उन्होंने प्रवेश परीक्षा देने को कहा। शायद दस या पंद्रह सीटें थीं और प्रवेश परीक्षा में मेरा स्थान आख़िरी था। ये और बात है कि बाद में मैंने टॉप किया, गोल्ड मेडल जीता और अंकों का मेरा रिकार्ड अब तक कायम है। खैर दाखिला मिल गया और मैं चल पड़ा पत्रकार बनने की राह पर।

पढ़ाई के दौरान देशबंधु का संवाददाता बन गया और अख़बारों में लेख आदि लिखने लगा। परीक्षाओं के बाद इंटर्नशिप करने के लिए दिल्ली आ गया। नवभारत टाइम्स और भाषा में दो-दो महीने काम सीखने और भाषा में कांट्रेक्ट पर कुछ समय काम करने के बाद फ्रीलांसर के रूप में सड़कों की धूल फाँकना शुरू कर दिया। ये 1987 की बात है। दिन भर इस अख़बार के दफ्तर से उस अख़बार के कार्यालय में जाता, असायनमेंट माँगता, कुछ लेख देता। लक्ष्मीनगर के कृष्णनगर में एक कमरे का मकान ले रखा था। उस समय खेल और विदेशी मामलों पर लिखने में खास रुचि थी मगर जिस भी विषय पर लिखने को कहा जाता, लिखता था। अलबत्ता जो भी लिखता तबीयत से लिखता। इस दौरान कई मित्र बने जिनके सहयोग को मैं कभी नहीं भूलूँगा। इनमें सत्येंद्र पाल सिंह, बालमुकुंद सिन्हा, सुजाता माथुर, नीरेंद्र नागर, शशिधर खान आदि प्रमुख थे। उस समय टेलीग्राफ के विशेष संवाददाता जगमीत उप्पल ने मेरा मार्गदर्शन किया। उप्पल जी इस समय संयुक्त राष्ट्र के सलाहकार हैं। वे पहले रविवार में थे और उन्हें स्टेट्समैन पत्रकारिता अवार्ड भी मिला था।

अक्टूबर के आसपास भाषा के संपादक वेदप्रताप वैदिक ने बैंगलोर से शुरू होने जा रहे हिंदी दैनिक आदर्श पत्र का ज़िक्र करते हुए पूछा जाओगे..। मैंने हाँ कहा और चला गया। इंदौर के सतीश जोशी, ग़ाज़ियाबाद के राज कौशिक और सागर के अशोक मनवानी भी वहाँ पहुँचे हुए थे। हम लोगों ने बहुत मेहनत की। सुबह नौ बजे दफ्तर पहुँच जाते थे और फिर छपा हुआ अख़बार लेकर अगली सुबह चार बजे घर पहुँचते थे। उस समय अंजू आनंद भी वहीं थीं। एक उमा करके भी थीं, जो बाद में मेरे एक कमरे के घर में रहने दिल्ली भी आईं और मोहल्ले में बेवजह चर्चा का विषय भी बनीं। एक और घनिष्ठ मित्र स्वामी था, जिससे अरसे से संपर्क टूटा हुआ है, मगर वह बेंगलोर से मुझसे मिलने हर जगह पहुँच जाता था और खोजते-खोजते मेरी शादी के रिसेप्शन में मेरे गाँव भी पहुँच गया था।

बहरहाल, अख़बार शुरू करने वाले रणजीत सुराणा के पास न अनुभव था और न ही पर्याप्त धन। उत्साह ज़रूर था तो उससे बहुत दूर तक जाना संभव नहीं था। लिहाज़ा छह-आठ महीनों में ही बोरिया बिस्तर समेटकर दिल्ली आ गया। थोड़े समय बाद माया में इलाहाबाद में काम मिल गया। करीब साल भर बाद नवभारत टाइम्स से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। मुंबई इंटरव्यू देकर लौटा तो संपादक बाबूलाल शर्मा ने शर्त रख दी कि अगर नौकरी करनी हो तो बाहर का ख्याल छोड़ना होगा। शर्त जमी नहीं और हमने फिर से दिल्ली का रुख़ कर लिया। कुछ समय फ्रीलांसिंग में गुज़रा, तो वक्त आ गया पूर्वोत्तर भारत के भ्रमण का। यहाँ के प्रतिष्ठित अख़बार समूह सेंटिनल से हिंदी सेंटिनल के संपादक बनने का प्रस्ताव मिला। चौबीस साल की उम्र में मेरे लिए ये एक अच्छा अवसर था। मैंने दिन-रात एक करके टीम खड़ी की, उसे माँजा और एक-डेढ़ महीने के अंदर अख़बार लाँच कर दिया। कुछ ही समय में अख़बार लोकप्रिय भी हो गया।

  • कम उम्र में संपादक बनने का तजुर्बा कैसा रहा?

मुकेश कुमारलाजवाब..। सोचा ही नहीं था कि ऐसा अवसर मिलेगा। लेकिन मिला तो तन-मन सब कुछ झोंक दिया। बहुत सारे लोग टीम का हिस्सा बने। सत्यनारायण मिश्रा, प्रभाकर मणि तिवारी, अनीस, दिनकर कुमार, कुमार भवेश, कुमार भारत आदि। पहली बार यहीं नेतृत्व क्षमता विकसित करने का मौका मिला। अख़बार बहुत धारदार था। धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और हिंदी ही नहीं अन्य सभी भाषा-भाषियों को जोड़ने वाला। हमने बहुत से प्रयोग किए। साहित्य अकादमी के वार्षिक सम्मेलन की अच्छी रिपोर्टिंग के लिए स्थापित साहित्यकार नवारूण वर्मा को भेजा। इस सम्मेलन में हर साल लाखों लोग जुटते हैं। हर रोज़ में कम से कम दो संपादकीय भी लिखता था। अल्फा समस्या पर मैंने 6-7 किस्तों में संपादकीय लिखा। एक बार तिनसुकिया गया तो देखा कि एक व्यक्ति ने उन्हें फ्रेम करवाकर अपनी बैठक में टाँग रखा है। अख़बार बहुत लोकप्रिय हुआ, ख़ास तौर से वहाँ रहने वाले उत्तर भारतीयों, असमियों और नेपालियों के बीच। सब कुछ बहुत शानदार ढंग से चल रहा था मगर दो साल बाद एक ऐसी स्थिति बनी जिसमें मालिकों ने अख़बार में काम कर रहे लोगों से अपना वादा पूरा करने से मना कर दिया। जवाब में मैने अपना इस्तीफा सौप दिया।

सेंटिनल का मेरे जीवन में इसलिए भी महत्वपूर्ण भूमिका है कि यहीं मेरा परिचय पापोरी से हुआ, जो मेरी जीवन संगिनी बनीं। पापोरी के परिजन शादी के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे में हम लोगों ने फिल्मी अंदाज़ में भागकर दिल्ली में आर्य समाजी ढंग से शादी की। इस अभियान में कई मित्रों का सहयोग मिला। बाद में पापोरी के घरवाले भी मान गए और सब कुछ ठीक हो गया। सेंटिनल का शनिवारीय अंक निकलता था पुरवाई के नाम से, मेरी बेटी का नाम भी वही है।

  • सेंटिनल के बाद एक बार फिर दिल्ली कूच ..?

नहीं, इस बार भोपाल का रुख़ किया। एसपी सिंह जी के कहने पर गया तो था स्वामी त्रिवेदी जी के मध्य भारत में काम करने मगर उसके शुरू होने के जब आसार नहीं दिखे और राजेश बादल जी के ज़रिए दैनिक नईदुनिया में काम करने का प्रस्ताव आया तो सहायक संपादक के तौर पर वहां काम करने चला गया। रोज़ाना संपादकीय लेख लिखता, संपादकीय पेज देखता और साथ में रविवारीय भी। तकरीबन साल भर बाद अख़बार में हड़ताल हुई। इसमें मेरी भूमिका से प्रबंधन खुश नहीं था इसलिए मैं छोड़ने की तैयारी करने लगा। संयोग से कुछ मित्र समय ”सूत्रधार” के नाम से एक राष्ट्रीय पत्रिका शुरू कर रहे थे। उनसे बात हुई और बतौर कार्यकारी संपादक पत्रिका से जुड़ गया। लेकिन पत्रिका चली नहीं और फिर से नए ठौर की तलाश शुरू हो गई।

एक दिन ”परख” के दफ्तर में विनोद दुआ जी से मुलाकात हुई और इस तरह टेलीविज़न पत्रकारिता में दाखिल हो गया। पहले कुछ दिन प्रशिक्षु के तौर पर मुफ्त में काम किया और फिर परख की टीम का नियमित सदस्य बन गया। आप जानते ही होंगे हिंदी की टीवी पत्रकारिता में परख का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बहुत सारे पत्रकार यहाँ से होकर निकले हैं। रजत शर्मा, राजेश बादल, अजीत साही, विजय तिवारी, मणिकांत ठाकुर, जितेंद्र रामप्रकाश, मनोरंजन भारती आदि बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका संबंध परख से रहा है।

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  • तो इस तरह आप प्रिंट से टेलीविज़न में आ गए। ये सोचा-समझा फैसला था या संयोगवश ऐसा हो गया..?

मुकेश कुमारनहीं ये सोच-समझकर किया था। टीवी पत्रकारिता को मैं भविष्य की पत्रकारिता के तौर पर देख रहा था और इसलिए इससे जुड़ना चाहता था। इसीलिए मैने बहुत कम वेतन पर काम करना स्वीकार कर लिया था और दिन-रात इसमें डूब गया था। मैं इस माध्यम की बारीकियाँ जानना चाहता था, इसे सीख लेना चाहता था। मुझे भरोसा था कि मैं ये कर लूँगा, इसीलिए इस अनजान दुनिया में छलाँग लगा दी थी। शुरू में दिक्कतें भी आईं। मसलन, उच्चारण दोष। हमारे यहाँ न तो नुक्तों का प्रयोग होता है और न ही स और श का कोई भेद। धीरे-धीरे उच्चारण को दुरूस्त किया। एक बार चीज़ें समझ में आ गईं तो फिर गाड़ी दौड़ पड़ी। संपादकीय प्रमुख के तौर पर करीब सौ एपिसोड परख के तैयार किए, देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर रिपोर्टिंग की और बहुत कुछ सीखा। ये 1993 की बात है।

मेरे लिए सबसे काम का रहा प्रिंट का अनुभव। मेरे पास एक अच्छी भाषा थी और ख़बरों को देखने-समझने की समझ। प्रिंट में काम करने के दौरान अध्ययन भी बहुत किया था। साहित्य के अलावा दूसरी चीज़ों का भी, जबकि टेलीविज़न में इसकी रवायत नहीं है। इसीलिए टेलीविज़न में ज़्यादातर काम करने वालों के पास न तो दृष्टि होती है न ज्ञान। जैसी टेलीविज़न पत्रकारिता इन दिनों चल रही है उसमें इस सबकी ज़रूरत भी नहीं पड़ती इसलिए लोग ध्यान भी नहीं देते। मगर जो लोग सही मायनों में पत्रकार बनना चाहते हैं, उनको मैं हमेशा सलाह देता हूं कि हो सके तो कुछ समय प्रिंट में ज़रूर गुजारो। जब पढ़ाने जाता हूँ तो छात्रों से भी यही कहता हूँ। बल्कि मैंने तो गुरू दक्षिणा में ये वचन माँगना भी शुरू कर दिया था कि अपने वेतन का केवल पाँच फीसदी वे पत्र-पत्रिकाओं और अच्छी किताबों पर खर्च करेंगे। जिस तरह हम शरीर पर खर्च करते हैं उसी तरह हमें दिमाग़ के लिए भी खर्च करना चाहिए।

1995 में परख बंद हो गई तो फिर नौकरी की जद्दोजहद शुरू हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया के तीन महारथियों ने इसी समय ‘आपका’ की शुरूआत की थी। बात हुई और प्रोड्यूसर के रूप में ‘द फर्स्ट एडिशन’ के लिए काम करने लगा। खूब दबाकर रिपोर्टिंग की। संसद, चुनाव बजट, राजनीतिक हलचलों आदि को कवर किया और रिपोर्टिंग का जमकर अनुभव लिया। इस बीच हिंदी का कार्यक्रम फिलहाल शुरू करने का ज़िम्मा मुझे मिला। मैं इसका एंकर भी था और प्रोड्यूसर भी। ब्रजेश राजपूत (स्टार न्यूज़) और प्रमोद चौहान (आज तक) साथ में थे। करीब 175 एपिसोड इसके किए। इसी तरह आधे घंटे का टॉक शो ‘कही अनकही’ भी किया।

इसी दौरान आपका और मूविंग पिक्चर कंपनी को दो घंटे का रोज़ाना का ब्रेकफास्ट शो करने को मिला। ‘सुबह सवेरे’ के नाम से इसका पॉयलट भी मेरी ही देखरेख में तैयार हुआ था। हालाँकि बाद में इसमें बहुत सारी चीज़ें जोड़ी गईं। बहरहाल, हुआ ये कि इस संयुक्त उपक्रम में आपका की ओर से मैं इस कार्यक्रम में बतौर ब्यूरो चीफ शामिल हो गया। मेरी भूमिका एंकर की भी थी। हर दिन सम-सामयिक विषयों, खास तौर पर राजनीति से जुड़े मुद्दों पर करारे इंटरव्यू करने लगा। हर हफ्ते डा नामवर सिंह के साथ किसी किताब पर साहित्यिक चर्चा भी करता था, जो कि बहुत लोकप्रिय भी हुई। सुबह सवेरे को शानदार सफलता मिली थी। इतना सफल आज तक कोई भी ब्रेकफास्ट शो नहीं हुआ, इसकी क्या वजह रही।

‘सुबह सवेरे’ दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर आता था और इसकी ज़बर्दस्त दर्शक संख्या थी। इसकी लोकप्रियता का आलम ये था कि हर दिन बोरों मे भरकर पत्र आते थे। मुझे इस कार्यक्रम ने पहचान भी दी और लोकप्रियता भी। मैने बहुत कुछ सीखा भी। इसकी सफलता की सबसे बड़ी वजह इसका प्रोग्रामिंग मिक्स था। इसमें सब कुछ था। ये पूरे परिवार के देखे जाने योग्य दैनिक कार्यक्रम था। इसमें स्वस्थ मनोरंजन था, और सम-सामयिक विषयों पर जानकारियों के साथ-साथ विचार-विश्लेषण भी था। जीवन का कोई भी पक्ष हम लोग छोड़ते नहीं थे और उन्हें रोचक अंदाज़ में ही दिखाते थे। ये दूरदर्शन के प्रचलित तरीके से भिन्न था। हमारी टीम बहुत ज़बर्दस्त थी। रमेश शर्मा का मार्गदर्शन तो था ही, नीलेंदु सेन (आज तक), राजन कपूर(अब फिल्मी दुनिया में), बिथिन दास (अंतरराष्ट्रीय स्तर के कैमरामैन), संजीव पालीवाल (आईबीएन-7), मनोज मलयानिल (स्टार न्यूज़), मोना भट्टाचार्य (एंकर) और अन्ना (वीडियो एडिटर) जैसे लोग थे, जिन्होंने इस प्रोग्राम को सजाया-सँवारा और यादगार बना दिया।

लेकिन अफसोस की बात है कि चार साल बाद ये भी बंद हो गया। वैसे हर कार्यक्रम की एक उम्र होती है और शायद यही इसकी उम्र थी। मैं भी अब न्यूज़ चैनल का रुख करना चाहता था। सहारा में बात बन गई और मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ चैनल के प्रमुख के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। लेकिन इसके पहले उत्तर प्रदेश चैनल लाँच होना था इसलिए उसमें जुट गए। उसमें प्राइम टाइम का एंकर भी रहा। इस चैनल के लाँच के दिन की एक दिलचस्प घटना बता दूँ। शाम सात बजे का मुहुर्त निकाला गया था। ठीक उसी समय लाँच भी हुआ, मगर ये क्या। सुब्रत रॉय का संदेश चलने के बजाय उनके मेकअप के शाट्स चल रहे हैं। दरअसल क्लिप की आईडी में गड़बड़ हो गई थी। लेकिन अब क्या हो सकता था। सुमित रॉय, प्रभात डबराल सब परेशान। बहरहाल, किसी तरह से बुलेटिन ख़त्म हुआ। अब बारी थी समय शिखर की। मैं एंकर था। एक घंटे का ये कार्यक्रम न केवर बढ़िया चला बल्कि उम्दा बहस भी हुई। जैसे ही कार्यक्रम ख़त्म हुआ प्रभात जी ने मुझे गले लगा लिया। सहारा प्रणाम के चक्कर में प्रभात जी से मेरे संबंध खराब हो गए। तब से बोलचाल बंद है। इसका अफसोस है। मैं चाहूँगा कि उनसे संबंध सुधरें।

थोड़े ही समय बाद ही मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ चैनल लाँच करने का समय आ गया। बहुत ही कम समय में हमने शानदार चैनल लाँच किया और तीन महीने के अंदर ही वह नंबर वन चैनल हो गया। चुनाव के दौरान हमारे बहुत सारे कार्यक्रमों ने हंगामा मचा दिया। ख़ास तौर पर चुनाव रथ की वजह से गाँव-गाँव में चैनल की धूम मच गई। चैनल ने अपनी आक्रामकता और स्वस्थ कंटेंट की बदौलत लोगों के दिल ओ दिमाग में जगह बना ली। रोहित सरदाना, अखलाक़ उस्मानी, अनंत भट्ट, अजिता, नोएडा में थे तो रुचिर गर्ग, एसपी त्रिपाठी, सेफाली, काशीनाथ, प्रकाश हिंदुस्तानी, मनीष आदि ब्यूरो में थे। डेस्क पर कसी हुई टीम थी और कई अंशकालिक संवाददाताओं ने बहुत अच्छा काम किया। सब कुछ ठीक चल रहा था कि इस बीच सहारा प्रबंधन को एक नई सनक सवार हो गई। एक हिटलरी फरमान जारी हुआ कि हर एंकर को स्क्रीन पर सहारा प्रणाम करना पड़ेगा। मैंने मना कर दिया जिससे कटुता बढ़ गई। मैं नौकरी छोड़ने का फैसला कर ही चुका था मगर अंबिकानंद सहाय जी की वजह से कुछ महीनों के लिए राष्ट्रीय चैनल में काम करने के लिए तैयार हो गया। इस बीच विकल्प की तलाश भी चल रही थी। एस-1 से प्रस्ताव मिला तो मैंने फौरन सहारा से तौबा कर ली। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि बहुत अच्छा किया, क्योंकि वहाँ वैसे भी बहुत दिन नहीं रहा जा सकता था। बाद में तो सहारा देश में प्रेस्टीट्यूशन का सबसे बड़ा अड्डा बन गया था।

एस-1 की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वहाँ भी एक अच्छी शुरूआत हुई। एक अच्छा चैनल लाँच किया। दिल्ली का नंबर वन चैनल बनाया। उसके कंटेंट की तारीफ होने लगी। आलोक तोमर जी सीनियर इंडिया पत्रिका के संपादक बने तो उन्होंने मुझसे स्तंभ लिखवाना शुरू किया। ये स्तंभ बाद में व्यंग्य लेखन में तब्दील हो गया और इसका श्रेय आलोकजी को ही जाता है। मुझे सचमुच में व्यंग्य लिखकर बहुत आनंद आया। कुल मिलाकर सब कुछ ठीक चल रहा था मगर तभी विजय दीक्षित ऐसे लोगों के चंगुल में फँस गए जिन्होंने चैनल को ठिकाने लगा दिया और उनकी तो खैर जो फजीहत होनी थी वो हुई ही। वैसे ये उनकी नियति भी थी। मैंने और अंबिकानंद सहाय जी ने एक दिन एक साथ इस्तीफा दे दिया। यहाँ भी एक लाजवाब टीम साथ थी। ज्वायस सेबेस्टियन प्रमुख स्तंभ तो थे ही, गिरिजेश वशिष्ठ, आशीष मिश्रा, दिनेश काँडपाल, अतुल सिंघल, आदि ने बहुत मेहनत की।

खैर एक बार फिर बेरोज़गार हो गया। मगर हर बार की तरह ये बेरोज़गारी भी ज़्यादा दिन तक नहीं टिकी और सीएनईबी के छोटे से एसाइनमेंट के बाद रामकृपाल सिंह जी से बात हुई और उनकी टीम का हिस्सा बनकर मैं वॉयस ऑफ इंडिया में आ गया। यहाँ मैं रीजनल चैनल्स के प्रमुख के तौर पर आया और दो चैनल एक ही दिन एक ही समय में लाँच किए। दोनों ही चैनलों ने शुरूआत में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया मगर कुप्रबंधन की वजह से उन चैनलों का ही नहीं, पूरे संस्थान का क्या हाल हुआ आप जानते ही हैं। मैंने तो उसी समय नमस्कार कह दिया था जब मालिकान ने तय किया कि ख़बरों का धंधा करवाना है और रिपोर्टर, स्ट्रिंगर और इसके लिए ब्यूरो के लिए वे टारगेट तय करने लगे। बाद में तो हालात बद से बदतर होते चले गए।

वीओआई के बाद देशकाल.कॉम के नाम से एक वेबसाइट शुरू की। वेबसाइट ठीक चल रही थी मगर व्यावसायिक योग्यता न होने की वजह से वह रोज़ी-रोटी का आधार नहीं बन सकी। कई लोगों से बात हो रही थी मगर इसी बीच प्रभात झा जी (प्रकाश झा के भाई) के ज़रिए प्रकाश जी से मुलाकात हुई और दो मीटिंग के बाद मौर्य टीवी की कमान सँभालने का मौका मिला।

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  • बचपन की कुछ बातें, पढाई-लिखाई, जन्म, कोई खास संस्मरण हो तो….बताएं.

मुकेश कुमारजन्म शहडोल में सन् 1964 में हुआ। तारीख को लेकर थोड़ी सी पेचीदगी रही। दो साल पहले तक ये 30 सितंबर था। लेकिन मेरी पत्नी पापोरी गोस्वामी ने खोज-पड़ताल करके बताया कि मेरा जन्म चूंकि 30 सितंबर की रात को 12 बजे के बाद हुआ था इसलिए जन्मतिथि 1 अक्टूबर होनी चाहिए। इस तरह अब ये 1 अक्टूबर है।

मेरे पापा शिक्षक थे और शिक्षक का बेटा होने की वजह से घर बाहर में आपको लोग आदर्श रूप में देखना चाहते हैं। इस तरह एक आदर्शवादिता दिमाग में घुस गई जो आज तक काबिज़ है। इसकी वजह से पढ़ाई से लेकर दूसरी गतिविधियों में भी अव्वल रहने की प्रव़त्ति हावी हो गई। लिहाजा, वाद-विवाद से लेकर नाटक और खेलकूद तक सबमें हिस्सा लेता था और पुरस्कार वगैरा भी जीतता था। लेकिन छठवीं क्लास में क्रिकेट का चस्का लग गया और गावस्कर बनने का सपना देखने लगा। बस क्या है पढ़ाई की तरफ से ध्यान हटने लगा और नतीजतन आठवीं में गणित में फेल भी हो गया। इसके बाद थोड़ा सँभला और प्रथम श्रेणी में एम एससी करने में कामयाब हो गया। इसके बाद सागर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में टॉप भी किया। क्रिकेट से प्रेम आज भी है, हालाँकि विवेक अब इस खेल से नफरत करने को कहता है, क्योंकि ये पूरी तरह से बाज़ारू हो गया है। वैसे भी समय बरबाद करने वाला खेल तो ये है ही।

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि हायर सेकेंड्री तक सक्रिय चाहे जितना रहा होऊँ, मगर मानसिक विकास के मामले में फिसड्डी ही था। हालाँकि मेरे पापा पढ़ाकू हैं और घर में तमाम पत्र-पत्रिकाएं और साहित्यिक कृतियाँ आती थी। मैं उन्हें देखता-पढ़ता भी था, मगर उन्होंने मेरी चेतना को झकझोरा नहीं था। मेरा कायाकल्प हुआ शहडोल कॉलेज में दाखिले और छात्रावास में रहने के बाद। यहाँ आकर एक बड़ी दुनिया से मेरा परिचय हुआ। यहीँ मोहनजी श्रीवास्तव से परिचय हुआ। उनके जैसा बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा। उप्पलजी, धड़कन जी, गुप्ताजी, जार्ज साहब, ये सब साहित्य में सक्रिय थे और इनके प्रोत्साहन से मैं भी पढ़ने, लिखने और सोचने-समझने की तरफ प्रवृत्त हुआ। बुढ़ार में हमने दिशाबोध क्लब बनाया और अभिव्यक्ति नामक पत्रिका भी निकाली। कॉलेज में तो नाटक, नृत्य और क्रिकेट में हिस्सा लेता ही था। कॉलेज की क्रिकेट टीम का सलामी बल्लेबाज़ रहा और टूर्नामेंट भी जीते।

पढ़ाई के दौरान का एक दिलचस्प संस्मरण है। एम.एससी. पूर्वार्द्ध में मुझे प्रेक्टिकल मार्क्स कम मिले। प्रेक्टिकल मार्क्स को आधार बनाकर मैंने एक व्यंग्य लेख लिख डाला जिसमें मैने घुमा-फिराकर बताया कि किस आधार पर अंक दिए जाते हैं। ये एक तरह से विभाग और अध्यापकों पर सीधा कटाक्ष था। छुट्टियों के बाद जब कॉलेज खुला तो विभाग में ज़बर्दस्त तनाव था। किसी ने कुछ कहा नहीं मगर ऊपर से लेकर नीचे तक सबके चेहरे खिंचे हुए थे। फिर तो पूरे साल ये तनाव बना रहा। हालाँकि मुझे कोई दंड नहीं दिया गया और प्रेक्टिकल मार्क्स तकरीबन पिछले साल जितने ही मिले।
5- हिंदी न्यूज चैनलों के संपादक टीआरपी से कंटेंट प्रभावित होने की बात कह रहे हैं. आप कैसे सोचते हैं इस बारे में. क्या बाजार व टीआरपी ने न्यूज चैनलों को न्यूज से काट रखा है.

इसमें तो कोई दो मत नहीं है कि टीआरपी ने चैनलों के बीच एक होड़ पैदा की है और उसकी वजह कंटेंट घटिया हुआ है, मीडिया की साख गिरी है, पत्रकार और पत्रकारिता बदनाम हुए हैं और कुल मिलाकर समाज और लोकतंत्र कमज़ोर हुए हैं। सच तो ये है कि न्यूज़ चैनल न्यूज़ चैनल रह ही नहीं गए हैं। वे मनोरंजन चैनल का ही रूप हैं जो प्रेस के मुखौटे में बहुत तरह के स्वार्थों को साधने का ज़रिया बन गए हैं। ये एक भयानक बात है जिसके परिणामों को जब गहराई से जाँचते हैं तो घबराहट होने लगती है। हालाँकि पूंजीवादी व्यवस्था में मीडिया की नकेल मालिकों के हाथ में होती है और वे समाज के बजाय अपने हितों की चिंता ही ज़्यादा करते हैं। इसलिए पहले भी मीडिया कोई दूध का धुला नहीं था। मीडिया का चरित्र पहले भी संदिग्ध था मगर आर्थिक उदारवाद और उसकी कोख से जन्मे बाज़ारवाद ने उसे पूरी तरह से बिकाऊ बना दिया है। टीआरपी भी बाज़ार संचालित गतिविधि है और उसका उद्देश्य उद्योग-धंधों के पक्ष में मीडिया को ढालना है और ये काम उसने बहुत कारगर ढंग से कर भी दिया है।

लेकिन ये ध्यान रखने की बात है कि टीआरपी ख़त्म होने से बाज़ारवादी होड़ ख़त्म नहीं होगी  और न ही मालिकों की मुनाफा कमाने की हवस थम जाएगी। बाज़ार कोई दूसरे हथियार-औजार खोज लेगा और मीडिया वही करेगा जो आज कर रहा है। इसलिए केवल टीआरपी को गलियाना या तो बहुत भोलापन होगा या फिर हद दर्ज़े की धूर्तता। आप जड़ पर हमला नहीं करना चाहते या ऐसा करने से घबराते हैं या आप उसे बचाने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ लाते हैं। आत्मनियमन का उपाय भी आख़िरकार बहाना ही साबित हुआ है। पिछले दो सालो में मीडिया ने खुद को कितना आत्म नियंत्रित किया है बताइए तो। इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर बिल्कुल नहीं। और ये भी सरकारी दबाव की वजह से संभव हुआ है न कि अंतरात्मा की आवाज़ पर। पेड न्यूज़ के सवाल पर मीडिया इंडस्ट्री के कर्णधारों ने कैसी चुप्पी साध रखी है ज़रा देखिए तो। प्रभाषजी गुहार लगाते-लगाते चले गए, मगर कहीं किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी।

मैं सरकारी नियंत्रण के सख्त ख़िलाफ़ हूँ, वो भी बाज़ार के नियंत्रण जितना ही बुरा होगा या शायद उससे भी बुरा। हालाँकि सरकार भी बाज़ार ही चला रहा है और मनमोहन, चिदंबरम, पवार और शरद वगैरा बाज़ार के प्रतिनिधि हैं। पिछली सरकार में वाजपेय़ी, यशवंत सिन्हा, महाजन और जेटली आदि थे। बल्कि ये कहना ज़्यादा ठीक होगा कि पूरा शासक वर्ग ही व्यापार-उद्योग जगत की नुमांइदगी कर रहा है। ऐसे में उनसे आशा नहीं की जा सकती कि वह बाज़ार के विरूद्ध जाएगा। उसे जब अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा दिखने लगता है तभी इस तरह के कानून बनाने की बात करता है। मीडिया परिषद भी बहुत कारगर नहीं हो सकेगी।

मेरे खयाल से सामाजिक नियंत्रण ही मीडिया को उसकी मर्यादाओं में किसी हद तक बाँध सकता है। समाज की समझ रखने वाले और सामाजिक प्रतिबद्धता वाले लोगों की कोई संस्था बने और उसे सरकार तथा मीडियापतियों से स्वतंत्र रहकर काम करने के पूरे अधिकार मिलें तो शायद कुछ बेहतरी आ सकती है। वैसे इस महाव्याधि का पक्का इलाज इस व्यवस्था में संभव नहीं है, क्योंकि ये उसके डीएनए में है। केवल सुधार हो सकता है।

  • आपके जीवन में आपके रोल माडल कौन रहे. किनसे आप बेहद प्रभावित हुए.

मुकेश कुमारबचपन में सुनील गावस्कर थे, मगर उसके बाद से कोई नहीं हुआ। हां, बहुत सारे लोगों की अलग-अलग चीज़ें प्रभावित करती रही हैं।

राजेंद्र माथुरजी की लेखन शैली अच्छी लगती थी, मगर विचार नहीं।

प्रभाष जोशी जी ने सांप्रदायिकता और आर्थिक उदारवाद के ख़िलाफ़ जो कुछ भी लिखा वह अच्छा लगा, मगर उनका पुरातनपंथ और ब्राम्हणवाद कभी नहीं जमा।

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विनोद दुआ के तीखेपन से बहुत कुछ सीखा।

नामवरजी के ज्ञान से अचंभित हुआ तो राजेंद्र यादव जी के साहस और धारदार संपादकीय प्रभावित करते रहे।

हरिशंकर परसाई के लेखन से अलबत्ता सबसे अधिक प्रभावित हुआ।

कुमार गंधर्व और शुभा मुद्गल का गायन अंदर में हलचल मचाता रहा है। शुभाजी का व्यक्तित्व भी लुभाता रहा है।

इधर अरुंधति रॉय का लेखन मुझे भा रहा है।

मेधा पाटकर का संघर्षशील व्यक्तित्व भी कुछ मायनों में मेरे लिए आदर्श रहा है।

लेकिन अगर मैं ये कहूँ कि किताबें मेरे लिए आदर्श रही हैं और सबसे ज़्यादा उन्होंने ही मुझे प्रभावित किया, गढ़ा तो ज़्यादा सही होगा। इस सुभाषित में वाकई सचाई है कि किताबों से बढ़कर कोई शिक्षक नहीं है।

  • समकालीन टीवी व प्रिंट पत्रकारिता में कौन लोग अच्छा काम कर रहे हैं.

बहुत से लोग हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इस बारे में मेरी जानकारी बहुत सीमित है, इसलिए नाम लेना ठीक नहीं होगा। उनके साथ अन्याय होगा जिनके नाम नहीं लिए जाएंगे। मगर इस बुरे दौर में जो भी अपनी रीढ़ सीधी करके खड़ा है और पत्रकारिता को सामाजिक हित का औज़ार बनाकर काम कर रहा है वह बड़ा पत्रकार है। ऐसे लोग बहुत हैं। केवल टीवी पर चमकते चेहरों को न देखें और न ही महत्वपूर्ण पदों पर शोभायमान लोगों की वाहवाही की जानी चाहिए। इंटरनेट पर, छोटे-छोटे अख़बारों और पत्रिकाओं में लोग अपनी तरह से बेहतर करने में लगे हुए हैं, उनके काम को रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है।

  • मीडिया की कोई ऐसी बुराई जिसको लेकर आप खासे चिंतित हों.

फेहरिस्त बहुत लंबी है, मगर यदि किसी ख़ास बुराई की बात करना हो तो वह है- समाज से कटना, सरोकारों से हटना। मीडिया के सरोकार ख़त्म हो गए हैं या जो हैं भी तो वे एक वर्ग विशेष तक सीमित हैं। गाँव और ग़रीब इसकी परिधि से बाहर चले गए हैं। जिस वर्ग के सरोकारों की वह चिंता करता है उसके सरोकार भी सिमट गए हैं इसलिए मीडिया उसके मन बहलाव का ज़रिया बन गया है।

  • आप सरोकार की बात लगातार कर रहे हैं. ये कौन से सरोकार हैं जिनको लेकर आप चिंतित-विचलित दिखाई देते हैं?

मुकेश कुमारआपने ये सवाल बहुत अच्छा उठाया है। किसी पत्रकार के सरोकार क्या केवल पत्रकारिता से जुड़े हुए होने चाहिए….क्या वह एक सामाजिक प्राणी नहीं है और उसे देश तथा समाज के बारे में सोचना और सक्रिय नहीं होना चाहिए। मेरे सरोकार इन्हीं चिंता की उपज हैं। एक तो सामाजिक संदर्भ में सांप्रदायिकता और जातिवाद का घिनौना रूप देखने में आता है वह है, मगर आर्थिक सुधारवाद के नाम पर हमने जो स्वार्थी और लालची मध्यवर्ग बनाया है वह भी कम डरावना नहीं है। हम देख रहे हैं कि ग़रीबी में इज़ाफा हुआ है, आर्थिक विषमता बढ़ी है, बेरोज़गारी और हताशा बढ़ी है और मध्यवर्ग है कि तरक्की के नशे में चूर है।

हमने विकास का अमेरिकी मॉडल अपना लिया है और हमें समझ में नहीं आ रहा कि ये विकास का नहीं विनाश का मॉडल है, जिसमें हम अपनी आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और सामाजिक ताना-बाना सब कुछ दाँव पर लगा रहे हैं। अरुंधती रॉय की इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं कि भारत राष्ट्र-राज्य कार्पोरेट की तरफ से भारतीयों के ख़िलाफ जंग लड़ रही है। नक्सलवादियों के नाम पर वह आदिवासियों का सफाया करने पर आमादा है ताकि खनिज संपदा का उद्योगपति दोहन कर सकें। मनमोहन-चिदंबरम ही नहीं पूरा शासक वर्ग इस अभियान में शामिल है और आप अगर इसे गहराई से देखेंगे तो आप भी भयभीत हो जाएंगे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो ये है कि इसके ख़िलाफ़ कहीं से कोई प्रतिरोध भी आकार नहीं ले रहा, जो आसन्न नरसंहार को रोक सके।

  • वीओआई का अनुभव काफी खराब रहा है सभी का. आप वीओआई को लेकर क्या सोचते हैं. क्यों फेल हुआ यह प्रोजेक्ट.

अगर किसी मालिक की नीयत में ही खोट हो तो उस प्रोजेक्ट का बेड़ा गर्क होना ही है। मित्तल बंधुओं को न तो पत्रकारिता से कुछ लेना-देना था और न ही पत्रकारों से। उन्हें तो बस पैसा दिख रहा था और वह भी ग़लत तरीकों से हासिल किया जाने वाला पैसा। इसीलिए चैनल लाँच होते ही टारगेट और पेड ख़बरों का प्रोजेक्ट भी उन्होंने लाँच कर दिया। एक खुशफहमी उनमें ये भी थी कि वे सब कुछ जानते हैं और बाकी सब मूर्ख हैं। पता नहीं अब तक उन्हें अपनी मूर्खता का एहसास हुआ है कि नहीं। हुआ भी हो तो भूल सुधारने की समझदारी उन्होंने नहीं दिखाई है। पत्रकारों के बकाया पैसा उन्होंने अभी तक नहीं दिया है। यहाँ तक कि टीडीएस और पीएफ तक का पैसा उन्होंने नहीं दिया है और पता नहीं क्या सेटिंग है कि ये दोनों विभाग उनका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे।

ये सही है कि कोई भी चैनल धन कमाने के मक़सद से शुरू किया जाता है। मगर मीडिया का धंधा थोड़ा अलग है। इसमें साख कमानी होती है पहले और इसमें वक्त लगता है। इसीलिए बड़े-बड़े चैनल भी अभी तक ब्रेक इवेन तक नहीं पहुँच पाए हैं। जिनके पास धैर्य, धन और थोड़ी सी सामाजिक निष्ठा हो उन्हें ही इस उद्योग में आना चाहिए।

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  • इंटरनेट पर हिंदी भाषा का जोर दौर चल रहा है, हिंदी में ब्लाग व वेब जर्नलिज्म का जो दौर शुरू हुआ है, इसके खतरे और संभावनाएं क्या हैं.

मुकेश कुमारहर माध्यम की कुछ शक्तियाँ होती हैं तो कुछ कमज़ोरियाँ भी। अगर माध्यम नया होता है तो उसके उपयोग की चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं क्योंकि उसकी कमज़ोरियों और शक्तियों से हम पूरी तरह वाकिफ़ नहीं होते। इंटरनेट पर हिंदी में जो कुछ घटित हो रहा है उस पर भी ये लागू होता है। बहुत सारे लोग इसका बहुत अच्छे ढंग से सार्थक उपयोग कर रहे हैं।

कुछेक लोग हो सकते हैं जो सीमाओं को लाँघते हों। ख़ास तौर पर जो लोग सीधे-सीधे चरित्र हनन पर उतर आते हैं। मगर कुल मिलाकर अच्छा काम हो रहा है। सस्ता और आसान माध्यम होने की वजह से इसका इस्तेमाल ज़्यादा लोग कर पा रहे हैं। बहुत सारी ऐसी ख़बरें जो प्रचलित मीडिया में विभिन्न वजहों से जगह नहीं पा पातीं, वे यहाँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। वे लोग भी बेपर्दा हो रहे हैं जो सेटिंग करके ख़बरों को मैनेज कर लेते थे। साहित्यिक सामग्री के लिए भी इसमें कोना निकाला जा सकता है और सरोकारों के लिए भी।

इस नए मीडिया में ज़बर्दस्त ताक़त है। ये ओबामा की जीत का रास्ता खोलता है, ईरान में विरोध प्रदर्शनों को दुनिया के सामने लाता है। ये इसकी ताक़त ही है जिसका इस्तेमाल तमाम शक्तिशाली लोग करने को उत्सुक दिख रहे हैं। नेता-अभिनेता सब इसमें कूद रहे हैं। लेकिन जैसा कि मैने ऊपर कहा इसकी ताक़त एक ख़तरा भी है। प्रतिक्रियावादी ताक़तें अपना मंसूबा पूरा करने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगी। नव साम्राज्यवादी ताकतें इसके सहारे अपनी राजनीति चलाएंगी। कोई भी माध्यम स्वतंत्र नहीं होता और न ही उसकी अपनी कोई सत्ता होती है। वह जिसके हाथ में होता है उसी का हो जाता है। इसलिए देखना ये है कि आने वाले वक्त में इसका नियंत्रण कौन करता है। अगर इस पर भी आगे चलकर बाज़ार काबिज़ हो गया या बाज़ार इसे चलाने लगा तब इसका भी वही हश्र होना है जो टीवी, रेडियो और अख़बारों का हुआ है। अभी ही रेटिंग की होड़ तो चल ही रही है। किसको कितने हिट्स मिल रहे हैं उसके आधार पर उनकी लोकप्रियता जाँची जाती है और ज़ाहिर है कि ये सनसनी या घटिया चीज़ों को बढावा देती है।

  • पेड न्यूज का मुद्दा काफी उछला हुआ है. इस बारे में आप क्या सोचते हैं और इसे कैसे रोका जा सकता है.

पेड न्यूज़ मीडिया में तेज़ी से फैली ऐसी महामारी है जिसने उसकी साख, उसकी विश्वसनीयता पर ज़बर्दस्त तरीके से कुठाराघात किया है। इसने पूरे मीडिया को संदिग्ध बना दिया है और पत्रकार जगत को कठघरे में खड़ा कर दिया है। ये न केवल पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों के ख़िलाफ़ है बल्कि लोकतंत्र विरोधी भी है। ये बाज़ारजनित मुनाफ़ाखोरी का नतीजा है और इसके लिए मीडियापति भी उतने ही दोषी हैं क्योंकि वे अपनी धन-लिप्सा पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। अगर इस प्रवृत्ति को रोका नहीं गया तो ये पत्रकारिता को निगल जाएगी और दर्शकों को मिलेगा केवल झूठ या तैयार किया गया सच, जो कि बड़े पैमाने पर आज भी हो रहा है।

जहाँ तक इसे रोकने की बात है तो इसके लिए वैसे ही कानून बनाया जाना चाहिए जैसे कि दूसरी चीज़ों में मिलावट के लिए हैं, बल्कि उससे भी ज़्यादा सख्त कानून होना चाहिए क्योंकि ये कुछ लोगों को नहीं पूरे के पूरे समाज को बीमार कर रहा है। बाकी सामाजिक नियंत्रण की बात मैं कर ही चुका हूँ। हालाँकि ये थोडा़ अतिवादी उपाय लग सकता है मगर पेड ख़बरों का कारोबार करने वाले अखबारों के रजिस्ट्रेशन और चैनलों के लायसेंस रद्द कर दिए जाने चाहिए। इस तरह के कदम नहीं उठाए जाएंगे तो इसे रोकना भी असंभव हो जाएगा।

  • आपके करियर व जीवन की महत्वाकांक्षा क्या है.

मुकेश कुमारकोई महत्वाकांक्षा नहीं है। बस इतना चाहता हूँ कि अच्छा काम करने का अवसर मिलता रहे और अगर कहीं बड़ी ज़िम्मेदारी मिले भी तो वहाँ भी अच्छा काम करने-करवाने की गुंज़ाइश हो। अच्छा काम से मेरा मतलब सामाजिक सरोकार वाली पत्रकारिता से है इसमें स्वस्थ मनोरंजन से लेकर जानकारी एवं ज्ञान सब कुछ शामिल है न कि रूखी-सूखी आदर्शवादिता। मैं मानता हूँ कि ये संभव भी है और इसमें व्यावसायिक सफलता की भी पूरी संभावना है।

  • आप साहित्य के क्षेत्र में भी सक्रिय रहते हैं. क्या-क्या किया है आपने और इस समय क्या कर रहे हैं.

साहित्य के क्षेत्र में मेरी सक्रियता एक रचनाकार के तौर पर कम और साहित्य अनुरागी के रूप में ज़्यादा है। अच्छा साहित्य पढ़ना, उसकी चर्चा करना और उसके बारे में जानना-समझना मुझे अच्छा लगता है। साहित्य का मेरे अपने और मेरी पत्रकारिता के विकास में बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैं तो ये भी मानता हूँ कि पत्रकारिता की दुर्गति की एक बड़ी वजह साहित्य से उसका दूर होते जाना भी है।

साहित्य में कुछ ख़ास तो किया नहीं है। कुछ कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं बस। हाँ, एक कविता संकलन की तैयारी ज़रूर कर रहा हूँ। एक उपन्यास पर भी काम कर रहा हूँ।

बीच में एक साहित्यिक वीडियो पत्रिका के लिए बहुत हाथ-पैर मारे थे। इसका एक पॉयलट बनाकर साहित्यि अकादमी में प्रदर्शन भी किया था। लोगों ने इस प्रयोग को बेहद पसंद किया था मगर फंड की कमी के कारण कर नहीं पाए। अशोक वाजपेयी जी और विभूति नारायण ऱाय ने भी सहयोग देने की बात कही थी, मगर किंतु-परंतु से आगे बात बढ़ नहीं पाई। अनुकूल अवसर मिलने पर ये काम ज़रूर करना चाहूँगा।

  • हंस में कितने अरसे से कॉलम लिख रहे हैं?

जी, लगभग साढ़े चार साल हो गए ‘कसौटी’ लिखते हुए। अब इन लेखों का संकलन भी राजकमल प्रकाशन से आने वाला है। इस लेखन को मैं एक उपलब्धि के तौर पर देखता हूँ। राजेंद्र यादव जी ने लगभग ज़बर्दस्ती इसे शुरू करवाया था मगर जब शुरू किया तो आनंद आने लगा। इसके बहाने मुझे टेलीविज़न के अंदर झाँककर देखने और दिखाने का मौका मिला। मुझे लगता है कि लेखों का ये संकलन पत्रकारिता के छात्रों और अध्ययनकर्ताओं के लिए बेहद उपयोगी होगा। इससे पत्रकारिता के बनते-बिगड़ते चरित्र को समझने में मदद मिलेगी।

  • कुछ किताबें भी आपकी प्रकाशित हुई हैं?

जी, दो तो अनुवाद की हैं। फ्रांसीसी लेखक गी सोमां की किताब ‘जीनियस ऑफ इंडिया’ का हिंदी में अनुवाद ‘भारत की आत्मा’ के नाम से किया है और एक किताब ‘लहूलुहान अफगानिस्तान’ के नाम से प्रकाशित हुई है। वरिष्ठ पत्रकार, कवि और आलोचक डा. श्याम कश्यप के साथ मिलकर टीवी पत्रकारिता पर एक श्रंखला लिख रहा हूँ। इसकी दो कड़ियाँ राजकमल से ही प्रकाशित हो चुकी हैं और तीसरी प्रेस में है।

  • आप अपनी पांच अच्छाइयां और पांच बुराइयां बता पाएंगे?

अच्छाईयाँ तो एक भी नहीं हैं और अगर हैं भी तो वे दूसरे ही बता पाएंगे। बुराईयाँ बहुत हैं और उनमें सबसे बड़ी ये है कि मुझमे साहस की कमी है। अगर साहस होता तो सामाजिक स्तर पर भी सक्रिय होता। ये बहुत विकट समय है। केवल कलम चलाने से और टीवी के परदे पर गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। अगर आप सचमुच में समाज के लिए चिंतित हैं और हाशिए के लोग आपकी चिंता के केंद्र में हैं तो आपको उनके बीच जाना चाहिए। मैं अभी तक ऐसा नहीं कर पाया हूँ, इसलिए अपने को कायर मानकर धिक्कारता भी रहता हूँ। देखिए शायद कभी साहस जुटा ही लूँ। इस कायरता के पीछे थोड़ा हाथ दुविधा का भी है। गालिब चचा कह गए हैं ”न-ईमाँ मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे”।

  • क्या जिंदगी या करियर में किसी ने आपके साथ विश्वासघात किया ? सबसे ज्यादा निराश और दुखी कब हुए आप. साथ ही यह भी बता दें कि जिंदगी व करियर में सर्वाधिक खुशी के क्षण कौन रहे.

नहीं किसी ने कभी मेरे साथ कोई विश्वासघात नहीं किया। लोगों को समझने में मुझसे ही भूल हो गई हो तो इसमें दोष मेरा है किसी और का नहीं।  निराशा, दुख और खुशी के बहुत से अवसर आए, मगर कोई इतना हावी नहीं हुआ कि याद रहे। असल में छोटे-छोटे स्टेशन की तरह होते हैं ये अवसर और आपकी ट्रेन भागती रहती है पूरी स्पीड से। मेरी यादाश्त भी कमज़ोर है। मैं जल्दी भूल जाता हूँ चीज़ों को। या फिर भविष्य पर नज़र टिकाए रखता हूँ इसलिए अतीत याद नही रहता।

  • आपकी वाइल्ड फैंटेसी क्या है जिसे आप करना चाहते हैं पर वो हो नहीं पाता, उसके बारे में सोचते रहते हैं.

मैं अकसर एक सपना देखता हूँ। इसका ज़िक्र मैंने पहले कभी किसी से भी नहीं किया। सपने में मैं देखता हूँ कि एक विशाल भीड़ नारे लगाती हुई आगे बढ़ी चली जा रही है और मैं भी उस भीड़ का हिस्सा हूँ। पूरे सपने में जुलूस ही होता है। वह कहीं पहुँचता नहीं है, मगर आगे बढ़ता जाता है।

  • कोई तमन्ना…..?

ग़ालिब को एक बार फिर कोट करूँगा…. ”हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फिर भी कम निकले”… तो तमन्नाएं बहुत हैं… एक तो यही है कि हिंदी का एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का अंतरराष्ट्रीय चैनल शुरू करना और चलाना चाहता हूँ। ये आयडिया मैने बहुतों को दिया…..यहाँ तक कि प्रणय रॉय को भी। मगर अभी तक तो कोई तैयार नहीं हुआ है…आगे देखते हैं क्या हो पाता है।


इस इंटरव्यू पर आप अपनी प्रतिक्रिया मुकेश कुमार तक [email protected] के जरिए भेज सकते हैं या फिर उन्हें 09811818858 के जरिए फोन कर सकते हैं.

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0 Comments

  1. santosh shukla

    May 31, 2010 at 9:13 am

    mukesh ji aapka interview pdakar aapke bare main bahut si baaten janane ko mili,vibhinna chanels ko chodane ke karan bhi pata chale,aapne samay ko yaad kiya apne shahar ke purane logo ko yaad kiya achcha laga,apka safar chote shahar ke naye patrakaro ke liye prerana ka kam karega…..ummid bdhata hai ki mehnat aur lagan se oonx\chai par phuncha ja sakta hai….future main nai oonchaiyon main dekhane ki kamana ke sath………..

  2. RAVINDER SINGH

    May 29, 2010 at 7:14 pm

    मुकेश सर के साथ बहुत कम वक्त(करीब तीन महीने) के लिए S-1 में काम करने का मौका मिला…लेकिन इस थोड़े समय में ही खबरों को समझना, बतौर एंकर प्रभावशाली और निष्पक्षता के साथ खबर को पेश करना, जैसी बारीकियां मुकेश सर से ही सीखने को मिली…मुकेश सर ऐसे बॉस थे जो गलती करने पर बिना डांट-डपट पड़े ही प्यार से समझाते थे…साथ ही अच्छा काम करने पर वो खुद आकर उत्साह भी बढ़ाते थे……आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला सर…शुक्रिया…

  3. vishal

    May 27, 2010 at 3:46 pm

    himashu ji aapko ko itni mirchi kyon lagi—-sahara men aapne karnamo se sab vakif hain ———-janab apne giwan men bhi ghakiye

  4. Alok Tomar

    May 6, 2010 at 9:32 am

    मुकेश, पहली बात तो यही की मूंछों और केजुअल शर्ट में बहुत सुन्दर लग रहे हो. स्तम्भ लिखवानें का श्री मुझे मत दो, क्योंकि मैं सिर्फ उन्हीं से लिखवाता था, जो लिख सकते हैं. वरना पूरी पत्रिका खुद लिख डालता था. विजय दीक्षित की नीयत शुरू में ठीक थी मगर पत्रकारिता में भी वे बिल्डर ही रहे.उनका प्रसंग विस्तार से बताना चाहिए था. खैर, तुम बिना अवरोध के बढ़ाते चलो, शुभकामनाएं….मैं अगर संभव हुआ तो रास्ते में फिर मिलूंगा —–आलोक तोमर

  5. अमित गर्ग. राजस्थान पत्रिका. बेंगलूरू.

    May 6, 2010 at 10:33 am

    आदरणीय मुकेशजी.
    आपको सबसे पहले तो बधाई. और दूसरा आपका धन्यवाद.
    बधाई इसलिए कि आपकी बातें-विचार जन मानस के सामने आयें. और धन्यवाद इसलिए कि आपने अपने जीवन के अनुभवों को सभी से बांटा.
    आपके साक्षातकार में आपने निडर. निष्पक्ष और विस्तार से अपने मन की बातों को आयाम दिए. अच्छा लगा.
    बहुत कम ही ऐसे मौके आते हैं जब पत्रकारिता से जुड़े बड़े लोग खुलकर कोई बात कहते हैं.

    एक बार पुनः शुभकामनायें.

  6. shripal

    May 6, 2010 at 10:45 am

    ”नहीं किसी ने कभी मेरे साथ कोई विश्वासघात नहीं किया। लोगों को समझने में मुझसे ही भूल हो गई हो तो इसमें दोष मेरा है किसी और का नहीं। निराशा, दुख और खुशी के बहुत से अवसर आए, मगर कोई इतना हावी नहीं हुआ कि याद रहे। असल में छोटे-छोटे स्टेशन की तरह होते हैं ये अवसर और आपकी ट्रेन भागती रहती है पूरी स्पीड से। मेरी यादाश्त भी कमज़ोर है। मैं जल्दी भूल जाता हूँ चीज़ों को। या फिर भविष्य पर नज़र टिकाए रखता हूँ इसलिए अतीत याद नही रहता।”
    मुकेशजी आपकी ये पंक्तियां साल भर पहले भडास पर ही रामक्रपालजी के एक इंटरव्‍यू की याद दिलाती है…जिसमें उन्‍होंने कहा था कि याददाश्‍त बहुत तकलीफदेह होती है…इसलिये बीती बातों को याद कर ल‍िखने के वे पक्ष में नहीं थे…आप ने दूसरे शब्‍दों में इसी बात को कह दिया है…वो भी बहुत खूबसूरती से..ठीक उसी तरह जिस तरह फिल्‍म बागबां का अंतिम संदेश….किसी से उम्‍मीदें नहीं पालनी चाहिये…उम्‍मीद टूटती है…तो दर्द होता है…अच्‍छा लगा कि आप अपनी पीठ पर छुर्री घोंपे जाने को भी विश्‍वासघात नहीं कहते…पहचान करने में अपनी कमी मानते हैं…

  7. niraj jha

    May 6, 2010 at 11:39 am

    MUKESH JEE AAP SENTINEL CHHORKAR KYA GAYE BECHARAPAPER BHI GARTA ME CHAL GAYA .AAJ JAB KOI PAPER DEKHTA HAI TO SAHSA KAH UTTA HAI KYA PAPER TO MUKESH JI KE JAMANE ME.

  8. Pankaj kumar singh, etv news bihar desk09951879247

    May 6, 2010 at 12:27 pm

    Aapke jeevan ke bare men aur sangharshon ke bare jankari ramanchak hone ke sath hi preranadayi hai,aam taur par log jeevan ki sandhyabela me apne rahasyodghatan karte hain, lekin aapne es parmpara ko tod kar mishal kayam kiya hai,ye es baat ki tasdik karta hai ki aapka jeevan dhawal hai.

  9. Ravishankar Ravi

    May 6, 2010 at 12:45 pm

    Arse bad Mukesh Ji ko is tarah Padhne ko mila. vi hamesh naye loga ko protsahit karte the. Guwahati me mujhse North East ke doosre rajyo per niymit repotarj likhwate the. Unka atmiye vyvhar aur low profile adbhut hai. 7th Haven me unka Guwahati ke patrakaro ke sath milna achchha lagta tha. Papori Ji ke sath bhi ve ve niymit jate the aur resturent ka pyara manager Bapu ka samman. Unka sapna sakar ho aur unke sath kam karne ka alag maza hai.

  10. Akhilesh Singh

    May 6, 2010 at 6:04 pm

    Aap ko es mukam pr pahuchaneke liye mubarakbad, aap ne kitane media hause me kam kiya, uske bad bhi aane strugle bhi kiya.———Akhilesh Singh Sudarshan News Channel Noida.

  11. दिलीप मंडल

    May 6, 2010 at 6:27 pm

    बहुत ही अच्छा इंटरव्यू। मुकेश जी के बारे में इतने साल से जानने के बाद भी इतना कुछ जानने को बाकी था। धन्यवाद

  12. अनंत पालीवाल

    May 7, 2010 at 6:39 am

    मुकेश सर, आपने सारी बातें लिखी, पर आपने अपनी दूरदर्शन की पारी का जिक्र करना भूल गये जब आप ‘आपकी बैठक’ को प्रस्‍तुत करते थे ा इस कार्याक्रम को आप ने दो साल तक प्रस्तुत किया था.

  13. shashi singhal

    May 7, 2010 at 8:17 am

    मुकेश जी
    नमस्कार ,
    मैं इससे पहले आपके नाम , काम व फेस से तो परिचित थी लेकिन आज आपके साक्षात्कार के माध्यम से आपके व्यक्तिगत जीवन व आपके कार्यकाल के दौरान आए उतार – चढाव की जानकारी हुई । इससे ज्ञात होता है कि आपका जीवन तमाम कठिनाईयों व संघर्षों से होकर ही सफलता के मुकाम तक पहुंचा है । आप कहते हैं कि आपमें साहस की कमी है लेकिन मुझे नहीं लगता कि आपका यह कथन सत्य है , मैं तो कहूंगी कि ये आपके साहस का ही परिचायक है कि आपने अपने कार्यकाल के दौरान आई तमाम परेशानियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया । बल्कि उनका डटकर मुकाबला किया है । आप जिस भी संस्थान में गए हर जगह अपनी मेहनत का जलवा दिखाया है अब वह संस्थान आपकी अच्छाईयों का लाभ न ले सके तो ये उअसका फाल्ट है । अब देखिए न आपने कहीं भी अपनी मान – मर्यादाओं से समझौता नहीं किया , तभी तो आगा – पीछा बिना सोचे संस्थान को छोडने में ही भलाई समजी । इसे आपक साहस नहीम क्या कहा जाएगा ?
    आप हमेशा अपनी टीम को साथ लेकर चलते हैं और सफलता का श्रेय भी पूरी टीम को देते हैं यह हुनर हर किसी में नहीं होता जो आपमें है । शायद यही वजह है कि आप हर जगह सफलता की ऊंचाईयों को छू लेते हैं । जिन लोगों को आपके साथ व आपकी टीम में रहकर काम करने का अवसर मिलता की है वे लोग बडे खुशनसीब हैं क्योंकि उन्हे बहुत कुछ सीखने का मौका मिलता है । आपकी ” हिंदी का एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का अंतरराष्ट्रीय चैनल शुरू करने व चलाने की” तमन्ना ’जल्द से जल्द पूरी हो ।

  14. Dheeraj Prasad

    May 7, 2010 at 11:17 am

    नमस्कार मेरा नाम धीरज प्रसाद CNEB न्यूज़ नॉएडा से ,
    किसी भी अनजान पथ पर चलने से पहले न जाने मन में कई प्रकार की शंका विकराल रूप धर लेती है, जो हमें कभी – कभी यह आभाष दिलाती है की तुम शायद फेल हो जाओ, अगर तुम ज्यादा ही कुछ करना चाहते हो तो वह शायद पूरा न हो पाए, पर ऐसा नहीं होता है, आरम्भ में कई प्रकार की कठिनाई का सामना करना पड़ता है, पर इसका अर्थ यह नहीं की वह घबरा जाए , कुछ नकारे लोग तो अपनी बकवास विचारो को फालतू का परोस देते है, जो यह जानते है की, वह किसी काम के है नहीं, अगर उनमे किसी प्रकार का हुनर है तो वह कभी क्यों नहीं सामने आता, केवल बकवास के लिए ही उन जैसे महानुभावो के पास शब्द आ जाते हैं|
    समाचारों की दौड़ में आज न जाने कितने ही न्यूज़ चैनल रोजाना खुल रहे है, इस दौड़ में किसी नय चैनल को लाना सच में बहुत ही कठिन है, और उस से भी ज्यादा कठिन उसे जनता तक लाना होता है| इसमे कोई शक नहीं की मौर्या के सभी कार्यकर्ता काबिले तारीफ है, उनकी कठोर परिश्रम ने यह साबित कर दिया की, वह जो केवल अपने नाम से प्रसिद्ध है यह उन से कम नहीं, अगर मेहनत को एकाग्रता की अगनि में तपाई जाय तो वह फिर उम्र या संस्था को नहीं देखती बल्कि आसमान की बुलंदियों को छू लेती है,
    मै बुद्धि की देवी माँ सरसवती से प्रार्थना करूँगा की आप सबो की हिम्मत बढे और आप उन लोगो को जो आपको मार्ग में अधुरा ही छोड़ कर चले गए, वह यह अच्छी तरह देख ले की किसी के चले जाने अथवा मुह मोड़ लेने से किसी के कलपनाओ के पंख नहीं कटते, बसरते उनके पास अच्छी सोंच व् धैर्य हो | तभी उसकी जय होती है|

    धन्यवाद् –आपका मित्र
    धीरज प्रसाद -CNEB न्यूज़ नॉएडा से

  15. shripal

    May 7, 2010 at 1:26 pm

    ”सहारा में बात बन गई और मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ चैनल के प्रमुख के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। लेकिन इसके पहले उत्तर प्रदेश चैनल लाँच होना था इसलिए उसमें जुट गए। उसमें प्राइम टाइम का एंकर भी रहा। इस चैनल के लाँच के दिन की एक दिलचस्प घटना बता दूँ। शाम सात बजे का मुहुर्त निकाला गया था। ठीक उसी समय लाँच भी हुआ, मगर ये क्या। सुब्रत रॉय का संदेश चलने के बजाय उनके मेकअप के शाट्स चल रहे हैं। दरअसल क्लिप की आईडी में गड़बड़ हो गई थी। लेकिन अब क्या हो सकता था। सुमित रॉय, प्रभात डबराल सब परेशान। बहरहाल, किसी तरह से बुलेटिन ख़त्म हुआ। अब बारी थी समय शिखर की। मैं एंकर था। एक घंटे का ये कार्यक्रम न केवर बढ़िया चला बल्कि उम्दा बहस भी हुई। जैसे ही कार्यक्रम ख़त्म हुआ प्रभात जी ने मुझे गले लगा लिया। सहारा प्रणाम के चक्कर में प्रभात जी से मेरे संबंध खराब हो गए। तब से बोलचाल बंद है। इसका अफसोस है। मैं चाहूँगा कि उनसे संबंध सुधरें।”
    मुकेशजी आपने इस बहाने सहारा के अपने दौर को याद किया है…और इस पीडा का इजहार भी किया है कि प्रभातजी से खराब हुये संबंध अभी तक नहीं सुधरे.प्रभातजी का गुस्‍सा होता है तो सातवें आसमान पर ही…लेकिन मैं जानता हूं कि जब भी आप दोनों के बीच बात होगी तो पुरानी बातें रात गयी बात गयी वाले अंदाज में खत्‍म हो जायेगी..बस जरूरत यही है कि एक बार बात हो जाये.

  16. arvind kumar singh

    May 7, 2010 at 2:52 pm

    priya mukesh bhai,
    apke bare me itne saalon se jitna janta tha yashwant ne usse jyada janwa diya.is nate yashwant ko badhai de raha hoon.apko shubhkamnayen.
    arvind kumar singh

  17. गिरीश पाण्डेय

    May 8, 2010 at 12:46 am

    [b]आप अपनी पांच अच्छाइयां और पांच बुराइयां बता पाएंगे?[/b]

    8 मई के सुबह के साढ़े पांच बज रहे हैं और मेरे लिए 7 मई की रात ही चल रही है..लेकिन मुकेश सर का लम्बा से साक्षात्कार को पूरा पढ़कर ही सोना चाहता था…इसी बात में छुपी है उनकी अच्छाइयां…
    सर के साथ वीओआई में काम करने का अवसर मिला..सबसे बड़ी बात जो उन्हें आसाधारण बनाती है वह यह कि वह बहुत ही सरल हैं..पूरी मीडिया इंडस्ट्री में उनके जैसा सलीकेदार बॉस नहीं देखा..मैं उनसे उम्र में 14 साल और पत्रकारिता के अनुभव में इससे भी ज्यादा छोटा हूं..लेकिन उन्होंने हमेशा गिरीश जी करके ही बात की..व्यक्ति को सम्मान देना, उनका सबसे बड़ा गुण है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन कतई नहीं है। उन्हें ऑफिस में चिल्लाते हुए शायद ही किसी ने देखा हो..साहित्य और भाषा प्रेमी है ..मीटिंग में प्रमुख तौर पर इस बात पर जोर देते थे…. सर ने मुझे बिना जाने, वीओआई में मौका दिया…मैं कई बार उनके पैर छूना चाहता था…लेकिन मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगता था कि उन्हें पैर छूना पसंद नहीं होगा..और संकोच भी था कि कहीं मुकेश सर इसे चाटुकारिता की श्रेणी में न रखें..लेकिन मीडिया क्षेत्र में अगर आप निस्वार्थ भाव से किसी बॉस का दिली सम्मान कर सकते है तो वह मुकेश सर हैं।
    मेरा खुद से वायदा है कि ईश्वर की कृपा से कभी उनके जैसी पोजीशन पर पहुंच पाया तो उनके जैसा ही सरल बनूंगा ..यही मेरी सर को गुरु-दक्षिणा है।
    गिरीश पाण्डेय
    http://www.Dharmchakra.com

  18. gopal shukla

    May 8, 2010 at 4:56 am

    MUKESH JI
    Brajesh Rajput se apke ke bare me aksar batain hoti thi…. un dino mai Dainik Jagran me khel pege dekha karta tha aur khud ko Patrakarita me Sachin Tendulkar se kam nahi manta tha…. par waqt ne aisa chouka mara ki mujhe uthakar boundry ke bhahar hi phenk diya…in dino bas IPL maichon me pani pilane wale khiladi ki tarah TV chainal me Naukri kar raha hoon…. Kyonki Main bhi Darponk aur kam sahsi hoon sath hi apni Zimmedarion se samjhauta kar raha hoon….
    baharhal….
    pahle to apke bare me suna hi karta tha…. jaise bachpan ke kisi hero ki koi baat batata hai…
    phir ab to thoda sa apke bare me padhne ka bhi mauka mil gaya…
    ummed hai ki jaldi hi apse milne ka bhi mauka milega….
    lekin salam hai apki yatra ko…

  19. gopal shukla

    May 8, 2010 at 5:51 am

    apke bare me jitna suna tha lagta hai batane walon ne shayad kanjoosi dikha di, pehle suna tha…phir ab padha bhi…shayad ab milne ka mauka aane wala hai…

    apki yatra ko salam

  20. RAJIV KUMAR

    May 8, 2010 at 4:12 pm

    मुकेशजी ,यंशवतजी के लिए इंटरव्यू में आपके पूरे सफर के बारे में पता चला।सेंटिनल और समय सूत्रधार में काम करने का आपके साथ अनुभव रहा है।लेकिन कुछ बातें मुझे पता नहीं थी।1989 से पत्रकारिता में आपके साथ काम करने का अनुभव आज भी याद आता है।आप अपने सहयोगियों के लिए लड़ जाया करते थे।पत्रकारिता में आज मैं जिस मुकाम पर हूं वह आपकी नींव की वजह से ही संभव है।
    इंटरव्यू में एक गलती मुझे नजर आई है,इसिलए उसे सुधारना चाहूंगा।नवारुण वर्मा से साहित्य अकादेमी की रिपोर्ट नहीं,असम साहित्य सभा की रिपोर्ट करायी थी।गुवाहाटी आने से बताया कीजिए ताकि चर्चा वगैरह की जा सके।
    राजीव कुमार,गुवाहाटी
    मोबाइल-9435049660
    ई-मेल[email protected]

  21. anam

    May 10, 2010 at 2:29 pm

    its true that u do not mingle bith people of bihar easily. u favour people of mp

  22. मुकेश कुमार

    May 11, 2010 at 2:41 pm

    आपके इस आरोप ज़रा भी सचाई नहीं है। ये धारणा उस समय बनाई गई थी जब मैं सहारा का मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ चैनल लाँच कर रहा था। उस दौरान मैने कोशिश की थी कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के लोगों को लूँ ताकि चैनल में उसका फील आ सके। इसी तरह s-1 लाँच करने के समय दिल्लीके , राजस्थान चैनल लाँच करते समय राजस्थानियों के, गुजरात चैनल लाँच करते समय गुजरातियों के, उत्तरप्रदेश चैनल के लिए यूपी के और पंजाब चैनल के लिए पंजाबियों के चयन को प्रथमिकता दी। हाल में जब मौर्य टीवी लाँच किया तो चुन-चुनकर बिहारियों को लिया और ग़ैर बिहारियों को लिया ही नहीं। इस चैनल में एमपी का एक भी आदमी नहीं ज़रा पता लगाएं कि मौर्य में काम कर रहे लोगों से मैं मिलता -जुलता हूँ या नहीं। हाँ जिन लोगों को मैंने किसी और कारण से न लिया हो और इसमें वे बिहारी और ग़ैर बिहारी की ठाकरेवादी नज़रिया इस्तेमाल करने लगें तो उन्हें समझाना असंभव है, क्योंकि ये उनकी संकुचित सोच का नतीजा है। मैं ऐसे लोगों के लिए ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकता हूँ कि उन्हें क्षमा करना क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं।
    एक बात और मेरे साठ फ़ीसदी मित्र बिहारी हैं और शादी के वक्त मेरी पत्नी का कन्यादान एक बिहारी ने किया था। मेरी पत्नी आज भी उनको पापा और उनकी पत्नी को मम्मी की तरह मानती है और पैर छूती है।

  23. mukeshkumar

    May 11, 2010 at 5:07 pm

    वैसे तो हर व्यक्ति को विभिन्न तरह की निकटताओं से लगाव होता है, कोई जाति के आधार पर, कोई धर्म के आधार पर तो कोई क्षेत्र के आधार पर निकटता महसूस करता है और ये उसके व्यवहार में भी झलकता है। आप भी इसके अपवाद नहीं होंगे। ये कोई हैरत की बात भी नहीं है। मगर मेरे बारे में हैरत की बात ये है कि मेरे साठ फीसदी मित्र बिहारी हैं, मध्यप्रदेश के शायद दस फीसदी भी नहीं होंगे। शायद यही वजह है कि मध्यप्रदेश वाले मुझे अपना नहीं समझते। वे कभी प्रादेशिक कार्यक्रमों में मुझे नहीं बुलाते। क्षेत्रों के हिसाब से भी कई संगठन बने हुए हैं, मगर उनके आमंत्रितों की सूची में भी मेरा नाम नहीं है। मध्यप्रदेश सूचना केंद्र में तो शायद मेरा नाम भी दर्ज़ नहीं होगा। इसके अलावा मैंने कभी इस तरह का असुरक्षाबोध महसूस नहीं किया कि मध्यप्रदेश के लोगों को लेकर उनका कवच तैयार करूँ। इसलिए इस तरह का व्यवहार करने का कोई कारण नहीं बनता। इस सबसे ऊपर मैं तो इन संकुचित परिभाषाओं में बँधने को ही तैयार नहीं हूँ। मेरा नाता मानव समाज से है, किसी जाति, देश धर्म से नहीं।
    आपकी ये धारणा क्यों बनी ये मुझे नहीं पता मगर एक कारण तो शायद ये हो सकता है कि जिन दिनों मैं सहारा का मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ चैनल लाँच कर रहा था, मैंने इन दोनों राज्यों के लोगों को ही तरहजीह दी थी, ताकि वहाँ की समझ चैनल में ज़्यादा दिखे। भाषा का मामला भी था। लेकिन जब मैंने S-1 लांच किया तो मैंने दिल्ली के ज़्यादा से ज़्यादा लोग लेने की कोशिश की। इस चैनल में मध्यप्रदेश के गिनती के ही लोग रहे होंगे। इसी तरह जब राजस्थान चैनल लाँच किया तो राज्स्थानियों को, जब गुजरात, पंजाब और उत्तरप्रदेश के चैनलों की टीम बनाई तो इन्हीं प्रदेशों के लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा लेने की कोशिश की। यानी ये चैनल की डिमांड थी न कि मेरा कोई पूर्वाग्रह या बिहारियों से दूर रहने की कोई भावना। इसको आप इस बात से भी समझ सकते हैं कि जब मैं मौर्य टीवी लाँच करने आया तो मैंने बाकायदा चुन-चुनकर बिहारियों को लिया, क्योंकि इस चैनल की यही डिमांड थी। वैसे आपको मौर्य के लोग ज़्यादा बता सकते हैं कि मैं बिहारियों से मिलता-जुलता हूँ या नहीं।
    बिहारियों से मेरा संबंध पुराना रहा है। सेंटिनल का नब्बे फीसदी स्टाफ बिहारी था और सभी से मेरे संबंध मित्रवत थे और बहुतों के साथ तो आज भी हैं। एक और बात, मेरी पत्नी का कन्यादान एक बिहारी दंपति ने किया था और मेरी पत्नी आज भी उन्हें मम्मी-पापा कहती है, उनके पैर छूती है।
    उम्मीद है कि आपके और आप जैसा सोचने वाले और लोगों के मन से इस तरह के भ्रम अब निकल गए होंगे।

  24. गिरिजेश वशिष्ठ

    May 11, 2010 at 6:16 pm

    मुकेश जी ने कायरता की बात की है । मुझे लगता कि उनका यही बयान उनके साहसी होने का सबसे बड़ा सबूत है । सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता उन्होंने दम के साथ की है और करते रहेंगे । मुझ एक वाकया याद आता है । रोहित सरदाना( आजकल जी न्यूज में ) उस समय सहारा समय एमपी चैनल में एंकर हुआ करते थे । मैं वहां इनपुट का प्रभारी था । रोहित ने एक इंटरव्यू में तब की मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमाभारती से एक के बाद एक तीखे सवालों के हमले किये । सुश्री भारती पहले ही बेहत शॉर्ट टैंपर्ड थी ऊपर से सत्ता उनके सिर चढ़कर बोल रही थी । सवालों से तिलमिलाकर वो कान से ईपी निकालकर चली गई और भोपाल के स्टूडियो में खूब चीखीं चिल्लाईं ।
    ऐसी हालत में आसपस के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि रोहित की या तो नौकरी चली जाएगी या फिर उन्हें तगड़ी डांट पडे़गी । लेकिन मुकेश जी के नेतृत्व में काम करने वाले जानते थे कि वो ऐसा नहीं करेंगे । जब वो न्यूज़ रूम में आए तो एक पल के सिए सन्नाटा था । लेकिन मुकेश जी ने रोहित को शाबाशी दी ।
    दूसरा उदाहरण नेहा सिंह का है तब नेहा एस वन में एंकर हुआ करती थी । सीरीफोर्ट रोड़ पर एक हादसा हुआ । पुलिस के एक बड़ी अफसर के बेटे की गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ । साहब जादे नशे में थे और नेहा ने इसकी रिपोर्टिंग बड़ी बहादुरी से की । मामला बढ़ा लेकिन मुकेश जी नहीं झुके और नेहा के साथ खड़े रहे । उनके नेतृत्व में काम करने वाला कोई भी पत्रकार न तो बेईमान हो सकता न डरपोक । मध्यप्रदेश चैनल और एसवन में उन्होंने ज्यादातर नए लोगों को जोडा और देखते ही देखते ये लोग बेजोड़ बन गए । इतना ही नहीं मौका आने पर उन्होंने अपनी नौकरी की परवाह नही की न ही टोपी ट्रांसफर किया । उन्होंने कभी अपनी किसी गलती के लिए किसी साथी को नही फंसाया बल्कि उनके किए की जिम्मेदारी सिर पर ली । इस वजह से उन्होंने आर्थिक तंगी भी झेली और बेरोजगार भी हुए लेकिन रहे बहादुर , साहसी और (अगर पुरुषवादी समाज के शब्द को ले लिया जाए) सच्चे मर्द हैं ।
    उनके आसपास के लगभग हर इनसान ने उन्हें कभी न कभी थोडा एडजस्ट करने की सलाह दी । लेकिन उनका भरोसा अपने सिद्धांतों से कभी डिगा नहीं । अपने इस मजबूत कमिटमेंट और इरादों के होते हुए भी मुझे कभी याद नहीं आता कि वो कभी न्यूजरूम में चीखे या चिल्लाए हों । अपने साथियों के साथ उनका व्यवहार हमेशा मधुर होता था । मुकेश कुमार एक अच्छे लीडर हैं और हर परिभाषा में अच्छे लीडर हैं । उनके साथ काम करना सबसे अलग अनुभव है । उनके साथ जब आप खड़े होते हैं तो उत्साह से भरे होते हैं , हौसला आसमान पे होता है , ईमानदारी आपकी रगों में दौड़ती है , मन में संतुष्टि का भाव होता है और आपको खुद पर गर्व होता है । ऐसा इसलिए कि आप कर रहे होते हैं एक ऐसी पत्रकारिता जिसमें व्यावसायिक सफलता तो होती है पर सामाजिक सरोकारों की कीमत पर नहीं । इस पत्रकारिता में आप पैसे तो कमाते हैं पर इज्जत और जमीर बेचकर नही ।

  25. हिमांशु

    May 12, 2010 at 2:40 pm

    अगल मुकेशजी वाकई बड़े पत्रकार हैं तो क्या उन्हें ये कहना शोभा देता है-
    एस-1 से प्रस्ताव मिला तो मैंने फौरन सहारा से तौबा कर ली। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि बहुत अच्छा किया, क्योंकि वहाँ वैसे भी बहुत दिन नहीं रहा जा सकता था। बाद में तो सहारा देश में प्रेस्टीट्यूशन का सबसे बड़ा अड्डा बन गया था।
    मुकेश कुमार और भड़ास को एक संस्थान के बारे में ऐसा कहकर शर्मिंदा होना चाहिए। या फिर मुकेश कुमार को खुलासा करना चाहिए अगर उन्हें पता था कि इतने बड़ा संस्थान वेश्वावृत्ति का अड्डा बन गयाथा तो फिर एक निर्भीक पत्रकार होने के नाते उन्होंने क्या किया?

  26. mukesh kumar

    May 12, 2010 at 6:37 pm

    हिमांशुजी, नाराज़ होने के पहले कृपया शब्द पर गौर करें और अर्थ का अनर्थ न निकालें। वहाँ प्रोस्टीट्यूशन नहीं प्रेस्टीट्यूशन शब्द का प्रयोग किया गया है। पश्चिम में जो पत्रकार पत्रकारिता नहीं ख़बरों का धंधा करते हैं उन्हें प्रेस्टीट्यूट्स कहा जाता है। इस लिहाज़ से ऐसे चरित्र वाली पत्रकारिता प्रेस्टीट्यूशन कहलाती है। अब ये तो आप जानते ही होंगे कि सहारा में किस पैमाने पर ख़बरों का धंधा चल रहा था। टेलीविज़न में पेड ख़बरों के मामले में शायद सहारा ने विश्व कीर्तिमान ही बना डाला होगा। हर लाइव कवरेज बिकता था और वहीं के लोग बताते थे कि पचास फीसदी तक ख़बरें पेड चल रही हैं। अब आप ही बताएं कि क्या इसे प्रेस्टीट्यूशन कहना ग़लत है?
    दूसरी बात ये कि ये प्रेस्टीट्यूशन मेरे सहारा छोड़ने के बाद शुरू हुआ था, इसलिए वहाँ विरोध करने का सवाल नहीं उठता। इसके बावजूद मैंने कलम के ज़रिए विरोध जताया भी था। अगर आपको संदेह हो तो हंस के पुराने अंक उलट डालें, आपको विस्तार से जानकारी मिल जाएगी। इसके अलावा समकाल पत्रिका के एक अंक में मैंने प्रेस्टीट्यूट्स शीर्षक से ही एक लिखा था। प्रेस्टीट्यूशन से दुखी सहारा के पत्रकारों ने ही गुपचुप तरीके से इसकी फोटो कॉपी सहारा में बॉटी थीं। पता नहीं उस समय आप कहाँ थे और आपको इसकी जानकारी क्यों नहीं हुई। किसी संस्थान के प्रति इतनी अंध-निष्ठा ठीक नहीं कि आप उन सरोकारों और चिताओ को ही परे रख दें जो कि हमारे समाज और लोकतंत्र का बहुत ही बुनियादी काम है…..यानी लोगों को सही और जानकारी देना। अगर ऐसा है तो मुझे खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आप ग़लत साइड में खड़े हैं।

  27. jabalpuriya

    May 13, 2010 at 1:55 pm

    mujhe bhi mukeshji ka sath or kaam karna yad hai ab wo dour aayega bhi ki nahi kahna kathin hai. lekin ye jarur hai ki hamne tv mein bhi sarokaar ki patrkarita ka yug ji liya. jahan tak prabhat dabral or unse bigde sambandhon ki baat hai to unke kaan bharne wale bhi ab sahara mein durgati ko prapt ho chuke hai. prabhat ji se bahut se logon ke sambandh un chamchon ne kharab kara diye jo nahi chahte the ki acche log prabhat ji se jude. ab is disha mein prabhat ji ko hi baddapan dikha kar apni shahariyan teem ko jodne par vichar karna chahiye. par mukeshji deshkaal ko bhi jaari rakhen. good luck.

  28. राकेश उपाध्याय

    May 13, 2010 at 4:17 pm

    बहुत सुंदर। मुकेशजी और यशवंतजी,, आप दोनों को बधाई। आदर्श क्या होता है और उसे प्रस्तुत कैसे किया जाता है, उसका अनूठा उदाहरण।…मेरे जैसे नौसिखुओं के लिए बहुत मसाला है इसमें और जो स्थापित ब्रांड हैं, उनके डूबने-उतराने, आचमन और स्नान के लिए बढ़िया जलस्रोत खोल दिया है मुकेश जी ने। यह पत्रकारिता की गंगा है, इसकी गंगोत्री तो पवित्र है, लेकिन इसका प्रवाह पतित हो रहा है, इस पतित प्रवाह को प्रदूषण मुक्त करने के लिए मुकेशजी जैसे लोग चाहिए।

    दूर के ढोल सुहावने। लेकिन मैं विश्वास करता हूं कि यह ढोल पास में जाने पर भी मस्त कर देने वाली ध्वनि देगा।
    पुनः बधाई।

  29. दिनेश काण्डपाल

    May 14, 2010 at 8:53 am

    मुकेश जी के साथ काम करके जो प्रोफेश्नल अनुभव हुआ वो तो है ही, उससे भी बड़ा अनुभव जो हुआ वो है इंसान बनने का। शांत संयमित लेकिन खबरों के लिये आक्रामक। हर किसी को सम्मान देना चाहे वो छोटा हो या बड़ा, गुस्सा भी आ रहा हो तो ऐसे समझाना कि दूसरा व्यक्ति न केवल समझ जाये बल्कि ऐसे समझ जाय कि दुबारा गलती न करे। पत्रकारिता में उन्होंने क्या उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ये तो आलोक तोमर जी और गिरजेश जी बता ही चुके हैं, मैं तो बस यही अनुभव कर पया कि उनके साथ काम करते वक्त आपको अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है जो करना चाहते हैं कीजिये, अगर मुश्किल पड़ गयी तो मुकेश जी देख लेंगे।

  30. madan gopal brijpuria

    May 15, 2010 at 10:42 am

    dear sir, namaskar
    sub: 100% solution about corruption and terrorism free india __

    sir,
    i am madan gopal brijpuria belonging from kareli distt. Narsinghpur M.P.
    sir i am highly impressed with you the way of social messege to our society
    sir i want to share something with you some solution about corruption and terrorism so we can solve the problem of our nation so i aspect contact personal y
    sir, this idea can help our nation in many way’s so sir i personal y want to contact with you .Please don’t mis it.
    your’s

    madan gopal brijpuria
    id :- [email protected]
    Mob. 09300858200
    Phone :- 07793270468
    Radhavallabh ward
    kareli
    Distt. Narsinghpur M.P.

  31. Amarnath Tewary

    May 16, 2010 at 12:51 pm

    Mukesh-ji, very nice to see shades of nostalgia and a true professional in your long interview…only a person who comes from a small town or village could live up to all this quite bravely and humbly in this largely brute, bad and banal world of media today… it reminds me of my village and the roots from where I come from….

    I also liked the usew of the word “Prestitution” in your interview, though, it cretaed a great deal [!!!!] of confusion with “prostitution” for one of your reader!…. the choice of words really are the assets of journalists and they should hit them at the right place, right time.

    Many thanks for opening up so honestly in your interview and provided an opportunity to others, like me, to know you more closely.

    I must say the name of daughter “Purvai”[ if i spell it correctly] caught my instant attention and i really loved it.

    wishes
    Amarnath Tewary

  32. नीरेंद्र नागर

    May 16, 2010 at 4:05 pm

    मुकेश, इंटरव्यू पढ़कर तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए पल, दिन और महीने याद आ गए। अब मिलना कम होता है, बातें भी कम होती हैं। लेकिन तुम्हारी हर सफलता मुझे भी उतना ही सुख देती है जितना तुम्हें और पापोरी को। मैं जानता हूं कि तुम भी एस. पी. सिंह की तरह टीम को साथ लेकर चलने वाले लीडर हो और इसीलिए जिसने भी तुम्हारे साथ काम किया, वह तुम्हारा मुरीद हो गया – खास कर वे लोग जो तुम्हारे साथ और तुम्हारी तरह मेहनत करने वाले थे।

  33. shailendra singh

    May 17, 2010 at 8:58 pm

    मुकेश सर बड़े ही सुलझे पत्रकार हैं…झुकना उनकी आदत में शुमार नहीं हैं…और उनकी सबसे बड़ी बात ये है कि वो हमेशा खबरों के साथ खड़े रहते हैं…अपने साथियों को हौसला देते हैं…दोष देना उनकी आदत में शुमार नहीं है…जैसा कि गिरिजेश जी और दिनेश भाई कांडपाल ने कहा कि मुकेश जी के साथ काम करके आप पत्रकार के साथ एक अच्छे इंसान भी बन सकते हैं…हम इस बात से पूरी तरह से सहमत है…VOI में हम लोगों ने इस बात को देखा भी है…सर, ने अपने आत्म सम्मान से कभी समझौता नहीं किया…या यूं कहे…कि स्वस्छ और पारदर्शी पत्रकारिता के वो हमेशा हिमायती रहे हैं…जब पेड स्टोरी की बात आई…तो उन्होंने संस्थान को टाटा बोलना भी बेहतर समझा…ऐसा सब लोग नहीं कर सकते हैं…सर, लगातार ऐसे ही आगे बढ़ते और नए प्रतिमान स्थापित करते रहें…ताकि हम लोगों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिले…।

  34. NIRANJAN SINGH

    May 18, 2010 at 4:59 am

    WAKAI ME AAP HI JAISE LOG MEDIA KO BACHA RAHA HAI NAHI TO AAJ KAL KE LOG TO JALDI HI APNE AAPKO BINA MEHNAT KE HI BEST KARNA CHAH RAHE HAI MAI AAPKA PURA INTERVIEW PADA AUR MUJHE BAHUT KUCH JANE HALAKI MAI AAPKO IIMC ME PADNE KE DARON HI JANA LEKIN IS TARAH SE NAHI JANA KI THANK U I PROUD U …………………..

  35. Asit Nath Tiwari

    May 19, 2010 at 6:55 pm

    aapka sangharsh, aapki jeevan yatra hme prerna degi.

    Asit Nath Tiwari

  36. Deepak goswami jaipur

    May 20, 2010 at 8:33 am

    Congratulations…

  37. vijay

    May 21, 2010 at 6:07 am

    SIR CONGRATULATION TO NEW SUCESSEFULL ASSINGMENT SIR I WANT INPUT HEAD CELL NO I IMPORTANT STORY FROM GAYA

  38. Ranvir Singh

    May 21, 2010 at 8:52 am

    mukeshbhai, interview padh kar bahut achchha laga. waakai, bataabe waalon ne Aapke baare mai shaayad kam hi bataayaa tha. Aapse group mai kai baar mulaqaat huyi hai. Ab itna jan lene ke baad chaahunga ki Aapse mulaqaat bhi karun, auragarfuture mai sambhav hua to 1 baar saath kaam bhikarnaa chaahungaa. Regards. Ranvir Singh Sports Editor dainikbhaskar.com # 919953556270

  39. Priyaranjan Bharti, Rajasthan Patrika, Patna

    May 22, 2010 at 11:19 am

    Priya Bhai Mukesh Jee,
    Apka Interview padh kar aisha laga ki humsab aik hi gaow ki mitti me pale badhe hain. apke shabd nai pidhi ke liye prerana srot hain. Athwayen dashak se hamare mitravat sambhandho ke babjood pahli bar apke kai pakchon ko jana hai. Khushi hui ki aap vaicharik rup se kshi ke aage youn hi samarpit nahi hote. Yah aapki beshshta hai. Mere hi jaishe gown ki mitti ki khushu aapke vyaiktitwa me bhi hai, aur yahi khashiyat bhi.
    Hamari Subhkamnayen.

  40. गिरिजेश वशिष्ठ

    May 22, 2010 at 5:54 pm

    एस वन मे जब हमने टीम बनाई तो ज्यादातर लोगों से सवाल होते थे कि दिल्ली में अमुक जगह से अमुक जगह जाना है तो कैसे जाएंगे ? हमने पूछा दिल्ली का मेयर कौन है ? कोई बीजेपी कवर करता था तो उससे पूछा कि आडवाणी आज कहां हैं और क्या कर रहे हैं ? हम पत्रकारों से पूछते थे कि दिल्ली में कांग्रेस का दफ्तर कहां है ? हम पूछते थे कि राजनबाबू टीबी अस्पताल कहां है ? कम से कम दिल्ली की पत्रकारिता करने वालों से इतनी उम्मीद तो की ही जाएगी । इसमें बिहारियों की एंट्री बैन करने का आइडिया कहां से आया पता नहीं । भाई गिनती के तो भले लोग बचे हैं पत्रकारिता में उनके साथ तो रियायत बरतो बढावा नहीं दे सकते तो छवि खराब तो मत करो ।

  41. vinod anupam

    May 22, 2010 at 6:21 pm

    CHHAPE SHABDO KE VIRASAT KI BAT HI KUCHH AUR HOTI HAI.purwai AP KI USI PRATIBADHATA KI PRATIK HAI.ISHWAR USE LAMBI AAYU DE. . . .

  42. maitreyi

    May 23, 2010 at 7:42 am

    dear Mukesh sir,
    i am not a very regular reader of bhadas, it was purely coincidental that i opened it today morning ….and found such a pleasant surprise to give a chirp to my morning.reading your interview was so interesting….considering the fact that how many people get such an opportunity to get to know so much about their current BOSS.that too from the boss himself.so i was thrilled and amused both together.(spare me for this) i had heard about your and Papori mam’s elopement….i thought that when an individual shoots targets, the trail of stories follow him, specially on this most intriguing theme of life.its really amusing to know that a person of your presence and gravity did experience this.we all at the ranchi bureau read your interview with utmost interest. its very nourishing to know that we are getting your able guidance to give a spark to our motive.

    maitreyi ( on behalf of the whole ranchi bureau)

  43. mohit bhopali

    May 24, 2010 at 3:56 am

    mukesh ji ki jay ho jay ho shahdol ki

  44. ajay tripathi

    June 3, 2010 at 4:58 am

    सर नई चुनौतियों के लिए ढेर सारी बधाई.पर एक सवाल भी, अब देशकाल कैसे लिखा जायेगा ? अजय त्रिपाठी,जबलपुर

  45. ajay tripathi

    June 3, 2010 at 4:59 am

    सर नई चुनौतियों के लिए ढेर सारी बधाई.पर एक सवाल भी, अब देशकाल कैसे लिखा जायेगा ? अजय त्रिपाठी,जबलपुर

  46. nitin bhatnagar

    June 3, 2010 at 11:53 am

    halloo mukesh ji how r u ,know me na nitin from parakh

  47. mukesh kumar

    June 6, 2010 at 12:52 pm

    अरे आपको कैसे भूल सकते हैं नितिन बाबू। आपके साथ जाने कितनी स्टोरी के लिए कहाँ-कहाँ भटके हैं हम। मणिपुर में नगा-कुकी के बीच चल रही ख़ूनी मुठभेड़ कवर करने गए पहाड़ों को पार करते हुए कितने भीतर तक चले गए थे हम। चेरापूँजी, शिलांग, लोकतक लेक हो या आईएनए मेमोरियल सब जगह राफ़े सुल्तान और आप ही तो थे हमारे साथ। उस रात को कैसे भूल सकते हैं जब होटल के बाहर गोलीबारी हुई थी और हम अँधेरे में अपने कमरो में दुबके हुए थे। आप लोगों के साथ ही मूँगा सिल्क की नगरी शुवालकुची गए थे और हाँ माझुली द्वीप की यादगार यात्रा को कैसे भुलाया जा सकता है। मुझे सब कुछ याद है नितिनजी…….तपती गर्मी में कैमरा और ट्राईपॉड उठाए पसीने से लथपथ नितिन को कैसे भूल जाएंगे भला।
    वैसे एक बात बताओ बंधु…..इस समय तुम्हारा वज़न क्या है….?

  48. Ishan Jain

    June 7, 2010 at 6:46 am

    Aapne mujhe ye btaya nhi ki badhas mein aapa interview post hua hai

    waise aapa ye interview padhar aajse aap mere rolemodel hai:):)

  49. Ishan Jain

    June 7, 2010 at 6:49 am

    ye interview padhar toh aajse aap mere role model hai 🙂

  50. sanjay choudhary

    June 8, 2010 at 12:41 pm

    sir,aap ke sath bhut kam kam (s1 news channel)karne ka muka mila,jo ake meethi yad ban kr mere man me hamesha rahega, ham appko ake role model mante hi ,jo patrakarita me nai nai aa rhe hi unke liye appka interweu disha suchak banega,hindi ka antter ristrya news chhanal hatu meri aagrim badhai , sanjay choudhary jabalpur m.p.

  51. rajni

    June 9, 2010 at 6:46 pm

    Dear Mukesh Ji,
    After long period today i got ample of free time and went through carefully each and every word of your interview.Your experiences, struggle and boldness are impressive. Salute to your courage for revealing the hard and harsh facts.On several occasions you have quoted Ghalib and other poets in your interview and this is eye catching at least for me who has special interest in reading poems
    and sometimes writing as well.
    Main Likhit hoon
    Kabhi kahani
    Kabhi kavita
    Kabhi Natak.

    Unmein Kahin
    Prem Ka Paridrishya Hota hai
    Kahain Virah geet.
    Log unehin Parhte hain
    Aur
    mere vyaktitva ka hi
    chir-far shuru kar dete hain,
    mera sampoorn roop se
    postmartem kar dalte hain.
    yah kaisa nayay hai
    mere prati?
    main likhti hoon
    bas apni rachnaon ko parhe jane ke liya.
    mera likhna sarthak
    kab hoga?

    Wish u all great success in u r life
    Rajni Shankar
    UNI Patna

  52. प्रियरंजन भारती

    June 18, 2010 at 5:00 am

    प्रिय भाई मुकेश जी, भड़ास ने यह साक्षात्कार प्रकाशित कर अच्छा किया है। अच्छा इसलिए भी कि आठवें दशक से मित्रवत संबंधों के बावजूद आपके जीवन से जुड़े कई पहलुओं से नावाकिफ था। वह सब जाना। यह भी जान सका कि आपके व्यक्तित्व में गांव की माटी के सोंधेपन की रवानी के साथ संघर्षों के उतार-चढ़ाव के दस्तावेजी जुनून का सौम्य भी है। यह जानकर खुशी हुई कि आदर्शनुमा कोई शख्सियत नहीं बल्कि जो हस्तियां पत्रकारिता में भाईं उनके दूसरे रंगों से आपका मेल नहीं बैठा। यह सच है कि जो दिखता है सिर्फ वही सच नहीं होता। क्योंकि दिखने वाला सर्वांग रूप में दिखता ही नहीं। एकांगी दर्शन किसी को प्रभावित कर सकता है मगर आकर्षित नहीं कर सकता। भड़ास पत्रिका को साधुवाद कि मुझे आपके कमोवेश सर्वांग व्यक्तित्व का दर्शन हो सका। अपनी बेबाक टिप्पणियों और खुले विचारों के प्रकटीकरण के लिए आप धन्वाद के पात्र है।
    प्रियरंजन भारती
    ब्यूरो प्रमुख
    राजस्थान पत्रिका (पटना)

  53. Rajesh Tripathi

    June 18, 2010 at 4:20 pm

    Priya Mukesh Bhai Yashwant Ji ne apne interview me ek naye aur mukammal mukesh Kumar se parichit karaya.Vaise kuchh palon ke liye hi sahi Calcutta me Shahsi Tripathi ke Ghar Hum mile the tab aap Siliguri se koie patra nikalne ki yojna bana rahe the jo moortrup nahi ho saki. Uske bad kahan kahan se gujarte hue aap ab ek aise mukam per aaye hain jahan aapke paas kuchh apni tarah se kar dikhane ka mauka hai. Hum sab ko vishwash hai ki aapki yeh pari super-duper hit hogi. Meri shubhkamnayein aur Yashwant Bhai ko dhanyavad ki unhone aapki jindagi ke anek rangon se hume parichit karaya. Rajesh Tripathi/ Kolkata

  54. shashidhar khan

    June 20, 2010 at 6:19 am

    priya bhai, sabse pehle toh aapke bhadas ki heading humhi par lagu hoti hai. Aapne yeh baat apne bebakipan aur bedhadak saari aapbeeti khuli kitaab mein daalne ke madde ke tahat kahi hai. Lekin isse aapke waise kai mitron ki khuli aankhen band ho gayi hongi jo patrakarita jeevan ka humrahi hone ki charcha ke baare me kuch bolne se pehle der tak sochte hi reh jate hain. Humaari aur aapki patrakarita lagbhag saath saath shuru hui hai – veer arjun ,sentinel, se lekar maurya tv tak. Kitni baarish aur ole sookhe me jhelne ke baad aaj bhi main yeh dansh pacha nai paa raha hun ki mere saath PTI bhasha me aapki niyukti nai ho payi. Daur mein tumne toh bhai kai aise “mitron” ko waiting room mein unghte chodh diya hai jo superfast pakad kar tumhare aage nikal jaane ki doori local se nahi poori kar paane ki jhunjhlahat se ubar nahi paa rahe hain.

  55. kundan a2z news patna

    June 30, 2010 at 10:33 am

    haan sir aapki baat 100 percent sahi hai

  56. Sanjay Tiwari

    July 23, 2010 at 9:01 am

    Mukesh Babu, tumhara Interview padha, Tumhe janane aur Samjhne ka moka mila So thanks to Yashwant ji…..Interview padh kar Nida Fajle ji sher yaad aa gaya ki “Apni marji se kahan apne safar ke hum hai, Rukh hawao ka jidhar ka hai udhar ke hum hai ”

    Achha hai, hamari mazil ek hai so shayad kabhi kisi mod par mulakat ho jaye…..otherwise mazil par pahuchne ke bad to mulakat hogi hi…..

  57. sunil kumar

    September 9, 2010 at 5:44 am

    Dear Mukesh sir apka interview padhkar bahut achcha laga. maine apke is interview se bahut kuch sikha h, or me apka fan ban gaya, sir me bhi patrkarita ka chhatr hu or ye bhi apko bata du ki apke maurya tv ke purva news director Gunjan sinha ka priya shisya raha hu lekin me unse kabhi pabhavit nhi raha kyonki unme rajniti or kshetrawad ka keera h.wo kewal apna bhala chahte h.halanki unka diya hua cap aaj bhi mere pas h.sir aap apna news channel launsh kare kyonki mujhe badi khushi hoti h jab ko gram(village) se nikla insan tarakki karta h.apse humae ye ummid h ki aap jald ek acchha news channel launch karenge apne is mamle me pranoy roy ka name lekar bahut accha kiya aap unka sahyog jarur le. aapka ka fan no. 1 sunil kumar email- [email protected], mob. no.09359104710 a
    Dhanyawad!

  58. Rajender Prasad

    September 13, 2010 at 5:41 pm

    very good

  59. amitabh

    September 24, 2010 at 2:50 am

    mukeshji,
    apke programme dekhke kabhi socha nahin.shayad ye socha ki ap hain to gehrai hogi hi.apne samay ,shahdol se patrakarita shuru ki.budhar jaisee chhoti jagah se.sachmuch apka interview padhkar achcha laga.apke chahne wale itne sare,wo bhi patrakar bhai? kya jadu kiya hai apne ?meri sasural shahdol main samay press ke pass hi hai ? aj bahut achcha lag raha hai ? ap ki safalata kahin apni safalata lag rahi hai,jabki main apko janta bhi nahin.
    ant main!!! lage raho mukesh bahi.
    amitabh shukla

  60. ashutosh chandra

    September 24, 2010 at 5:10 pm

    apke’bare mein suna tha ki aap biharion ko pasand nahi karte, lekin aisa laga nahi. Apke liye dil mein respect thi lekin apke bare mein janta nahi tha. Interview padh ker ehsas hua ki media ki kish hasti ke saath kam karne ka mauka mila hai. Comment padh kar apke chahne walo ke bare mein pata chla. Dukh ish baat ki hai ki apke prasansakon ki bheer mein main kahan hoon mujhe pata nahi. Lekin apke sangharsh ki kahani ne mujhe hausla diya hai aur meri patrakarita ko nayi dish. Ashutosh chandra , maurya tv.

  61. ganesh joshi, haldwani

    October 16, 2010 at 5:54 pm

    sir jis bebaki aur sanjidagi se interview diya hai…isse bahut kuch seekhane ko milta hai………….

  62. rajkumar sahu. Jajngir. chhattishgarh

    October 24, 2010 at 11:43 pm

    yashvant ji, sabse pahle aapko badhai ki kai badi shakhsiyaton ki aap ek ke baad ek interview se ham jaise patrakarita mein abhi-abhi kadam rakhne vaalon ko kai baaten sikhne ko mil raha hai.
    nishchit hi, mukesh sir ka interview kai maynon mein kaphi ahmiyat rakhta hai.
    aapko ek baar phir badhi.

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