: वरना सरकार की गोद में बैठने में देर न लगेगी : पिछले कुछ दिनों से प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी के नाम पर गठित किए एक ट्रस्ट (प्रभाष परम्परा न्यास) को लेकर जमकर जूतम-पैजार चल रही है। प्रभाष परम्परा न्यास को गठित करने वाला एक धड़ा मानता है कि जो कुछ वह कर रहा है शायद सही कर रहा है। न्यास के औचित्य को लेकर सवाल उठाने वाले दूसरे धड़े के भी अपने तर्क हैं।
दूसरे धड़े का कहना है कि प्रभाष परम्परा को आगे बढ़ाने का काम दिल्ली में नहीं बल्कि दूर-दराज बैठे पत्रकारों के आत्मीय जुड़ाव से ही संभव हो सकता है। वैसे अपना अब तक का अनुभव तो यही रहा है कि देश में जितने भी न्यास मृत व्यक्तियों के नाम पर गठित किए गए हैं उनमें कुछ न कुछ बुराइयां तो प्रवेश करती ही रही है। सब जानते है कि रंगकर्मी सफदर हाशमी की मौत के बाद उनकी पत्नी माला हाशमी ने सहमत नामक ट्रस्ट का गठन किया था लेकिन कुछ दिनों के बाद ही यह खबर आम हुई कि ट्रस्ट के लोग चंदा-चकारी करते हुए सरकार की गोद में जा बैठे हैं। ट्रस्ट के आयोजन स्थलों पर लालबत्तियों की आवाजाही बढ़ गई। मंत्री भाषण देते हुए नजर आए। आज यह ट्रस्ट कहां है और किस दशा में है, इसका तो पता कम से कम उन लोगों को तो नहीं है जो जमीन पर लोट-लोटकर नुक्कड़ नाटक करते हैं। सब जानते हैं कि ट्रस्ट का काम कभी भी दिल्ली से बाहर नहीं निकला। कहा जा सकता है कि हाशमी जिस व्यवस्था का विरोध करते हुए तंत्र का शिकार हुए थे भाई लोगों ने व्यवस्था के तलुवे चाटते हुए उन्हें मरने के बाद भी फांसी पर लटका डाला था।
प्रभाष परम्परा न्यास आने वाले दिनों में कस्बाई पत्रकारों से संवाद की परम्परा को जारी रखेगा या नहीं इसका तो अन्दाजा नहीं है लेकिन न्यास का विरोध कर रहे धड़े के एक सदस्य अंबरीश कुमारजी की एक बात से मैं सहमत हूं कि प्रभाषजी ने अपने जीते-जीते जिस ढंग से देश के कोने-कोने में बसे लिखने-पढ़ने वालों से अपना रिश्ता कायम किया था, यदि न्यास उन दूर-दराज में कहीं कलम घसीटी कर रहे पत्रकारों की सुध नहीं लेता है तो इसका गठन व्यर्थ है। पत्रकारिता के सारे बड़े पुरस्कार दिल्ली में बैठे पत्रकारों को ही नसीब होते हैं जबकि कस्बे और गांवों में जीवंतता के साथ रिपोर्टिंग करने वाले ज्यादा सक्षम और ईमानदार लोग मौजूद है। हकीकत तो यही है कि पत्रकारिता की इज्जत और उसकी रक्षा के लिए दिल्ली में गठित किसी भी ट्रस्ट ने कभी भी कस्बाई लेखक और पत्रकार को सम्मान के लायक नहीं समझा है।
एक लेखक संजय तिवारी ने अंबरीश कुमारजी की निष्ठा पर कुछ सवाल भी उठाए हैं। श्री तिवारी ने कहा है कि अंबरीश कुमार जी अपना विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें ट्रस्ट से जोड़ा नहीं गया। संजय से मेरा सीधा कोई परिचय तो नहीं है लेकिन उनके आरोप निजी दुश्मनी से भरे-पूरे दिखते हैं। जहां तक मेरी जानकारी में है ट्रस्ट में कुछ ऐसे लोगों ने कब्जा जमा लिया है जिनका विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग अवसर की विचारधारा को महत्व देते रहे हैं। अब भले ही कोई कह दे कि नामवर सिंह जैसा नाम भी न्यास से जुड़ा है तो यह बताने की जरूरत नहीं कि नामवर सिंह का प्रगतिशील लेखक संघ किस दशा और दिशा से गुजर रहा है।
इस संघ के एक अध्यक्ष प्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन ने पिछले दिनों यह कहकर ही इस्तीफा दे दिया था कि प्रलेस भटकाव के रास्ते पर हैं। श्री रंजन ने यह इस्तीफा तब दिया था जब रायपुर के डीजीपी विश्वरंजन ने प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के बैनर तले लेखकों की चाट-पकौड़ी नामक एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। कुल मिलाकर मेरे कहने का यह आश्य है कि जब संघ, ट्रस्ट या न्यास की पवित्रता में पाखंड का प्रवेश हो जाता है तब सारे सही उद्देश्य प्लास्टिक के नाडे़ से ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं। एक न्यास से यदि जनसंघी जुड़े हैं, वामपंथी भी और काशीराम की पार्टी के सदस्य भी तो फिर उस न्यास का क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। न्यास में जो खून-खराबा होने वाला है वह अभी से दिख रहा है। दिल्ली के पत्रकार तो यह हैंडिंग लगाएंगे नहीं.. कस्बाई पत्रकारों को ही कहीं किसी छोटे से पर्चे में लिखना होगा- प्रभाष परम्परा न्यास में रणवीर सेना ने किया खून-खराबा।
अंबरीशजी के साथ मैंने जनसत्ता के छत्तीसगढ़ संस्करण में कुछ समय तक काम किया है। उन पर जनसत्ता सोसायटी को लेकर जो आरोप लगते रहे हैं, मेरा उनसे कोई लेना-देना भी नहीं है लेकिन जहां तक निजी तौर पर मेरा अनुभव है वे कभी व्यवस्था के दलाल तो नहीं हो सकते। यह बात मैं इसलिए दावे के साथ कह रहा हूं क्योंकि जिन दिनों अंबरीशजी रायपुर संस्करण में कार्यरत थे तब जोगी ने उन्हें सरकार का भोंपू बनाने के लिए कई तगड़े हथकंडे अपनाए थे। वे कभी किसी हथकंडे से प्रभावित नहीं हुए। यहां तक नोटों का अच्छा-खासा बंडल भी उन्हें डिगा नहीं सका था। जब अंबरीशजी नहीं माने तब जनसत्ता कार्यालय पर गुंडों ने धावा बोला था। इस धावे की गूंज प्रदेश के साथ-साथ दिल्ली के गलियारों तक हुई थी।
प्रभाषजी की परम्परा आगे बढ़े इसकी कामना इसलिए भी की जा सकती है क्योंकि प्रभाष जी इस काबिल थे लेकिन न्यास के गठन के साथ ही जिस ढंग से विवाद ने जोर पकड़ा है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है-
बहुत देखी है बाजीगरी हमने भी
सियायत की ये बाजीगरी कुछ देखी नहीं जाती.
लेखक राजकुमार सोनी छत्तीसगढ़ के पत्रकार हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग ‘बिगुल’ से साभार लिया गया है.
chandra kant
July 25, 2010 at 12:26 pm
rajkumarsoni ji
yeh sab nayas hi bantey hain labv ke liye
kuch karyakram honge aur sarkari aur rajniti ka paisa ayega
usey patrakar hi to sampan hoga woh koi bhi ho sakata
sanghi leftist aur samajvadi patrakar
itna ho halla kiun
fhir rambahadur rai ji jaisa patrakar jis bhi sanstha ke pichey rahega woh sanstha asman chuega