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5 कॉरपोरेट घरानों के 10 फीसदी से ज्यादा शेयर आधे दर्जन न्यूज चैनलों में है!

: 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ब्लैकलिस्टेड हैं : पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब कुछ भी करना, कैसे जायज हो गया, यह कॉरपोरेटपरस्त पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है : मीडिया के आभामंडल की तसदीक जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है, यह समझना भी जरूरी है :

: 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ब्लैकलिस्टेड हैं : पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब कुछ भी करना, कैसे जायज हो गया, यह कॉरपोरेटपरस्त पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है : मीडिया के आभामंडल की तसदीक जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है, यह समझना भी जरूरी है :

मर्डोक के आइने में भारतीय मीडिया

-पुण्य प्रसून बाजपेयी-

””हमनें ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ इसलिये बंद किया क्योंकि अखबार की साख पर बट्टा लगा था। और साख न हो तो फिर खबरों की दुनिया में कोई पहचान नहीं रहती है। बल्कि वह सिर्फ और सिर्फ धंधे में बदल जाता है और मीडिया सिर्फ धंधा नहीं है। क्योंकि धंधे का मतलब हर गलत काम को भी मुनाफे के लिये सही मानना है। और न्यूज ऑफ द वर्ल्ड में यह सब हुआ, लेकिन मुझे निजी तौर पर इसकी जानकारी नहीं रही। इसलिये मैं दोषी नहीं हूं…””

ब्रिटिश संसद के कटघरे में बैठे रुपर्ट मर्डोक ने कुछ इसी अंदाज में खुद को पाक साफ बताते हुये कमोवेश हर सवाल पर माफी मांगने के अंदाज में जानकारी न होने की बात कहते हुये सबकुछ संपादक के मत्थे ही मढ़ा लेकिन जब जब सवाल मीडिया की साख का उठा तो मर्डोक ने सत्ता, सियसत,ताकत और पैसे के खेल के जरीय हर संबंध को गलत ही ठहराया।

जाहिर है मीडिया मुगल की हैसियत रखने वाले रुपर्ट मर्डोक 26 फीसदी पूंजी के साथ भारत के एक न्यूज चैनल से भी जुड़े हैं और जिस दौर में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के जरिए ब्रिटेन के सबसे पुराने टैबलायड के जरीये पत्रकारिता पर सवाल उठे हैं, उसी दौर में भारतीय मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का काम कठघरे में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कह यह भी सकते हैं कि बात साख यानी विश्वसनीयता की है तो उसकी गूंज कहीं ना कहीं भारतीय मीडिया के भीतर भी जरूर गूंजी होगी क्योकि इस वक्त भारतीय मीडिया न सिर्फ खबरों को लेकर कटघरे में खड़ा है बल्कि साख को दांव पर लगाकर ही धंधा चमकाने में लगा है। सरकार ही इसी को हवा दे रही है।

कह सकते हैं आर्थिक सुधार के इस दौर में भारतीय समाज के भीतर के ट्रांसफॉरमेशन ने सत्ता की परिभाषा राजनेताओं के साथ साथ मीडिया और कॉरपोरेट के कॉकटेल से गढ़ी है जिसमें हर घेरे की अपनी एक सत्ता है और हर सत्ताधारी दूसरे सत्ताधारी का अहित नहीं चाहता है। इसलिये लोकतंत्र के भीतर का चैक-एंड-बैलेंस महज बैलेंस बनाये रखने वाला हो गया है, जिसमें मीडिया की भूमिका सबसे पारदर्शी भ्रष्ट के तौर पर भी बनती जा रही है। सतही तौर पर कह सकते हैं कि भारतीय न्यूज चैनलों को लेकर सवाल दोहरा है। एक तरफ न्यूज चैनल को लोकप्रिय बनाने के लिये खबरों की जगह पेज थ्री का ग्लैमर परोसने का सच तो दूसरी तरफ न्यूज चैनल चलाने के लिये साख को ताक पर रखकर सत्ता के साथ सटने को ही विश्वसनीयता मानने का गुरूर पैदा करने का सरकारी खेल। यानी नैतिकता के वह मापदंड जो किसी भी समाज को जीवित रखते है या कहे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये रखने का सवाल खड़ा करते हैं, उसे ही खत्म करनी की साजिश इस दौर में चली है।

लेकिन मीडिया के भीतर का सच कहीं ज्यादा त्रासदीदायक है। मीडिया में भी उन्हीं कंपनियों के शेयर हैं, जो सरकार से तालमेल बनाकर मुनाफा बनाने के लिये देश की नीतियों तक को बदलने की हैसियत रखते हैं। देश के टॉप पांच कॉरपोरेट घरानों के 10 फीसदी से ज्यादा शेयर आधे दर्जन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो में है। यहां सवाल खड़ा हो सकता है कि कॉरपोरेट और सरकार के गठजोड से बिगड़ने वाली नीतियों में वही मीडिया समूहों को भी शरीक क्यों ना माना जाये जब वह उनसे जुडी खबरो का ब्लैक आउट कर देते हैं। ब्रिटिश संसद ने तो न्यूज आफ द वर्ल्ड की सीईओ ब्रूक्स से यह सवाल पूछा कि किसी खबर को दबाने के लिये पीएम कैमरुन ने दवाब तो नहीं बनाया। लेकिन भारत में किसी मीडिया हाउस के सीईओ की ताकत ही इससे बढ़ जाती है कि पीएमओ ने लंच या डिनर पर बुलाया। और पीएमओ या गृहमंत्रालय किसी एडवाइरी का हवाला देकर किसी न्यूज चैनल के संपादक को कह दे कि फलां खबर पर ‘टोन डाउन’ रखें तो संपादकों को लगने लगता है कि उसकी अहमियत, उसकी तकत कितनी बड़ी है।

और यही सोच सरकार पर निगरानी रखने की जगह सरकार से सौदेबाजी के लिये संपादकों को उकसा देती है। यानी यहां सरकार ने मीडिया के नियम ही कुछ इस तरह बना दिये हैं, जिसमें घुसने का मतलब है सत्ता के कॉकटेल में बनकर पीने वालो को ठंडक पहुंचाना। क्योंकि सरकार का नजरिया मीडिया में शामिल होने के लिये मीडिया को धंधा माने बगैर संभव नहीं होता। अगर न्यूज चैनल का लाइसेंस चाहिये तो फिर रास्ता सरकार से संबंध या फिर काले रास्ते से कमाई गई पूंजी को लूटाने की क्षमता पर तय होता है।

बीते दो बरस में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दे दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ही ब्लैक लिस्टेड है। रियल इस्टेट से लेकर चिट-फंड कंपनी चलाने वाले न्यूज चैनलों को जरिए किस साख को बरकरार रखते हैं या फिर मीडिया की साख के आड में किस रास्ते कौन सा धंधाकर खुद की बिगड़ी साख का आंतक फैलाने के लिये खेल खेलते हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। संकट सिर्फ धंधा बढ़ाने या बचाने के लिये न्यूज चैनल का रास्ता अख्तियार करने भर का नहीं है। अगर सत्ता ही ऐसे व्यक्तियों को लाइसेंस देकर मीडिया का विस्तार करने की सोचती है तो सवाल यह भी खड़ा हो सकता है कि सरकार उनके जरीये अपना हित ही साधेगी। मगर यह रास्ता यही नहीं रुकता क्योंकि बीते पांच बरस में देश में 16 ऐसे न्यूज चैनल है जो बंद भी हुये। एक के हाथ से निकल कर दूसरे के हाथ में बिके भी और संकट में पत्रकारो को वेतन देने की जगह खुले तौर पर चैनल के रास्ते धन उगाही का रास्ता अख्तियार करने के लिये विवश भी करते दिखे।

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सिर्फ दिल्ली में 500 से ज्यादा पत्रकारों की रोजी रोटी का सवाल खड़ा हुआ क्योंकि डिग्री लेने के बाद जब वह चैनलों से जुड़े तो वह खबरों की साख पर न्यूज चैनलों को तलाने की जगह मीडिया की साख को ही बेचकर अपने धंधे को आगे बढ़ाने पर लालायित दिखा। पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब किसी पत्रकार के लिये कुछ भी करना कैसे जायज हो गया यह भी ताकतवर दिल्ली में कॉरपोरेट के लिये काम करते पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है। वहीं कुछ न्यूज चैनलों ने तो पत्रकारों की जगह सत्ता के गलियारे के ताकतवर लोगों के बच्चों को पत्रकार बनाने का नया रिवाज भी शुरू किया जिससे मीडिया हाउस को कोई मुश्किल का सामना ना करना पड़े।

ऐसे में यह सवाल कभी नहीं उठा कि मीडिया को धंधा मान कर न्यूज चैनल शुरू करने वालों को ही इस दौर में लाइसेंस सरकार ने क्यों दिया। रुपर्ट मर्डोक ने तो ब्रिटिश हाऊस ऑफ कामन्स के सामने माना कि न्यूज आफ द वर्ल्ड जिस तरीके से सत्ता से जुड़ा, जिस तरीके से फोन टैपिंग से लेकर हत्यारे तक के साथ खड़ा होकर हुआ, जिस तरह नेताओ-सत्ताधारियों से संपादक-सीईओ ने संबध बनाये उसने मीडिया की उस नैतिक विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया, जिससे मीडिया को लड़ना पड़ता है। लेकिन इन्हीं आरोपों को अगर भारत के न्यूज चैनलो से जोड़ें तो पहला सवाल नेताओ-बिचौलियों के साथ ऐसे पत्रकारो के संबंध से उठ सकता है, जिसने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के दौर में मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया।

और संसद में लहराते नोटों के जरीये जब यह सवाल खड़ा हुआ कि सरकार बचाने के लिये सांसदों की खरीद-फरोख्त सासंद ही कर रहे है और कुछ मीडिया हाउसो की भागेदारी भी कहीं न कही सरकार को बचाने के लिये नतमस्तक होने की है या फिर सरकार को गिराने के लिये विपक्षी सांसदों के स्टिंग आपरेशन को अंजाम देने की पत्रकारिता करने में। मीडिया के आभामंडल की तसदीक ही जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है यह समझना भी जरूरी है। किस मंत्री को कौन सा मंत्रालय मिले। किस कॉरपोरेट के प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल जाये। किस भ्रष्टाचार की खबर को कितने दिन तक दबा कर रखा जाये, मीडिया की इसी तरह की भूमिका को अगर पत्रकारो की ताकत मानने लगे तो क्या होगा। अछूता प्रिंट मीडिया भी नहीं है। निजी कंपनियों के साथ मीडिया हाउसो के तालमेल ने छपी खबरों के पीछे की खबर को सौदेबाजी में लपेट लिया तो कई क्षेत्रीय मीडिया मुगलो ने मुनाफा बनाने के लिये मीडिया से इतर पावर प्रोजेक्ट से लेकर खनन के लाइसेंस सरकार से लेकर ज्यादा कीमत में जरुरतमंद कंपनियों को बेचने का धंधा भी मीडिया हाउसों की ताकत की पहचान बनी तो फिर साख का मतलब होता क्या है यह समझना वाकई मुश्किल है।

रुपर्ट मर्डोक की तो पहचान दुनिया में है। और ब्रिटिश संसद के कटघरे को भी दुनिया ने सार्वजनिक तौर पर मीडिया मुगल की शर्मिन्दगी को लाइव देखा। लेकिन क्या यह भारत में संभव है क्योकि भारत में जिस भी मीडिया हाउस पर जिस भी राजनीतिक दल या नेता से जुड़ने के आरोप जिन मुद्दो के आसरे लगे उसकी साख में चार चांद भी लगते गये। कहा यह भी जा सकता है कि जब सवाल संसद की साख पर भी उठे तो मीडिया की विश्वसनीयता में नैतिकता का सवाल ताक पर रखकर साख बनाने को भी अब के दौर में नयी परिभाषा दी गयी। और सत्ता ने इस नयी परिभाषा को गढ़ने में मीडिया को बाजार हित में खड़ा करना सिखाया भी और गुरुर से जनता की जरूरतों को ताक पर रखकर सरकार से सटकर खड़े होने को ही असल मीडियाकर्मी या मीडिया हाउस बना भी दिया। सवाल है ब्रिटिश संसद तो मर्डोक को बुला सकती है लेकिन क्या भारतीय संसद भी किसी भारतीय मीडिया मुगल को बुलाकर इस तरह सवाल खड़ा कर सकती है, क्योंकि साख तो सांसदों की भी दांव पर है।

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0 Comments

  1. अभिषेक

    July 30, 2011 at 8:35 pm

    हे बाबा.. कुछ छोटा नहीं लिख सकते थे..? पढ़ते-पढ़ते सांसे फूल गईं…

  2. santosh pandey

    July 30, 2011 at 9:17 pm

    aap ko mai apana gooru manata hoo…kas aap jaise media me kuchh aur paida ho jate …..pranam

  3. rupaliraj

    July 30, 2011 at 10:23 pm

    prasoon bhai,pahle akhbar misan tha ab dhandha ho gaya hai. pahle krantikaree, shahityakar, sahmajsewi akhbar ab birla, ambanee jaise bade gharaen, dhandhebaaj neta (chorkat) nikal rahe hai.pahle jinme koch karne ki lalak hoti thi o patrakarita me aate thi. aaj jise nawkree nahee mil rahee hia wo aa rahe hai. jish tarah se bharat india ho gaya usee tarah se patrakar mediakarmee ho gaya hai..

  4. rupaliraj

    July 30, 2011 at 10:26 pm

    abhishek jii jab padhne me aapka yah hall ho gaya to likhne me kaya..khudhi shoch lijiya.;D;D;D;D

  5. RAJIV NISHANA

    July 30, 2011 at 11:18 pm

    पुण्य प्रसून बाजपेयी जी
    आपने जो लिखा है ठीक लिखा है, लेकिन सवाल ये है की आज पत्रकारों को भी कुछ अपने आदर्श बनाने होंगे.क्योकि व्यापारियों की नजर में पत्रकार केवल और केवल एक नौकर है.

  6. basant nigam

    July 31, 2011 at 11:08 am

    punya ji aapke hi shabdon me kah raha hun, ki media per munafa aur bazarwaad iss kadar haavi ho gaya hai ki maalikon ko kuch munafe aur bazar ke siwa kuch dikhta hi nahi hai, doosri sabse badi samasya nishpaksh roop se electronic media ko operate karne me distribution ki hai, wo distribution jisme aaj ki taarikh me maafiyaon aur rajneetik dalon ka paisa laga hai, aur jinke khilaaf jana bhi channel ko bhaari hai, aur unko chalana aarthik roop se bhari hai, kuch hamari kaum me bhi ye baat aa gayi hai ki satta ke kitne kareeb hokar satta prasad paakar kitne takatwar ho saktey hain, pump n show wali life style ab bade patrakar hone ka symbol ho gaya hai, jaroorat hai sakaratmak pahal ki, sarkar, maalik aur hum khud me apni biradari ke beech samanjasya bithayen, taaki malikon ke kharch control me raheyn, distribution pe jaane wale paise ka ek chauthai bhi agar media karmiyon ki tankhwah badhane me istemal ho tto media karmiyon ko bhi khaamkhaah ki dalaali ka tthappa nahi lagwana padega , aur fir jiss biradari bhai ki aadat hi kharab ho usko biradari se bahar ka raasta dikhaya jayega…main ek adna sa patrkar hun…aap jaise varisht log ek muhim chala sakte hain, jisme aapke nichle paaydaan per hum bhi aapke sath hain.

  7. kumar r

    July 31, 2011 at 12:07 pm

    पर उपदेश कुशल बहुतेरे —–

    रुपए के प्रतीक चिंह के चयन में हुए भ्रस्ताचार को मीडिया क्यों नहीं देख रही है, जी न्यूज़ ने तो इस मामले को प्रेस कांफ्रेंस (श्रीमती अम्बिका सोनी १५ जुलाय 2010 Zee news Bulletin # 3 – Indian Rupee now has its own symbol July 15 ’10) को उठाया था लिंक …जी न्यूज़……..

    http://www.youtube.com/watch?v=h8Bnq2pDQG4
    {The last part of the video where Ambika Soni is answering a critical question is cutoff from this video !! Why Why }

    रुपए के प्रतीक चिंह के चयन —भ्रस्ताचार को समर्पित एक वेबसाइट —
    http://www.saveindianrupeesymbol.org/

  8. Gaurav Kaushik

    July 31, 2011 at 1:47 pm

    पुण्य जी, कथित कॉकटेल और भारतीय मीडिया के दबदबे का असर ये है कि मर्डोक से तो सवाल जवाब हो गए, न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड बंद भी हो गया लेकिन उन भारतीय मीडिया पंडितों पर कोई ख़ास कार्रवाई नहीं, जिनका घालमेल नीरा राडिया के साथ था और जिनकी भूमिका मंत्रियों को पसंदीदा मंत्रालय दिलाने में थी. लेकिन इसका असर भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता पर सबसे ज्यादा है. टीआरपी की लिस्ट में ऊपर नीचे होते चैनलों के नाम फीसदी के आंकड़ों के साथ तो हम हमेशा देखते रहेंगे, लेकिन न्यूज़ चैनल जो अब अलग अलग ख़ास लोगों के निजी भोपू और एंटरटेनमेंट के साधन हो गए हैं उन्हें देखने से ज्यादा अब लोग बिंदास और स्टार वन देखना पसंद करते हैं. इसलिए खबरिया चैनलों को देखने वाले लोगों की तादाद किसी टीआरपी लिस्ट में नहीं दिखाई जाती और न दिखाई जाएगी. और इन सबसे बड़ा नुकसान उस जमात की साख को भी लगने वाले बट्टे का है जिसमे आप भी शुमार हैं, यानि वो लोग जो खबर को जीते, ओढ़ते और पहनते हैं, जिन्होंने गली कूचे में सबसे कोने में रहने वाले शख्स की आवाज़ को अपनी कलम से लिखा है.

  9. समीर

    July 31, 2011 at 6:25 pm

    किसी न किसी को मीडिया का अन्ना बनना होगा। हां ऐसा करना आसान नहीं है क्योंकि इसमें जोखिम ही जोखिम है। इसका सामना वही कर सकता है जिसमें जज्बा हो। केवल बातों से न तो बात बनने वाली है और न ही कोई सुधार होना है। संगठन बनाकर पत्रकारिता की कोढ को खत्म करने की जरूरत है ताकि यह नेक्सस इतिहास बनकर रह जाए और इसमें सहयोग देने वालों का नाम पत्रकारिता के इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो । तो अब देर किस बात की बढे आगे, मशाल लेकर। किंतु-परंतु के झंझट से मुक्त होकर आइये जुट जाते हैं पुण्य बाबा के साथ नेक काम में।
    समीर, गाजियाबाद

  10. Arvind Pandey

    August 1, 2011 at 11:34 am

    This is reallty of today media.It is still hanging between professionlism and social cause.

  11. siddharth

    August 2, 2011 at 3:33 pm

    aj media mein naukri aise nahin lagti. agar kahin ka editor banna hai tho chamchagiri karni hogi. itna hi nahin ek reporter banne k liye parvi ki jarorat hoti hai. naukri aise nahin milti. aur media ka anna bhi koi nahin ban sakta. vajpaye g aap kisi ko bina parvi k naukri de sakte hain kya?

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