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लंगोटिया भूत से लेकर जूली चुड़ैल की कहानी करना चाहता हूं : रवीश

टीवी के आइडिया उत्पादकों का अनादर मत करो : टीवी का फटीचर काल अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर चुका है। सानिया की शादी को लेकर तमाम संपादकीय रणनीतिकारों ने आइडिया को त्वरति गति से पैदा करना शुरू कर दिया है। टीवी के फटीचर दर्शकों ने लेख लिखने के लिए इन तमाम कार्यक्रमों पर अपनी आंखें गड़ा दी हैं। टीआरपी फिर लौट आया है।

<p align="justify"><font color="#003366">टीवी के आइडिया उत्पादकों का अनादर मत करो : </font>टीवी का फटीचर काल अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर चुका है। सानिया की शादी को लेकर तमाम संपादकीय रणनीतिकारों ने आइडिया को त्वरति गति से पैदा करना शुरू कर दिया है। टीवी के फटीचर दर्शकों ने लेख लिखने के लिए इन तमाम कार्यक्रमों पर अपनी आंखें गड़ा दी हैं। टीआरपी फिर लौट आया है। </p>

टीवी के आइडिया उत्पादकों का अनादर मत करो : टीवी का फटीचर काल अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर चुका है। सानिया की शादी को लेकर तमाम संपादकीय रणनीतिकारों ने आइडिया को त्वरति गति से पैदा करना शुरू कर दिया है। टीवी के फटीचर दर्शकों ने लेख लिखने के लिए इन तमाम कार्यक्रमों पर अपनी आंखें गड़ा दी हैं। टीआरपी फिर लौट आया है।

पत्रकारिता के सारे अहंकार इस टीआरपी के जूते के नीचे रिरिया रहे हैं। यह देखकर अच्छा लगता है। अब रोने और सिसकने की सीमा से आगे जाकर दर्द दवा बन चुका है। ग़ालिब अपनी टोपी फेंक आइडिया सोच रहे हैं। सानिया की शादी का कौन सा एंगल हमारे चैनल को रेटिंग के इतिहास में दर्ज करा देगा। सानिया दर्शकों की सामुदायिक संपत्ति हैं। इससे पहले अभिषेक बच्चन की शादी में कैमरेवाले धकियाये जाने के बावजूद एक्सक्लूसिव तस्वीरें ले आए थे। भारत की महान जनता पत्रकारिता के इस आईपीएल पर ताली बजा रही है।

हिन्दी न्यूज़ चैनल आलोचकों के लेख से नहीं चलेंगे। आलोचकों ने लेख लिखकर न जाने कितने कमा लिये। हर लेख के पैसे मिलते हैं। न्यूज चैनल अपने इस पतन काल में फिल्मों को भी आइडिया परोस रहे हैं। मैं भी अब इस गंध में जीना चाहता हूं। जी करता है काश हम भी दस पांच घटिया कार्यक्रम करते जिनकी रेटिंग आती। आखिर दुनिया से अलग होकर जंगल में जीने का कोई इरादा नहीं है। मैं भी अब लंगोटिया भूत से लेकर जूली चुड़ैल की कहानी करना चाहता हूं। अहा-स्वाहा। पत्रकार फिल्ड में नहीं जा रहा है। बडे पत्रकार स्टुडियो से नक्सल पर आइडिया निकालकर लेख भांज दे रहे हैं। अच्छी पत्रकारिता भी कम फटीचर दौर में नहीं हैं। हिन्दी के तमाम अच्छे किस्म के बड़े पत्रकार शानदार लगने वाली लाइनों के सहारे दावेदारी साबित कर रहे हैं। जो अच्छा है वो भी कम बुरा नहीं है। जो बुरा है उसकी बदबू अब उत्साहित कर रही है। आइये इस पत्रकारिता के तमाम आदर्शों की चटनी बनाकर सानिया को तोहफे में भेज देते हैं।

फटीचर काल के तमाम आलोचकों पर कोड़े बरसाये जाने चाहिए। उन्हें ज़ंजीरों में बांध कर उनसे सानिया की शादी के घटिया कार्यक्रम बनवाये जाने चाहिए। आखिर दर्शकों ने जब खारिज नहीं किया तो ये कौन होते हैं। मैं कौन होता हूं। ग़लीज़ शाइरी का जलवा होता है। महफिलों में ग़ालिब नहीं सुनाये जाते। टीवी का यह लुगदी साहित्य बवाल स्तर का कमाल पैदा कर रहा है। कब तक आलोचना का काल चलेगा। कब तक। सात साल से यही चल रहा है। जिन दर्शकों ने सानिया पर बने घटिया कार्यक्रमों को देखा है और लेख लिखा है उन्हें पकड़ कर जेल भेजना चाहिए। बदनाम गली में जाते भी हैं और शरीफ कहलाने का शौक भी पालते हैं। हद है। दादागीरी की। जो लोग सानिया पर रात रात जागकर कार्यक्रम बना रहे हैं उनकी कोई बिसात नहीं है क्या। आखिर किस महान मफ्ती ने,किस महान एक्टर ने और किस महान डिजाइनर ने ऐसे शो में आने से मना किया है। किसी ने नहीं किया होगा। निकाह से लेकर दुल्हन के लहंगे तक की जानकारी देना कोई मज़ाक समझा है।

अब वक्त आ गया है। आलोचकों को मार-मार कर खदेड़ने का। जो आलोचना करें उसका कपार फोड़ दीजिए। आलोचकों को भी अपनी नाकामी स्वीकार कर फटीचर काल को बदनाम करने की तमाम साज़िशों से अलग कर लेना चाहिए। टीवी के इस हाल पर जो रोता है वो नकली दर्द बयां करने का उस्ताद है। उसके आंसुओं के झांसे में मत फंसो। देखो। देखो। टीवी देखो। सानिया की शादी हो रही है। क्या इस खुशी में न्यूज़ चैनलों के शामिल होने का कोई हक नहीं? किसने कहा कि बारात में बैंड वही बजाएगा जिसे दुल्हे वाले बयाना देकर लायेंगे। बाकी लोग भी तो अपनी छतों से बजा सकते हैं। बजाइये। फिल्म में हीरोईन सीन के डिमांड पर कपड़े उतार देती है तो हिन्दी टीवी पत्रकारिता रेटिंग के डिमांड पर कपड़े क्यों न उतारे। फटीचर काल के राजकपूरों का अपमान करने वाले राम तेरी गंगा मैली वाली मंदाकिनी की ख़ूबसूरती और कहानी की मांग के अनुसार मातृत्व के सौंदर्य को नहीं समझ पा रहे हैं। फटीचर काल के राजकपूरों अपनी कल्पनाशीलता को कभी मत रूकने देना। तुमने एक काल,एक युग की रचना की है। तुम युगपुरुष हो। आओ हम सब मिलकर इन महान आइडिया उत्पादकों (संपादक का नया नाम) का सम्मान करें। अपने आप को धन्य होने का मौका दें तो हम ऐसे काल में रह रहे हैं। मत भूलो कि सैलरी सबको चाहिए। अगर कोई कहता है कि वो मिशन के लिए आया है सैलरी के लिए नहीं तो वो झूठा है।

नोट- आज इन आइडिया उत्पादकों के समर्थन में यह लेख लिख कर हल्का महसूस कर रहा हूं। धारा के साथ बहने का सुख गंवाना मूर्खता है। होली में वही लोग उदास दिखते हैं जो खेलते नहीं, घर बैठे रंगों को गरियाने लगते हैं। एक बार कीचड़ में उतर जाइये, सन जाइये तो मज़ा आता है। खेलने में भी और उसके बाद नहाने में भी।

नोट- सानिया ने अपनी खिड़कियों पर अख़बार चिपका दिये हैं। पावरफुल ज़ूम वाले कैमरे ने तब भी झांक लिया है। इंग्लिश चैनल भी सक्रिय हो गए हैं। हिन्दी चैनलों के दबाव में आकर।

नोट- हिन्दी टीवी चैनलों ने दुल्हे शोएब को जेल में ठूंसवाने का पूरा इंतज़ाम कर दिया है। एफआईआर के लेवल तक मामला तो ले ही आए हैं। अब कोई कहे कि ख़बर नहीं है। कैसे नहीं है। सानिया का दुल्हा शोएब, फरेबी, झूठा, आयशा का एंगल और धोखा। क्या कहानी है। पांच मिनट ही देख सका। फटीचर काल अपने इम्पैक्ट की तरफ बढ़ रहा है।

नोट- अगर शोएब को जेल में ठूंसा गया तो आगे से हर मशहूर हस्ती को शादी या सगाई से पहले हिन्दी न्यूज़ चैनलों के आइडिया उत्पादकों को बुलाकर बैठक करनी चाहिए। करना ही पड़ेगा। सानिया को भी समझ में आ ही गया होगा। सारी अकड़ निकालकर अपने भाइयों ने धूप में सूखा दी है। लगे रहो।

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रवीश कुमार के ब्लाग कस्बा से साभार

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0 Comments

  1. savvy singh

    April 10, 2010 at 2:58 am

    wah raveesh jii kya likha h mei apke vicharoo c poori trah sahmat hun….jese unki shaadi k alawa hindunstaan m aur koe khabar hi nahi thi….ya fir aagar eak hi scene kau baar -2 nahi dikhate tou unkee shaadi nahi hoti!!!!!

    patrakaarita ka rookh sansanikhejh ki traf….mubarakh hau trp kau…..dhanayawaad
    benaam ss

  2. शेष नारायण सिंह

    April 8, 2010 at 11:47 am

    शिव प्रसाद सिंह के महान उपन्यास ,’अलग अलग वैतरणी ‘ में एक लाइन लिखी है कहीं बहुत बीच में . लिखा है कि ‘ गोगइया पगलाय गया है ‘ . सब कुछ ठीक कर देने की कोशिश कर रहे गोगई को शिव प्रसाद सिंह ने बहुत मह्त्व दिया है .. लगता है कि रवीश की हालत भी उसी गोगई वाली होने वाली है . मुझे अंदाज़ है कि आज की हालात पर रवीश कितने मायूस हैं , ठीक करना चाहते हैं लेकिन किसी भी दौर में न तो किसी आर्किमिडीज़ की सुनी गयी और न ही किसी गैलीलियो की. ज़हर का प्याला तो लीक से हट कर चलने वाले की ही गिज़ा है . वरना क्या ज़रुरत थी , रवीश को परेशान होने की . उनके दफ्तर में अच्छी तनखाह मिलती है, वह सब को मिलती है . उसके लिए बहुत बुद्धिमान होने की ज़रुरत नहीं है . अगर लिस्ट में नाम है तो तनखाह मिलेगी लेकिन रवीश एक संजीदा पत्रकार हैं, उन्हें मौजूदा हालात पर बेचैनी है . और यही बेचैनी आने वाली पीढ़ियों का पाथेय बनेगी. जो लोग रवीश की तकलीफ को समझते हैं, उन्हें चाहिए कि रोज़ ही गलाज़त की तरफ बढ़ रही पत्रकारिता को संभालने में उसका साथ दें और हमारे समय के इस गोगई ( सूर्य ) को पागल होने से बचाएं. मुबारक रवीश , मुझे फख्र है कि मैं उसी दौर में लिखने पढ़ने का काम कर रहा हूँ जिसे भविष्य में रवीश कुमार के नाम से जाना जाएगा .

  3. टिप्पणीकार

    April 8, 2010 at 11:04 am

    भाई रवीश जी,
    किस पत्रकारिता की बात कर रहे हैं आप? किन मूल्यों का रोना लेकर बैठ गए? लोकतांत्रिक स्वच्छंदता के दौर में किन पेशागत नैतिकताओं को आप स्थापित करना चाहते हैं? कड़वा-कड़वा थू और मीठा-मीठा गप सिद्धांत के सहारे किसी उत्तरदायित्वपूर्ण सामाजिक प्रतिबद्धता की उम्मीद कैसे कर रहे हैं? आपने जिस पेशे को अपनी आजीविका के साधन के तौर पर जिन कल्पनाओं के साथ चुना था उन कल्पनाओं को साकार करने की जिम्मेदारी बाजार नहीं लेता। यहां संचार माध्यम अब मुख्यतः व्यवसाय हैं- धनोपार्जन के लिए किया जाने वाला उपक्रम- जो बाजार के इशारों पर संचालित होता है। ज्यादा से ज्यादा टीआरपी हासिल करने की होड़ किस लिए है? विज्ञापन पाने के लिए ही तो? जितने ज्यादा दर्शक, उतने ज्यादा विज्ञापन। ज्यादा दर्शक कौन ला सकता है? मजमे वाले! अब तो कोर्ट कचहरियों के आस-पास डुगडुगी बजाकर मजमे लगाने और अपनी लच्छेदार बातों में उलझा कर कुछ तमाशा दिखाने के बाद कोई चूरन या तेल बेचने वाले तो कहीं दिखते नहीं सो उनके कौशल के बारे में नई पीढ़ी हो सकता है कि अपरिचित हो.. पर आप तो मेरे ख्याल से अपने बचपन में ऐसे तमाशों के तमाशबीन रह चुके होंगे। क्या किसी काव्यगोष्ठी में उतने लोग जुटते थे?
    दोनों तरह के उपक्रमों में शामिल होने वाले लोग अलग-अलग तरह के होते हैं। तमाशबीन होने के लिए पहले से मन बनाकर नहीं जाना पड़ता। कुछ बदमाश बच्चों या मजमों का मजा लेने का आदी हो जाने वाले लोगों के अलावा कोई आमतौर पर किसी मजमे में घुस कर तमाशबीन बनने के इरादा से नहीं जाता। यह तो डुगडुगी की आवाज, मजमेबाज के फिकरे और बातें तथा लोगों के घेरे में नीचे रह गई किसी चीज को देख लेने भर की उत्सुकता ही लोगों को मजमों-तमाशों में खींच ले जाती है जबकि काव्यगोष्ठी में आमतौर पर वही लोग पहुंचेंगे जो वहां पहुंच रहे कवियों को सुनना चाहते हों या खुद कुछ सुनाना हो। आप और आपका चैनल अगर मजमेबाज नहीं हैं तो मजमेबाजों का क्या दोष? आप समाचारीय मानदडों और नैतिकताओं का बोझ रोटी जुटाने में पिले मेहनतकश (हा..हा..) मजमेबाजों के कंधों पर क्यों डालना चाहते हैं? सानिया की नथुनी और लंहगे में जीवन का रस तलाश रहे लोगों को आप राष्ट्रीय-सामाजिक चिंताओं के कांटों में क्यों घसीटना चाहते हैं? बड़ा पद, बड़ा फ्लैट या बंगला, बड़ा बैंक बैंलेस जुटाने के लक्ष्यों के साथ दृश्य-श्रव्य माध्यम में पहुंचे साथियों पर दया कीजिये। उन्हें उनके लक्ष्य पूरे करने दीजिए। भाड़ में जाए देश और समाज। जिस सुविधाभोगी हो चुके और होने की लालसा रखने वाले वर्गों के लिए वे ऐसे झमाझम आयोजन करते हैं उन्हें देश-काल की चिंताओं से कम ही लेना लादना होता है। उदारवादी अर्थव्यवस्था में पैसे जुटाने के लिए भागते लोगों को न इससे मतलब होता है कि कौन पीछे छूटा न इससे मतलब होता है कि उनके प्रत्यक्ष हितों से अलग कहां क्या और क्यों हो गया, हो रहा है या होने वाला है। तो भाई इस सत्य का साक्षात्कार कीजिए। अपने काम में और अपने तरह के लोगों के बीच मस्त रहिए। पूरा देश बौद्धिक दृष्टि से लगभग समान स्तर पर आने में अभी बहुत देर है। तब तक मजमेबाजों के इर्दगिर्द मौजूद मजामीन की तादाद समाचार देने-दिखाने वालों के इर्दगिर्द मौजूद लोगों से ज्यादा रहेगी।

  4. indu jha

    April 8, 2010 at 10:33 am

    ravishji sach kahane ka nirala andaz achcha hai jo sarandh hai leikin uski durgandh sugandh deti hai khabariya channel ko. sare chennalwale aircondition mein beth kar naxal andolan ki neeb aur vartwan aur bhavishya talste hai.

  5. ankit mathur

    April 8, 2010 at 9:02 am

    ज़बर्दस्त लेख है साहब, वाकई कमाल की लेखनी पाई है रवीश साहब ने..

  6. मैं, लंगोटिया भूत (...जूली चुड़ैल का पूर्व प्रेमी...)

    April 8, 2010 at 9:33 am

    रवीश जी, आपका ”हाय-हाय” करता हुआ लेख पढ़ा. जैसे शराबी खूब नशे में होने के बाद मन की अकबक बोल-चिल्लाकर हलका हो लेता है, वैसे ही आप पत्रकारिता की चिंता करते-करते जीते-जीते और कुछ भी न सुधरते देख अचानक ऐसे हल्लाबोल टाइप लेख लिख बैठे कि आपका भी दिल हल्का हो गया. यही तो भड़ास है जिसके निकाल देने के बाद मन और दिल हल्का हो जाता है. गजब का लिखा है गुरु. पढ़ने में तो बहुत आनंद आ रहा है लेकिन यह लागू करने लायक नहीं है. जैसे आदर्श साहित्य बहुत श्रेष्ठ है लेकिन वह पब्लिक की पहुंच से बाहर है वैसे ही आदर्श पत्रकारिता बहुत उत्तम है पर पब्लिक तक उसकी पहुंच नहीं है. तो, आपके इस लिखने से कुछ सुधरने-बदलने वाला है नहीं, उल्टे कई आइडिया उत्पादक उर्फ संपादक आपसे मन ही मन दुश्मनी मोल लेंगे, यह भुनभुनाते हुए- ” बेटा, रवीश कुमार, बड़का पत्रकार बनते हो, आने दो वक्त, कभी तुम्हारा भी टेम खराब आएगा तो हम लोग बताएंगे कि तुम कैसे हम लोगों को आइडिया उत्पादक (जिसे दूर से सुनते हुए प्रतीत होता है कि कोई ”घटिया संपादक” बोल रहा हो) का नाम देकर हम लोगों का मजाक उड़ा रहे थे और पत्रकारिता की मुख्य धारा के हमारे मूर्ख अंधभक्तों को जागरूक कर हमारे मठों की फालोइंग कम करा रहे थे और इसी अनुपात में अपनी फालोइंग बढ़ा रहे थे… इस खून का बदला खून से लिया जाएगा… अब, रवीश कुमार, तुम्हारे खिलाफ प्लांड कंपेन चलाना पड़ेगा. अभी तक तो हम लोग शकल से शरीफ लगने वाले रवीश कुमार को ऐसा पत्रकार मानते थे जिसके आगे बढ़ने में बाकी किसी के पीछे जाने की स्थिति आती नहीं दिख रही थी लेकिन जिस तरह से तुमने एक खास ऊंचाई पाने के बाद बेहद आक्रामक तरीके से बाकी न्यूज चैनलों और बाकी न्यूज चैनलों के आइडिया उत्पादकों को निशाने पर ले रखा है, वह निंदनीय ही नहीं वरन परम दंडनीय है. टीआरपी की जंग में एनडीटीवी के लगातार पिछड़े रहने की सजा बाकी सफल चैनलों को दे रहा है रवीश कुमार, इसलिए उसे बाकी टीवी न्यूज इंडस्ट्री के लोगों को मिलजुल कर सबक सिखाना पड़ेगा.”
    तो भइया रवीश कुमार. आप लाख लिख लीजिए पर कोई सुधरेगा नहीं. जिस तरह से भूत-प्रेत की रिपोर्टिंग करने की बात रवीश कुमार ने कही है, वह एक बड़े भुतहा न्यूज चैनल की ओर इशारा करता है जिसमें काम करने वाले लोग गुफाओं में बंद होकर तरह-तरह की आवाजें निकालते हुए रिकार्डिंग-डबिंग-एडिटिंग करते हैं. इस चैनल का एक आइडिया उत्पादक अंधेरे कमरे में कई विषकन्याओं के साथ विचरण करते हुए यू-ट्यूब पर तरह-तरह की चीजें खंगालते रहता है. और, कभी-कभी अचानक चिल्ला देता है…. मिल गया… यूरेका…. आइडिया उपज गया… ह्ववा ह्ववा…. लगा दो, चला दो, उठा दो, तान दो… अब तक का सबसे बड़ा खुलासा… चला दो…”

  7. sanjay tiwari

    April 11, 2010 at 1:40 pm

    Raveesh ji, kitna kuchh dimag me chal raha hai aapke ? Bhadas4media ho ya Facebook….har jagah, har pal kuchh na kuchh likh rahe hai….achha hai ! achha hai !! par apna khyal rakhiyega….

  8. Ranjeet gupta

    April 13, 2010 at 4:06 am

    wakai ….shukl yug , diwedi yug ,aadhunik kaal k baad is faticharkaal ka naam karan aap k mukharvindu se sarahneeya hai. lekin is yug ko kab purna viram milega sir ?

  9. abdul salim khan

    August 25, 2010 at 4:02 pm

    ज़बर्दस्त लेख है

  10. bhupe

    October 14, 2010 at 1:56 pm

    maja nhai aya:'(

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