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इंटरव्यू

लाखों की सेलरी लेकर शीशे से दुनिया देखते हैं जर्नलिस्ट

अब जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई है, खबर समझने के लिए इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा, आज तक चैनल छोड़ते वक्त एक्जिट नोट में लिखा था…”अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं”

पुण्य प्रसून वाजपेयी

हमारा हीरो 

पुण्य प्रसून वाजपेयी। जिनका नाम ही काफी है। समकालीन हिंदी मीडिया के कुछ चुनिंदा अच्छे पत्रकारों में से एक। कभी आज तक, कभी एनडीटीवी, कभी सहारा तो अब जी न्यूज के साथ।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

अब जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई है, खबर समझने के लिए इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा, आज तक चैनल छोड़ते वक्त एक्जिट नोट में लिखा था…”अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं”

पुण्य प्रसून वाजपेयी

हमारा हीरो 

पुण्य प्रसून वाजपेयी। जिनका नाम ही काफी है। समकालीन हिंदी मीडिया के कुछ चुनिंदा अच्छे पत्रकारों में से एक। कभी आज तक, कभी एनडीटीवी, कभी सहारा तो अब जी न्यूज के साथ।

जिस चैनल में पुण्य प्रसून रहे,  वहां उस चैनल के वे  फेस बन गए, आइकान बन गए, ब्रांड एंबेसडर बन गए। उनका दढ़ियल चेहरा, उनकी आवाज़, उनका अंदाज़, उनके तर्क, उनकी बातें…ये सब मिल-जुल कर क्रिएट करतीं हैं एक कल्ट। एक फीगर। एक पर्सनाल्टी। एक हीरो। हमारा हीरो। हिंदी मीडिया का हीरो। अब जबकि हर जगह टीआरपी और बाजार का बाजा बज रहा है, इसके लय पर मीडिया वाले नाच रहे हैं, पुण्य प्रसून ताल ठोंक कर कहते हैं कि असली खबरों से टीआरपी लाई जा सकती है लेकिन इसके लिए मेहनत करना पड़ेगा और आज के पत्रकार मेहनत नहीं करना चाहते क्योंकि वो लाखों की सेलरी लेकर खुद का क्लास बदल चुके हैं। इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा। पुण्य प्रसून वाजपेयीपुण्य प्रसून पिछले महीनों तक सहारा टीवी को लेकर मीडिया की सर्किल में सुर्खियों में रहे। वे धूमधाम से सहारा को री-लांच करने के वास्ते अपनी टीम के साथ आए और लांचिंग के कुछ दिनों बाद छोड़कर चलते बने। पुण्य प्रसून इस पूरे मामले पर विस्तार से बात करने के बाद एक चीज साफ-साफ कहते हैं-  मैंने जब आज तक चैनल छोड़ा था तभी एक्जिट नोट में लिख दिया था …अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं।  पुण्य प्रसून के लिए पत्रकारिता कोई करियर या पेशा या नौकरी नहीं बल्कि ज़िंदगी है। वे पत्रकारिता को ही ओढ़ते-बिछाते हैं। और ये आदत, ये नशा उन्हें संस्कार में मिला है। बचपन से। पारिवारिक पृष्ठभूमि और मिलने-जुलने वालों की सर्किल ऐसी थी कि वो नक्सल आंदोलन से लेकर संघ के प्रयोगों तक को गहराई से समझ-बूझ सके। आगे बढ़कर प्रयोग करने का साहस, मिशन को अंजाम देने का जुनून, आत्मविश्वास के साथ सच कहने का माद्दा….ये सब बातें पुण्य प्रसून में एक साथ हैं। भड़ास4मीडिया ने अपने साप्ताहिक कालम हमारा हीरो के लिए इस बार जब पुण्य प्रसून वाजपेयी से संपर्क साधा तो उन्होंने बेहद विनम्रता से अनुरोध स्वीकारा।

पेश है पुण्य प्रसून से भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह की बातचीत के अंश….

अपने शुरुआती जीवन से शुरू करें।

पुण्य प्रसून वाजपेयीसन 64 में पैदा हुआ। सन 64 में ही विश्व हिंदू परिषद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ। इसी साल नेहरू की मौत हुई। जब मैं पांचवीं क्लास में था तो पिता जी उन दिनों दिल्ली में इंडियन इनफारमेशन सर्विस में हुआ करते थे। आल इंडिया रेडियो में नियुक्त थे। सन 75 में इमरजेंसी के वक्त उनका ट्रांसफर पहले रांची फिर दो साल बाद पटना के लिए हुआ। 10वीं की पढ़ाई पटना साइंस कालेज से की। घरवालों की इच्छा मुझे डाक्टर बनाने की थी पर मेरा मन इसमें नहीं था। पटना के बीएन कालेज से पोलिटिकल साइंस में ग्रेजुएशन की डिग्री ली। उन दिनों मेरे चाचा वेद प्रकाश वाजपेयी लेक्चरर हुआ करते थे। पिता जी उन्हें मीडिया में ले आए। चाचा जी नवभारत टाइम्स, पटना में आ चुके थे। तब यहां के संपादक दीनानाथ मिश्र हुआ करते थे। इसके चलते घर में मीडिया पर्सन्स की आवाजाही लगी रहती थी। कवि ज्ञानेंद्र पति से लेकर नक्सलाइट नेता विनोद मिश्र व नागभूषण पटनायक तक के बारे में समझ विकसित हुई। उन दिनों बिहार के उन समस्त पत्रकारों से रूबरू हुआ जो बाद में दिल्ली से लेकर पटना तक में बड़े पत्रकार कहलाए। बात वर्ष 88 की है। अब परिवार दिल्ली शिफ्ट हो चुका था और जेएनयू के पास रहता था। दिल्ली में जामिया मिलिया में कुछ दिन पढ़ाई की पर यहां लड़ाई हो जाने से छह माह बाद  इसे छोड़ दिया। मैं  भी  जेएनयू चला गया। यहां मेरा घर विभिन्न विचारों के लोगों के आने-खाने-रुकने का  मंच बन चुका था। यहीं गोरख पांडेय से लेकर अन्य दूसरे प्रबुद्ध लोग आते-जाते रहते थे। कुल मिलाकर इमरजेंसी का दौर व पिता जी के तबादले के चलते कई चीजें समझने को मिलीं। इससे स्वभाव व व्यक्तित्व में जर्नलिज्म सहज रूप से पैदा हो गया। इसी से मैं आज भी जर्नलिज्म को जीता हूं, नौकरी नहीं करता। ऐसा स्वभाव बन चुका है। ऐसी आदत पड़ चुकी है।

अगर सक्रिय पत्रकारिता की बात करें तो यह कब से और कहां से शुरू किया?

पुण्य प्रसून वाजपेयीबात सन 88, दीवाली की है। तब नागपुर से लोकमत समाचार लांच होने को था। वहां 1000 रुपये महीने पर नौकरी शुरू की और देखते ही देखते इतना मजा आने लगा कि एक महीने बाद फाइनल एडीशन निकालने लगे। नागपुर प्रवास के दौरान यहां संघ का मुख्यालय होने के नाते उसके कई शीर्ष विचारकों से पाला पड़ा। देवरस, जिन्होंने इमरजेंसी में कई प्रयोग किए थे, से डायरेक्ट डिसकशन होता था। उधर आंध्र में पीपुल्स वार ग्रुप अपना विस्तार करते हुए महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के इंडस्ट्रियल बेल्ट में पांव पसार रहा था। छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी का ट्रेड यूनियन आंदोलन फैल रहा था। इन सारे आंदोलनों, विचारधाराओं के नजदीक जाकर उन पर काम करने व लिखने का मौका मिला। तब मैं हजार रुपये महीने का ट्रेनी जर्नलिस्ट होते हुए भी दिल्ली के अखबारों में इन सभी विषयों पर संपादकीय पेज पर लिखता रहता था। खासकर प्रभाष जोशी जी तमाम आस्पेक्ट पर लिखवाते रहते थे।  और हां, नागपुर में एक वाकये की चर्चा जरूर करना चाहूंगा। वहां 8 मार्च 1991 को स्टेट पुलिस के जवानों ने चार आदिवासी महिलाओं से रेप किया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हुई इस घटना की पूरी स्टोरी जब फाइल की तो विधानसभा में हंगामा मच गया और सरकार ने रिपोर्ट गलत बताते हुए प्रेस कांफ्रेंस की।  शरद पवार ने अपने मंत्री को जांच के लिए भेजा और मंत्री ने चार दूसरी आदिवासी महिलाओं को प्रेस कांफ्रेंस में लाकर बताया कि इनके साथ कोई हादसा नहीं हुआ है। बाद में मै फिर मौके पर पहुंचा और जिन महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, उन्हें लाकर साबित किया कि सरकार सच को दबाने में कई झूठ बोल गई। बाद में उस मंत्री को मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। तो इस तरह से पत्रकारिता के कई डायमेंशन जीने व देखने को मिले।

दिल्ली की पत्रकारिता में आना कैसे हुआ?

पुण्य प्रसून वाजपेयीमैं नागपुर में 1993 तक रहा। इसके बाद एमपी बेस्ड एक अखबार में कुछ दिनों के लिए चला गया,  एडीटर बनके। यह अखबार लांच कराया लेकिन फिर छोड़ दिया। मुंबई में एक बिजनेसमैन मैग्जीन निकालने जा रहा था जिसके चक्कर में मैं भी कई महीने रहा। दिल्ली आना 95 में हुआ। वैसे, पिता जी मुझे दिल्ली लाने के लिए काफी प्रयास कर रहे थे। पर मेरा आने का मन नहीं था। एक बार दिल्ली आया हुआ था तो एसपी सिंह कनाट प्लेस पर मिल गए। मैं उन्हें पहचान गया पर वे मुझे शक्ल से नहीं जानते थे। तब मैं दिल्ली के अखबारों में लिखता रहता था और मैंने एसपी सिंह का एक काम करवाया था, इसलिए मुझे वो नाम से जानते थे। हुआ यूं था कि लोकमत समाचार के मालिक जवाहर लाल डाडा जो उन दिनों मंत्री हुआ करते थे, ने घटिया राशन की सप्लाई कराई थी और इसका जमकर विरोध महिलाओं ने किया था। एसपी ने भी एक तीखा आर्टिकल लिखा था। एसपी पर मुकदमा हुआ। एसपी तब मुंबई में थे और यह मुकदमा यवतमाल के कोर्ट में था। सो एसपी ने कोई ऐसा बंदा तलाशना शुरू किया जो यवतमाल में उनके मामले की पैरवी करे। मैं नागपुर में था और बात मेरे तक पहुंची तो मैंने यवतमाल में एसपी के मुकदमे के लिए वकील की व्यवस्था करा दी और उन्हें निश्चिंत रहने का भरोसा दिया। ये बात मेरे मालिक जवाहर लाल डाडा तक पहुंची तो उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा कि तुम नौकरी तो मेरे यहां करते हो और पैरवी मेरे विरोधी के मुकदमे की कर रहे हो। तब मैंने उन्हें विनम्रता से जवाब दिया कि अखबार तो बदला जा सकता है लेकिन पत्रकार नहीं। यह सुनकर मालिक भौचक्का रह गया पर उसने मुझे निकाला नहीं। संभवतः इसके पीछे वजह मेरी उपयोगिता थी। मैं वहां जूनियर होते हुए भी अखबार के लिए काम की चीज बन चुका था। अखबार निकालने में मेरी जिम्मेदारी और भूमिका बढ़ चुकी थी। उन दिनों लोकमत का औरंगाबाद संस्करण भी हम लोगों ने लांच किया।

आप बता रहे थे दिल्ली में एसपी से मुलाकात के बारे में।

पुण्य प्रसून वाजपेयीहां, एसपी ने साथ काम करने को कहा। एसपी 1995 में आज तक में आ चुके थे। तब मैं लखनऊ से निकलने जा रहे दैनिक हिंदुस्तान में काम करने के लिए प्रयास कर रहा था। आखिरकार मैंने एसपी के साथ सितंबर 1996 से काम करना शुरू किया। 97 में जब एसपी की डेथ हो गई तो मैं प्रभु चावला के पास पहुंचा और आज तक से मुक्त करने का अनुरोध किया। उन्होंने अनुरोध नहीं स्वीकारा और धीरे धीरे एसपी के बिना आज तक में अब देबांग से मन जुड़ने लगा था। तब मुझे आज तक में रिपोर्टिंग नहीं दी जाती थी। लेकिन एक बार जम्मू कश्मीर में हिजबुल के चार टेररिस्टों से राज्य सरकार की बात होने के प्रकरण पर रिपोर्टिंग के लिए मुझे भेजा गया तो मैंने चारों टेररिस्टों से इंटरव्यू करने के साथ फारूक साहब का भी वर्जन एक दिन पहले ही ले लिया और सबसे पहले आज तक के पास यह खबर पहुंचा दी। बात तबकी है जब आज तक चौबीसों घंटे के चैनल के रूप में लांच होने जा रहा था। सन 2000 दिसंबर के लगभग। कई विदेशी लोग ट्रेनिंग देने आज तक में आए थे। उन सभी ने जब ये खबर देखी तो काफी तारीफ की। मुझे याद है कि अरुण पुरी ने तब सबके सामने कहा था कि इसी तरह से आप सभी को इतना विश्वसनीय होना चाहिए कि अगर आप खुद खड़ें हों तो किसी की बाइट की जरूरत न पड़े। आप खुद ही सबसे बड़े प्रमाण व विश्वास हों। उन्हीं दिनों मैं वीजा जुगाड़ कर पीओके भी गया। लश्कर के चीफ, जिसे किसी ने नहीं देखा था, का इंटरव्यू किया। और वो इंटरव्यू करने से पहले टेररिस्टों ने कई घंटे मेरा इंटरव्यू किया था फिर ले गए थे। उस समय लग रहा था कि यहां से जिंदा निकलना मुश्किल है। एक और घटना याद आती है। 26 जनवरी 2001 में गुजरात में भूकंप आया हुआ था और मैं संयोग से मुशर्रफ के साथ बैठा था। मैंने भारत में जलजला आने की बात बताई तो उन्होंने फौरन मदद भेजने का आदेश किया। तब पाक ने मदद भेजी भी थी। कुल मिलाकर उन दिनों में पत्रकारिता को जीने, जूझने, करने और करके ले आने का जो आवेग व आनंद था,  उसने जीवंत व लाइव पत्रकारिता को नस-नस में भर दिया।

सहारा ग्रुप के टीवी चैनल में आप यूं गए और यूं चले आए, हुआ क्या था?

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पुण्य प्रसून वाजपेयी(हंसते हुए)  सहारा में…। 10 सेकेंड की एक बाइट थी। रेल बजट को लाइव करने की तैयारी की थी। उसमें रेल मंत्री लालू से बात चल रही थी। जब खत्म हुआ तो उन्हें छोड़ने गया। इसी दौरान बातचीत हुई। उन्होंने पूछा-  तू इधर आ गइलअ। मैंने कहा- हां, सुधारना था त सुधारे आ गइलीं। लालू का जवाब था- इ सब कभी सुधरे वाला हुउवंन…। ये सारी बातें चलते चलते हो रही थी। ये कुल 10 सेकेंड की बाइट थी और इसका फील ये था कि एक इंटरव्यू खत्म हो रहा है। सवाल था कि यह अंत की 10 सेकेंड की बाइट काटी जाए या न काटी जाए। मैंने इसे बार बार देखा और महसूस हुआ कि ये बाइट इतनी छोटी व चलते चलते है कि इससे कुछ फील नहीं हो रहा सिवाय इसके कि अब इंटरव्यू खत्म हो चुका है और मंत्री जा रहे हैं। मतलब ये फील न होगा कि इस पर ध्यान जाए, इतनी छोटी बाइट है। बस, इसी को सहारा के उन लोगों ने मुद्दा बना लिया जो लोग वहां काम नहीं करना चाहते थे और इस बाइट को उपर भिजवा दिया। सही बात तो ये है कि सहारा में जितने संसाधन हैं और जितना इंफ्रास्ट्रक्चर है, उसमें बहुत कुछ किया जा सकता था लेकिन वहां एक बड़ी जमात ऐसी है जो काम ही नहीं करना चाहती क्योंकि उनका मानना है कि सहारा ऐसे ही चलता है। मेरे पर दबाव आए कि चैनल को छह महीने में री-लांच मत करिए। इसे आगे बढ़ाइए। मैंने कहा कि जब मेरी तैयारियां पूरी हैं और दिन रात एक करके हम लोग तय समय पर री-लांच करने को तैयार हैं तो आपकी मार्केटिंग की दिक्कतों की वजह से हम क्यों चैनल के री-लांच की तारीख को आगे बढ़ाएं। तो प्रेशर था कि टालो, लेट करो, खिसकाओ….और ये अपन में आदत नहीं रही है। तो ऐसे लोग जो काम नहीं करते थे,  वे हमें टारगेट किए हुए थे। हम लोगों को सभी चैनलों को ठीक करने का दायित्व था लेकिन हमने पहले नेशनल चैनल को एजेंडे में लिया। रीजनल चैनल पर हम लोगों की साफ राय थी कि इसमें रीजनल महक होनी चाहिए, दिल्ली में बैठे बैठे खबर बनाकर रीजनल चैनल नहीं खड़ा किया जा सकता। इससे रीजनल चैनल वाले लगातार परेशान थे। अब  जब रीजनल चैनल पर भी री-लांच को इंप्लीमेंट करने का समय नजदीक था तो यहां के लोग मौके तलाश रहे थे। 10 सेकेंड की बाइट इतना बड़ा मामला नहीं था। बड़ा मामला यही था कि सहारा में हम लोग पत्रकारिता करने गए थे और वहां ढेर सारे बीच के लोग पत्रकारिता न करने देने के लिए कमर कसे थे। ये लोग इंफ्रास्ट्रक्चर का जिस तरह मिस-यूज कर रहे थे, उसे बंद होना था, अगर हम सेकेंड स्टेप में रीजनल चैनल को एजेंडे में ले लेते। सहारा में मैंने ऐसे ऐसे लोग भी देखे जो खून पसीना एक करके काम करते हैं। नंदी ग्राम और गुजरात के कई रिपोर्टरों के काम को मैंने देखा। बेहद मेहनती लोग हैं वो। केवल बीच वाले लोग नहीं चाहते कि कोई काम करे क्योंकि इससे उन्हें भी काम करना पड़ता।  

फिर क्या हुआ?

पुण्य प्रसून वाजपेयीतो वो 10 सेकेंड की बाइट का हिस्सा उन लोगों ने भेज दिया। मुझसे कहा गया कि प्रसून जी,  आज एंकरिंग न करिए। दो दिन बाद आम बजट आने वाला था। मैंने कहा- ये क्या मतलब, आपके चैनल का फेस मैं हूं और मुझी से कह रहे हैं कि एंकरिंग न करिए। पहले आपत्ति तो बताओ कि क्यों न करूं एंकरिंग। आम बजट के दिन कहा गया कि अच्छा, आज एंकरिंग कर लीजिए। मैंने कहा कि ये क्या नाटक है भाई। आप प्रोफेशनली मूव करिए। चैनल आपका है, पूंजी आपकी है। एडीटोरियली मैं देख रहा हूं। आप कोई डिसीजन लीजिए। मैंने सुब्रत राय को फोन मिलाया। मैंने उनसे कहा कि आप तय कर लीजिए कि क्या करना है। छोटी सी बात का फसाना बनाने से क्या फायदा। उन्होंने आधे घंटे का समय मांगा। और वो आधा घंटा कई घंटों में खिंच गया। सुमित राय जो सहारा मीडिया को हेड कर रहे हैं,  भी उलझन में थे। वे भी न निगल पा रहे थे,  न उगल पा रहे थे। उन्होंने सलाह दी कि प्रसून जी, कुछ दिन न करिए। फिर सब ठीक हो जाएगा। मैंने कहा, बंधु पत्रकारिता में कुछ दिन नहीं होता। जो होता है सब तुरंत और सामने होता है। यही प्रोफेशनलिज्म की बात है। आप मेरा इस्तीफा टाइप कराइए। तब मेरे नाम से मेरा ही इस्तीफा टाइप किया गया।

आपने कहा कि सहारा में काम न करने वालों की बड़ी संख्या है, यह कैसे अनुभव किया आपने?

जब मैने ज्वाइन किया तो जिन 175 लोगों की लिस्ट मुझे दी गई उसमें से मैंने सिर्फ 85 लोगों को लिया। बाकी की मेरे लिए कोई जरूरत नहीं थी। यह तो सिर्फ नेशनल चैनल की बात थी। इंटरनल सेटअप में इससे एक तबका हैरान-परेशान था। हम काम कर रहे थे और काम कराना चाहते थे। अगर काम करने का सिर्फ दिखावा भर करना होता तो कहीं भी किया जा सकता था। इस्तीफा देने के बाद सहारा से मेरे पास कई माध्यमों से फोन भी आए। फिर से आफर भी किया गया पर चीजों को यूं ही चलने दिया जाए या ब्रेक कर दिया जाए के विकल्प में मैंने ब्रेक कर देने का विकल्प चुना। आप को हमेशा प्रोफेशनली मूव करना होगा। आप किसी संपादक से कहो कि वो संपादकीय न लिखे, किसी एंकर से कहो कि एंकरिंग न करे….फिर तो हो चुका काम। ये तो इमरजेंसी के दौर में हुआ था कि संपादकीय न लिखो,  ये न करो, वो न करो। आप देखिए जब तक हम लोग थे,  चैनल को कहां से कहां तक ले आए। चैनल पर लोगों का विश्वास बढ़ा था, चैनल की विश्वसनीयता बढ़ी, ये बात सहारा के ही मार्केटिंग के लोगों ने कबूला। महाश्वेता हों या मेधा पाटकर हों या तस्लीमा नसरीन….सबके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, फोनो चलवाए गए। किसी चैनल में अरुंधती राय आज तक नहीं गईं पर हमने उन्हें बुलाया। तो आपके चैनल को, आपके ब्रांड को समाज के बड़े सेक्शन में मान्यता मिलने लगी थी। उसे गंभीरता से लिया जाने लगा था। और मैं कहता हूं कि अगर हम लोग जनरल इलेक्शन 2009 तक रह जाते तो टीआरपी में भी सहारा को नंबर एक पर लाते, ये मेरा विश्वास तब भी था, आज भी है। हम रणनीतिक तरीके से, प्रोफेशनल तरीके से उस दिशा में मूव कर रहे थे।

आपने सोचा था कि जिस तामझाम से आप सहारा जा रहे हैं वहां ऐसा कुछ होगा?

पुण्य प्रसून वाजपेयीबिलकुल। जब मैंने आज तक छोड़ा तो वहां एक एक्जिट नोट लिखाने की परंपरा है। उस एक्जिट नोट में मैने लिखा…..मैं एक अच्छा काम करने जा रहा हूं पर मुझे पता है मैं गलत जगह जा रहा हूं। मुझे काम करना था। नौकरी तो चल ही रही थी। टीवी चैनलों पर देखते-देखते खबरें खत्म हो गईं और फालतू बातें दिखाई जाने लगीं। तो ऐसे में असली जर्नलिज्म को जीने – करने का अगर मौका मिल रहा था तो मुझे उसे स्वीकारना ही था।

 

आप एनडीटीवी में भी रहे। वहां से छोड़ा। ये कैसे हुआ?

2002 में आज तक छोड़ा था। देबांग के साथ। देबांग का फोन आया था। एनडीटीवी के आफर के बारे में। मैंने साथ चलने को सहमति दे दी। तब एऩडीटीवी के मार्निंग स्लाट में दाढ़ी वाला चेहरा उर्फ मैं पेश किया गया और पेश की गईं राजनीति की खबरें। ये प्रणय राय का फैसला था। अब जब लोग सुबह-सुबह फ्रेश व साफ्ट चेहरों को पेश कर गैर राजनीतिक बातें करते दिखाते हैं तो उन दिनों सुबह-सुबह दाढ़ी वाले चेहरे ने राजनीतिक बातें सुनाईं और उन दिनों मार्निंग स्लाट की टीआरपी आज तक से भी ज्यादा थी। तो वो एक विजन था और आज भी मैं कहता हूं कि असली खबरें ही चैनल को असली टीआरपी दिला सकती हैं लेकिन इसके लिए आपको धैर्य से मेहनत करना पड़ेगा। आज के जर्नलिस्ट मेहनत कहां करना चाहते। वे अपनी लंबी लंबी सेलरी को जस्टीफाइ करने के लिए कुछ भी करते दिखाते रहते हैं।

क्यों, आजकल के जर्नलिस्ट मेहनत नहीं करते?

एनडीए शासनकाल ने ढेरों ऐसे जर्नलिस्ट पैदा किए जिनका खबर या समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। इन दिनों में फेक जर्नलिस्टों की पूरी फौज तैयार हो गई। पैसे का भी आसपेक्ट है। चैनलों में एक लाख रुपये महीने सेलरी पाने वालों की फौज है। ये लोग शीशे से देखते हैं दुनिया को। इन्हें भीड़ से डर लगता है। आम जनता के बीच जाना नहीं चाहते। अब उनको आप बोलोगे कि काम करो तो वो कैसे काम करेंगे। मुझे याद है एक जमाने में 10 हजार रुपये गोल्डेन फीगर थी। हर महीने 10 हजार रुपये पाना बड़ी बात हुआ करती थी। ज्यादा नहीं, यह स्थिति सन 2000 तक थी। 10 हजार से छलांग लगाकर एक लाख तक पहुंच गई। इससे जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई। उनको अगर वाकई असली खबरों को समझना है तो खुद को डी-क्लास करना होगा। वरना ये एक लाख महीने बचाने के लिए सब कुछ करेंगे पर पत्रकारिता नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनका वो क्लास ही नहीं रह गया है।

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आपने कभी किसी से प्रेम-व्रेम किया है?

पुण्य प्रसून वाजपेयीहां, किया है। आपने पूछा ही नहीं अब तक। वो बात तो अधूरी ही रह गई। नागपुर में जब नौकरी छूट गई थी और मैं बिलकुल फ्री था तो सोचा अब क्या किया जाए। तो उन दिनों मैं जिनसे प्रेम कर  रहा था, उन्हीं से शादी कर ली। समय का सदुपयोग किया। ये बात अगस्त 1995 की है। नाम है सरस्वती अय्यर। वो तब एडवोकेट व सोशल एक्टीविस्ट हुआ करतीं थीं। तमिल हैं। हम लोगों की शादी पर लोकसत्ता में एडीटोरियल लिखा गया था- द्रविण और आर्य के बीच शादी। उसी वर्ष नवंबर या दिसंबर में हम लोग दिल्ली शिफ्ट हो गए। सरस्वती ने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस की, नौकरी की। अब छोड़ दिया। बच्चों की देख रेख के साथ वे कई मानवाधिकार संगठनों के लिए लीगल मदद देने का काम करतीं हैं।

आपमें अच्छी – बुरी आदतें क्या हैं?

पुण्य प्रसून वाजपेयीएक तो बुरी आदत यही है कि मैं नौकरी नहीं करता,  नौकरी को जीता हूं। मेरे लिए काम ही आराम है और आराम ही काम है। दूसरी बुराई है कि मैं बहुत देर तक नाकाबिल लोगों के बीच ठहर नहीं पाता। उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता। उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता। इसे अच्छाई मानें या बुराई कि मुझे भीड़ के बीच रहने व भीड़ में घूमने में बड़ा मजा आता है। बस यही है दो चार चीजें।

 

शुक्रिया पुण्य भाई, आपने इतना समय दिया

धन्यवाद बंधु।

—————- 

((इस इंटरव्यू पर आप अपनी राय  सीधे पुण्य प्रसून तक उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल कर पहुंचा सकते हैं। आप भड़ास4मीडिया तक अपनी राय  [email protected] पर मेल करके पहुंचा सकते हैं))

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0 Comments

  1. SHEKHAR PANDIT

    July 1, 2010 at 11:19 am

    GURU JO GALAT VIJA LEKAR PAKISTAAN GAYE THE WO BAAT TO BATAANI THI ………….? BAKI SAB THEEK HAI.

  2. balwant narayan. ranchi(jharkhnd)

    July 4, 2010 at 6:21 pm

    maine bachpan me suna tha ki darhi wale bevakuf hote hai aur aapke jaise samjhdar bande ko sahara me aate dekha to bachpan ki suni baat me kuch sudhar kiya aur vo baat ab yun ho gayi ki darhi wale vevkuf ho na ho lekin kabhi kabhi ek badi galti to jaror karte hai punya sir aage aise galti mat kijiyega kyoki sahara samay apne mehnat kas karmiyon ka kabhi nahi hua haan agar koi spoon ho to alag baat hai.

  3. sharad

    July 16, 2010 at 11:39 am

    sawal yah hai ki main aapka kafhi bada fan hu..maslan apko follow karne ki koshish karta hu… lekin aaj zee news main naye patrakaro ko kam karne ka moka aap denge… filhal duniya ki khabre deneke piche aap ki badi khaber dehk nahi pata to.. kuch kami mahsus karta hu…

  4. manoj sharma

    October 6, 2010 at 6:52 pm

    sir ji aap to patrkarita ke big boss ho . …………….. bus lage raho hum bhi aap ke piche aa rahe he.

  5. rajkumar sahu, janjgir, chhattisgarh

    October 30, 2010 at 11:33 pm

    yashvant bhai sahab, pahle to aapko badhai. ek ke baad ek badhiya interviev padhne ko mil raha hai.
    punya ji ka interview padhkar kaphi kuch sikhne ko mila ki vastav mein jo bade-bade chainel jaisa khud ko bataate hain, vaise hain nahin. door ke dhol suhavane ki sthiti hai.

  6. Vikram

    February 13, 2011 at 8:32 am

    आपमें अच्छी – बुरी आदतें क्या हैं?

    एक तो बुरी आदत यही है कि मैं नौकरी नहीं करता, नौकरी को जीता हूं। मेरे लिए काम ही आराम है और आराम ही काम है। दूसरी बुराई है कि मैं बहुत देर तक नाकाबिल लोगों के बीच ठहर नहीं पाता। उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता। उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता। इसे अच्छाई मानें या बुराई कि मुझे भीड़ के बीच रहने व भीड़ में घूमने में बड़ा मजा आता है। बस यही है दो चार चीजें।

    @@ Punya Prasuun jii kii ye bat sat pratishat sahi hai , isi ke chaltey kucch log patrakarita kii line me barabar bhataktey rahtey hain .,fir bhhi bajpayi ji jaise logno k astitva kaaym rahta aaya hay aur aagey bhii rahega .

  7. Sajjad

    April 8, 2011 at 10:03 am

    Sir… Hum Apke Kayal Hain… Ek chhoti Si Guzarish Hai.. k aap urdu k shabdo ka prayog ( Uchharan Theek Se Nahi) karte..

    Zamane Se aap ka follower Hun… Bada hi achha laga aaj aapke bare me jaan Kar

  8. rajesh tiwari

    April 13, 2011 at 11:05 am

    Resp.prasunji maine dekha hai aapko aap jab kabhi bhi kisi sach ko lekar bedhadak bolte hai to zuto ke kaan ke parkhacche ud jate hai. nagpur me dainik rastraprakash ke vimochan ke avsar par aapko dekha bhi aur suna bhi vaise aapko hamesha badi khabar me dekhta hoo. aapki pidito aur shoshito ke prati tadap ko mai janta hoo.aapko dekhkar hi to patrakarita shuru ki thi maine kai nami akhbaro me likha sath hi hindi news channelo me vidarbha se reporting bhi ki lekin aapki raah par chalte chalte kai musibate aur padav aaye .kuch ne saraha to kuch ne aage badne nahi diya. aakhir kuch mahino pahle patrakarita chod di hai. filhal ek automobile company me manager pad par karya badi imandari se kar raha hoo.lekin mere bhitar ka patrakar abhi mara nahi hai, kyoki aap jaise log bane hi hai hum jaiso ko jinda rakhne aur prerna dene ke liye.aap hamesha aage badte rahe yahi ishwar se kamna.dhanyavad…

  9. rajesh tiwari

    April 15, 2011 at 12:35 pm

    written by rajesh tiwari, April 13, 2011

    Resp.prasunji maine dekha hai aapko aap jab kabhi bhi kisi sach ko lekar bedhadak bolte hai to zuto ke kaan ke parkhacche ud jate hai. nagpur me dainik rastraprakash ke vimochan ke avsar par aapko dekha bhi aur suna bhi vaise aapko hamesha badi khabar me dekhta hoo. aapki pidito aur shoshito ke prati tadap ko mai janta hoo.aapko dekhkar hi to patrakarita shuru ki thi maine kai nami akhbaro me likha sath hi hindi news channelo me vidarbha se reporting bhi ki lekin aapki raah par chalte chalte kai musibate aur padav aaye .kuch ne saraha to kuch ne aage badne nahi diya. aakhir kuch mahino pahle patrakarita chod di hai. filhal ek automobile company me manager pad par karya badi imandari se kar raha hoo.lekin mere bhitar ka patrakar abhi mara nahi hai, kyoki aap jaise log bane hi hai hum jaiso ko jinda rakhne aur prerna dene ke liye.aap hamesha aage badte rahe yahi ishwar se kamna.dhanyavad…

  10. sandeep bhatt

    June 24, 2011 at 12:43 pm

    sir aap k bare me mene kwal suna tha . but aj laga aap se saakchaatkar v ho gaya… aap sahee mayno me 4th piller ho……

  11. L K Garg

    August 24, 2011 at 10:00 am

    Dear Sir,

    मैं भी बहुत देर तक नाकाबिल लोगों के बीच ठहर नहीं पाता। उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता। उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता…..।
    Few month ago only, I started watching “Badi Khabar” …. and noticed something really very different than the other Hindi News Channels.. I told my friends about you and your journalism skills and forced them to watch Badi Kahabar…

    I was also trying to catch hold Badi Kahbr on internet but couldn’t trace it..any where… it should not be..

    It should be make available on line so that if someone missed it he can see it again.. some one may also use your creation for some reference also.

    You style of narrating and presenting something is unique and god gifted…

    Today only, While surfing net for पुण्य प्रसून बाजपेयी…. i came across @ लाखों की सेलरी लेकर शीशे से दुनिया देखते हैं जर्नलिस्ट…. and find a lot about you…

    I Wish to God to bless you and your skills for effective Hindi journalism….

    With Warm Regards,

  12. अभय त्रिपाठी

    September 14, 2011 at 10:16 am

    सचमुच पुण्य जी कहानी पढ़कर मन में जूनून पैदा हो जाता है। वैसे भी टीवी की दुनिया से जुड़े होने के बाद भी अगर खबर देखता हूं तो सिर्फ बड़ी खबर लेकिन शनिवार को वो भी अच्छा नहीं लगता जब पुण्य जी स्क्रीन पर नहीं दिखते। इनकी सबसे अच्छी स्टाइल हाथ रगड़ते हुए एंट्री करना। यशवंत सर बहुत-बहुत आभार आपका…

  13. Raghav Jha

    October 15, 2011 at 9:00 am

    excellent

  14. GOPAL PRASAD

    December 8, 2011 at 9:29 pm

    must read

  15. yashaswi dwivedi

    April 5, 2012 at 9:39 pm

    sch mai kabhi -kabhi jb news channalo per bhramak news dikhayi jati hai to aisa lagta hai ki ye sab janata ko ye prmanit krne ka pramad de rahe hai ki janata bevkuf hai jo abhi tak apne remote ke batun se inki news dekh -sun rahi hai. and sach mai prasun ji se hui baat-chit ka sandarbh kafi mahatavpuran laga.

  16. vikash kumar

    November 12, 2013 at 8:29 pm

    super……..sabad kam par gaye….in sari baaton ko padhkar…..kya kahen aapse…..media main ek dhara aisa hai ki vo kaam nahi karna chjahata hai….aur jo karna chahata hai use nahi karne diya jata hai…ya use nikal diya jata hai….galat aarop lagakar….so thank you so much….sir ki story ko padhkar….

  17. samir

    April 19, 2014 at 5:25 am

    lekin bhayya ji … kejriwal ke chakkar mein thode barbaad ho gaye … ;D

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