: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।
कभी पहले पेज की टीम का कोई छुट्टी पर होता, तो किसी और डेस्क से किसी उपसंपादक को पेज एक पर भेजा जाता। आम तौर पर लोग उससे बचने की कोशिश करते, क्योंकि पलाशदा अनुवाद बहुत कराते थे। अगर कोई उनसे कहता कि भाषा या वार्ता का तार (टेलिप्रिंटर पर आने वाली खबर) आने का इंतजार कर लिया जाये, तो वे कहते, ‘जो खबर आ गयी है, उसे आगे बढ़ा दिया जाये। सबके हिन्दी टेक (तार का ही एक और नाम) का इंतजार करते रहे, तो सारी खबरें बनाने के लिए इकट्ठी होती रहेंगी।’
अनुवाद करने से रमेश गोयल और विवेक शुक्ला पीछे नहीं हटते थे। विवेक की अंग्रेजी अच्छी थी। गोयलजी का तो दावा था कि उन्होंने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के अनिल माहेश्वरी को भी अंग्रेजी सिखायी है। पलाशदा पीटीआई, यूएनआई, भाषा और वार्ता एजेंसियों के टेलिप्रिंटरों के तार बहुत तेजी से छांटते थे। मैंने नौनिहाल को तार छांटते देखा था और जल्दी छंटाई की तरकीब भी उनसे सीखी थी। पर पलाशदा का कोई मुकाबला नहीं था। उनके सामने तारों का ढेर होता। बिजली की तेजी से उन पर आंखें घूमतीं और साथ-साथ चलते हाथ। सैकड़ों खबरों को मिनटों में छांट डालते।
सबको खबरें बांटकर लीड खुद बनाने बैठ जाते। लिखते भी बहुत तेज थे। उनकी लिखावट घसीट वाली थी। ऑपरेटरों को उसका आदी होने में जरा वक्त लगा। पर उसके बाद तो उनमें और उनकी खबर चला रहे ऑपरेटर में कई बार होड़ लग जाती। छपते-छपते कोई बड़ी खबर पीटीआई पर आ जाती, तो पलाशदा उसका अनुवाद करते जाते। रमेश या ओमप्रकाश चपरासी एक-एक पेज ऑपरेटर को दे आता। जब तक ऑपरेटर उसे कंपोज करता, तब तक उसके पास दूसरा पेज आ जाता।
सुनील पांडे बहुत मनोयोग से अनुवाद करते। पहले पूरी खबर पढ़ डालते। फिर महत्वपूर्ण अंशों को अंडरलाइन करते। उसके बाद अनुवाद करना शुरू करते। रमेश गौतम बहुत साफ कॉपी लिखते थे। छोटे-छोटे अक्षरों की अपनी सुंदर लिखावट में वे पहले बहुत नफासत से पेज नंबर और कैच वर्ड डालते। फिर अपना ओरिजिनल इंट्रो लिखते। खूब सोचकर। एकदम क्रिएटिव इंट्रो। इसमें उन्हें आधा घंटा लगता। फिर 600-700 शब्द की खबर लिखने में 20 मिनट से ज्यादा नहीं लगते थे।
2 सितंबर, 1985 को संत हरचंद सिंह लौंगोवाल की हत्या पर गौतमजी की लिखी खबर का इंट्रो मुझे अब तक याद है- ‘संत हरचंद सिंह लौंगोवाल ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से शांति समझौता करके जो पहल की थी, आज उसका कत्ल कर दिया गया। अपने गांव लौंगोवाल के पास शेरपुर गांव के गुरुद्वारे में खालिस्तानी उग्रवादियों की बंदूकों से निकली गोलियों ने केवल लौंगोवाल की ही जान नहीं ली, बल्कि उग्रवाद से जूझ रहे इस राज्य की शांति की उम्मीद पर भी जानलेवा हमला किया। खुशियों के सूरज की आस लगा रहे पंजाब के सामने एक बार फिर लंबी अंधेरी सुरंग आ गयी है।’
यह खबर किसी एजेंसी की नहीं थी। गौतमजी ने एजेंसियों की तमाम खबरें पढ़कर इसे अपने मन से लिखा था। उन्होंने यह इंट्रो सबको पढ़कर सुनाया। नौनिहाल ने उनसे कॉपी लेकर देखी। और मुझसे बोले, ये देख, ये है इंट्रो। आज दिल खुश हो गया। सबको मेरी तरफ से चाय। उन दिनों जागरण में कैंटीन नहीं थी। चाय पीने हमें गोल मार्केट जाना पड़ता था। यह सामूहिक चाय होती। मतलब सब कंट्रीब्यूट करते। पर कभी-कभी किसी की तरफ से चाय की पार्टी होती, तो रमेश चपरासी गोल मार्केट से केटली में चाय ले आता। तो गौतमजी के उस इंट्रो ने सबको दफ्तर में ही चाय पिलवा दी।
रतीश झा खबर लिखते हुए बहुत गंभीर दिखते। वे इंट्रो और हैडिंग लिखने के बाद उन्हें अलग-अलग कोण से मुंह बनाकर पढ़ते। वह देखने लायक सीन होता। वे एक पैरा लिखते और फिर जांघ पर खुजाते। यह उनकी आदत थी। कभी-कभी खबर लिखने के दौरान ही उन्हें ख्याल आता कि सब्जियां महंगी हो गयी हैं। (वे तब मेरठ में अकेले ही रहते थे। खाना खुद बनाते। एक वक्त तो दही-चूड़ा तय ही था। पर एक वक्त पूरा खाना बनाते। इसलिए उन्हें सब्जियों के ताजा दाम हमेशा रटे रहते।) और फिर वे हर चीज की कीमत बताते। इसका मुझे यह फायदा होता कि जब मम्मी से महंगाई के बारे में बताता, तो वे चकित रह जातीं कि पत्रकार बनकर सब चीजों का पता कैसे चल जाता है!
विभाग में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनकी अंग्रेजी कमजोर थी। वे मन ही मन मनाते रहते कि पलाशजी या नन्नू भाई की शिफ्ट में ना पड़ जायें। आखिर वे ही अंग्रेजी से सबसे ज्यादा अनुवाद कराते थे। अशोक त्रिपाठी और द्विवेदी जी भाषा और वार्ता की खबरें बहुत तेजी से बनाते थे। रमेश गोयल को खबर बनाते हुए सबको खबर सुनाने की आदत थी। एक नमूना देखिए – अरेत्तेरे की! चंडीगढ़ में एक औरत को चार बच्चे हुए। राम-राम! हे भगवान! कैसे पालेगी बेचारी। यहां हमारे दो ही नाक में दम किये रहते हैं।
लोकल डेस्क के इंचार्ज अभय गुप्त बहुत गंभीरता से खबर लिखते। उन्हें बीच में किसी की आवाज जरा भी पसंद नहीं थी। कोई बोलता, तो वे कहते, ‘बंधु, बातें बाद में। पहले काम। काम खत्म हो जाये, तो हम सब मिलकर बातें करेंगे।’
विश्वेश्वर कुमार अपनी मूंछों को सहलाते हुए खबरें बनाता। ओ. पी. सक्सेना गुनगुनाते हुए। उसे अचानक कोई गीत सूझ जाता और वह उसकी लाइनें भी साथ-साथ लिखता जाता।
मंगलजी हर पेज का काम देखते रहते। लेकिन उनकी नजर रहती लोकल पर ही। वे लोकल खबरों को पाठकों की नब्ज मानते थे। पर वे हर पेज की खबरों में रुचि रखते। हैडिंग देखते। उनमें बदलाव कराते। किसी का काम समझ में न आता, तो कहते, ‘तुमने कर ली पत्रकारी!’ लेकिन सबसे मजेदार होता नौनिहाल को खबर लिखते देखना। चूंकि वे सुन नहीं सकते थे, इसलिए बिना किसी बाधा के वे काम में लगे रहते। उनकी खूबी यह थी कि वे सबसे पहले हैडिंग लिखते। वैसे खबर का हैडिंग आखिर में लिखा जाता है।
लेकिन नौनिहाल का स्टाइल अलग था। हैडिंग वे बहुत कलात्मक ढंग से लिखते। मानो कोई पेंटिंग बना रहे हों। सभी शब्दों के ऊपर शिरोरेखा एक ही लाइन के रूप में होती। वक्राकार। कुछ पल हैडिंग को देखकर वे खबर लिखना शुरू करते। बहुत छोटे और खूबसूरत अक्षरों में। मैंने आज तक इतनी सुंदर लिखावट नहीं देखी। एक पेज पर बाकी लोग करीब 300 शब्द लिखते।
नौनिहाल के एक पेज पर कम से कम 800 शब्द होते। उनकी लिखी खबर पढ़कर ऐसा लगता, मानो किसी बहुत टेस्टी डिश का स्वाद लिया जा रहा हो, या कोई शानदार पेंटिंग देखी जा रही हो। और इस सबको वे खुद भी बहुत एंजॉय करते थे!
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
निर्मल गुप्त
July 3, 2010 at 5:50 pm
भुवेंद्रजी ,
आपने ८० का दशक याद करा दिया .कहिन का अंदाज़ बढ़िया है .
निर्मल
Dr Mandhata Singh
July 4, 2010 at 5:40 pm
भुवेंद्र त्यागी जी आपने अपने संस्मरणों से जान-अनजाने हमें भी सीखने के दौर की याद ताजा कर दी है। हम आपको और आप हमको तो व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानते मगर हम दोनों पलाश जी को अवश्य जानते हैं। पलाश जी बिल्कुल नहीं बदले हैं। आज भी उसी विचारधारा की धारा में प्रवाहमान हैं। भड़ास में जारी इस बहुमूल्य संस्मरण के लिए धन्यवाद।
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Rakesh bhartiya austraila
July 6, 2010 at 12:38 am
Excellent !!! i remember everything of my past days in daink jagran and amar ujaala
thanx tyagi ji thx for excellent writeup !!!
Rakesh sharma bhartiya
melbourne austraila
[email protected]