उस वक्त तक मैं भूल चुका था कि मैं फिल्म देख रहा हूं, कुछ कुछ ऐसा लगने लगा था कि मैं भी उस भीड़ का हिस्सा हूं जो नत्था के घर के बाहर जुटी हुई थी. अब वो आम ग्रामीण हों. या मीडियावाले. उनमें से कोई एक बन कर मैं कहानी का हिस्सा बनता जा रहा था. शुरुआत में कई घटनाक्रमों पर लगातार हंसता रहा पर एक दृश्य में राकेश अपनी मोटरसाइकिल रोक कर मिट्टी खोदते बूढ़े़ का नाम पूछता है. और जवाब आते ही जैसे शरीर झनझना जाता है. तुरंत ‘गोदान’ आंखों के सामने से चलती जाती है. किसान से मजदूर हो जाने की व्यथा.
और नाम वही, जो गोदान के नायक का था. होरी महतो. गाय खरीद कर वैतरणी पार कर जाने की इच्छा कर के जीवन को नर्क बना लेने वाला प्रेमचंद का होरी महतो. लगने लगा था कि अब फिल्म गंभीर हो चली है. अंदाज़ा सही था… होरी महतो के घर के बाहर दो चार लोग. राकेश को पता चलता है कि सुबह अपने ही खोदे गड्ढ़े में होरी का शव मिला. राकेश का अंग्रेज़ी चैनल की पत्रकार से पूछ बैठना कि जब सब गरीब हैं तो नत्था क्यों ख़बर है. सब क्यों नहीं…???? नंदिता का जवाब कि क्योंकि नत्था मरने वाला है. और फिर राकेश का सवाल कि होरी महतो तो मर गया उसका क्या. और नंदिता का जवाब कि तुम अगर ये सब नहीं बर्दाश्त कर सकते तो गलत पेशे में हो. क्या वाकई राकेश जैसे तमाम लोग गलत पेशे में हैं. या पेशा ही गलत हो गया है.
फिल्म पर तमाम बहसें पढ़ रहा हूं. कई लोग अंधभक्त हुए जा रहे हैं तो कई लोग फिल्म को कमज़ोर कह रहे हैं. क्यों आखिर. कहां और क्या कमी है फिल्म में. पीपली लाइव अपने समय का एक गंभीर व्यंग्य है. व्यंग्य जो लोगों को हंसाते हंसाते सवाल छोड़ दे. सोचने को मजबूर कर दे. डार्क सटायर. हां, ज़ाहिर है अगर आप किसानों की आत्महत्या पर फिल्म देखने गए छद्म बुद्धिजीवी हैं तो आप निराश होंगे. फिल्म केवल किसानों की बात नहीं करती है. फिल्म में किसान है. गांव है. नेता हैं. मंत्री हैं. मुख्यमंत्री हैं. नौकरशाह हैं. पत्रकार भी हैं और आम लोग भी. पुलिस भी. कुल मिला कर पूरे सिस्टम पर है. तंत्र पर भी और परजातंतर पर भी.
कुछ ने कहा कि फिल्म ने किसानों का मज़ाक उड़ाया. वाकई हास्यास्पद है कि कुछ नकली लोग किसानों पर एक ऐसी फिल्म बनाएं जो केवल अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में दिखे. उसे न तो आम आदमी देख पाए और न ही समझ पाए. तो मज़ाक वो है किसानों के साथ या ये. हां अगर व्यंग्य की समझ ही नहीं है तो सौ खून माफ़ हैं.
दरअसल पीपली लाइव एक शानदार कोलाज है. एक उपन्यास है जिसके अंक छोटे पर पूरे हैं. कोलाज में देश भर के रंगरंगीले दर्शन होते हैं. और हर एक संवाद अपने आप में मुकम्मल कहानी है उस किरदार की. उस समाज की. वो चाहें हिंदी के पत्रकार कुमार दीपक हों. अंग्रेज़ी की नंदिता. नत्था हों. उसके बड़े भाई. उसकी पत्नी. उसकी मां. या पुलिस वाले और नेता. या फिर कानून समझाते नौकरशाह. ज़ाहिर है, जिनका भी पेट भरा है सब एक ही से हैं फिर चाहें वो हाईकोर्ट की अनुमति का इंतज़ार करते नौकरशाह हों. मुस्कुरा कर मज़े लेते कृषि मंत्री. राजनैतिक रोटियां सेंकते नेता हों. या गू में ख़बर ढूंढते पत्रकार. पीपली लाइव के हम्माम में सब नंगे दिखे. ज़ाहिर है, किसान तो पहले से ही बिना कपड़ों के है.
कुछ लोगों से एक बात और. फिल्म का क्रेडिट कृपया आमिर को देना छोड़ें. व्यावसायिक मजबूरी या विनम्रता के चलते हो सकता है अनुषा और महमूद ये कर रहे हों. पर पीपली पूरी तरह से इन्हीं दोनो की फिल्म है. मीडिया चैनल लोगों को लगातार गुमराह करते रहे. उनको पता था कि फिल्म में सबसे ज़्यादा मज़ाक उन्हीं का उड़ाया गया है पर वो नाटक करते रहे जैसे कुछ पता ही न हो. कहते रहे कि फिल्म किसानों पर है. मीडिया का इतना सटीक चित्रण अभी तक किसी फिल्म में नहीं हुआ. दीपक चौरसिया एक बार ये फिल्म ज़रूर देखें. अगर नहीं देखी है तो.
हां, आखिरी और सबसे ज़रूरी बात कि शायद निर्देशक का मन हममें से ज़्यादातर लोग समझ नहीं पाए. मुझे लगता है कि फिल्म का असली नायक नत्था नहीं था. फिल्म में दो नायक थे और कहानी की आत्मा को ज़िंदा रखने के लिए दोनों का मरना ज़रूरी था. सो होरी महतो और राकेश दोनो मर गए. कहानी में नायक उसका संदेश होता है और ये ही वो दो थे जो सवाल छोड़ जाते हैं. होरी महतो को तो मरना ही था वो तमाम गांवों में रोज़ मर रहा है. और राकेश, मैं जानता हूं कि तुम असल में नहीं मरे हो. पर पता नहीं क्यों तुम्हारे किरदार की मौत से मैं बेहद दुखी हूं. क्योंकि हमारे बीच से भी तुम काफी पहले ही मर चुके हो. और फिल्म की ही तरह हमें हकीकत में भी नहीं पता है कि तुम मर चुके हो राकेश. हमें माफ़ कर देना…..
ये देखो ये बड़े हुज़ूर…
पकड़ कैमरा खड़े हैं दूर…
मज़े ले रहे हैं भरपूर…
और यहां मैया हमारी मरी जात है….
महंगाई डायन खाए जात है…
(ये पंक्तियां न तो फिल्म में हैं. न ही ऑडियो ट्रैक में. पर शायद असल लिरिक्स में रहीं थीं.)
लेखक मयंक सक्सेना युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार हैं. माखनलाल से पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद कुछ दिनों तक यायावरी की. जी न्यूज से जुड़कर करियर की शुरुआत की. वहां से सीएनईबी पहुंचे और फिर नौकरी छोड़कर कई महीने विचरण करते रहे. इन दिनों यूएनआई टीवी के साथ जुड़े हुए हैं. उनसे संपर्क mailmayanksaxena@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “पीपली लाइव : राकेश हम तुम्हें नहीं बचा पाए…”
very good mayank
इस लेख के लिए मैं कमेंट कर पा रहा हूं यह ही मेरे लिए बड़ी बात है। सच में इससे अच्छा विश्लेषण किसी और का नहीं लगा, उन बड़े नामों का भी नहीं, जिनके पढ़ने का इन्तजार रहता है। बहुत अच्छा सर, बहुत अच्छा।
i have no word wat i will say about this. its a supab
bahut khub mayank.. godaan ka charitra dobara jeevant ho utha.. hori mahto ki haalat to itne saalo baad aaj bhi nahi badli hai aur rakesh jaise patrakaar to roj til til kar mar rahe hai aur media ka puppet show badastur jaari hai..
hori mahto aur rakesh ko meri sachhi shradhanjali..
बस यही कह सकते हैं….एक पत्रकार के भाव को समझा है, आपने….
मयंक भईया,
राकेश मर चुका है…
सांकेतिक ही सही…
अब हमारी-आपकी बारी है…
मरना नहीं चाहते हो तो…
क्रांति करो…
…………………………………
मयंक जी.
बहुत बढ़िया..
बिलकुल सही फरमाया आपने पिपली लाईव के दो ही नायक थे, होरी महतो और राकेश, ना की नत्था..
मुझे खुशी है की आपने राकेश का दर्द समझा, कई लोग तो यहाँ तक कहते है की पता नही कौन मर जाता है फिल्म में..
खैर जो बोलते हैं मैं उनपर मैं किसी तरह का टिप्पणी नही करना चाहता हूँ,.
sahi kaha, professionalism ki hod mein hm kai baar bhul jate hai ki peshe se pehle insaaniyat ati hai…..
आदरणीय मयंक जी, आप किसी भी तरह की टिप्पणी के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन मेरा मानना है कि, किसी और की स्वतंत्रता और सोच पर आप आक्षेप नहीं लगा सकते। फिर आप की सोच में और विभूति नारायण राय जी की सोच में बहुत फर्क नहीं रह जाता है। पीपली लाईव का अछ्छा या बुरा लगना, लोगों की निजी सोच है। ऐसे में आप दूसरों को छद्म बुद्धिजीवी कहकर उनकी संवैधानिक स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगा सकते।
आदरणीय रिचा जी,
आश्चर्य है कि आपने इतनी सी बात पर मुझे भारत की महान विभूति बना दिया…मुझे लगता है कि यह इतनी बड़ी बात नहीं है कि इतना उद्वेलित हुआ जाए…मैंने ये भी नहीं कहा कि जिनको पसंद नहीं वो छद्म बुद्धिजीवी हैं….खैर सवाल ये है कि क्या आपके विचार और संवैधानिक स्वतंत्रता इतनी कमज़ोर और अक्षम है कि मेरे एक लेख भर से उस पर अंकुश लग जाएगा….एक बार लेख दोबारा पढ़ें….और ध्यान से देखें कि मैंने छद्म बुद्धिजीवी उपमान का प्रयोग कहां…कैसे और किन संदर्भों में किया है….बिना लेख का सार समझे…ठीक से और पूरा पढ़े….उसका अर्थ निकालना और टिप्पणी करना ….माफ़ करिएगा ना चाहते हुए भी कहूंगा छद्म बुद्धिजीवी होने की ही निशानी है….पुनश्च पढ़ें…”ज़ाहिर है अगर आप किसानों की आत्महत्या पर फिल्म देखने गए छद्म बुद्धिजीवी हैं तो आप निराश होंगे. फिल्म केवल किसानों की बात नहीं करती है”
किसी वाक्य में केवल शब्दों का अर्थ नहीं होता…उनके मिलने से…और उनके आगे पीछे के वाक्यों से अर्थ बनता है….ज़ाहिर है ये व्याकरण का अहम सबक है….
आदरणीय मयंक जी, आपके लेख पर जो पाजीटिव कसीदे पढ़े जा रहें है उस पर तो आप फूले नहीं समा रहे लेकिन लगता है एक विरोधभरा कमेंट आपसे पच नहीं रहा..अगर इतनी हिम्मत नहीं तो अपनी पर्सन डायरी में लिखिए और खुद पढिए या उनसे पढ़वाइए जो आपके भक्त हों…पहले तो ये जानना चाहुंगी कि आपकी नज़र बुद्धजीवी की परिभाषा क्या हैऔर दूसरा ये कि छद्म बुद्धिजीवी जैसे सम्मान से दूसरों को नवाजने का विशेषाधिकार कहां से हासिल कर लिया, और इस सम्मान पर आपसे भला कोई सर्टिफिकेट क्यों ले..गांधीजी को ठीक से हिन्दी नहीं आती थी लेकिन फिर भी वो लिखते थे, वहीं कबीर दास को व्याकरण का कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन उनकी लिखी रचनाएं आज भी लोगों की जुबां पर है। आपका सर्टिफिकेट आपको मुबारक..आपके सर्टिफिकेट से कहीं बेहतर है छद्म बुद्धिजीवी कहलाना..भारत की महान विभूति जी…अपनी बात कहिए उसे गलत तरह से थोपिए मत..
[b]peepli live [/b] par apane bahut achcha likha hai, main bilkul yahi soch raha tha, jo aapne likha hai, itana achcha article likhane ke liye dhanyavad.
mayank ji bahut achha likha hai. asal me ham log nakli life jine ke aadi ho gaye hain. isliye jab sachchai samne aati hai to jhil nahin pati. phir kuchh logon ki aadat hi har achhi bat me khot nikalne ki hoti hai. richaji khot nikalne do kuchh fhark nahin padta
आश्चर्यजनक बात है….क्या अब इस तरह की बहस होगी कि किसके लेख पर कितनी टिप्पणियां हैं और क्यों हैं….और अगर मेरे लेक पर लोगों ने पॉज़िटिव कमेंट कर दिए तो वो कसीदे पढ़ना हो गया….महोदया…इनमें मैं किसी को भी व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता हूं….वैसे भी क्यों कोई मेरे कसीदे पढ़ेगा…न तो मैं नौकरी दिलाने की हैसियत में हूं…और न ही मेरा करियर बहुत स्थायित्व भरा है…खैर खुद सोचिएगा कि अगर बौद्धिक चर्चा हो रही है तो कसीदे वाली टिप्पणी कितनी बौद्धिक है…
बात करनी है तो तर्क करें…जायज़ तर्क करें…फिल्म पर विश्लेषण करें…और अपना पक्ष रखें….पहले उपाधि…फिर पाज़िटिव कमेंट्स पर चिंता….किम् कारणात्….
फिर मैंने छद्म बुद्धिजीवी वाली टिप्पणी आपको दिमाग में रख कर नहीं लिखी थी यकीन मानिए….पता नहीं क्यों आपको इतना बुरा लगा….क्या ये चोर की दाढ़ी में तिनका है जो अब सबको दिखने लगा है….मैंने सोचा था कि इस टिप्पणी का जवाब नहीं दूंगा….पर मजबूर हो गया….
अगर आप छद्म बुद्धिजीवी वाली टिप्पणी से इतना आहत हैं…और मुझे विभूति नारायण राय बना देना चाहती हैं तो मैं वाकई अपने अनजाने में हुए अपराध के लिए क्षमाप्रार्थी हूं…हालांकि ये इतना बड़ा अपराध है कि माफी मिलनी मुश्किल ही लगती है….कि मैंने कैसे छद्म बुद्धिजीवियों को छद्म कह दिया….पर माफ़ कर दें….रही बात विरोध भरे कमेंट के न पचने की तो आप तार्किक पक्ष रखतीं…फिल्म का अपना विश्लेषण सामने लातीं….और उसी पर चर्चा करतीं तो मैं शायद सबसे पहले तारीफ़ करने वालों में से होता….पर आपने इतनी सी बात पर इतने बड़े महापुरुष विभूति जी को बीच में लाकर खड़ा कर दिया कि मैं बोलने पर मजबूर हो गया….मुझे समस्या विरोध से नहीं थी…पर अनर्गल प्रलाप से थी….विरोध और असहमति का स्वागत है…पर अजीबोगरीब आरोपों का नहीं….
bhut badhiya sir…………
bhut badhiya sir ji……..
Mayank ji namskar,
Bus aapse yahi kahena hai ki kisi ki tippniyon se vichlit hokar sach kahena na chhodna.
K.D.Sharma
Raipur C.G.
shayd mere liye y durbhagya ki baat hai ki maine yah film nahi dekhi.khair aapne jis tarah se khud ko film se jodkar ander ki sari vyatha ko bataya hai wo kafi marmik hai……. eske liye shukriya…..
rahi media ki baat to media wale khud jante hai unki kya aukaat hai…. field me agar aap kaam karne jaate hai ur khuda n khasta aap chote channel se hai to aapki ezzat to wahi log dho dete hai jinse ham khaber banate hai…..film me jis tarah media ka roop prastut kiya hai use dekh kar aaj her aadmi media ko jaan gaya hai ki media kis tarah se khabro ko bhunati hai……
aapka ant me dhaywad…………
mayank ji aap ek nigative tippani se vichlit ho rahe hain, yah bhi to dekhiye ki kitne log aap ka samrthan or tarif kar rahe hain.achhe ka sath pakadiye or achha likhne ka hosla banaye rakhiye
Myank ji namskar.
app pr richa ji ne jo camment kiye or jo aapne unka jwab diya ye to ek virodhabhas ke sath app dono ne best hone ki asliyat batai. kher koi bat nahi ye jamana hi aisa hai jisme nicha dikhae bina chalta nahi. mai appki is tippni se behd khus hun ki is dunia me koi tippni kar hai jo logo ko asliyat samja sake. thnks
. banshi choudhary balotra
मयंक जी, एक लंबे अरसे के बाद किसी फिल्म पर इतनी खूबसूरत समीक्षा पढ़ रहा हूं… रिचा जी की टिप्पणी भी पढी…जिसकी शायद उन्हें जरूरत नहीं थी। विभूति नारायण होना मानो एक सर्वसुलभ हथियार हो गया है….एक लेखक के लेखन के इस तरह पर कतरे जाएं, समझ से परे है। खैर एक बेहतरीन लेख के लिए आपको पुन: बधाई.
शुभेच्छु,
सौरभ आर्य.
सबसे पहले तो आपके लेख पर आपको बधाई… काफी प्रभावित हुआ..यकीकन राकेश के बारे में जो आपने समझा है वही बात बात सबों ने समझी होगी… लेकिन एक व्यक्ति जो फिल्म देखने गया है अगर वो अपने-आप को एक निर्देशक न समझ कर एक दर्शक समझे तो फिल्म के साथ इंसाफ होता है… ख़ैर… मेरे विचार से सबों को अपना विचार रखने का पूरा हक़ है लेकिन मर्यादा नाम की भी कोई चीज़ है…. छद्म जैसे शब्दों का इस्तेमाल मेरे ख्याल से नहीं होना चाहिए…
mayank ji na mujhe apki pratibha pe koi shak hai na ye mera pralap hai…..
mujhe bas apke dwara prayog kiye gaye 1 matra shabd par aapatti hai…aur rahegi..aap isse bhi achha likhe meri dua hai lekin kisi ko neecha kah kar bada na bane….tamam media ke prabudho ko jinki aap bahut izzat karte hai unhe bhi film nahi pasand ayi to aap unhe kya kahenge. mera kewal ye kahna hai ki ye shabt anuchit hai aur is baat par main kayam hoon. baki aap achha likhte rahiye aur mujhe aap se dusri koi shikayat nahi hai…
mayank ji film achi thi ya nahi ye logo ke pasand ki bat hai.kuch ne ise kisano ki aatm hatya ka mudda mante hue dekha to kuch ne ek comedyfilm samjha.waise maine ajeet anjum ji ki sameecha bhi padhi thi is film ke sandarbh me. unhone sayad is film ko kisano ka majak udati 1 film karar diya.unke lekh ke neeche comment bhi padhe lekin kisi ne unhe chadm budhjeevi nahi batalaya.aap se aasa thi ki aap ka bhi comment waha hona chahiye tha.mayank ji chadm sabd bolne me aur likhne me kafi accha lagta hai aapko aisa hame lag raha hai.waise aap ki sameecha acchi lagi.
sriman ji rakesh film ka hero nahi laga.job pane ki hod me 1 aur nam tha uska jo chaplusi kar naukari pane ke liye nandita ke piche piche ghoomta najar aaya.sayad aapne film gaur se nahi dekhi 5 bar dekh chuka is film ko.jab rakesh ke resume ka koi positive response nahi mila to usne nandita se ye sawal poocha ki kya hori mahto ki maut khabar nahi hai.sayad mujhe wo tab hero lagta jab apne chote se akhbar me wo hori mahto ki khabar chapta.
रेहान भाई क्षमा चाहता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि हमने नायकत्व की कुछ ज़्यादा ही महान परिभाषाएं पाल रखी हैं….पता नहीं पर मैंने लिखा है कि फिल्म में नायक उसका संद्श होता है…और वो संदेश इन्हीं दो पात्रों से प्रसरित हुआ….रही बात पिल्म एक बार और देखने की तो मैं मानता हूं कि मेरी बुद्धि इतनी मोटी भी नहीं कि मुझे संदेश समझने के लिए बार बार पिलम देखनी पड़े….नायक की कमज़ोरियां आखिर क्यों नहीं हो सकती हैं….और क्या नत्था की ख़बर सबसे पहले उसी राकेश ने नहीं छापी….कहानी के संदेश के मामले में तो आप मुझसे इत्तेफ़ाक रखते ही होंगे…..
नत्था को लेकर अब और मत पकाओ..
ओ यारों छोड़ो जाओ…
खोपड़ी मत खाओ…
जइसे कुर्सी दोनो ओर हत्थे होते हैं,
वइसे ही न्यूज चैनलो में भी कई नत्थे होते हैं..
फिल्मी नत्थे के लिए…अब कितना पकाओगे?
खोपडि़या फट जाएगी क्या पाओगे?
फालतू में मरेंगे दो चार…
होगा लाइव, खोपड़ी फटी चार मरे..
इसीलिए मनुहार है…
बेवजह हत्या मत कराओ…
ओ यारों छोड़ो जाओ…
खोपड़ी मत खाओ,
फिल्मी नत्था का
इस्लेशण..हुआ…विश्लेषण..हुआ…
अब क्या नत्था का ट्रांसलेशन कराओगे?
जरा दिमाग लगाओ..और बताओ…
के नत्था कहां पाया जाता हैं…
क्या सिर्फ पिपली गांव में…
डूबती हुइ नाव में? बाढ़ के चपेटो में
या बंजर पड़े खेतो में..
गंदी सी धोती में…जली हुई रोटी में…
बढ़ी हुई दाढ़ी में…या मिसेज नथिया की फटी हुई साड़ी में?
बूझो और बताओ..ना समझ आए तो सुनकर जाओ…
सच तो ये है…के
बड़ी सी एक बिल्डिंग के…एसी की ठंड़ी में…
कुर्सी पर बैठकर की बोर्ड की डंडी में..
फुटेज, इंजेस्टिंग में..सपनों की डंपींग में
दुधिया से रौशनी के हिडेन सी गर्दिश में…
मर चुके विचारो में..टीआरपी के जुगाड़ो में…
नौकरी बचाने में…बॉसवे को पटाने में…
…जिंदगी गुजार दी…
पत्रकार तो बन ना सके नथ भी उतार दी…
तो फर्क क्या है भाई….
पिपली का नत्था
मरता है..खेत की बुआई में…
दिल्ली के वुडलैंडी नत्थे मरते हैं… छटाई में..
अंतर बस इतना सा…रह गया है यारों…
कि फिल्मी नत्था की कहानी…शुरु हुई आत्म हत्या से
अपुन न्यूज के नत्थों की कहानी कही आत्म हत्या पे बंद न हो…
इसीलिए मनुहार है…के जरा खुद पे तरस खाओ…गफलत से अच्छा है…
कि मिडिया के नत्थों के फ्यूचर का अंदाजा लगाओ
वो नत्था फिल्मी था…उसका इंसाफ फिल्मी होगा…
तुम रिअल नत्थे हो कही..अंजाम फिल्मी ना हो..
तो यारों छोड़ो जाओ…
खोपड़ी मत खाओ…
जइसे कुर्सी दोनो ओर हत्थे होते हैं,
वइसे ही न्यूज चैनलो में भी कई नत्थे होते हैं..
vishnu ji aap ne to gajab dha diya.koi jod nahi hai….
mayankji is tippdi k liye ap sadhuvaad k patr hai aj hi pipli live dekhi or rakesh k kirdar ne prabhvit kiya kya is vdambna nhi kaha jana chahiye ki media to har khetra ke nathao ko dhud kar lata hai par media ka nathao ka kya media chanals ka sarkas dekhkar 1 wakt hai break ka pustak ankho ke samne ghoom gai shayad aapne padi hogi fir se sadhuvaad