इंटरनेट पर कहानी पढ़ने को मिली. यह काफी कुछ अखबारों के कॉरपोरेटीकरण से मिलती लग रही है. कहानी का हिन्दी अनुवाद पेश है. विश्वास मानिए, मैंने कोई फेरबदल नहीं किया है, पात्र भी ओरिजनल हैं. तथ्यों-पात्रों का किसी पूर्व या मौजूदा पत्रकार या अखबार या अखबारी बाबू से मेल खाना सिर्फ संयोग होगा.
ऐसे होता है दफ्तरों का कॉरपोरेटीकरण
एक छोटी-सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से पहले पहुंच जाती थी और तुरंत काम शुरू कर देती थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका आउटपुट काफी था। उसका सर्वोच्च बॉस, जो एक शेर था, इस बात से चकित था कि चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम कैसे करती है। उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और ज्यादा काम करेगी। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को काम का काफी अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने के लिए मशहूर था। तिलचट्टे ने जो पहला निर्णय लिया वह यह कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए और उपस्थिति लगाने की व्यवस्था दुरुस्त की जाए।
यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस हुई। उसने एक मकड़े को नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का विश्लेषण करने के लिए शेर ने तिलचट्टे को कहा ताकि वह बोर्ड मीटिंग में इसका उपयोग कर सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सब की देखभाल करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर ली।
दूसरी ओर, एक समय खूब काम करने वाली चींटी इन सारी लफ्फाजियों और अक्सर होने वाली मीटिंग से परेशान रहने लगी। उसका ज्यादातर समय इन सारी चीजों में ही गुजर जाता था। सारी स्थितियों को देखकर शेर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चींटी के काम करने वाले विभाग का एक इंचार्ज बनाए जाने का समय आ गया है। यह पद एक सिकाडा (शलभ) को दे दिया गया। अब उसे भी कंप्यूटर और सहायक की जरूरत थी। इन्हें वह अपनी पिछली कंपनी से ले आया। उसने पहला काम यह किया कि दफ्तर के लिए एक बढ़िया कारपेट (कालीन) और एक आरामदेह कुर्सी खरीदी। इन पर बैठकर वह काम और बजट नियंत्रण अनुकूल रणनीतिक योजनाएं बनाने लगा।
इन सारी बातों-कवायदों का नतीजा यह हुआ कि चींटी के विभाग में अब चींटी समेत सभी काम करने वाले लोग दुखी रहने लगे। लोगों के चेहरे से हंसी गायब हो गई। हर कोई परेशान रहने लगा। इस पर शलभ ने शेर को यह विश्वास दिलाया कि दफ्तर के माहौल का अध्ययन कराना बेहद जरूरी है। चींटी के विभाग को चलाने में होने वाले खर्च पर विचार करने-कराने के बाद शेर ने पाया कि काम तो अब पहले के मुकाबले काफी कम हो गया है।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और जाने-माने सलाहकार उल्लू को नियुक्त किया।
उल्लू ने इसमें तीन महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार करके दी। यह कई खंडों में थी। इसका निष्कर्ष था, विभाग में कर्मचारियों की संख्या बहुत ज्यादा है।
अनुमान लगाइए शेर सबसे पहले किसे हड़काएगा? बेशक चींटी को क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन के भाव का अभाव दिख रहा था और उसकी सोच भी नकारात्मक हो गई थी।
तो भाइयों! चींटी मत बनिए।
लेखक संजय कुमार सिंह जनसत्ता में लंबे समय तक कार्यरत रहे. अब वे आत्मनिर्भर पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं. इन दिनों अनुवाद का काम संगठित तरीके से कर-करा रहे हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं.
Dr. H.R. Tripathi
March 17, 2010 at 11:10 am
IT IS A PERFECT STORY AS PER LITERARY DEFINITION .IT IS INSPIRING AND EYE OPENNING.THANKS FOR TRANSLATION AND PUBLICATION.
Rizwan Ahmad
March 17, 2010 at 12:58 pm
very good, thanks for this
raja
March 17, 2010 at 5:21 pm
धन्यवाद आपका, कमाल की कहानी है, सौ फीसदी सही कहा. हर मीडिया संस्थान में ऐसे ढपोरशंखों और गेलूचंदों की भीड़ लग गई है,
atul
March 18, 2010 at 6:07 am
waki is kahani ko padkar yk naya mantra sikhane ko mila.
gulshan saifi
March 18, 2010 at 6:25 am
ajab kaam ki gajab kahani
sanjay thakur
March 18, 2010 at 10:09 am
मैं आपके विचारों और अनुभव की बहोत इज्जत करता हुँ…लेकिन इस कहानी में बस एक ही पक्ष को दिखाया गया है…औऱ कहानी का सार मैनेजमेंट के नियमों के उलट है….
dinesh
March 18, 2010 at 4:44 pm
good story, thanx for that