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वेब-सिनेमा

‘पीपली लाइव’ में न्यूज चैनलों का आतंकवाद

नई दिल्ली। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आतंकवाद पर सीधा प्रहार है फिल्म ‘पीपली लाइव’। जिस तरह आतंकवादी आम लोगों का जीना हराम कर देते हैं, ठीक उसी तरह कोई घटना घटित होने पर उससे जुड़े व्यक्ति और उसके परिवार वाले का जीना टीवी चैनल वाले हराम कर देते हैं।

<p style="text-align: justify;">नई दिल्ली। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आतंकवाद पर सीधा प्रहार है फिल्म ‘पीपली लाइव’। जिस तरह आतंकवादी आम लोगों का जीना हराम कर देते हैं, ठीक उसी तरह कोई घटना घटित होने पर उससे जुड़े व्यक्ति और उसके परिवार वाले का जीना टीवी चैनल वाले हराम कर देते हैं।</p> <p>

नई दिल्ली। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आतंकवाद पर सीधा प्रहार है फिल्म ‘पीपली लाइव’। जिस तरह आतंकवादी आम लोगों का जीना हराम कर देते हैं, ठीक उसी तरह कोई घटना घटित होने पर उससे जुड़े व्यक्ति और उसके परिवार वाले का जीना टीवी चैनल वाले हराम कर देते हैं।

नोएडा का आरुषि हत्या कांड या फिर स्कूली शिक्षिका उमा खुराना का मामला। चैनलों के आतंकवाद के शिकार ऐसे कई मामले गिनाए जा सकते हैं। आमिर खान प्रोडक्शन की यह फिल्म भी यही दर्शाती है। इसके साथ-साथ फिल्म यह भी बताती है कि देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्तर किस हद तक गिर चुका है।

फिल्म का ताना-बाना कर्ज के बोझ से दबे किसानों की समस्या को लेकर बुना गया है। फिल्म का मुय पात्र नत्था एक आम आदमी है। वह सुबह सवेरे लोटा लेकर खेत में जाता है और वहां से अचानक गायब हो जाता है। नत्था के नहीं मिलने पर उसके पीछे पड़े चैनल वाले उसके मल पर कैमरा फोकस करते हुए मनोवैज्ञानिक रायशुमारी की वकालत करते नहीं शर्माते हैं। टीवी चैनलों के लगातार गिरते स्तर पर सीधे कटाक्ष और प्रहार करने की हिमत किसी फिल्म निर्माता ने पहली बार दिखाई है। इस फिल्म में चैनलों के अंदर टीआरपी को लेकर मची गलाकाट प्रतिस्पर्धा पर तो व्यंग्य है ही है, साथ ही देश में किसी भी तुच्छ मुद्दे पर बात का बतंगड़ बनाने की कला में माहिर चैनलों की कार्यप्रणाली का भी बाखूबी चित्रण किया गया है।

बात का बतंगड़ बन जाने पर देश के राजनेता, सत्तारूढ़ दल व अन्य छुट्टïभैये संगठन अपने-अपने स्वार्थ की रोटियां कैसे सेंकते हैं। नत्था पेशे से कर्ज में डूबा हुआ पीपली गांव का एक किसान है। शराब के नशे में वह एक चाय की दुकान पर अपने भाई से आत्महत्या की बात कहता है। उसकी यह बात वहां मौजूद एक स्थानीय पत्रकार सुन लेता है और अपने स्थानीय समाचार पत्र में छाप देता है। इसकी खबर एक चैनल के रिपोर्टर को मिलती है। उसके बाद तो गांव में टीवी चैनल वालों का मेला लग जाता है। मामूली बात को चैनल वाले किस कदर तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने पेश करते हैं, इसका दमदार चित्रण इस फिल्म में किया गया है। नत्था का जीना हराम हो जाता है। दिशा मैदान जाने से पहले भी उसे दस बार सोचना पड़ता है। निर्देशक के नजरिए में यह चैनलों का आतंकवाद नहीं तो और क्या है।

नत्था के आत्महत्या की खबर पर नेताओं की राजनीति, राजनीति की आड़ में अपना स्वार्थ साधना, सरकारी योजनाओं की हकीकत, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल के अभाव के कारण गरीबों के लिए लागू की गई योजनाओं की अकाल मृत्यु, वाह-वाही लूटने के लिए नेताओं द्वारा नए-नए योजनाओं की घोषणाएं, देश के सबसे प्रतिष्ठित पेशे आईएएस अधिकारी की नेता के सामने लाचारी, चैनलों की भेड़ चाल, प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की उपेक्षा… जैसे कई मुद्दों को ‘पीपली लाइव’ में साहसिक तरीके से बाखूबी उठाया और दर्शाया गया है। सवाल यह है कि नत्था आत्महत्या करता या नहीं। इसे हम राज ही रहने देते हैं। ताकि आप एक सार्थक फिल्म देखने के लिए सिनेमा हॉल तक जाएं।

लेखक संदीप ठाकुर हमारा महानगर, दिल्ली के मेट्रो एडिटर हैं.

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0 Comments

  1. bhimmanohar

    August 13, 2010 at 2:36 pm

    dhandha sab chalta hai, kyoun se amir khan dodh se dhule hai…. wah bhi to real life me hasiye par hai?

  2. suraj singh

    August 14, 2010 at 8:24 am

    संदीप जी नमस्कार,
    इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में चाहे कितना भी लिख लों या फिल्में बना लो लेकिन ये नहीं सुधर सकते है। क्योंकि सभी को एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ है। ये इन न्यूज चैनलों की मजबूरी भी है। शायद यहीं वजह है कि इनका सुधर पाना ना मुम्कीन है।
    सूरज सिंह।

  3. ravishankar vedoriya 9685229651

    August 14, 2010 at 10:58 am

    bhai sahab aap ka kahne ka matlab hai ki media apna kaam chote bacche ki tarah karti rahe or koi bhi aaye bachhe ko toffy pakda kar chale jaye or bachha sant ho jay
    media ko atankbaad kahne wale bhai pahele apne girewaan mai jankkar dekho ki aap indirect roop se kitne bade antaki ho

  4. santosh nirmal, jaipur

    August 14, 2010 at 12:55 pm

    sabki apni- apni majboori hai, chahe aamir ho ya channel

  5. kamini verma saxena

    August 14, 2010 at 2:46 pm

    संदीप जी नमस्कार
    आपका लेख पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई…ऐसा लगा की न सिर्फ आमिर खान बल्कि मीडिया से जुड़े किसी शख्स को भी यह अहसास है की किस तरह प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया (विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया) आज टी आर पी की दौड़ में अँधा हो गया है और अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ता नज़र आ रहा है… जहाँ तक फिल्म की बात की जाये तो आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव की बात करना ‘सूरज को दीया दिखाने जैसा होगा’ ….इस फिल्म में जिस तरह इलेक्ट्रोनिक मीडिया को अपनी खबर को मुख्य बनाने की होड़ में तमाम हथकंडे अपनाते हुए दिखाया गया है वो लाजवाब है…मगर कहीं न कहीं मीडिया का हिस्सा होते हुए इस तरह के द्रश्य देखने में काफी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी और उस से भी ज्यादा आज के दौर के इलेक्ट्रोनिक मीडिया में सुधार न कर पाने की लाचारी का दुःख हो रहा है….

    कामिनी वर्मा सक्सेना
    युवा पत्रकार
    9642818081

  6. rahul

    August 14, 2010 at 5:43 pm

    kash, abse electronic channel walon ko hosh aa jae.

  7. devesh

    August 15, 2010 at 7:58 pm

    sandip ji namaskar

    aapaka lekh pada.yah sahi hai trp kee hod main bahut bar channel vale apane uddeshya se bhatak jate hain parantu yah ilectronic media hi hai jisane rajnetaon adhikariyon ke bade bade bhrashtachar janata ke samane ujagar kiye hain.baki patrikarita main missanto kab ka mar chuka hai.sabhi apana apana dhandha kar rahe hai chahe vo print ho ya electronic media.

  8. sandeep

    August 16, 2010 at 7:51 am

    sandeep ji, aapka lekh kafi achha hai. aamir khan ki yah film puri tarah se media par katakha hai. sabse buri bat to yah bhi hai ki film me galiyon ka khula upyog kiya gaya hai. media trp ke liye kisi bhi had tak ja sakti hai. jis gaddhe me kisan ki maut huyi uska kawrej nahi kiya gaya. manwta mar chuki hai. chahe nata ho ya patrakar.

  9. ankur aggarwal

    August 16, 2010 at 3:51 pm

    ye jo dikya hai film me vo sachai hai jisre kopi jhutla nahi sakte kyunki channel me aisa hi hota hai koi choti khabar par bhi use channel chahe to kya se kya bana sakta hai ..lekin to sach ya kahe khabar dikhani chahiye thi vo nahi dikhai gayi ye hi to aaj ki electronic media ki sachai hai …

  10. om

    August 17, 2010 at 8:39 am

    well said. we had a chapter in our graduation how wealth accumulates and men decay. it was in the context of increasing dependency over technology subsequently decreasing human efforts. peepli live has depicted this irony in its own way. it is about how media has changed its function of educating, awaring society and making system accountable to just entertaing indian mind with fallacy. eletronic form seems shunning all ethical values and adopting valueless business operation. our TRP intellectuals are in dire need to learn lessons from this classic message from peepli live…

  11. ishwar ashish

    August 20, 2010 at 9:52 am

    is film ki writer aur director anusha rizvi ji hain.is film ke dwara unhone apni frustation show ki hain.ek achhi film banane me hame unka credit nahi lena chahia.

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