‘मुजरिम चांद’ नामक यह कहानी दस साल पहले जब ‘कथादेश’ पत्रिका में छपी थी तब पत्रकारों में खूब चर्चित हुई थी. इस कहानी की प्रासंगिकता तब तक बनी रहेगी जब तक रिपोर्टिंग जिंदा रहेगी. रिपोर्टिंग में नित नई चुनौतियों की ही कथा है ‘मुजरिम चांद’. -एडिटर
: मुजरिम चांद (1) : वह सर्दियों की कोई सुबह थी। अलसाई और ओस में नहाई हुई। काफी पी लेने के बाद भी उस का आलस जाने क्यों गया नहीं था। तब जब कि वह नहा धो कर निकला था। फिर भी आलस इतना आ रहा था कि मन हो रहा था कि रजाई ओढ़ कर वह दुबक कर सो जाए। पर बीच रास्ते में यह कहां संभव था? उसे भले आलस घेरे हुए था पर उसकी एंबेसडर टैक्सी आलस में नहीं थी। वह तो फर-फर कर सर्राटा भरती भागती जा रही थी। गेहूं, गन्ना और सरसों के खेतों की लपक लेती हुई। कहीं-कहीं मटर, अरहर और चने के खेत भी दिख जाते। पर बहुतायत गेहूं के हरे खेत और सरसों के पीले फूलों वाले खेत थे, हरे और पीले रंग का कंट्रास्ट रचते हुए। तिस पर अरहर के पीले फूल और मटर के बैगनी फूल चने की हरियाली पर सुपर इंपोज वाला कोलाज रच-रच कर इस ओस नहाई सुबह को सनका रहे थे। मादकता की हद तक। सरसों के पीले-पीले फूल वाले खेतों को देख कर उसे बचपन में सुना एक भोजपुरी लोकगीत याद आ गया, ‘सरसोइया के फुलवा नीक लागै, बिन मोछिया क मरदा फीक लागै।’ यह गाना देवानंद जैसों की उन पुरानी फिल्मों को जस्टीफाई करता था जिन में उन की बड़ी-बड़ी घनेरी मूंछें होती थीं। ख़ैर, एक जगह उस ने टैक्सी रुकवाई तो साथ बैठा फोटोग्राफर बिदका।
लेकिन वह टैक्सी से उतर कर एक गन्ने के खेत की ओर लपका। और तड़ातड़ तीन-चार गन्ने तोड़ कर उन्हें छीला, उन के टुकड़े किए और उन्हें लिए वापस टैक्सी में बैठ गया। इस फेर में उसके हाथ तो काले हो ही गए थे उसके सूट और टाई की भी रंगत बिगड़ गई थी। पर इसकी परवाह किए बिना उसने गन्ना चूसना शुरू कर दिया और टैक्सी वाले से चलने को कह दिया। उसने बिन बोले फोटोग्राफर को भी गन्ना आफर किया लेकिन उसने बिना बोले सिर हिला कर गन्ना लेने से न सिर्फ मना कर दिया उल्टे उसने मुंह बिचका लिया।
गन्ना चूसने से उसका आलस अपना घेरा तोड़ गया था। लेकिन पूरी तरह नहीं। ख़ैर दो-ढाई घंटे में ही वह समारोह स्थल पर पहुंच गया था। सर्दी के बावजूद भीड़ इकट्ठी हो गई थी। और छुटभैया नेताओं का भाषण चालू था। यह एक तहसील स्तर का कस्बा था जहां महामहिम राज्यपाल को एक डिग्री कालेज का शिलान्यास करना था।
सुबह के साढ़े नौ बजे थे पर राज्यपाल का कहीं अता-पता नहीं था। वैसे भी राजीव को राज्यपाल में कोई दिलचस्पी नहीं थी। होती तो वह उनके साथ ही हेलीकाप्टर से ही यहां आया होता। वह तो दिलीप कुमार का इंटरव्यू लेने के चक्कर में आया था जो यहां एक टी.वी. सीरियल का मुहुर्त करने वाले थे। एक संसद सदस्य के फेर में दोनों आयोजकों ने एक साथ दोनों कार्यक्रम इस गरज से रख लिए थे कि आयोजन को ग्लैमर और गरिमा दोनों ही मिल जाएं।
लेकिन अभी तो यहां न ग्लैमर दिख रहा था न ही गरिमा !
हां! धूल उड़ाती भीड़ में कुछ रिपोर्टर, फोटोग्राफर जरूर दिख गए जिनमें कुछ लखनऊ से आए थे तो कुछ लोकल थे। समारोह स्थल पर लगी कुर्सियों में से एक कुर्सी में जाकर वह धंस गया। एक आयोजक किस्म के प्राणी को उसने बुलाया और पानी की फरमाइश की। उसने तीन-चार पानी की बोतलें उसके पास लाकर रखवा दीं। एक बोतल खोल कर उसने काला हुआ हाथ धोया फिर मुंह भी धोकर बाकी पानी पी गया।
वह छुटभैया नेताओं के भाषण सुन-सुन ऊब ही रहा था कि तभी आसमान पर हेलीकाप्टर गड़गड़ाया। हल्ला हुआ कि दिलीप कुमार आ गए। हेलीकाप्टर ने समारोह स्थल का दो-तीन राउंड लिया फिर दो किलोमीटर दूर बने हेलीपैड पर जा कर लैंड कर गया। पता चला कि दिलीप कुमार नहीं, महामहिम राज्यपाल आ गए हैं। पुलिस और प्रशासनिक अमले में भगदड़ सी मच गई। जनता जनार्दन में भी थोड़ी हलचल हुई, पर महामहिम के आने को लेकर नहीं, हेलीकाप्टर के आने को लेकर। पता चला कि महामहिम राज्यपाल का अमला इधर ही आ रहा है। राज्यपाल का काफिला आया तो पर समारोह स्थल पर रुकने के बजाय सीधे डिग्री कालेज शिलान्यास स्थल की ओर निकल गया। राजीव भी उठा। काफिले को पकड़ने के फेर में तीन-चार बार इधर-उधर हुआ। पर पुलिस वालों की घेरेबंदी में उसकी टैक्सी फंस गई। वह अफनाया बहुत पर टैक्सी वाला भी उससे दूर था। थक हार कर वह फिर से अपनी जगह पर आकर बैठ गया। पता चला शिलान्यास स्थल भी वहां से एक डेढ़ किलोमीटर था। एक बार वह फिर उठा। सड़क तक आया भी पर तभी उसे ‘प्रेशर’ सा महसूस हुआ। नेचुरल काल को वह रोक नहीं पा रहा था।
अब वह क्या करे?
शिलान्यास और महामहिम को छोड़ ट्वायलेट ढूंढ़ने लगा। सड़क उस पार जरा हट कर पुलिस वालों के घेरे में एक बिल्डिंग दिखी। पूछने पर पता चला कि वह डाक बंगला है। राजीव पेट दबाए उधर ही चल पड़ा। प्रेशर बढ़ता ही जा रहा था।
डाक बंगला आ गया।
लेकिन पुलिस फोर्स चारों ओर से उसे घेरे पड़ी थी। गेट पर वह गया तो पी. ए. सी. वालों ने रोक दिया। लाख परिचय और ‘जरूरत’ बताने पर भी पी. ए. सी. वाले नहीं माने। पेट दबाए प्रेशर रोके वह दूसरे गेट की ओर बढ़ा। वहां पुलिस ने ‘प्रेस’ बताते ही अंदर जाने दिया।
अंदर जा कर मुख्य भवन में प्रेशर के चलते राजीव की चाल में तेजी आ गई। तभी कोई अफसर सा आदमी दिखा। उसे देखते ही राजीव ने हड़बड़ी में पूछा, ‘ट्वायलेट कहां है?’
‘आइए सर!’ कहते हुए वह आगे-आगे बड़े अदब से चल पड़ा। एक हाल के पीछे अटैच्ड ट्वायलेट के पास आ कर वह अफसर रुका और बोला, ‘ट्वायलेट सर!’ उसने जोड़ा, ‘बिलकुल नीट एंड क्लीन !’
‘ठीक है। थैंक्यू!’ कहता हुआ राजीव धड़धड़ा कर ट्वायलेट में घुस गया। अंदर पहुंच कर दरवाजे की सिटकिनी भीतर से बंद कर दी। ट्वायलेट सचमुच जरूरत से ज्यादा साफ सुथरा था। फिनायल ही फिनायल फैला पड़ा था। इतना कि उस की गंध नथुनों में पहुंच कर एलर्जी क्रिएट करने लगी थी। बरबस वह छींक पड़ा। वह अभी लैट्रीन शीट पर बैठा ही था कि कोई बाहर से दरवाजश खटखटाने लगा। जोर-जोर से। थोड़ी देर तो राजीव चुपचाप बैठा रहा। पर खटखटाहट जब ज्यादा बढ़ गई तो वह खीझ कर बोला, ‘क्या बात है?’
‘कम आन हरि-अप !’ बाहर से कोई हड़बड़ाया हुआ बोला।
‘अभी तो मैं आया हूं। तुरंत कैसे आ जाऊं?’ राजीव अंदर से बोला।
‘ओह कौन कमबख़्त अंदर बैठा हुआ है?’ वह बिलबिलाता हुआ फिर से बोला, ‘कम आन !’
‘भई, अब आप के कहने से तो मैं तुरंत बाहर आने से रहा!’ राजीव को लगा कि बाहर वाला वह आदमी चाहे जो भी हो एक तो वह पढ़ा लिखा है दूसरे वह भी ‘प्रेशर’ में है। सो राजीव थोड़ा शिष्टता से बोला, ‘प्लीज दो चार मिनट का समय दीजिए।’
‘ओफ! गो इन हेल!’ वह आदमी बोला। फिर चुप हो गया।
दरवाजे का खटखटाना भी बंद हो गया था। राजीव उठा फ्लश चलाया, पैंट पहनी, बेल्ट बांधा और हाथ धोने के लिए बेसिन की ओर बढ़ा। वह हाथ धो ही रहा था कि दरवाजा खटखटाने की जगह कोई भड़भड़ाने लगा। आवाज एक से दो, दो से तीन हो कर बढ़ती गई। बाथरूम के दूसरे दरवाजे पर भी भड़भड़ाने की आवाज शुरू हो गई जो शायद पीछे बाहर की ओर खुलता था। पर राजीव ने इस भड़भड़ाहट की चिंता किए बगैर वहां रखे नए पियर्स साबुन से इत्मीनान से हाथ धोया। वहां रखी नई तौलिया से हाथ पोंछा और शीशे के सामने खड़ा हो कर टाई की नॉट ठीक करने लगा। उसे लगा कि गन्ना चूसने के चक्कर में उसके हाथ में लगा कालापन हलके से उसकी कमीज की कालर पर भी छू गया था। जो उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसने सोचा कि ऐसे में टाई निकाल कर जेब में रख ले। पर अभी वह यह सोच ही रहा था कि बाहर से किसी ने गाली दी, ‘कौन है साला! निकालो बाहर और तोड़ कर रख दो।’ ऐसी गाली भरी आवाजें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थीं। राजीव इन्हें सुन कर जरा घबराया। पर डरा नहीं। वह दरवाजे की तरफ बढ़ा। तभी कोई बड़ी सख़्ती से लेकिन धीमे से बोला, ‘शट अप! क्यों शोर मचा रहे हो तुम लोग!’ वह बोला, ‘तुम लोग चलो यहां से। महामहिम को देखो!’ तब तक राजीव दरवाजा खोल कर बाहर आ गया। बाहर आते ही दो लोगों ने उसे बड़ी शिष्टता से रोका और पूछा, ‘आप कौन हैं?’
‘क्यों क्या हुआ?’ राजीव भी माहौल को देखते हुए बड़े सर्द ढंग से बोला, ‘बात क्या है?’
‘मैं यहां का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हूं।’ वह राजीव से भी ज्यादा सर्द और धीमी आवाज में बोला, ‘और आप का परिचय?’
‘मैं राजीव!’ कह कर राजीव ने अपने अख़बार का नाम बताया और कहा कि, ‘लखनऊ से आया हूं।’ फिर उसने दुबारा पूछा, ‘आख़िर बात क्या है?’
‘बात कुछ नहीं।’ डी.एम. धीमे से बोला, ‘महामहिम राज्यपाल जी आए थे ट्वायलेट के लिए और आप अंदर थे।’ वह बुदबुदाया, ‘दो बार उन्होंने दरवाजा खटखटाया पर आपने खोला ही नहीं।’
‘वेरी सॉरी! पर मुझे क्या पता था कि राज्यपाल जी हैं।’ वह विस्मित होता हुआ बोला, ‘और फिर मुझे जो पता भी होता तो भी क्या कर सकता था? नेचुरल काल तो नहीं रोक पाता न!’ राजीव ने विवशता जताई और पूछा, ‘राज्यपाल जी हैं कहां? अब तो उन्हें बुला लीजिए। बता दीजिए कि ट्वायलेट ख़ाली है।’
‘अब बेकार है!’ डी.एम. खीझता हुआ बोला।
‘क्यों?’ राजीव ने पूछा।
‘इसलिए कि उन्हें भी नेचुरल काल लगी थी और वह भी रोक नहीं पाए !’
‘तो?’ राजीव चकित होते हुए बोला। उसने सोचा कि कहीं पैंट तो नहीं ख़राब हो गई महामहिम की? पर पूछा नहीं।
‘तो क्या! गए हैं सर्वेंट्स क्वार्टर के ट्वायलेट में। और वह साफ भी नहीं कराया गया था, गंदा ही होगा।’ डी.एम. बुदबुदाया, ‘हम लोगों की नौकरी तो गई समझिए !’
‘ऐसा कैसे हो सकता है?’ राजीव बोला।
‘ऐसा ही है!’ डी.एम. खीझता हुआ बोला। वह बोलते-बोलते अचानक अटका और साथ खड़े आदमी को देखते हुए जो कि शायद ए.डी.एम. था, राजीव का हाथ पकड़ाते हुए बोला, ‘इन्हें अभी यहीं रोको।’ कह कर भागता हुआ बाहर निकल गया। राजीव ने देखा बाहर राज्यपाल जी लॉन में खड़े कान खुजला रहे थे। और बगल में उन का ए.डी.सी. भी खड़ा था। राजीव भी राज्यपाल को देख कर लपका। तब तक उसका हाथ पकडे़ ए.डी.एम. ने उसे जोर से खींचा और भुनभुनाता हुआ बोला, ‘कहां जा रहे हो?’
‘राज्यपाल जी से मिलने।’ राजीव हाथ छुड़ाते हुए बोला। पर उसने उसका हाथ और कस कर पकड़ लिया। और बड़ी सख़्ती से बोला, ‘चुपचाप यहीं खड़े रहो।’
‘क्या मतलब है आप का?’ राजीव भी भड़कते हुए बोला।
‘बस चुपचाप खड़े रहो।’ कह कर उसने एक हाथ से राजीव का मुंह कस कर दबा दिया। राजीव ने देखा कि अगर उसका वश चलता तो वह उसे पीट भी देता सो वह चुप हो गया, यह सोच कर कि विवाद हो ही गया है। अब इसे और बढ़ाने से क्या फायदा? सो वह चुपचाप लॉन की ओर देखता रहा।
बेबस!
राज्यपाल और उनका काफिला 5 मिनट में ही सायरन बजाता उस डाक बंगले से निकल गया। राजीव ने एक लंबी जम्हाई ली और उस ए.डी.एम. टाइप अफसर से बोला, ‘अब तो जा सकता हूं?’
‘ऐसे कैसे चले जाओगे?’ वह गुर्राया, ‘प्रेस में भर्ती क्या हो जाते हो तुम लोग तोप बन जाते हो।’ उसने जोड़ा, ‘अभी चुपचाप यहीं खड़े रहो जब तक कोई आदेश नहीं आ जाता !’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब यह कि अब तुम सरकारी मेहमान हो।’
‘क्या?’
‘हां, अंडर कस्टडी।’
‘क्या, जुर्म है मेरा?’
‘इतना बड़ा कि एन.एस.ए. भी छोटा पड़े !’
‘एन.एस.ए. कैसे लग सकता है? यह तो हद है।’ राजीव बमका, ‘क्या ब्रिटिश रूल समझ रखा है! कि जब अंगरेज हिंदुस्तानियों को सड़क पर थूकने भी नहीं देते थे!’
‘जो समझो। वी.वी.आई.पी. सिक्योरिटी तोड़ने पर लगता यही ऐक्ट है!’ वह बड़ी तल्ख़ी से बोला।
‘एक मिनट के लिए छोड़िए मुझे !’
‘क्यों?’
‘राज्यपाल से मिलूंगा। उन्हें बताऊंगा। उसने जोड़ा, ‘वह मुझे अच्छी तरह जानते हैं।’
‘क्या उनके दामाद लगते हो?’
‘तमीज से बात करिए!’ राजीव बोला।
‘चोप्प साले। अभी सारी तमीज तुम्हारी गांड़ में घुसेड़ दूंगा।’ कह कर उसने राजीव को खा जाने वाली नजरों से देखा।
उसकी बात सुन कर राजीव समझ गया कि बात कुछ ज्यादा गड़बड़ हो गई है। तिस पर इस अफसर की बातचीत का ढंग उसे और मुश्किल में डाल रहा था। उस ने मन ही मन सोचा कि हो न हो यह प्रमोटी अफसर होगा। प्रमोटी क्या परम प्रमोटी होगा। तभी इस की बातचीत का तरीक सिपाहियों-दरोगाओं जैसा है। फिर उसने सोचा कि हो सकता है कि सादे कपड़ों में यह पुलिस वाला ही हो। वह यह सब अभी सोच ही रहा था कि तभी दो तीन पुलिस वाले भी आ गए। बोले, ‘सर आप जाइए।’
‘और इसका?’ वह राजीव को इंगित करते हुए बोला।
‘इसको हम लोग संभालते हैं सर! आप चलिए डी.एम. साहब ने याद किया है फंक्शन में ही।’ एक पुलिस वाला बोला जो शायद सी.ओ. रैंक का था। उस ए.डी.एम. के जाने के बाद वह सी.ओ. राजीव का हाथ पकड़े लगभग खींचते हुए बाहर चला। राजीव बुदबुदाया भी, ‘यह क्या कर रहे हैं?’ फिर उसने जोड़ा, ‘मैं कोई मुजरिम नहीं हूं!’
‘नहीं तू तो दामाद है!’ बोलते हुए उसने लॉन में थूका। और बोला, ‘तभी तो राज्यपाल को भी हगने नहीं दिया!’ कह कर वह उसे पास ही लगे तंबू में ले गया। तंबू में ले जाकर उस ने राजीव का हाथ छोड़ दिया। पूरा तंबू पुलिस और पी.ए.सी. से भरा पड़ा था। थोड़ी देर बाद पास ख़ाली पड़ी एक कुर्सी देख कर राजीव उस पर बैठ गया। लेकिन उसे कुर्सी पर बैठता देख वह सी.ओ. आग बबूला हो गया। चीख़ा, ‘राज्यपाल के बाथरूम में हगेगा और कुर्सी पर भी बैठेगा!’ चीख़ते हुए वह राजीव की ओर लपका। उसकी टाई पकड़ कर कसके खींचा और लगभग कनपटी मसलता हुआ बोला, ‘बैठने का बड़ा बूता है तो यहां बैठ!’ कह कर उसने राजीव को धप्प से जमीन पर बिठा दिया। राजीव ने प्रतिवाद भी किया, ‘देखिए मैं प्रेस से हूं और जरा तमीज से पेश आइए !’
‘चौप्प! भोंसड़ी के!’ वह फिर बमका। लेकिन धीरे से।
राजीव एक बार फिर चुप हो गया। पर उसका मन हुआ कि उस सी.ओ. के सारे बिल्ले नोच कर उसकी खोपड़ी तोड़ दे। बिलकुल किसी हिंदी फिल्म के किसी नायक की तरह! लेकिन दिक्कत यही थी कि वह हिंदी फिल्मों के नायक सरीखा नहीं, ‘एक बुजदिल नागरिक सरीखा था जिसका जुर्म यह था कि उसने उस डाक बंगले के ट्वायलेट का इस्तेमाल कर लिया था जिसे राज्यपाल के लिए धो-पोंछ कर सजाया गया था।
वह डबल ब्रैस का लकदक सूट पहने, टाई लगाए, उंकडू जमीन पर ऐसे बैठा था गोया कोई गिरहकट हो! लेकिन आहत और खौलता हुआ। तोप तो वह नहीं मानता था अपने को लेकिन एक स्वाभिमानी नागरिक तो मानता ही था। और यहां उसका स्वाभिमान ही नहीं, समूची नागरिकता आहत थी। ऐसे में वह कुछ सोच भी नहीं पा रहा था। लेकिन सांघातिक तनाव और अपमान का तंबू क्षण-ब-क्षण तनता ही जा रहा था। इतना कि उससे बैठा भी नहीं जा रहा था। पुलिसिया ख़ौफ में वह उंकड़ू हुआ ऐसे बैठा था गोया मुरगा बना हुआ हो। बैठे-बैठे पैर उसके जवाब दे रहे थे। और जब बहुत हो गया तो वह धीरे से वहीं जमीन पर पालथी मार कर बैठ गया। और सतर्क निगाहों से इधर-उधर देखा कि कहीं किसी पुलिस वालों को उसके इस तरह पालथी मार कर बैठने पर भी ऐतराज तो नहीं हो रहा?
ऐतराज कोई पुलिस वाला क्या करता भला? उसने देखा कि अब किसी पुलिस वाले की नजर भी उस पर नहीं थी। हालांकि चारों तरफ पुलिसिया बूटों की ही खड़बड़ाहट थी। पर चूंकि राज्यपाल समारोह स्थल पर जा चुके थे। इसलिए यह सभी अब अलसाए से सुस्त खड़े थे। तो कुछ एक तरफ बैठ कर ताश खेलने लगे थे। उसे लगा कि अब उस की ‘सजा’ ख़त्म हो गई है। वह अब चुपचाप यहां से चला जाए। थोड़ी देर बाद वह उठ कर खड़ा हो गया। खड़ा हो कर उसने कपड़ों की धूल झाड़ी। जब उसने देखा कि उस के खड़े होने पर भी कहीं से ऐतराज ‘दर्ज’ नहीं हुआ तो वह धीरे-धीरे टहलता हुआ तंबू के एक छोर पर आ गया। वह अभी तंबू पार करता कि अचानक एक राइफल की संगीन उसके सीने पर आ गई। वह हकबका कर बोला, ‘क्या है?’
‘कहां जा रहे हो?’ पुलिस का सिपाही घुड़का।
‘कहीं नहीं।’ राजीव खिसियाया हुआ डरा-डरा बोला।
‘तो कहीं जाना भी नहीं ! साहब बोल गए हैं।’
‘ठीक है भई!’ राजीव बोला, ‘मैं तो बस यूं ही यहां तक आ गया था।’
‘तंबू से बाहर मत जाना।’ वह थोड़ी दया और एहसान घोलते हुए बोला, ‘तंबू में ही इधर-उधर घूम सकते हो!’
‘शुक्रिया !’ संक्षिप्त सा बोल कर राजीव वहीं खड़ा रह गया।
उधर समारोह लंबा खिंचता जा रहा था। रबर की तरह। मंच से बार-बार ऐलान हो रहा था कि, ‘दिलीप कुमार बस आने ही वाले हैं। आप लोग रुके रहें। जाएं नहीं। शांति बनाए रखें।’ दरअसल भीड़ आई भी थी दिलीप कुमार के चक्कर में। और पिस रहे थे बेचारे राज्यपाल।
आज का दिन जैसे राजीव के लिए ख़राब था वैसे ही राज्यपाल के लिए भी अच्छा नहीं था। एक तो उन्हें नेचुरल काल के लिए सर्वेंट्स क्वार्टर के गंदे ट्वायलेट में जाना पड़ा। दूसरे, अब दिलीप कुमार आने में देरी करके सता रहे थे।
‘दिलीप कुमरवा साला आएगा भी कि नहीं का पता?’ एक सिपाही बिलबिलाया, ‘का पता भीड़ बटोरने के लिए ही ससुरे दिलीप कुमार का नाम जोड़ दिए हों!’
‘दिलीप कुमरवा चाहे आए न आए, राज्यपाल तो आज पिसा गया सरवा!’ एक दरोगा मजा लेता हुआ बोला।
‘काहें का हुआ?’ एक दूसरे दरोगा ने दिलचस्पी ली।
‘दिलीप कुमार बिना आए एक घंटे से उनको वहां मंच पर बैठाए है। और सुना है कि एक ठो प्रेस वाले ने आज उन की हगनी-मुतनी भी बंद करवा दी!’ दरोगा ठिठोली करता हुआ बोला।
‘वो खड़ा है सर, यहीं पर!’ एक सिपाही ने दरोगा को बताया।
‘कहां-कौन खड़ा है रे?’ वह दरोगा पान कूंचता हुआ बोला।
‘प्रेस वाला सर!’ सिपाही ने उसे अदब से बताया।
‘कहां?’ दरोगा अपने को जब्त करते हुए ठिठका।
‘आपके पीछे सर!’ सिपाही ने फिर बताया।
‘का बे तुम्हीं वह प्रेस वाला है?’ दरोगा पीछे मुड़ता हुए थोड़ा मजाक, थोड़ी सख़्ती घोलता हुआ बोला।
राजीव ने मुंह बिचका कर सिर हिला दिया। पर कुछ बोला नहीं।
‘सूट बूट, टाई-साई तो बड़ा लहरदार झोंके हुए है।’ वह अपने साथ के दरोगा से चेहरा मटकाता हुआ बोला। फिर राजीव से कहने लगा, ‘लेकिन तेरा हिम्मत कैसे पड़ गया राजपाल के बाथरूम में जाने का?’ उसने जोड़ा, ‘राजपाल को भी डी.एम॰, एस.पी. समझ लिया था कि घुड़प दोगे तो डर जाएगा।’ वह बोला, ‘अरे राजपाल अंगरेजों का बनाया ओहदा है! तवनो ई राजपाल तो पुरहर अंगरेज है।’ दरोगा ने अपनी छाती फुला कर चौड़ी कर ली।
अभी इन दोनों दरोगाओं की जुगलबंदी चल ही रही थी तंबू के पास हनहनाती हुई पुलिस जीप आ कर खड़ी हो गई। उसमें से एक मोटा सा दरोगा कूद कर उतरा। तंबू में आया बोला, ‘वो प्रेस वाला कहां है?’
‘मैं हूं।’ राजीव लपक कर आगे आते हुए बोला। यह सोच कर कि अब इस यातना से उसे शायद छुट्टी देने का फरमान लाया हो यह दरोगा।
‘चलो मेरे साथ!’ वह अकड़ता हुआ बोला।
‘कहां?’ पूछा राजीव ने।
‘ससुराल ! और कहां?’ वह और बिगड़ा।
‘मतलब?’ राजीव डिप्रेस होता हुआ बोला।
‘असली ससुराल तो हो सकता है कल तक जाओ पर अभी तो छोटी ससुराल चल!’ कहते हुए वह उन दरोगाओं से बोला, ‘साहब ने इसे थाने ले चलने के लिए कहा है!’
दो सिपाही उसे पकड़ कर पुलिस जीप में ले गए।
वह जीप में बैठ ही रहा था कि एक दुबला पतला मरियल सा फोटोग्राफर दिख गया। राजीव उसे जानता भी नहीं था। शायद लोकल फोटोग्राफर था। फिर भी राजीव ने उसे बुलाया, ‘सुनिए!’ वह बेधड़क राजीव के बुलाने पर पुलिस जीप के पास आ गया। छूटते ही राजीव ने उस से पूछा, ‘आप प्रेस फोटोग्राफर हैं?’
‘हां।’ उस ने बनाया।
फिर तो राजीव ने उसे एक सर्रे से अपना पूरा परिचय दिया, दिक्कत बताई और कहा कि, ‘लखनऊ से आए प्रेस वालों को तुंरत जा कर बता दीजिए कि ऐसी-ऐसी बात है। वह लोग राज्यपाल को घेर कर बता दें कि मुझे एन.एस.ए. में बंद कर दिया गया है।’
‘ठीक है भाई साहब!’ वह उत्साहित होता हुआ बोला, ‘घबराइए नहीं। मैं अभी जाता हूं।’ उसने जोड़ा, ‘हम लोग अभी थाने पर भी आते हैं।’
‘थैंक्यू! लेकिन लखनऊ वालों को बता जरूर देना!’
‘आप घबराइए नहीं भाई साहब!’ कहता हुआ वह समारोह स्थल की ओर लगभग दौड़ पड़ा।
और पुलिस जीप थाने की ओर।
—-जारी—-
लेखक दयानंद पांडेय पिछले 32 सालों से पत्रकारिता के पेशे में सक्रिय दयानंद पांडेय अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए चर्चित हैं। उनकी अब तक एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके दो उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। गोरखपुर जिले के गांव बैदौली के निवासी दयानंद पांडेय को उनके उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से प्रेमचंद सम्मान और ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ कहानी संग्रह पर यशपाल सम्मान मिल चुका है। ‘अपने-अपने युद्ध’ उनका अब तक सबसे चर्चित उपन्यास रहा है। अन्य उपन्यास हैं- दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल और कहानी संग्रह हैं- बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष-प्रश्न। सूरज का शिकारी बाल कहानी संग्रह है। दयानंद पांडेय से संपर्क इन माध्यमों से किया जा सकता है- पोस्टल एड्रेस- दयानंद पांडेय, 5/7, डालीबाग, लखनऊ. फोन नंबर : 0522-2207728, मोबाइल नंबर : 09335233424 मेल :दयानंद पांडेय के उपन्यास अपने-अपने युद्ध को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं- अपने-अपने युद्ध
prashant kumaar
August 1, 2010 at 11:07 am
An excellent and marvelleous story after “Apne-Apne Yudh”. I was waiting for your next masterpiece and it appeared on bhadas4media. This is really written in a woderful and mesmerizing words. Chaliye kam se kam log yeh bhi to jane ki rajyapal bhi hagta hai warna log to bade log ke baare mein aisa soncte bhi nahi hai. DNP Sir thank you very much for giving the opportunity to read this masterpiece on bhadas. Thanks a lot.
xxx
August 1, 2010 at 12:08 pm
padhane ki sochte hi neend aane lagi .
isee post ko yadi do ya teen bar mein dete to rochak hota.
bhai maaf karna…..padhke naraz mat hona…
हरिओम गर्ग
August 1, 2010 at 2:07 pm
Aadarniye pandey ji
wastav men dilchasp hai.
hota hai press walon ke saath aisa bhi hotahai plz ise poori kijiye.
Hariom garg
BIKANER.
arun sathi
August 1, 2010 at 2:23 pm
koi to samajh raha hai.
राजीव शर्मा
August 2, 2010 at 5:08 am
दनपा को किसी ऐसे सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं जो ये साबित करे कि वो बेहतर कहानीकार और कहानीवाज हैं…सच्चाई पर आधारित इस कहानी का साक्षी मैं भी रहा हूं…फिर भी मुझे उत्सुकता कि कहानी का बाकी हिस्सा भड़ास पर जल्द अवतरित हो…
Imran Zaheer, Moradabad
August 2, 2010 at 5:44 am
Dyanand ji, Great story hai, lekin aapne TV dharavahik ki trah suspense banaye rakha ki akhir us patrakaar ke saath kya hua, jaldi he is story ka dusra aur antim bhaag prakashit kare.
Dhanyawaad !
Narendra Dubey
August 2, 2010 at 6:44 am
Great Bhai saab… keep it up:)
deepak baba
August 4, 2010 at 3:30 pm
दादा, बहुत दिन से अपने अपने युद्ध के बाद कुछ प्रतीक्षा में था. आपने प्रतीक्षा समाप्त की – आभार, – मुजरिम चाँद मुफ्त में परोसने का. अब क्या कहें. सही बात तो ये है की हिंदी के सुधि पाठक भी खरीद कर पड़ने में शर्म करते हैं.
😀
A Ram Pandey
August 5, 2010 at 7:53 am
Patience rakhana muskil ho jata hai yek sath hi chhap diya kariye bhai sab