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कहिन

हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला

रवीश कुमार: हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल : अचानक से हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला हो गया है। कार के एक्सलेटर की आवाज़ लगाकर हूं हां की बजाय ज़ूप ज़ाप करती ख़बरें। टीवी से दूर भागते दर्शकों को पकड़ कर रखने के लिए यह नया फार्मूला मैदान में आया है। वैसे फार्मूला निकालने में हिन्दी न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं। हर हफ्ते कोई न कोई फार्मेट लांच हो जाता है। कोई दो मिनट में बीस ख़बरें दिखा रहा है तो कोई पचीस मिनट में सौ ख़बरें।

रवीश कुमार

रवीश कुमार: हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल : अचानक से हिन्दी न्यूज़ चैनलों पर स्पीड न्यूज का हमला हो गया है। कार के एक्सलेटर की आवाज़ लगाकर हूं हां की बजाय ज़ूप ज़ाप करती ख़बरें। टीवी से दूर भागते दर्शकों को पकड़ कर रखने के लिए यह नया फार्मूला मैदान में आया है। वैसे फार्मूला निकालने में हिन्दी न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं। हर हफ्ते कोई न कोई फार्मेट लांच हो जाता है। कोई दो मिनट में बीस ख़बरें दिखा रहा है तो कोई पचीस मिनट में सौ ख़बरें।

ये दनादन होते दर्शकों के लिए टनाटन ख़बरों का दौर है या अब दर्शक को ख़बर दिखा कर उसका दिमाग भमोर दिया जा रहा है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की प्रयोगधर्मिता पर अलग से शोध होना चाहिए। अच्छे भी और बुरे भी। प्रस्तिकरण के जितने प्रकार हिन्दी चैनलों के पास हैं उतने इंग्लिश वालों के पास नहीं हैं। अगर ख़बर की कोई कीमत है तो वो ऐसी क्यों है कि आप कुछ समझ ही न पायें और ख़बर निकल जाए। प्लेटफार्म पर खड़े होकर राजधानी निहार रहे हैं या घर में बैठकर टीवी देख रहे हैं। माना कि टाइम कम है। लोगों के पास न्यूज देखने का धीरज कम हो रहा है लेकिन क्या वे इतने बेकरार हैं कि पांच ही मिनट में संसार की सारी ख़बरें सुन लेना चाहते हैं।

ऐसे दर्शकों का कोई टेस्ट करना चाहिए कि दो मिनट में सत्तर ख़बरें देखने के बाद कौन सी ख़बर याद रही। पहले कौन चली और बाद में कौन। इसे लेकर हम एक रियालिटी प्रतियोगिता भी कर सकते हैं। समझना मुश्किल है। अगर दर्शक को इतनी जल्दी है दफ्तर जाने और काम करने की तो वो न्यूज़ क्यों देखना चाहता है? आराम से तैयार होकर जाए न दफ्तर। सोचता हूं वॉयस ओवर करने वालों ने अपने आप को इतनी जल्दी कैसे ढाल लिया होगा। स्लो का इलाज स्पीड न्यूज है।

अगर दर्शक ज़ूप ज़ाप ख़बरें सुन कर समझ भी रहा है तो कमाल है भाई। तब तो इश्योरेंस कंपनी के विज्ञापन के बाद पढ़ी जाने वाली चेतावनी की लाइनें भी लोग साफ-साफ सुन ही लेते होंगे। पहले मैं समझता था कि स्पेस महंगा होता है इसलिए संवैधानिक चेतावनी को सिर्फ पढ़ने के लिए पढ़ दिया जाता है। इश्योरेंस…इज…मैटर…ब..बबा..बा। मैं तो हंसा करता था लेकिन समझ न सका कि इसी से एक दिन न्यूज़ चैनल वाले प्रेरित हो जायेंगे।

जल्दी ही स्पीड न्यूज़ को लेकर जब होड़ बढ़ेगी तो चेतावनी का वॉयस ओवर करने वाला कलाकार न्यूज़ चैनलों में नौकरी पा जाएगा। जो लोग अपनी नौकरी बचा कर रखना चाहते हैं वो दनदनाहट से वीओ करना सीख ले। एक दिन मैंने भी किया। लगा कि कंठाधीश महाराज आसन छोड़ कर गर्दन से बाहर निकल आएंगे। धीमी गति के समाचार की जगह सुपरफास्ट न्यूज़। यही हाल रहा तो आप थ्री डी टीवी में न्यूज़ देख ही नहीं पायेंगे। दो खबरों के बीच जब वाइप आती है,उसकी रफ्तार इतनी होगी कि लगेगा कि नाक पर किसी ने ढेला मार दिया हो।

न्यूज़ संकट में है। कोई नहीं देख रहा है या देखना चाहता है तभी सारे चैनल इस तरह की हड़बड़ी की होड़ मचाए हुए हैं। अजीब है। अभी तक किसी दर्शक ने शिकायत नहीं की है कि एक चैनल के सुपर फास्ट न्यूज़ देखते हुए कुर्सी से गिर पड़ा। दिमाग़ पर ज़ोर पड़ते ही नसें फट गईं और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया। स्पीड न्यूज की मात्रा हर चैनल पर बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं पूरे स्क्रीन पर ऊपर-नीचे हर तरफ लिख दिया गया है। ये सब न्यूज़ चैनलों की ख़बरों के लिए बाज़ार खोजती बेचैनियां हैं। ख़बरें कब्र से निकल कर शहर की तरफ भागती नज़र आती हैं। लेकिन आपने देखा होगा। ख़बरों में कोई बदलाव नहीं आया है। ख़बरें नहीं बदलती हैं। सिर्फ फार्मेट बदलता है।

इतना ही नहीं इसके लिए सारे कार्यक्रमों के वक्त बदल रहे हैं। अब साढ़े आठ या साढ़े नौ या नौ बजे का कोई मतलब नहीं रहा। वैसे ये छोटा था कहने पुकारने में। नया टाइम है- आठ बज कर सत्ताईस मिनट,नौ बजकर अट्ठाईस मिनट। नौ बजे रात से तीन मिनट पहले ही हेडलाइन चल जाती है। कई चैनल 8:57 पर ही हेडलाइन रोल कर देते हैं तो कुछ एक मिनट बाद। हिन्दी चैनलों की प्रतियोगिता हर पल उसे बदल रही है। समय का बोध भी बदल रहा है। यह समझना मुश्किल है कि जिस दर्शक के पास ख़बरों के लिए टाइम नहीं है वो नौ बजने के तीन मिनट पहले से क्यों बैठा है न्यूज़ देखने के लिए। अगर ऐसा है तो हेडलाइन एक बुलेटिन में दस बार क्यों नहीं चलती। तीन-चार बार तो चलने ही लगी है। देखने की प्रक्रिया में बदलाव तो आया ही होगा जिसके आधार पर फार्मेट को दनदना दनदन कर दिया गया है। यही हाल रहा तो एक दिन आठ बजकर पचास मिनट पर ही नौ बजे का न्यूज़ शुरू हो जाएगा। लेकिन नाम उसका नौ बजे से ही तुकबंदी करता होगा। न्यूज़ नाइन की जगह न्यूज़ आठ पचास या ख़बरें आठ सत्तावन बोलेंगे तो अजीब लगेगा। एकाध दांत बाहर भी आ सकते हैं।

ख़बरों के इस विकास क्रम में टिकर की मौत होनी तय है। टॉप टेन या स्क्रोल की उपयोगिता कम हो गई है। कुछ चैनलों ने रेंगती सरकती स्क्रोल को खत्म ही कर दिया है। कुछ ने टॉप टेन लगाकर ख़बरें देने लगे हैं। यह स्पीड न्यूज़ का छोटा भाई लगता है। जैसे चलने की कोशिश कर रहा हो और भइया की डांट पड़ते ही सटक कर टाप थ्री से टाप फोर में आ जाता हो। टाइम्स नाउ ने हर आधे घंटे पर न्यूज़ रैप के मॉडल में बदलाव किया है। इसमें पूरे फ्रेम में विज़ुअल चलता है। ऊपर के बैंड और नीचे के बैंड में न्यूज़ वायर की शैली में ख़बरें होती हैं। अभी तक बाकी चैनल सिर्फ टेक्स्ट दिखाते थे या फिर स्टिल पिक्चर। कुछ हिन्दी चैनल टाइम्स नाउ से मिलता जुलता प्रयोग कर चुके हैं।

इतना ही नहीं न्यूज़ चैनल कई तरह की बैशाखियां ढूंढ रहे हैं। फेसबुक पर मैं खुद ही अपने शो की टाइमिंग लिखता रहता हूं। एनडीटीवी का एक सोशल पेज भी है। वहां भी हम समय बताते हैं। स्टोरी की झलक देते हैं। अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। मेरी स्टोरी नौ बजे बुलेटिन में देखियेगा। इतना ही नहीं ट्विटर पर नेताओं और अभिनेताओं के बयान को भी ख़बर की तरह लिया जा रहा है। ट्विटर के स्टेटस को अब पैकेज कर दिखाया जा रहा है। ट्विटर पर राजदीप अपने चैनल के किसी खुलासे की जानकारी देते हैं।

मैं ख़ुद ट्विटर पर अपने शो की जानकारी देता हूं। एक अघोषित संघर्ष चल रहा है। कंपनियां आपस में होड़ कर रही हैं। उसके भीतर हम लोग अपनी ख़बरों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। फेसबुक का इस्तमाल हो रहा है। कई चैनल अपना कार्यक्रम यू ट्यूब में डाल रहे हैं। मैंने भी अपने एक एपिसोड का प्रोमो यू ट्यूब में डाला था। हर समय दिमाग में चलता रहता है कि कैसे अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचू। कोई तो देख ले। कई बार ख्याल आता है कि एक टी-शर्ट ही पहन कर घूमने लगूं,जिसके पीछे शो का नाम और समय लिखा हो। कुछ स्ट्रीकर बनवाकर ट्रक और टैम्पो के पीछे लगा दूं। यह भी तो हमारे समय के स्पेस है। जैसे फेसबुक है,ट्विटर है। स्टेटस अपडेट तो कब से लिखा जा रहा है। ट्रको के पीछे,नीचे और साइड में। सामने भी होता है। दुल्हन ही दहेज है या गंगा तेरा पानी अमृत। नैशनल कैरियर।

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कुल मिलाकर न्यूज़ चैनल के क्राफ्ट में गिरावट आ रही है। कैमरे का इस्तमाल कम हो गया है। खूब नकल होती है। कोई चैनल एक फार्मेट लाता है तो बाकी भी उसकी नकल कर चलाने लगते हैं। हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने इस आपाधापी में एक समस्या का समाधान कर लिया है। अब उनके लिए नैतिकता समस्या नहीं है। न ही स्पीडब्रेकर। बस यही बाकी है कि न्यूज़ न देखने वाले दर्शकों की पिटाई नहीं हो रही है। नहीं देखा। मार त रे एकरा के।

स्पीड न्यूज़ की तरह भाई लोग दर्शक को ऐसे धुन कर चले जायेंगे कि उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि स्पीड न्यूज़ में आकर चले भी गए। दूसरे दर्शक भी नहीं जान पायेंगे कि ये अपने ही किसी भाई के पीट जाने की ख़बर अभी-अभी रफ्तार से निकली है। दर्शक पूछते फिरेंगे कि भाई अभी कौन सी ख़बर आने वाली है और कौन सी गई है। खेल वाली निकल गई क्या। ऐसा भी होने वाला है कि पूरा न्यूज़ फास्ट फारवर्ड में चला दिया जाएगा। किचपिच किचपिच। समझें न समझें मेरी बला से। दर्शक बने हैं तो लीजिए और बनिए। और पांच लाइन क्यों पढ़े। चार शब्दों की एक ख़बर होनी चाहिए। मनमोहन सिंह नाराज़। क्यों और किस पर ये दर्शक का जाने बाप। स्पीड न्यूज़ है भाई। इतना बता दिया कम नहीं है। आप देख रहे हैं हिन्दी पत्रकारिता का दनदनाहट काल।

लेखक रवीश कुमार एनडीटीवी से जुड़े हुए हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग कस्बा से साभार लिया गया है.

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0 Comments

  1. Atul Srivastava

    August 25, 2010 at 1:12 pm

    I agree with you,

  2. अशोक कुमार शर्मा

    August 25, 2010 at 1:51 pm

    कमाल की रवानगीवाला आलेख है. हकीकत को बहुत तमीज, तहजीब और जायके लेकर बयान किया गया है. वह रवीश भाई वह!

  3. suresh bishnoi

    August 25, 2010 at 2:24 pm

    अंत के दो तीन पहरे तो लोटपोट कर देने वाले हैं रवीशजी …ज्यादा क्या लिखें इतना लिख दिया और आपने पढ़ लिया वो कम है क्या… स्पीड न्यूज़ के जमाने में..

  4. कुमार मयंक

    August 25, 2010 at 4:24 pm

    रवीश जी को धन्यवाद , बेहतरीन अंदाज है आपके लिखने का.. कुछ और भी स्थानीय शब्दों का प्रयोग किया होता तो…लेख पढने में गंभीरता के साथ हंसी भी आती….वैसे आपका लेख है जानदार…और स्पीड न्यूज है बेकार….जायकेदार लेख के लिये धन्यवाद….

  5. Shrawan Singh

    August 25, 2010 at 9:44 pm

    Ravishji aapka lekh kafi sateek hai…behatareen hai.
    ———Speed News ke producers ka haal———
    Kya khana banana hai decide kiya, khana banaya, khud hi khana khaya aur khudd hi khane ki taarif bhi kar di…”WAAH !!! KHANA ACHHA BANA THA”.

  6. jay

    August 26, 2010 at 5:18 am

    Dear Raveesh,

    Your comments are nearer to reality of the current trend in the Hindi news channels. It made interesting reading. We had learnt a dictum Der aaye durust aaaye. IF a news comes late but has pack of information it is more valuable than like those fast food news items being produced by these Hindi channels now a days.

    In fact such experimentation with news has only diluted their impact. And viewers are just being taken for a ride!

    Keep Up

    J P GUPTA/RE/ 9dot9 Media group

  7. banjara

    August 26, 2010 at 6:10 am

    kya Raveeshjee ko dar lag raha hai ki tv pe unki lambi bhashanbazi ke din ladnewale hain?

  8. arvind kumar

    August 26, 2010 at 10:41 am

    ravees sir,
    i am agree with your statement,
    this is a truth of the channels

  9. Amrendra®

    August 26, 2010 at 11:48 am

    Aapki bhi channel aaj kal sansani wali presentation and promotional videos chalati hai ( thanks ki kabhi kabhi hi chalti hai), raham khaiye logo par.

  10. jeetendra singh

    August 26, 2010 at 12:41 pm

    richa ka add bahut bekar aata hai. ekdum bekar.

  11. Mohammad suhel

    August 26, 2010 at 1:48 pm

    Ravish Sir ek NDTV news channel pehle hua karta tah . lekin wo bhi ajkal doosre aur channel ke jaisa hone laga hai .

  12. singh

    August 26, 2010 at 2:00 pm

    RESPECTED RAVISH SIR,

    KABHI AAP (NDTV) YOU TUBE KI KHABRON KI BURAI KARTE THE…PER AB AAP BHI WAHI CHALA RAHE HAIN….SIRF NAAM BADAL DIYA HAI (NET KE JHAROKHE SE)…MUJHE LAGTA HAI..AAP BHI EK NA EK DIN SPEED NEWS JAROOR CHALAYENGE…BUS NAAM NDTV KE TASTE KA HOGA..YANI “SARPAT SAMACHAR”…..MAAF KIJIYEGA..AGAR YAHI NAAM SOCH RAKHA HO TO SHYAD AAPKO BADALNE KI JAROORAT PADE…AAP MERE LIYE AADARNIYE HAIN…MAIN NAHIN CHAHTA KE BHAVISHYA ME MUJHE AAPKO GURU KEHTE SHARM MEHSOOS HO

    AAPKA
    “EKLAVYA” SINGH

  13. Praveen Bhardwaj

    August 26, 2010 at 3:40 pm

    Raveesh ji acha likha h. koshis karna aapke yaha esa na ho

  14. raj kumar

    August 26, 2010 at 6:15 pm

    RESPECTED RAVISH SIR,
    aap bilkul thik likh rahe he……ek ndtv hi esa channel he jo speed ke chakar me nhi pada he…..sayad tabhi me ise sab se jyada dekhta hu…..sir aap bhut acha likhte he….me b ek journalist hu….par news channels me 5 saal ka experiance lene ke baad b ghar par betha hu…..ek acha sa lekh journalism par b ho jaye….taki duniya ko is field ki b haqiqat pata chal sake…..4 din ki chandni fir andheri raaaaat……

  15. sher afghan khan

    August 27, 2010 at 2:59 am

    sir ,aap ne jo baten likha hai hum aapke is baat sahmat hain .or hum es tarah ki khabar nahi dekhna chahte

  16. dev prakash tiwari

    September 8, 2010 at 8:36 am

    kya khoob kahi sur aapne. wakai aaj kal jis bhi news channel ko tune karo bas ek hi format, ek hi style dikhayi deti hai. kisibhi channel ke pass maulikta ka aabhaw hai. sab ke sab chor.ye channel din b din media ko styanash kar rahe hain…………… aapki bat mein dam hai. main aapki baat se ittafaq rakhta hun.

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