: भाग 30 : काम की अधिकता के बीच ‘दैनिक जागरण’ में हल्के-फुल्के क्षण भी आते रहते थे। और ऐसे क्षण पैदा करने में नौनिहाल को महारत हासिल थी। वे हमेशा मजाक के मूड में रहते थे। गंभीर चर्चा के बीच भी फुलझडिय़ां छोड़ते रहते थे। अक्सर इसमें सबको मजा आता। लेकिन कभी-कभी लेने के देने पड़ जाते।
ऐसा ही एक बार रतीश झा यानी दादा से मजाक करने के चक्कर में हुआ। दादा मेरठ में अकेले रहते थे। खुद ही बनाते-खाते थे। हुआ ये कि एक दिन मैं दफ्तर पहुंचा, तो एक महिला को संदूक के साथ गेट के पास बैठे देखा। वाचमैन से पूछा कि किससे मिलने आयी हैं। उसने जरा तल्खी से कहा, ‘इतनी देर से पूछ रहे हैं। पर ये कह रही हैं कि हम उनके घर से हैं। किसके घर से, यह पूछने पर कहती हैं कि अब उनका नाम कैसे लें?’
मैं उनके पास गया। उन्हें अपना परिचय देकर कहा कि वे अपने ‘उनका’ नाम भले ही ना बतायें, हुलिया बता दें। वे बोलीं, ‘गोरे-गोरे से हैं। धोती-कुर्ता पहनते हैं। खाना खुद ही बना लेते हैं।’
इतना परिचय काफी था। मैं समझ गया, ये दादा की पत्नी हैं। स्टेशन से सीधे यहां आ गयी हैं। मैंने अपने विभाग में जाकर देखा, तो रमेश गोयल और नौनिहाल कुछ बात कर रहे थे। मैंने उन्हें माजरा बताया। नौनिहाल बोले, ‘दादा पेशाब करने गये हैं। आयें तो कहना कि दादा, दादी आयी हैं। बाहर बैठी हैं।’ इतने में दादा सचमुच आ गये। मैं बात का मतलब समझता, उससे पहले ही नौनिहाल ने इशारा किया कि दादा को तुरंत सूचना दी जाये। … और मेरे मुंह से निकल ही गया, ‘दादा, दादी आयी हैं।’
‘कौन दादी? किसकी दादी?’
‘आपकी दादी। बाहर संदूक लेकर बैठी हैं।’
दादा बाहर गये। अपनी पत्नी को देखा। उनके पास जाने के बजाय हमारी ओर पलटे। हम उनके पीछे-पीछे वहां तक आ गये थे। और दादा ने मुझे दौड़ा लिया, ‘बदमाश, हमारी महरारू को लेकर मजाक करता है! छोड़ूंगा नहीं।’
मैं आगे-आगे, दादा पीछे-पीछे। वो तो भला हो रमेश गोयल का, जो उन्होंने मुझे बचा लिया। दादा को यह बताकर कि ये डायलॉग मेरा नहीं, बल्कि नौनिहाल का है। दादा उनसे वैसे ही खार खाये रहते थे। बोले, ‘वो तो शरारतियों का अगुआ है। पर अगर वो आपको कुआ में कूदने को कहेगा, तो आप कूद जाइयेगा का?’
इस बीच वहां काफी लोग जमा हो गये थे। हंसते -हंसते सबका बुरा हाल था।
लेकिन इससे भी मजेदार किस्सा हुआ गोल मार्केट में। हम वहां रोज की तरह चाय पीने गये थे। अचानक हाथ में धोती की लांग संभाले दादा आ गये। हम चाय-समोसे के साथ गपशप कर रहे थे। दादा की नजर कढ़ाही से निकलते रसगुल्लों पर पड़ी। हलवाई से बोले, ‘दादा, रसगुल्ले क्या किलो दिये?’
‘एक रुपये का एक।’
‘नहीं दादा, किलो बताओ।’
‘किलो में नहीं मिलता।’
‘हम तो किलो में ही लेंगे।’
‘कितना किलो?’
‘दाम बताओ।’
‘आप बात तो ऐसे कर रहे हो जैसे 100 रसगुल्ले लेने हैं।’
‘एक किलो में कितना रसगुल्ला आयेगा?’
‘तकरीबन 25।’
‘ठीक है। हम चार किलो खा लेंगे।’
‘चार किलो?’
‘दादा, ऐसे बुड़बक की तरह क्या देख रहे हो? चार किलो में 100 ठो ही तो हुआ ना? उतना खा लेंगे हम।’
‘अगर आपने 100 रसगुल्ले खा लिये, तो मैं आपसे एक भी पैसा नहीं लूंगा। पर अगर नहीं खा पाये तो?’
‘सुनिये दादा, अगर हमने 100 खाये, तो एक पैसा नहीं देंगे। अगर 99 पर रुक गये, तो दूसो का पैसा देंगे।’
इस तरह मजाक में शुरू हुई बात में दादा और हलवाई के बीच शर्त लग गयी। बात पूरे गोल मार्केट में फैल गयी। वहां करीब 50-60 लोग इकट्ठा हो गये। सबको अचरज हो रहा था। 100 रसगुल्लों की शर्त!
दादा ने एक चुल्लू पानी पिया। एक कटोरी उठायी। बोले, ‘दादा, इसमें चार-चार रसगुल्ले रखते जाओ। हम खाते जायेंगे। आप गिनते जाओ। हर 25 रसगुल्ले खाने के बाद हम थोड़ा सा पानी पियेंगे। थोड़ा टहलेंगे। फिर आकर खाने लगेंगे। अब हमें ऐसे घूरिये मत। कहीं जायेंगे नहीं। यहीं सबके सामने शर्त पूरी करेंगे।’
इस तरह दादा ने 100 रसगुल्ले खाना शुरू किया। वे चार रसगुल्ले फटाफट गड़प कर जाते। फिर हलवाई के आगे कटोरी कर देते। जब तक दादा 20 तक पहुंचे, गोल मार्केट में 100 से ज्यादा लोग इकट्ठे हो गये। भीड़ देखकर आसपास से गुजरने वाले लोग भी वहां जमा होने लगे। 25 रसगुल्ले खाकर दादा ने कुछ घूंट पानी पिया। तोंद पर हाथ फेरा। गोल मार्केट के पार्क के दो चक्कर लगाये। फिर आकर रसगुल्ले खाने लगे।
गिनती 50 तक पहुंची।
75 तक पहुंची।
दादा आधे घंटे में 90 पार कर गये। अब गोल मार्केट खचाखच भर गया था। हलवाई का चेहरा उतर गया था। जो कुछ हो रहा था, उसे इसकी उम्मीद नहीं थी।
97, 98, 99, 100 …
दादा ने 100 वां रसगुल्ला खाकर डकार ली। आगे बढ़कर देखा। कढ़ाही में अब भी करीब 10-12 रसगुल्ले बचे थे। दादा बोले, ‘लाओ दादा, ये भी खिला दो। अभी और खा सकते हैं।’
हलवाई रिरियाकर बोला, ‘माफ करना साहब। तुम जीते, मैं हारा। अब ये तो छोड़ दो।’
‘ठीक है। छोड़ो। अब तो कभी शर्त नहीं लगाओगे?’
‘नहीं साहब। अपने बच्चों से भी कह जाऊंगा।’
हम दफ्तर की ओर चले। दादा के विजय जुलूस के रूप में। दादा मदहोशी की चाल में आगे-आगे। रमेश चपरासी उनकी साइकिल लेकर उनके साथ-साथ। और पीछे नारे लगाते हम – 100 रसगुल्ले खाकर दादा दफ्तर को चले!
इस बात की चर्चा महीनों तक रही। लेकिन उन्होंने ऐसा ही एक पराक्रम एक बार मेरे साथ कर दिया। मेरे परिजन गांव गये थे। मैं अकेला था। मैं दिन में कॉलेज की कैंटीन में खाना खा लेता था। रात को दफ्तर से निकलकर बेगम पुल पर मारवाड़ी भोजनालय में खाता था। एक दिन दादा ने पूछ लिया कि खाना कहां खाते हो? मैंने बता दिया।
‘कैसा खिलाता है?’
‘अच्छा होता है।’
‘नहीं दादा, हम पूछ रहे हैं कि कितने में खिलाता है?’
‘छह रुपये में।’
‘कितना।’
‘भरपेट।’
‘तो दादा, एक दिन हम भी चलेंगे।’
नौनिहाल को मैंने यह बताया, तो वे बोले, ‘पेमेंट पहले कर देना। नहीं तो वहां अपमान भी हो सकता है।’
खैर। एक बार रात को ड्यूटी खत्म करके मैं दादा को लेकर मारवाड़ी भोजनालय पहुंच गया। मैनेजर मेरा परिचित था। मैंने उसे 12 रुपये दे दिये कि दो लोगों को खाना है। हम बैठ गये। वेटर ने परोसना शुरू किया। थाली में कटोरियां रखकर दाल-सब्जी वगैरह दीं, तो दादा बोले, ‘अरे दादा, ये पतीली इधर ही रख जाओ।’
इस तरह दादा बार-बार पतीली रखवा लेते। यही हाल रोटियों और चावल का हुआ। पापड़ भी खत्म होते चले गये। अब तक सारे ग्राहक पलट-पलट कर दादा को कौतुक से देखने लगे थे। मुझे अजीब सा लग रहा था। थोड़ी देर में मैनेजर हमारी टेबल पर आया। मेरे कान में फुसफुसाकर बोला, ‘इन साहब को ये मत बताना कि खाने के साथ खीर भी मिलती है।’
उन्हें डर था कि कहीं दादा सारी खीर भी चट न कर जायें।
अगले दिन मैंने दफ्तर में सबको ये किस्सा सुनाया। हंसते-हंसते सबके पेट में बल पड़ गये। इसके बाद दादा ने कई बार खाने को लेकर शर्त लगाने की कोशिश की। पर कोई कभी उनसे शर्त लगाने को तैयार नहीं हुआ। आखिर दादा ने दफ्तर में चूड़ा लाना शुरू कर दिया। वे मेज पर एक अखबार पर चिवड़ा रख देते। फिर सब मिलकर खाते। लेकिन कोई भी उनके साथ बाहर खाने नहीं जाता था।
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
deepak dudeja
August 14, 2010 at 10:32 am
हाँ, ऐसे भी लोग थे. आज जैसे नहीं की हर चीज़ टोल टोल कर खाते है. बिंदास. खाते और बिंदास जीते थे. कोई दुराव छुपाव नहीं.
dev shrimali
August 17, 2010 at 7:38 am
Zindgi zindadili ka naam hai
murda dil kya khak ziya karte hai
—Dev shrimali
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