भाग 13 : अगले दिन मैं नौनिहाल से आशीर्वाद लेकर ‘दैनिक जागरण’ जॉयन करने पहुंचा। दिल बल्लियों उछल रहा था। जाकर भगवतशरण जी को नमस्कार किया। उन्होंने कमलेश अवस्थी से मिलने को कहा। वे प्रोडक्शन से लेकर पर्सनल तक बहुत कुछ देखते थे। उनकी नाक चढ़ी रहती थी। उन्होंने एप्लीकेशन मांगी। मैंने लिखकर दे दी। वे भड़क गये।
‘तुम ना तो 18 साल के हो और ना ही ग्रेजुएट हो। नौकरी पर कैसे रख लें?’
तब मेरी उम्र साढ़े सत्रह साल थी और मैंने बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा दी थी। उसका भी रिजल्ट अभी नहीं आया था।
‘पर मेरा अपाइंटमेंट भगवतशरण जी ने किया है।’
‘भगवत जी भी पता नहीं कैसे अपाइंट कर लेते हैं। तुम तो नौकरी के लिए एलिजिबल ही नहीं हो।’
मैं एकदम नर्वस हो गया। किससे सलाह लूं? नरनारायण गोयल भी ‘मेरठ समाचार’ से जागरण आ गये थे। पर वे अभी दफ्तर नहीं पहुंचे थे। भगवत जी धीरेन्द्र मोहन के केबिन में थे। मैंने उनकी टेबल से ही ‘मेरठ समाचार’ के ïदफ्तर में फोन लगा दिया। मुझे पता था कि नौनिहाल अभी दफ्तर में ही होंगे। एक कंपोजिटर ने फोन उठाया। मैंने उसे समझाया कि नौनिहाल से बहुत जरूरी सलाह लेनी है। जो मैं बोलूं वह नौनिहाल के सामने कागज पर लिख देना और जो वे लिखें, वह मुझे बता देना।
कई मिनट तक मैं नौनिहाल से ‘सलाह’ लेता रहा। शायद ऐसी काउंसलिंग पहले किसी ने नहीं ली होगी। आखिर में नौनिहाल ने एक अजीब सी ‘टिप’ दी- अब तेरे सामने एक ही रास्ता है। भगवत जी के सामने जाकर सारी बात कह दे। उन्हें ये समझाने की कोशिश कर कि आपने तो मेरा इंटरव्यू लेकर मेरा अपाइंटमेंट किया था, पर अवस्थी जी मुझे अपाइंटमेंट लैटर नहीं दे रहे।
मैं कुछ देर यों ही भगवत जी की मेज के सामने बैठा रहा। इस बीच अवस्थी जी कई बार मुझे घूरकर चले गये। कोई आधे घंटे बाद भगवत जी आये। मैंने उनसे सब कुछ बता दिया। जैसा कि नौनिहाल ने सोचा था, भगवत जी ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। मुझसे बोले- चलो मेरे साथ… और मैं उनके पीछे हो लिया। वे सीधे धीरेन्द्र मोहन के ऑफिस में घुस गये। आग-बबूला होकर बोले, ‘धीरेन्द्र बाबू ऐसे कैसे चलेगा? मैं अपाइंटमेंट करता हूं और कमलेश बाबू अपाइंटमेंट लैटर नहीं देते।’
‘क्या हुआ भगवत जी? मामला क्या है?’ , धीरेन्द्र मोहन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
‘मैंने इन्हें (मेरी ओर इशारा करके) खेल पेज पर काम करने को अपाइंट किया है। कमलेश बाबू इन्हें लैटर नहीं दे रहे।’
इस बीच मैं असहाय सा खड़ा रहा। धीरेन्द्र मोहन ने आखिर मुझसे कहा, ‘देखो, भगवत जी को शायद पता नहीं था कि तुम इस नौकरी के लिए एलिजिबल नहीं हो। इसीलिए अवस्थी तुम्हें लैटर नहीं दे रहे। कुछ रास्ता तो निकालना पड़ेगा।’
मुझे उम्मीद नजर आयी। वे आगे बोले, ‘एक काम करो। शहर के दो जाने-माने लोगों से एक बांड भरवाकर लाओ कि तुम अपनी मर्जी से यह नौकरी कर रहे हो। तुम पर किसी का दबाव नहीं है। और तुम पांच साल यहां जरूर काम करोगे। अगर इससे पहले काम छोड़ा तो उन दोनों लोगों से दस-दस हजार रुपये वसूल किये जायेंगे।’
मैंने कहा कि अभी ले आता हूं बांड भरवाकर। आप पेपर दिलवाइये। उन्होंने अवस्थी जी को बुलाकर पूरी बात दोहरा दी। अवस्थी जी के चेहरे पर असहमति का भाव उभरा, पर धीरेन्द्र जी की मुख मुद्रा देखकर वे चुप लगा गये। बाहर आकर मुझसे पूछा, किससे सिफारिश करवाई है? मैंने कहा- किसी से भी नहीं। आप चाहो तो धीरेन्द्र बाबू से पूछ लो।
उन्होंने अनमने से होकर मुझे बांड पेपर दिये। मैंने नौनिहाल के घर की ओर साइकिल दौड़ायी। अब तक उनका घर पहुंचने का समय हो गया था। मैंने उन्हें बांड पेपर दिखाये। पेपर देखकर नौनिहाल बोले, ‘ये कोई बड़ी बात नहीं है। किसी से भी भरवाकर दे दे।’
मैंने मेरठ के मशहूर डॉक्टर अनिल प्रसाद (अब स्वर्गीय) और स्टेट बैंक के ब्रांच मैनेजर डी. डी. मिश्रा से बांड भरवा लिये। यह सब करके मैं पांच बजे फिर जागरण के दफ्तर में पहुंच गया। अब तक नन्नू भाई भी आ गये थे। उन्होंने इशारे से मुझसे पूछा कि क्या हुआ। जाहिर है कि इस बारे में इस बीच वहां काफी चर्चा हो चुकी थी। मैंने बांड अवस्थी जी को दे दिये। उन्होंने फिर हड़काने की कोशिश की।
‘देख लो, अगर पांच साल से पहले नौकरी छोड़ी, तो इन दोनों से दस-दस हजार रुपये वसूले जायेंगे।’
‘ठीक है। अब मैं काम शुरू करूं?’
‘नहीं। कल से करना। आपकी ड्यूटी तीन बजे से है। आज सवा पांच बज चुके हैं। अटेंडेंस रजिस्टर में में भी नाम जोडऩा होगा।’
मेरा उत्साह सातवें आसमान पर था। मेरी इच्छा उसी दिन से काम शुरू करने की थी। मैं भगवत जी के पास पहुंचा।
‘जॉयन कर लिया?’
‘सर मैंने औपाचारिकता तो पूरी कर ली है, पर अवस्थी जी ने कल से आने के लिए कहा है।’
‘वे कौन होते हैं टाइम बताने वाले? काम तुम्हें संपादकीय में करना है। मैं बताऊंगा टाइम।’
उन्होंने एक कागज पर मेरा नाम लिखकर गेट पर ‘टाइम अफिस में भिजवा दिया। मुझसे कहा, कल से गेट पर ही साइन करके आना।
मुझे यह जरा अजीब लगा। मैंने सोचा, ऐसा तो फैक्ट्री में होता है। अखबार के दफ्तर में तो हाजिरी का कुछ सम्मानजनक तरीका होना चाहिए। लेकिन चूंकि वहां ऐसा ही चलन था, एसलिए मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया… और अगले चार साल तक जागरण में नौकरी करने के दौरान बाकी सब की तरह मैं भी गेट पर ही हाजिरी लगाता रहा!
खैर!
26 मई, 1984 को मैंने जागरण में काम शुरू किया। भगवत जी ने मुझे अशोक त्रिपाठी के बराबर वाली कुर्सी पर बैठाते हुए उनसे कहा, ‘ये भुवेन्द्र त्यागी हैं। ‘मेरठ समाचार’ से आये हैं। आज से ये खेल के पन्ने पर काम करेंगे।’
अशोक जी कानपुर से आये थे। विनम्र होने के साथ-साथ जरा अडिय़ल भी थे। पहले ही दिन मेरी उनसे भी ‘मुठभेड़’ हो गयी। काउंटी क्रिकेट की एक खबर थी- सरे ने डरबन को चार विकेट से हराया। अशोक जी ने ‘वार्ता’ की वह खबर मुझे बनाने को दी। मैंने खबर एडिट की। हैडिंग दिया- ‘सरे की डरबन पर जीत’
अशोक जी ने उसे संशोधित किया- ‘सरे की डरबन पर 4 विकेट और 2 रन से जीत’
मैंने प्रतिवाद किया।
‘आप हैडिंग में ‘चार विकेट से’ तो जोड़ सकते हैं, लेकिन ‘दो रन’ जोडऩा निरर्थक है।’
‘तुम मुझे हैडिंग लगाना सिखाओगे? पहले ही दिन ऐसा दुस्साहस?’
‘नहीं बात दुस्साहस की नहीं है। सार्थकता की है। विकेट से जीत मिलने पर रन लिखने की जरूरत ही नहीं।’
उन्होंने तुरंत दोनों टीमों की दोनों पारियों के रन जोड़े। सरे के रनों में से डरबन के रन घटाये। बचे दो रन।
‘देखो। दो रन इसलिए लिखने पड़ेंगे क्योंकि इतने रन सरे ने ज्यादा बनाये हैं। और चार विकेट इसलिए लिखने पड़ेंगे क्योंकि सरे के चार विकेट बचे थे।’
इस ‘तर्क’ का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। लेकिन भगवत जी सारी बात सुन रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाया।
‘क्या बात है? तुम बहस क्यों कर रहे हो?’
‘सर, मैं बहस नहीं कर रहा। तकनीकी बात कर रहा हूं।’
‘वो ठीक है, पर जरा डैकोरम का ध्यान रखो। किसी सीनियर से उलझो मत।’
मैं वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गया। अशोक जी बोले, ‘मेरी शिकायत कर रहे थे?’
‘कैसी बात करते हैं अशोक जी? मेरी इतनी जुर्रत? मैं तो आपसे काम सीखकर ही आगे बढ़ूंगा।’
टकराव का रास्ता मैंने तुरंत छोड़ दिया। मगर, पहले ही दिन जिस तरह मैंने बिना किसी झिझक के बात की, वह संबल जिस शख्स का दिया हुआ था, वे नौनिहाल ही थे।
और सबसे रोचक बात ये कि तीसरे दिन भगवत जी ने मुझे स्वतंत्र रूप से खेल का पूरा पेज दे दिया। अशोक जी को प्रादेशिक डेस्क पर लगा दिया। वैसे अशोक जी का भाषा पर बहुत अच्छा अधिकार था और मैंने उनसे अगले चार साल में काफी कुछ सीखा।
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है। वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
vijay singh
April 3, 2010 at 11:48 am
sir aap ka sansmaran bahut rochak lagta hai.ab tak sabhi bhag padh ahai…agle bhag ka intzar rahega…..vijay singh kaushik (sr.reporter, Navbharat, mum)
mahesh sharma
April 5, 2010 at 6:46 am
bhuvendra ji aap ekdam jeevant likhte hain.
BHART BHUSAN SHARMA
April 6, 2010 at 12:24 pm
parntu aaj shyad hallat badal gaye hai ab jagran ko news nahi sirf aur sirf vigyapan chaiye …..patrkar khoon pasina bahey fir bhi unka jagran mey khasker panipat unit mey sammaan nahi jabki vigypan waley dhoka karey paisa hadpey phir bhi uney videsho mey gumaya jata hai….kheir aisa sansmarn padker acha laga
Rakesh bhartiya
April 7, 2010 at 3:48 am
shandaar !! jagran pariwar hai hi aisa,jagran ney ubrtey patrkarno jaha shikya hai wahi patrkarno ko desh ki maati sey judey rahney apni sanskriti key satth satth uney uchit mandey bhi pardan kiya hai …..
Rakesh sharma bhartiya melbourne austraila