भाग 15 : दैनिक जागरण, मेरठ में काम करते हुए मुझे एक सप्ताह ही हुआ था कि एक दिन बहुत बड़ी खबर आयी। तीन जून, 1984 को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ब्लू स्टार ऑपरेशन हुआ। एजेंसी से खबर मिली, तो संपादकीय विभाग में चहल-पहल मच गयी। तब आज की तरह खबरिया चैनलों का जमावड़ा तो था नहीं। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ केवल रेडियो या न्यूज एजेंसी से मिलती थीं। इसलिए जब ये खबर आयी, तो जागरण में मौजूद पत्रकार खासे उत्तेजित हो गये।
बहस होने लगी। पेज की प्लानिंग होने लगी। भगवतशरण जी ने सबको काम पर लगा दिया। पहले पेज पर राकेश सिन्हा और नरनारायण गोयल थे। मेरा मन मचल रहा था वो ऐतिहासिक खबर या उससे जुड़ी सहायक खबरें बनाने को। लेकिन मुझे नौनिहाल की सबसे ताजा सीख याद थी- जो बॉस कहे, वही करो। अपनी ओर से कोई सुझाव तभी दो, जब बॉस चाहे या उसे उस सुझाव की जरूरत हो।
…तभी भगवत जी जोर से बोले, ‘अरे भई, भिंडरावाले का फोटो ढूंढो कोई…’
मेरठ से जागरण शुरू ही हुआ था। तब तक वहां लाइब्रेरी और आर्काइव नहीं बनी थी। इसलिए फोटो की बड़ी समस्या रहती थी। दिल्ली से पीआईबी के फोटो रात को आते थे। दिल्ली-मेरठ शटल रात आठ बजे मेरठ सिटी आती थी। उससे जागरण का एक क्लर्क विज्ञापन, फोटो और दिल्ली ब्यूरो की खबरें लाता था। उसे स्टेशन से साकेत में दफ्तर तक पहुंचने में पौने नौ बज जाते थे। भगवत जी तब तक इंतजार नहीं करना चाहते थे। इसलिए महत्वपूर्ण फोटो वे दिन में ही जुगाडऩे की कोशिश करते थे। जो फोटो नहीं मिलते थे, वे किसी मैगजीन या अखबार से काटकर उनका नेगेटिव बनाकर पेज के नेगेटिव पर लगाकर छापा जाता था। ऐसे फोटो की क्वालिटी तो अच्छी नहीं होती थी, पर काम चल जाता था।
भगवत जी खबरों में लग गये। मुझे ख्याल आया कि तीन हफ्ते पहले ही इंडिया टुडे ने पंजाब पर कवर स्टोरी की थी। उसमें भिंडरावाले का बड़ा सा फोटो छपा था। मेरे पास वह अंक था। पर घर पर रखा था।
ख्याल तो आया, पर भगवत जी से कहता कैसे? क्राइम की खबर बनाने की पेशकश करके उनसे डांट खा चुका था। आधा घंटा निकल गया। फोटो नहीं मिला। बहुत हिम्मत करके मैंने भगवत जी के पास जाकर कहा, ‘सर। प्लीज डांटियेगा मत। मैं फोटो ला सकता हूं।’
‘तो इतना हैसिटेट क्यों कर रहे हो? लाओ दो।’
‘सर, घर पर है।’
‘जल्दी जाओ। ले आओ।’
मैंने साइकिल उठायी। साकेत से कोतवाली के पास अपने घर की ओर लपका। चार किलोमीटर का रास्ता। जून की लू के थपेड़े। सामने की हवा। सुनसान सड़क। तेजी से साइकिल चलाते हुए घर पहुंचा। घर पर सब हैरान। मैं उनकी किसी बात का जवाब दिये बिना इंडिया टुडे लेकर फिर पलट गया। आधे घंटे में दफ्तर में हाजिर।
भगवत जी को भिंडरावाले का फोटो फाड़कर दिया। वे खुश हो गये। बोले, ‘वेल डन।’
‘थैंक्यू सर।’
बाद में मैंने नौनिहाल को यह घटना सुनायी, तो वे खूब हंसे।
‘अब तुझे जिंदगी के और भी रंग दिखेंगे। सब समय की बात है। लेकिन भगवत जी प्रैक्टिकल संपादक हैं। जब उन्हें तुम्हारी बात अवांछित लगी, तो डांट दिया। जब काम की लगी, तो शाबाशी दी।’
इसके बाद ऐसी किसी भी घटना पर मैंने पहले की तरह कभी रिएक्ट नहीं किया। उस दिन खेल का पेज निकालते हुए मेरा मन पहले पेज में ही लगा रहा। बार-बार मैं उधर जाकर झांकता रहा। नरनारायण गोयल और राकेश सिन्हा खबरें बनाते रहे। भगवत जी उन्हें देखकर आगे बढ़ाते रहे। खेल पेज नौ बजे हो गया। पर मैं साढ़े बारह बजे तक दफ्तर में रुका रहा। जब पहला पेज पास हो गया, तभी घर आया। इसके बाद भगवत जी के सामने मैं अपनी राय रखने लगा और वे मुझे पहले से ज्यादा गंभीरता से सुनने लगे। इससे मुझे पत्रकारिता का एक और सबक मिला – अगर सही समय पर सही काम कर दिया जाये, तो कद और पूछ बढ़ जाती है।
एक कहावत मुझे उन्हीं दिनों नौनिहाल ने बतायी थी-
सफलता का कोई शॉर्ट कट नहीं होता।
हालांकि अब ऐसा नहीं है। अब तो शॉर्ट कट पहले तलाशे जाते हैं, मंजिलें बाद में तय की जाती हैं। ये सब देखकर नौनिहाल को सचमुच बहुत दुख होता, क्योंकि वे पत्रकारिता के उस स्कूल के हैडमास्टर थे जो केवल बखूबी काम करने में यकीन करता है।
एक दिन अजीब घटना हो गयी। मैं एक खबर के सिलसिले में सूरजकुंड गया। एक खेल सामान निर्माता के पास। उन्हें अपना परिचय दिया।
‘मैं भुवेन्द्र त्यागी। जागरण से।’
‘कब है जागरण? कहां है? कितना चंदा दूं?’
मुझे जोर से हंसी आयी। उन्हें अखबार के बारे में बताया। गलती महसूस करके उन्होंने न केवल मुझे खबर दी, बल्कि वे मेरे अच्छे सोर्स भी बन गये। उन्होंने कई बार मुझे फोन करके बल्ले लेने के लिए इंटरनेशनल क्रिकेटरों के मेरठ आने के बारे में बताया। इस तरह मुझे कपिल देव, मोहिंदर अमरनाथ, मनोज प्रभाकर, चेतन शर्मा, यशपाल शर्मा, अशोक मल्होत्रा, किरण मोरे, अजहरुद्दीन और रवि शास्त्री के एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करने का मौका मिला।
मेरठ में जागरण जम रहा था। हम सब पूरे उत्साह से काम करते। एक दिन नौनिहाल को दफ्तर में देखकर सुखद आश्चर्य हुआ।
‘गुरू कैसे?’
‘इंटरव्यू है।’
‘तुम्हारा? तुम्हारे इंटरव्यू की क्या जरूरत? तुम तो सबसे बड़े आलराउंडर हो।’
‘नहीं यार। क्यों चढ़ा रहा है?’
‘पर तुम्हारे बारे में तो सब जानते हैं। तुम्हारे यहां आने से जागरण में जान आ जायेगी।’
‘वो तो बाद की बात है। पर नियम से तो सभी को चलना होता है।’
बहरहाल, आधे घंटे तक नौनिहाल का इंटरव्यू हुआ। उनका सलेक्शन न होने का सवाल ही नहीं था। उन्हें अगले दिन से आने को कह दिया गया। उपसंपादक का पद। मैं उनके साथ गोल मार्केट तक गया। वहां इमरती-समोसा-चाय के साथ जश्न मनाया गया। मुझसे ज्यादा खुश और कोई हो नहीं सकता था उस दिन। फिर गुरू के साथ ज्यादा समय रहने का मौका मिलने वाला था। और नया सीखने का मौका मेरे सामने फिर चला आया था।
अगले दिन नौनिहाल और मैं बच्चा पार्क पर मिले। यह हमने पहले ही तय कर लिया था। वहां शिकंजी पी गयी। फिर हम दफ्तर पहुंचे। हमें देखकर नरनारायण गोयल मुस्कुराये। मेरठ समाचार की हमारी तिकड़ी अब जागरण में भी पूरी हो गयी थी। यहां स्टाफ ज्यादा था। काम भी ज्यादा प्रोफेशनल तरीके से होता था। छोटे अखबार के मालिक की हर खबर में दखलंदाजी नहीं थी। लेकिन जहां थी, वहां भरपूर थी। अलग-अलग स्वभाव और प्रतिभा के लोगों से रोज मिलने और नयी चीजें सीखने का पूरा मौका था। और मैंने इसका पूरा फायदा उठाया।
मेरठ में जागरण जम रहा था। इसी के साथ हमारे सामने नये आयाम खुल रहे थे। मेरठ के पाठकों को पहली बार नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान का विकल्प मिला था। जब जागरण मेरठ में आया, तो वहां नवभारत टाइम्स आठ हजार और हिंदुस्तान पांच हजार बिकता था। पंजाब केसरी का भी अच्छा सर्कुलेशन था। जनसत्ता भी उठ रहा था। बाकी स्थानीय अखबार थे। पर जागरण तो शुरू से ही 40 हजार से ज्यादा रहा। इसलिए हमारा उत्साह रोज पहले दिन से ज्यादा बढ़ा हुआ होता था। ये शहर के सबसे बड़े अखबार में काम करने का कमाल था….
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है। वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
Vimal
April 17, 2010 at 3:21 pm
AAPKI GURU BHAKTI DHANYA HAI. AAP KE JITNE LEKH PADHE HAI. UNHE DEKHATE HUAI MERA VICHAR HAI KI NA TO Nonihal ji JAISA GURU MELEGA AUR NA UNHAI YAAD KARNE WALA AAP SA SHISHYA.