हमारा हीरो : रामबहादुर राय (भाग- दो)
…..सार्थक पत्रकारिता वही कर सकता है, जिसमें समाज के प्रति सरोकार और विचार हो। जो सो-काल्ड प्रोफेशनल जर्नलिस्ट हैं, वो नौकरी करते हैं। हो सकता है अच्छा काम करते हों लेकिन अपने यहां पत्रकारिता की जो कसौटी है, उसमें वह फिट नहीं बैठते। इसलिए पत्रकार को सामाजिक एक्टिविस्ट होना ही चाहिए…..
…..राजनीति में जाकर अपना कल्याण होता है, जनता का भला नहीं होता। जो लोग बदलाव लाने के लिए राजनीति में गए उनका हश्र सबने देखा है। इस राजनीतिक व्यवस्था की बुनियाद में पार्टी सिस्टम है। हमने संसदीय व्यवस्था अपनाया है। अगर चुनाव लड़ना है तो पहले पार्टी में शामिल होना होगा। आज की राजनीतिक पार्टियां गिरोह की तरह काम कर रही हैं। आप तय करिए कि किस गिरोह का हिस्सा बनना है….
-राजेंद्र माथुर जी से जुड़े कुछ और अनुभव बताएं।
–वे आदर्श संपादक थे। अपने रिपोर्टर को पूरी छूट देते थे। एक घटना है। सन् 89 में जब लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो एक दिन सुबह मुझे फोन किया और दफ्तर बुलाया। अक्सर वो बातचीत में रस लेते थे, मगर उस दिन तनाव में थे। तब मैं शुरू से ही जनता दल बीट देखता था और वीपी सिंह के साथ आइडेंटीफाई हो गया था। उन्होंने पूछा- क्या नवभारत टाइम्स कांग्रेस के खिलाफ अभियान चला रहा है? मैने कहा कि मैं जवाब देने से पहले जानना चाहूंगा कि आपके पास सुबह किसका फोन आया था- प्रधानमंत्री राजीव गांधी का, सूचना प्रसारण मंत्री एचकेएल भगत का, अशोक जैन (चेयरमैन) का या फिर रमेश जैन (एमडी) का? क्योंकि माथुर साहब को यही चारों फोन कर सकते थे। वह हंसने लगे। कहा कि आज चारों का फोन आया था। मैंने कहा कि आप चारों को फोन करिए और कहिए कि नवभारत टाइम्स अपना काम कर रहा है। मैं फील्ड में जो देख रहा हूं, वो लिख रहा हूं। इसका फैसला आज नहीं हो सकता। कांग्रेस जा रही है। अगर वह दुबारा आती है तो मुझे नौकरी से निकाल दिया जाए। माथुर साहब ने कहा कि अगर राजीव गांधी दुबारा आ गए तो हमें कष्ट झेलना पड़ेगा। मैने कहा, नहीं होगा। आज कोई संपादक नहीं है जो अपने रिपोर्टर को इतना सपोर्ट करे। आज अगर पीएमओ से चपरासी का फोन भी आ जाए तो बीट ले ली जाएगी। उन्होंने बात सुनी, भरोसा किया और मैं तो कहूंगा कि रिस्क भी लिया।
एक घटना और है। जब ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे और उन पर राजीव गांधी की सरकार को बर्खास्त करने का दबाव था। उन्हें एक लीगल डाक्यूमेंट दिया गया था। वह मुझे मिल गया। मैंने उसकी रिपोर्ट बनाकर माथुर साहब को दिया। उन्होंने उसे री-राइट किया और उसे संपादकीय पेज के लिए फाइनल किया। रिपोर्ट में पहले मेरा नाम फिर अपना नाम लिखा। नाम के क्रम को लेकर मैंने दुविधा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि सोर्स आपका था, इसलिए पहला हक आपका और चूंकि री-राइट करके मैंने भी रिपोर्ट में मेहनत की है, इसलिए मेरा भी नाम जाएगा। वह दूसरे नंबर पर ही जा सकता है।
-आप अपनी किस रिपोर्ट को सबसे ज्यादा याद करते हैं?
–तब मैं नभाटा में था। पत्नी के साथ हरिद्वार गया था। तभी मालूम चला कि सहारनपुर में दंगा हो गया है। आगे का कार्यक्रम स्थगित किया और सहारनपुर लौटा। उस गांव में हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर जिस तरह से दंगे को रोका था, लौट कर उसका वर्णन लिखा। वह बाटम छपी थी। जनसत्ता में तब मैं चीफ रिपोर्टर था जब सिकंदरा रोड पर दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चेयरमैन को किसी ने गोली मार दी थी। किसी सिख नेता के खिलाफ यह आतंक की पहली घटना थी। उनका इलाज लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में चल रहा था। तब जनसत्ता 2.30 बजे निकलता था। मैने रुकने के लिए कहा। मैं रात को अस्पताल पहुंचा तो दिल्ली के पुलिस कमिश्नर वेद मारवाह अस्पताल से आ रहे थे। मैंने पूछा तो उन्होंने संकेत दिया कि नहीं बचा। हमने उसे छापा। हम अकेले अखबार थे जिसमें यह खबर छपी। ऐसे ही बोफोर्स का भंडाफोड़ हुआ तो सीबीआई के छापे मारने की पहली सूचना मुझे मिली। एक खबर डीडीए की थी। डीडीए ने बिना नींव के 193 मकान बनवाए थे। जनसत्ता में इस खबर को पढ़कर अब्दुल गफूर ने पांच लोगों को सस्पेंड कर दिया। उसमें एक दिल्ली की वर्तमान मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का रिश्तेदार भी था।
-आप किस नेता से सबसे ज्यादा प्रभावित रहे?
–मैं ऐसा कोई व्यक्ति नहीं खोज पाया हूं। मेरा मानना है कि एक पत्रकार के रूप में किसी पोलिटिकल लीडर से प्रभावित नहीं होना चाहिए। नेता चाहे जो भी हो, वो चाहता है कि पत्रकार उसकी तारीफ करें। आलोचना लिखने पर वह दबाव या प्रलोभन के जरिए प्रभावित करना चाहता है। मेरे साथ भी ऐसी कोशिश हुई मगर मैं बच निकला। आज जिस मुकाम पर हूं, मानता हूं कि आप किसी नेता से जुड़ कर पत्रकारिता नहीं कर सकते। चंद्रशेखर से जुड़ाव था, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी सबसे अच्छे संबंध थे मगर जब मुझे खबर मिली मैंने उनके खिलाफ भी लिखा।
-पत्रकारिता जगत में कोई खास दोस्त?
–दो लोग हैं जिनसे अपना गहरा नाता है। मगर इसे दोस्ती नहीं कहेंगे। यह आदर का रिश्ता है। एक देवदत्त हैं। वो गुजरात के किसी अखबार के ब्यूरो चीफ थे, संभवतः ‘गुजराती समाचार’ के। अधिकतर स्वतंत्र पत्रकार के रूप में ही काम करते हैं। उन्हें 74 से जानता हूं। बिहार आंदोलन के दौरान दिल्ली की पत्रिका ‘प्वाइंट ऑफ व्यू’ का इंतजार होता था, इसे वही निकालते थे। देवदत्त अपने ढंग के अकेले आदमी हैं। दूसरे प्रभाष जोशी जी हैं। प्रभाष जी की किताब में उनका परिचय विस्तार से है। मगर जब मैं उनकी टीम में शामिल था और वो टीम लीडर थे, उस दौरान कुछ बातें ऐसी हुईं जो उपलब्ध नहीं हैं, उनका जिक्र करना चाहूंगा। जिस तरह की समस्या 91 में माथुर साहब के सामने आई, वैसी ही स्थिति 93-94 में प्रभाष जी के सामने भी थी। 91 में रामनाथ गोयनका का देहांत हुआ। वह प्रभाष जी के लिए निजी हानि का साल था। रामनाथ जी के बाद अखबार की कमान विवेक गोयनका के हाथ में आई। वह उसी रास्ते पर चलने लगे जिस पर टाइम्स ऑफ इंडिया के समीर जैन चलने लगे थे। प्रभाष जी के सामने पहले उलझन, फिर टकराव का क्षण आया। आज शेखर गुप्ता जैसे सीईओ हैं, विवेक चाहते थे कि प्रभाष जी भी वैसे ही करें। उन्होंने मना कर दिया।
-कोई ऐसा व्यक्ति जो नापसंद हो?
–किसी से निजी खुन्नस नहीं है। घटना विशेष के आधार पर पसंद-नापसंद होता है। किसी से हमेशा खुन्नस रखना दुश्मनी पालना है। अपनी ऐसी प्रकृति नहीं है। हां, ऐसे बहुत हैं जिनका काम पसंद नहीं है लेकिन वह वहीं खत्म हो जाता है।
-जब आप खबरों के साथ नहीं होते तो क्या करते हैं?
–अपनी रुचि राजनीतिक व्यवस्था को बदलने में है। जब लिखना-पढ़ना नहीं होता तो ऐसे ही लोगों से मिलना पसंद करता हूं। एक बाबा नागनाथ हैं, उनसे मिलने गया था। उनसे प्रेरणा लेकर काफी लोग काम कर रहे हैं। विद्यार्थी जीवन से लेकर अब तक अपनी जो राजनीतिक दिशा रही है, वह खुद कुछ पाने के लिए नहीं है बल्कि व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए है। मेरा निष्कर्ष है कि सारी गड़बड़ियों की जड़ भारत का संविधान है। जो धाराएं है वो साम्राज्यवाद की पोषक हैं। इसी संबंध में 99 में ‘प्रज्ञा संस्थान’ का गठन हुआ है। ‘दिनमान’ के जवाहर लाल कौल इसके अध्यक्ष हैं। इसके द्वारा नए संविधान सभा के लिए जनमत जगाना दूसरा काम है।
-एक तरफ तो आप राजनीतिक व्यवस्था सुधारने की बात करते हैं, दूसरी तरफ तमाम मौके मिलने के बाद भी इसमें शामिल नहीं हुए। आखिर यह विरोधाभाष क्यों है?
–राजनीति में जाकर अपना कल्याण होता है, जनता का भला नहीं होता। जो लोग बदलाव लाने के लिए राजनीति में गए उनका हश्र सबने देखा है। इस राजनीतिक व्यवस्था की बुनियाद में पार्टी सिस्टम है। हमने संसदीय व्यवस्था अपनाया है। अगर चुनाव लड़ना है तो पहले पार्टी में शामिल होना होगा। आज की राजनीतिक पार्टियां गिरोह की तरह काम कर रही हैं। आप तय करिए कि किस गिरोह का हिस्सा बनना है।
-किसका लिखा आपको पसंद आता है?
–नया तो नहीं कहेंगे लेकिन भाषा के करिश्मे में आलोक तोमर का कोई मुकाबला नहीं है। मगर वह तथ्यों के बारे में सावधानी नहीं बरतते। कुमार संजॉय सिंह जब प्रिंट में थे तो उनकी भाषा में भी प्रवाह था। मनोज मिश्र बेहतर हैं। फ्रीलांसर में अवधेश कुमार ने अपनी जगह बनाई है। अरविंद कुमार सिंह उन गिने-चुने लोगों में हैं जो पत्रकारिता करते हुए किताब भी लिखते हैं। मीडिया पर सुशील कुमार सिंह बेहतर लिखते हैं। न्यूज एजेंसी ‘भाषा’ के संपादक कुमार आनंद की भाषा में भी गहराई है। अंग्रेजी में चार-पांच लोगों को ध्यान से पढ़ता हूं। हरीश खरे (ब्यूरो चीफ, द हिंदू), प्रवीण स्वामी (द हिंदू), पी. साईंनाथ (द हिंदू) और देवेंद्र शर्मा।
-आपका रोल मॉडल कौन है?
–मैं कह नहीं सकता। क्योंकि हम किसी को अपना रोल मॉडल नहीं मानते। हम पत्रकारिता में इसलिए हैं क्योंकि हमें अभिव्यक्ति का माध्यम चाहिए। हमारी यह कोशिश नहीं कि हमारी भाषा किसी से मिले। लिखने-पढ़ने में हमारी कोशिश यह रहती है कि अपनी भाषा और ठीक हो। इसके लिए हमेशा कोशिश करता हूं। जिन लोगों को पढ़ता हूं, भाषा के बारे में उनमें सबसे ज्यादा प्रेरणा विनोबा के साहित्य से मिलती है।
-अगर आप पत्रकार नहीं होते तो क्या होते?
–हमने पहले ही बता दिया है कि पत्रकारिता में क्यों आएं। वैसे तब सामाजिक काम में पड़े रहते या राजनीति में आ जाते। पॉलिटिकल एक्टिविस्ट तो रहते ही। वह रोल अब भी निभाते हैं।
-फिल्म देखने का शौक है?
–नहीं। सन् 1978 में गांधी देखी थी। फिर कोई फिल्म नहीं देखी। अभी एक फिल्म आई थी। कोई गांधीगिरी की। (मैने याद दिलाया, मुन्नाभाई एमबीबीएस) हां, यही फिल्म थी। प्रभाष जी के साथ देखने जाना था। उन्होंने टिकट भी ले लिया था। मगर नहीं जा सका। हमारे दोस्त राजीव बोरा का लड़का है, अमन। थियेटर का जाना पहचाना नाम है। उसका फोन आया था। कोई फिल्म थी अनुराग कश्यप की। (मैने याद दिलाया, गुलाल) हां, यही फिल्म है, इसे देखने के लिए कहा है। मुझे लगता है उसके कहने से मुझे ‘गुलाल’ देखनी चाहिए। वैसे हम तीन घंटे बैठ नहीं सकते।
-आपके पत्रकारिता जीवन का कोई ‘राज’ जिसे आप शेयर करना चाहें?
–दो तीन बातें है, हालांकि इसे राज नहीं कहेंगे पर मैं बताता हूं। सन् 2006 की बात है। तब एक दिन प्रभाष जी ने कहा कि वीपी सिंह का 75 वां जन्मदिन आने वाला है, क्यों न आप उनसे बातचीत करते हुए एक किताब बना दें। मैं उस काम में लग गया। एक दिन रात को अशोक माहेश्वरी (राजकमल प्रकाशन के मालिक) का फोन आया कि आप जो काम कर रहे हैं उसमें 3-4 लोग और लगे हैं। मैने प्रभाष जी को कहा। हम लोग वीपी सिंह के पास गए। उन्होंने कहा कि हां, लोग कोशिश तो कर रहे हैं पर मै सिर्फ रामबहादुर राय को ही समय दे रहा हूं। धीरे-धीरे किताब बन गई। किताब आई तो कुछ चीजों पर विवाद भी हुआ। वीपी सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर साफ कहा कि रामबहादुर राय ने जो भी लिखा है, उसे मैंने खुद कहा है।
एक और घटना इसी समय की है। एक दिन उमा भारती का फोन आया। उन्होंने कहा कि मैं मकर संक्रांति के दिन ही अयोध्या पहुंच रही हूं। वहां मैं संकल्प लेना चाहती हूं। मेरा आग्रह है कि आप मौजूद रहें। मैने हामी भर दी। उन दिनों हम ‘प्रथम प्रवक्ता’ में नहीं थे। वीपी सिंह वाली किताब पर काम कर रहे थे। हमने प्रवक्ता के मालिक एनएन ओझा को कहा कि आप टिकट कटवाइए। हम लोग पहले लखनऊ चलें फिर अयोध्या चलना है। इसमें बताने वाली बात यह है कि जब हम वहां पहुंचे तो ‘दैनिक जागरण’ के वहां के संवाददाता ने एक खबर छापी। उसमें लिखा था कि राजनाथ सिंह के दो दूत उमा को समझाने आए हैं। हालांकि खबर में मेरा नाम नहीं था। मैने इसे स्थानीय खबर समझकर नजरअंदाज भी कर दिया। जब दिल्ली लौटा तो देखा कि यहां के जागरण में भी यह खबर छपी है। दूसरे ही दिन पंजाब केसरी ने अपने स्टाइल में छापा की रामबहादुर राय राजनाथ सिंह के दूत बने। मैने दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्ता को पत्र लिखा। लिखा कि मैं एक पत्रकार हूं और हो सकता है कि आप मुझे जानते हों। आप मेरा लिखा-पढ़ा मंगा लीजिए, क्या आपको लगता है कि मैं दूत का काम करता हूं। आप खुद निर्णय कीजिए। मैं एक पत्रकार हूं। दूत बनने की पात्रता मुझमें नहीं है। आपके संवाददाता को तो मुझसे पूछना ही चाहिए था। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। बाद में जागरण के एक वरिष्ठ अधिकारी (नाम पूछने पर निशिकांत ठाकुर का नाम बताते हैं) ने मुझसे कहा कि आपको मुझे बताना चाहिए था। मैं आपका पत्र छपवा देता।
-कौन सी बात दुख देती है?
–(हंसते हुए) कोई बात दुख नहीं देती है। हां, कोई मित्र विश्वासघात करे तो वह दुखदायी होता है।
-खुशी किस बात से मिलती है?
–जिस काम से संतोष होता है, उसी से खुशी मिलती है।
-भविष्य की क्या योजना है?
–अयोध्या आंदोलन पर किताब लिखना चाहते हैं। उसकी राजनीति पर। कुछ लोग मंदिर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर उससे अधिक राजनीति हो रही है। उसके तथ्य रखेंगे।
-आप एक्टिविज्म से जर्नलिज्म में आए। क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट होना चाहिए?
–सार्थक पत्रकारिता वही कर सकता है, जिसमें समाज के प्रति सरोकार और विचार हो। जो सो काल्ड प्रोफेशनल जर्नलिस्ट हैं वो नौकरी करते हैं। हो सकता है अच्छा काम करते हों लेकिन अपने यहां पत्रकारिता की जो कसौटी है, वह उसमें फिट नहीं बैठते हैं। इसलिए एक पत्रकार को सामाजिक एक्टिविस्ट होना ही चाहिए।
-सर आपने इतना समय दिया धन्यवाद।
–धन्यवाद, अशोक जी।
इससे पहले का हिस्सा पढ़ने के लिए क्लिक करें- (भाग-1)
इस इंटरव्यू पर अपनी प्रतिक्रिया रामबहादुर राय तक पहुंचाने के लिए 09350972403 पर एसएमएस भेज सकते हैं या फिर [email protected] पर मेल कर सकते हैं।
namdar rahi
October 27, 2011 at 12:14 am
patrakarita mein samajik srokar ke anupalan ko jis spast tarike shree ram bahadu rai ne rakha hai usase hum jaison ko activism patrikarit karne ki prerna milti hai …
GOPAL PRASAD
December 8, 2011 at 9:39 pm
must read