भारत और पाकिस्तान भले ही दो अलग-अलग भागों में बंट गया हो लेकिन दोनों देशों के रहन-सहन, संस्कृति, परंपराएं, साहित्य, संगीत, लोक-जीवन, सामाजिक व्यवस्था, आदि में अभी भी भरपूर समानताएं मौजूद हैं। वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभ लेखक फ़ीरोज़ अशरफ़ ने पिछले 25 वर्षों से प्रकाशित होने वाले अपने नियमित स्तंभ “पाकिस्ताननामा” के माध्यम से इस बात को सही साबित कर दिखाया है।
लेखक का मानना है कि 14 अगस्त, 1947 को भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद वजूद में आए पाकिस्तान में भी बहुत कुछ, शायद सब कुछ 1947 से लेकर आज तक वैसा ही है जैसा कि हमारे यहां भारत में है। करोड़ों पाकिस्तानियों के साथ भारतीय उपमहाद्वीप का शानदार अतीत और एक इतिहास जुड़ा है जिसके तार पाटलीपुत्र (बिहार का पटना) से लेकर तक्षशिला (पाकिस्तान के रावलपिंडी) तक झनझनाते हैं। इसी तार की झनझनाहट के स्वर को उभारने का एक प्रयास है यह पुस्तक जिसे परिदृश्य प्रकाशन ने “पाकिस्तानः समाज और संस्कृति” नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है।
1978 से धर्मयुग पत्रिका के “पाकनामा” कॉलम से अपने हिंदी पत्रकारिता का सफर तय कर नवभारत टाइम्स में 6 मार्च, 1985 से “पाकिस्ताननामा” के तहत नियमित कॉलम लिखने वाले फ़ीरोज़ अशरफ़ ने बीते वर्षों में पाकिस्तान की समाज और संस्कृति पर जो कुछ भी टिप्पणियां लिखी उनमें से चुनिंदा लगभग 125 ऐसे स्तंभों/आलेखों को ही शामिल किया गया है जो वर्तमान समय में भी उतने ही सामयिक है। इन आलखों को पढ़कर पाकिस्तान का चेहरा साफ-साफ नज़र आता है।
दरअसल भारत-पाक बंटवारे के बाद पाकिस्तान के प्रति भारत में ढेरों भ्रांतियां और गलतफहमियाँ थीं जबकि उसका सामाजिक-सांस्कृति-साहित्यिक और लौकिक ढांचा बिल्कुल हमारे जैसा
था। इसलिए 1978 में धर्मयुग के संपादक डॉ. धर्मवीर भारती ने फ़ीरोज़ अशरफ़ को “पाकनामा” कॉलम के तहत नियमित रूप से इसपर विशेष टिप्पणियाँ लिखने के लिए कहा और यह कॉलम पाठकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि अन्य भाषाओं में भी अनुवाद होकर यह प्रकाशित होने लगा। धर्मयुग के बंद होने के बाद नवभारत टाइम्स में “पाकिस्ताननामा” के रूप में यह पाठकों में अपनी जगह बनाने में सफल हुआ जो निरंतर जारी है। इतने लंबे समय तक किसी कॉलम में नियमित रूप से लिखना और उसे दैनिक समाचारपत्रों में प्रकाशित होना भी एक बड़ी बात है।प्रसिद्ध पत्रकार वेद राही के मुताबिक “फ़ीरोज़ अशरफ़ एक सिद्धहस्त चित्रकार हैं और यह पुस्तक पाकिस्तान का एक बड़ा कोलाज है। इस कोलाज को देखकर हम अपने सबसे नजदीकी पड़ोसी देश की बाहरी और भीतरी स्थितियों, सोचों, उमंगों, मजबूरियों, लड़खड़ाहटों और उड़ानों का प्रमाणिक ज़ायज़ा ले सकते हैं। वहां की संस्कृति, सभ्यता, धर्म, राजनीति, कृषि, उद्योग, भाषा और साहित्य की हक़ीक़ी तस्वीर हमारे सामने आ जाती है। अपने पड़ोसी देश की यह तस्वीर देखकर मुझे उसमें अपने देश की झलक भी मिलती है। रूप-रेखाएं और रंग एक जैसे भी नज़र आते हैं। आतंकवाद, धर्मांधता, हठधर्मिता, छटपटाहट, निराशा, आशा जो पाकिस्तान में देखने को मिलती है, वह भारत में भी देखने को मिलती है।”
लेखक ने अपनी पुस्तक में लगभग 125 आलेखों में विविध विषयों को बड़ी ही ईमानदारी और सद्भावना के साथ शामिल किया है। प्रारंभ में लेखक की मंशा भले ही केवल पड़ोसी देश की सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधियों से रिश्ता जोड़े रहने की बात रही हो लेकिन बाद में लेखक ने समय के साथ अपनी लेखनी को धारदार बनाया और उनकी क़लम एक सकारात्मक सोच के साथ पाकिस्तान के हर पहलुओं पर चलती दिखाई दी।
“मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां” नामक स्तंभ में लेखक कहता है कि पाकिस्तानियों को इस बात पर नाज़ है कि विश्वप्रसिद्ध भारतीय पार्श्वगायिका लता मंगेशकर, मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां को बड़ी बहन और गुरु मानती हैं। दरअसल, देश विभाजन से पहले, जब उपमहाद्वीप पर नूरजहां की आवाज़ का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था, उस समय लताजी ने अपना कैरियर शुरू किया था। ज़ाहिर है, किसी भी क्षेत्र के कलाकार, अपने ज़माने के जमे जमाए कलाकार को बुज़ुर्ग और गुरु अवश्य मानेंगे। इसमें दो राय नहीं हो सकती और यह हमारी परंपरा भी है। इस प्रकार वास्तव में लताजी ने, नूरजहां को बुजुर्गों का सम्मान देकर अपना क़द ऊंचा किया है।”
लेखक ने जिन चुनिंदा अंशों को शामिल किया है पढ़कर पाकिस्तान के समाज व संस्कृति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कुछ प्रमुख शीर्षक देखिए – पाकिस्तानी महिलाएं खेल-खेल में एक लड़ाई लड़ रही हैं, मौलवी एक दूसरे से उलझ रहे हैं, पाकिस्तान में ग़ैर मुस्लिम होना, मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां, पाकिस्तान में हिंदी, साझी संस्कृति का प्रतीक बसंत, वहां भी इफ्तार की सियासत, रांझे की हीर का मेला लगता है वहां, शादी की दावतों पर पाबंदी, क्रिसमस-ईसाई बिरादरी और पाकिस्तान, बिग बी की सेहत के लिए दुआएं, दो चेहरे हैं पाकिस्तान के, पाकिस्तानी सिखों के हौसले बुलंद आदि।
नवभारत टाइम्स के पूर्व संपादक एवं नवनीत हिंदी डाइजेस्ट के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने अपनी भूमिका में लिखा है – “पाकिस्ताननामा” लिखने के पीछे से लेखक का एक सकारात्मक सोच लगातार झांकता दिखाई देता है। यह सकारात्मकता उस पत्रकारिता की पहचान है जो एक-दूसरे को जोड़ने में विश्वास करती है।” उन्होंने इस पुस्तक को पाकिस्तान के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का न सिर्फ एक आईना बताया है बल्कि एक ऐसा खिड़की बताया है जिसमें से झांककर हम अपने पड़ोसी देश को देख सकते हैं, जुड़ सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि फ़िरोज़ अशरफ़ भारत में पाकिस्तान की दशा और दिशा के विशेषज्ञ हैं। पुस्तक से उद्धृत एक उदाहरण देखें-
“जस्टिस दोराब पटेल पाकिस्तान के उन तीन-चार हज़ार पारसियों में से हैं जो शांतिपूर्वक आन-बान से रहते हैं। शिक्षा के अतिरिक्त व्यवसाय और नौकरी में भी बहुसंख्यक वर्ग से बराबरी का मुक़ाबला करते हैं। बल्कि यह अहसास शायद उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है।”
संक्षेप में, पुस्तक को पढ़कर यह महसूस होता है कि भारतीय और पाकिस्तानी अवाम एक दूसरे के दुख-सुख के साझे हैं। हम नफ़रत करने के बजाए एक – दूसरे के जज़्बात को समझने की कोशिश करें तो अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकते हैं। अगर ऐसा हो जाए तो लेखक का वह उद्देश्य पूरा जाएगा जिसे सोचकर उन्होंने 25 वर्षों तक यह बृहत लेखन किया है।
पुस्तक का नाम : “पाकिस्तानः समाज और संस्कृति “
लेखक का नाम : फ़ीरोज़ अशरफ़
आकार : डिमाई, पृष्ठ सं.- 280, मूल्य-200/-
प्रकाशकः परिदृश्य प्रकाशन, 6, दादी संतुक लेन,
धोबी तालाव, मरीन लाइंस, मुंबई-400020.
इस किताब के समीक्षक आफताब आलम भारत की प्रथम मीडिया डायरेक्टरी पत्रकारिता कोश के संपादक है.
प्रशान्त
September 10, 2011 at 6:51 am
भारत में ही वह सब दिख जाता है.
abhijeet rane
September 10, 2011 at 9:12 am
great
abhijeet rane
September 10, 2011 at 9:12 am
:)great job