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नौकरी में एडजस्टमेंट करना पड़ता है दोस्त!

[caption id="attachment_17261" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मानौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 14 : 26 मई, 1984 से मैंने दैनिक जागरण, मेरठ में काम शुरू कर दिया। पहले दिन खेल की कोई बड़ी खबर नहीं थी। इसलिए इंगलिश काउंटी क्रिकेट की खबर को मैंने खेल पेज की लीड बनाया। भगवत जी ने मुझे लोकल खेलों की भी रिपोर्टिंग करने का काम सौंपा। अब मेहनत और बढ़ गयी। दिन में रिपोर्टिंग और शाम 3 बजे से रात 10 बजे तक दफ्तर में काम। मैंने पहले कभी खबरों के एजेंसी के तारों की छंटाई नहीं की थी। इसमें मुझे बहुत समय लगता था। इसके लिए भी मैं नौनिहाल की शरण में गया।

नौनिहाल शर्मा

नौनिहाल शर्माभाग 14 : 26 मई, 1984 से मैंने दैनिक जागरण, मेरठ में काम शुरू कर दिया। पहले दिन खेल की कोई बड़ी खबर नहीं थी। इसलिए इंगलिश काउंटी क्रिकेट की खबर को मैंने खेल पेज की लीड बनाया। भगवत जी ने मुझे लोकल खेलों की भी रिपोर्टिंग करने का काम सौंपा। अब मेहनत और बढ़ गयी। दिन में रिपोर्टिंग और शाम 3 बजे से रात 10 बजे तक दफ्तर में काम। मैंने पहले कभी खबरों के एजेंसी के तारों की छंटाई नहीं की थी। इसमें मुझे बहुत समय लगता था। इसके लिए भी मैं नौनिहाल की शरण में गया।

‘गुरू, तुम कैसे फटाफट छंटाई करते हो? मुझे तो खेल की खबरें न्यूज डेस्क से छंटकर मिलती हैं। फिर भी उनकी और छंटाई में मुश्किल आती है।’

‘यह याददाश्त का खेल है। एक ही खबर के कई टेक आते हैं। खास खबरों के टेक अलग-अलग उंगलियों में दबा कर आगे छांटते रहो। सिंगल कॉलम की खबरें एक तरफ रखते रहो। डबल कॉलम या उससे बड़ी खबरों के सभी टेक एक साथ कर लो। फिर उन्हें मिलाकर आलपिन लगा दो।’

अगले दिन मैंने ये तरकीब आजमायी। और खेलों की खबरों के 50 से ज्यादा तार छांटने में दो मिनट से भी कम समय लगा। फिर तो मुझे इसका ऐसा अभ्यास हो गया कि कभी न्यूज डेस्क पर लोग कम होते, तो तारों की छंटाई का काम मुझे सौंप दिया जाता। सैंकड़ों तार छांटने में मुझे 10 मिनट से ज्यादा नहीं लगते थे। आजकल तो सभी न्यूज एजेंसी आनलाइन हैं। मगर तब टेलीप्रिंटर पर खबरें आती रहती थीं। जागरण में तीन एजेंसी थीं। कुछ मिनट में ही सैंकड़ों तार इकट्ठा हो जाते थे।

चूंकि नौनिहाल ने एक साथ कई बीट करने की आदत ‘मेरठ समाचार’ में डाल दी थी, इसलिए ‘जागरण’ भी मैं इससे खुद को रोक नहीं पाता था। भगवतशरण जी हर काम बहुत अनुशासन से करते थे। तीसरे ही दिन मुझे अपने एक स्रोत से क्राइम की एक बड़ी खबर मिली। मैंने अपनी आदत के अनुसार भगवत जी को वह खबर बतायी। उनह् गुस्सा आ गया।

‘तुम्हें खेल के लिए रखा गया है। क्राइम की स्टोरी तुम क्यों करोगे?’

‘सर, मेरे पास है तो मैं बता रहा हूं। आप मुझसे ना लिखवाना चाहें, तो कोई बात नहीं।’

‘तुम्हें धीरेन्द्र बाबू के सामने इश्यू बनाकर रखवाया है मैंने। इस बात को कभी मत भूलना। उतना बोलना, जितना कहा जाये।’

‘ठीक है सर..’

मैं रुआंसा होकर अपनी टेबल पर आकर बैठ गया। कोई दस मिनट तक तो काम  में मन ही नहीं लगा। दिल में यही आया कि क्यों नौनिहाल ने मुझे ज्यादा काम करने की आदत डाल दी, बड़े अखबार में ज्यादा काम करने की छूट क्यों नहीं है, क्या पत्रकारिता में ब्यूरोक्रेसी होनी चाहिए …

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थोड़ी देर बाद भगवत जी ने फिर बुलाया।

‘तुम काम क्यों नहीं कर रहे?’

‘सर, बस एक खबर का हैडिंग सोच रहा था।’, मैंने अपनी आंखों की नमी छिपाते हुए कहा।

उस दिन किसी तरह काम किया। रात को भी ठीक से नींद नहीं आयी। सुबह होते ही पहुंच गया नौनिहाल के घर। वे कच्छा-बनियान पहने मंजन कर रहे थे। इतनी सुबह मुझे घर आया देखकर उन्हें अचरज हुआ।

‘क्या बात है? खैरियत?’

‘गुरू, कल तो गजब हो गया…’

और मैंने उन्हें पूरी घटना बता दी।

मंजन करके कुल्ला करते हुए वे बोले, ‘इतनी सी बात है?’

‘तुम्हें ये इतनी सी बात लग रही है? मेरी तो नींद ही उड़ गयी इससे।’

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‘यार तू तो भावुक हो गया। नौकरी ऐसे नहीं होती। नौकरी में थोड़ा-बहुत एडजस्टमेंट करना पड़ता है दोस्त। हर जगह के अपने नियम होते हैं। उनका पालन तो करना ही चाहिए।’

मैं चकित था। ये नौनिहाल का दूसरा रूप था। अभी तक वे हर काम में आगे बढ़कर मुझे उत्साहित करते आये थे। आज पहली बार वे कदम पीछे करने की सीख दे रहे थे। मैंने अपनी यह शंका उनके सामने रखी।

‘इसीलिए तो मैं कह रहा था कि तू भावुक हो गया। मेरठ समाचार का माहौल अलग है। वहां बॉस वाली अवधारणा ही नहीं है। जागरण का माहौल अलग है। वहां बॉस हैं। वे अपने नियमों से बंधे हैं। तू भी वहां के नियमों के अनुसार चलना सीख ले… एक बात और ध्यान रखना। नौकरी में धभी भावुक नहीं होना चाहिए। मेरठ समाचार में तेरी नौकरी नहीं थी। तू वहां बस काम सीख रहा था। जागरण में तेरी नौकरी है। तो उसे नौकरी की तरह ही कर।’

नौनिहाल की ये सारी सीख एकदम व्यावहारिक थीं। इनमें भी आखिरी सीख तो गजब की थी। यह आज तक मेरे काम आ रही है। इसने कभी मुझे टेंशन में पडऩे दिया। वरना पत्रकारिता में टेंशन के बहुत मौके आते हैं। नौनिहाल की सबसे बड़ी खूबी थी हर हालात में सामंजस्य बिठा लेना। वे पत्रकारिता को परंपरागत तरीके से हटकर करने के हिमायती थे। मगर व्यवहार में एकदम आधुनिक थे। उनकी कई टिप्स तो ऐसी थीं, जिन्हें समय से आगे की माना जा सकता है। कई बार लगता था कि उनमें मैनेजमेंट की भी जबरदस्त खूबी है।

इस तरह मैंने खुद को एक हफ्ते के अंदर जागरण के माहौल में ढाल लिया। खेल के पेज से ही मतलब रखता। कई बार दूसरे पेजों की खबरों पर टिप्पणी करने को मन मचलता, वे खबरें लिखने को मन करता, पर मैं जबान सिल लेता। हां, ये जबान खुलती गोल मार्केट में जाकर…

आज तो जागरण का दफ्तर दिल्ली रोड पर है। तब डी-144, साकेत में था। वह एक पॉश रिहायशी कॉलोनी थी। आसपास चाय-पानी की कोई दुकान नहीं थी। दफ्तर में बस घड़े में रखा पानी मिलता था। एक चपरासी था ओमप्रकाश। वह घड़े में पानी भरता रहता था और ठंडा पानी पिलाता रहता था। लेकिन काम के बीच में चाय की तलब लग जाती थी। हमने भगवत जी से पूछा कि सर चाय का क्या करें। उन्होंने कहा कि चपरासी को भेजकर मार्केट से मंगवा लो। हमने कहा कि इतनी देर में तो पीकर ही आ सकते हैं। और भगवत जी ने हमें इसकी मंजूरी दे दी। पर केवल एक बार के लिए। अगर दूसरी बार चाय की तलब हुई तो दफ्तर में ही मंगाकर पीने को कहा। हमने उसका भी रास्ता निकाल लिया। मिड शिफ्ट 3 बजे शुरू होती थी। हम 6 बजे चाय पीने के लिए निकलते। साढ़े छह बजे नाइट शिफ्ट शुरू होती। वे सब हमें गोल मार्केट में मिल जाते। चाय पीकर वहां से हम सब दफ्तर आ जाते। साढ़े नौ बजे हम घर जाने के लिए निकलते तो नाइट वाले अपनी ‘पहली’ चाय पीने वहीं मिल जाते। इस तरह हम सभी शिफ्टों वाले दिन में दो बार साथ चाय पीते थे। मैनेजमेंट को इसकी भनक तक नहीं थी। और हमारे ऐसा करने की भी वजह थी…

दरअसल, मेरठ में जागरण शुरू होते ही हड़ताल हो गयी थी। हड़ताल खत्म होने पर मेरठ से संस्करण शुरू हुआ, तो सब पर मैनेजमेंट की नजर रहती थी। दफ्तर के बाहर अगर दो-तीन लोग भी एक साथ दिख जाते तो मैनेजमेंट के माथे पर बल पड़ जाते। दो बार साथ चाय पीने की तरकीब निकाली थी रमेश गोयल ने। वे भी अलग ही कैरेक्टर थे। खूब मसखरी करते। मुझे नौनिहाल की तरह उनके साथ भी बड़ा अपनापन महसूस होता। वे यारों के यार थे। हमारे लिए गोल मार्केट का अड्डा उन्होंने ही जमाया था। वहां जाकर हम समोसे और इमरती के साथ चाय पीते। हमारे लिए समोसे और इमरती बाकायदा ताजा बनायी जाती। उस अड्डे पर अनेक अजब-गजब घटनाएं हुईं। बाद में नौनिहाल के भी जागरण में आ जाने के बाद तो गोल मार्केट के भुवेंद्र त्यागीहमारे इस अड्डे में और भी जान आ गयी।  

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है। वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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0 Comments

  1. vikas

    April 10, 2010 at 3:42 pm

    sach kah

  2. sapan yagyawalkya

    April 10, 2010 at 8:29 am

    Tyagi ji,naunihal ji ki sikh is rup me bantkar aap bahut logon ko siksha bhi dete ja rahe hain.yah sab parhna bahut achchha lag raha hai. Sapan Yagyawalkya.Bareli.(MP)

  3. santram sahu

    April 10, 2010 at 6:39 am

    sir bahut aachha laga pada kar. mai aapka artical jarur read karta hu. aab tak ke sabhi artical pada chuka hu. aur intazar hai.

  4. Munna Kumar

    April 12, 2010 at 3:59 pm

    is prakar ke mamle main management ko bachana Chaiya

  5. alok mouar

    April 13, 2010 at 5:45 pm

    Bahut vastvik hai aur nai pedhi ke liye aachi seikh hai.
    Alok, Patna HT – sales

  6. O.P.Saxena

    April 13, 2010 at 7:47 pm

    भाई भुवेन्‍द्र,
    तुम्‍हारे सारे लेख पढे। नौनिहाल को इससे अच्‍छी श्रद्धांजलि और कोई नहीं हो सकती। गुरु शिश्‍य परम्‍परा को जिस तरह से तुमने निभाया है, उसके लिए मैं तुम्‍हें सैल्‍यूट करता हूं।

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