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सर्वेश्वरदयाल सक्सेना होने के मायने

[caption id="attachment_18094" align="alignleft" width="94"]सर्वेश्वर जीसर्वेश्वर जी[/caption]: जयंती (15 सितंबर, 1927) एवं पुण्यतिथि (23 सितंबर, 1983) पर विशेष : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का समूचा व्यक्तित्व एक आम आदमी की कथा है। एक साधारण परिवार में जन्म लेकर अपनी संघर्षशीलता से असाधारण बन जाने की कथा इसी सर्वेश्वर परिघटना में छिपी है। वे आम आदमी से लगते थे पर उनके मन में बड़ा बनने का सपना बचपन से पल रहा था। वे हमेशा संघर्षों की भूमि पर चलते रहे, पर न झुके न टूटे न समझौते किए।

सर्वेश्वर जी

सर्वेश्वर जी

सर्वेश्वर जी

: जयंती (15 सितंबर, 1927) एवं पुण्यतिथि (23 सितंबर, 1983) पर विशेष : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का समूचा व्यक्तित्व एक आम आदमी की कथा है। एक साधारण परिवार में जन्म लेकर अपनी संघर्षशीलता से असाधारण बन जाने की कथा इसी सर्वेश्वर परिघटना में छिपी है। वे आम आदमी से लगते थे पर उनके मन में बड़ा बनने का सपना बचपन से पल रहा था। वे हमेशा संघर्षों की भूमि पर चलते रहे, पर न झुके न टूटे न समझौते किए।

उत्तर प्रदेश के एक अत्यंत पिछड़े जिले बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर की पारिवारिक परिस्थितियां बहुत बेहतर न थीं। विपन्नता एवं अभावों से भरी जिंदगी उन्हें विरासत में मिली थी। ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उके व्यक्तित्व पर गहरी छाया पड़ी, फलतः उनके मन में गहन मानवीय पीड़ाबोध तथा आम आदमी से लगाव था। वे अपने आसपास के परिवेशगत अनुभहों से गहरे जुड़े थे। अपनी माटी, अपनी जमीन एवं उसकी सोंधी गंध बराबर उनके मन में रची-बसी रही। वे एक छोटे कस्बे से बड़े महानगर में आए थे और इस बात को कभी भुला न पाए।

दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूतियां उनके साथ बनी रहीं। अपनी कविता, पत्रकारिता में उन्होंने अपनी जड़ों को लगातार दोहराया। परिवार में सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे। उनकी माँ प्राध्यापिका थीं। इसके चलते उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे। बचपन से ही वे विद्रोही प्रवृत्ति के थे। व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ वे हमेशा खड़े रहे। बस्ती के किसानों, आम लोगों के दर्दों से सदैव जुड़े रहे। उनकी विपन्नता उनके कष्ट एवं संत्रास लगातार सर्वेश्वर की मानसभूमि में एक संवेदना जगाते रहे।

पारिवारिक जिम्मेदारियों, माँ-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर को युवावस्था में ही झकझोर कर रख दिया पर बस्ती के खैर इण्टर कॉलेज में साठ रुपए की प्राध्यापकी उनके हौसलों को कम न कर पाई। वे जीवनानुभवों को समेटकर इलाहाबाद चले आए। बस्ती में बिताया समय उनके साथ ताजिंदगी बना रहा। उसने उनके रचना संसार में न सिर्फ गहराई पैदा की वरन उनके मानवीय पीड़ा बोध को महत्वपूर्ण बनाया। कस्बाई-ग्रामीण परिवेश में पकी उनकी सोच को संकीर्ण मानना उचित न होगा, पर यह सच है कि वे अपने ग्रामीण परिवेश से ऐसे जुड़े थे कि वे उससे कभी खुद को अलग न कर पाए।

बिसरा न पाए माटी की महक : गांव का यह संस्कार ही उन्हें ज्यादा सदाशय एवं मानवीय बनाता है। बस्ती के अलावा उनकी पढ़ाई बनारस में भी हुई, वे क्वींस कॉलेज बनारस को भी अपने व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण मानते रहे। जीवन एवं नौकरी के लिए संघर्ष सर्वेश्वर में ऐसा जज्बा कायम कर सका, जो उन्हें एक मजबूत इंसान बना गया। जो मूल्यों एवं सिद्धांतों की खातिर कुछ भी निछावर कर सकता था। खैर कॉलेज, बस्ती की साठ रुपए की नौकरी छोड़ कर युवा सर्वेश्वर, प्रयाग आ पहुंचे। यहाँ उन्हें एजी आफिस में नौकरी मिल गई। प्रयाग में सर्वेश्वर के व्यक्तित्व को एक नई ऊर्जा एवं परिवेश मिला। प्रयाग नगर के साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। समाजवादी लोहियावादी चिंतन की गंभीर छाया उनके व्यक्तित्व पर पड़ी।

तमाम युवाओं की तरह डॉ. लोहिया के क्रांतिकारी व्यक्तित्व एवं चिंतन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। प्रयाग की दो संस्थाओं परिमल एवं प्रतीक ने सर्वेश्वर के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाई। सर्वेश्वर के मित्र केशवचंद वर्मा के मुताबिक, “सर्वेश्वर परिमल से जुड़े तो उसमें एकदम सरस हो गए। सर्वेश्वर परिमल के संयोजक बना दिए गए। उनके भीतर का सोया हुआ जल जाग उठा और उनके भीतर से एक अजस्र धारा का प्रवाह जागृत हुआ। वह परिमल का यौवन काल था। अनेक प्रतिभाओं ने परिमल में अपना रचना मंच प्राप्त किया और हिंदी की अनेक श्रेष्ठ रचनाओं का जन्म परिमल की उन्हीं गोष्ठियों का परिणाम था। सर्वेश्वर कई सालों तक परिमल को चलाते रहे। उन गोष्ठियों की जो रिपोर्ट परिमल तैयार करते थे, उनका स्वाद बड़ा ही अनोखा होता था। सभी इसे सुनने को आतुर रहते। साधारण और साधारण को कलम का यह जादूगर कैसे साहित्यिक गरिमा देकर समसायिक और शाश्वत के दोनों छोरों से बांध देता था – उसकी साधना सर्वेश्वर ने तभी से शुरू कर दी थी। इस कला उपयोग उन्होंने दिनमान में चरचे और चरखे स्तंभ में तथा गहरे और सूक्ष्म स्तर पर अपनी कविताओं में किया है।”

श्री वर्मा के अनुसार, “इलाहाबाद में मित्रों के बीच रहने के मोह में सर्वेश्वर एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में एक छोटी सी नौकरी के माध्यम स रहने लगे। वहां के बाबूगीरी के वातावरण से सर्वेश्वर हमेशा मानसिक रूप से क्षुब्ध रहे। अंततः उनके भीतर के रचनाकार ने जोखिम उठाया और वे लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले गए। ” प्रयाग में वे रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण शाही, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, केशवचन्द्र वर्मा के संपर्क में आए। विजयदेव नारायण शाही से तो उनकी खासी छनती रही। प्रयाग के बाद वे रेडियो की नौकरी में दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, इंदौर में भी रहे। लखनऊ में उनकी दोस्ती कवि कुंवर नारायण से रही। कुंवर नारायण लिखते हैं – “सर्वेश्वर जब लखनऊ में होते, तो लगभग रोज ही उनसे मिलना हो जाता था। उनकी बेटियां शुभा एवं विभा उन दिनों छोटी थीं। पत्नी अक्सर बीमार रहा करती थीं। इस सबके बीच सर्वेश्वर अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे। उन दिनों लखनऊ साहित्यकार सम्पन्न लखनऊ था। इन लोगों की अनेक साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, जिनमें सर्वेश्वर न रहें, यह असंभव था।”

लखनऊ में निवास के दौरान ही सर्वेश्वर के दो कविता संग्रह – बांस का पुल और एक सूनी नाव प्रकाशित हुईं। श्री कुंवर नारायण उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “शीघ्र ही निरीहता की हद तक भावुक हो जाने वाले सर्वेश्वर और उद्दण्डता की हद तक उत्तेजित हो जाने वाले सर्वेश्वर के अनेक तेवर याद आते  हैं। वह सर्वेश्वर नहीं जो प्यार और घृणा, आदर और अनादर, दोनों को ही पराकाष्ठा तक न पहुंचा दे। इसके बावजूद वे अंदर से बहुत सरल स्वभाव वाले व्यक्ति थे। जो जिस समय महसूस करते उसे उसी समय प्रकट कर देते। बिल्कुल बच्चों की तरह खुश होते और उन्हीं की तरह रुष्ट। जब वे उग्र होते तो संयम की सीमा लांघ जाते। जब आत्मीय होते और उन्हीं की तरह तो इतने भावुक कि उनकी कोमलता अभिभूत कर देती।” श्री कुंवर नारायण मानते हैं कि “ऐसा मुझे हमेशा लगा कि अतिरिक्त सजग होते हुए भी निजी मामलों में वे व्यवहारकुशल नहीं थे। अपने लेखन की आलोचना वे बिल्कुल नहीं सह पाते थे। एक बार मैंने हंसी-हंसी में कुछ कह दिया तो वे आपे से बाहर हो गए। फिर काफी दिनों तक हमारे संबंध असहज रहे।”

दिल्ली में आकर भी सर्वेश्वर माटी की महक को बिसरा न पाए। वे बराबह महानगर में अपना गांव तलाशते रहे। सर्वेश्वर की मृत्यु के पश्चात दिल्ली में हुई साहित्यकारों की शोकसभा में बोलते हुए प्रख्यात कवि तथा सर्वेश्वर के मित्र स्व. श्रीकांत वर्मा ने कहा था “दिल्ली को उन्होंने कभी स्वीकार न किया और अपनी जड़ों को इनकार नहीं किया।”  इस सबके बावजूद दिल्ली के महानगरीय जटिल एवं संश्लिष्ट परिवेश का सर्वेश्वर के व्यक्तित्व पर खासा असर पड़ा। दिल्ली ने उनके अनुभव जगत को व्यापक बनाया एवं गांवों-कस्बों तक दिल्ली एवं महानगरों की सोच एवं समझ का अंतर समझाया। दिल्ली उनके सरोकारों, चिंताओं एवं शख्सियत को ज्यादा विराट बनाया। दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं कला क्षेत्र के वे ऐसे जरूरी नाम बन गए कि उनकी जरूरत वहाँ पूरी शिद्दत से महसूसी जाती थी।

उनके निधन पर नाट्य समीक्षम नेमिचन्द्र जैन का कहना था कि “उनकी मौजूदगी के बिना दिल्ली के साहित्य कला, रंगमंच के परिदृश्य की कल्पना करना कठिन है। पिछले कुछ वर्षों से सर्वेश्वर इस परिदृश्य का ही नहीं, हममें से बहुतों के आंतरिक परिदृश्य का भी जरूरी हिस्सा, खास पहचान बन गए थे। संगीत, साहित्य, चित्रकला, नाटक के शायद कोई कार्यक्रम हों जहाँ वे मौजूद न रहते हों और अपनी मौजूदगी से उसे भरा-पूरा न करते हों।” नेमिचंद्र जी कहते हैं, “सर्वेश्वर का यह कलाओं के रसिक और पारखी का रूप मेरे लिए कुछ नया ही था, क्योंकि मैं उन्हें देर तक सिर्फ एक कवि, फिर पत्रकार के रूप में पढ़ता-जानता रहा।”

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कारण जो भी हो सर्वेश्वर उन गिने-चुने पत्रकारों में थे जिन्हें विभिन्न कलाओं से न सिर्फ लगाव था वरन उनके भीतरी रिश्तों, उनकी आपसी निर्भरता का भी उन्हें गहरा अहसास था। इस लगाव और अहसास की छाप उनके व्यक्तित्व और साहित्य दोनों पर दिखाई पड़ने लगी थी, जो उनकी रचना यात्रा में एक नए और उत्तेजक मोड़ की संभावना को रेखांकित करती थी। यह इसलिए और भी कि उनकी कला रसिकता में कोई दिखावा या अहंकार नहीं था, बल्कि शायद इसने उन्हें अधिक सौम्य, उदार एवं ग्रहणशील बनाया।

लेखन में दिखता है जनपक्ष और लोकमंगल : इसके कारण वे हर विचार का उदारता एवं उत्साह से स्वागत कर पाते थे, भले वे उससे सहमत न हों। दिनमान में सर्वेश्वर के सहयोगी रहे पत्रकार महेश्वर गंगवार बताते हैं, “सर्वेश्वर जी जब हल्के-फुलके मूड में होते तो अक्सर हमारे बीच आकर बैठकर गपशप मारते, तुकबंदियां करते और चाय पीते। तीखी से तीखी बात भी इतने सहज भाव से कह जाते कि सामने वाला यह भी नहीं समझ पाता कि वह हंसे या रोए। अगर गुस्से में होते तो सारा लिहाज भूल कर जो मन में आता, कह देते। कुछ गांठ बांधकर नहीं रखते। गुस्सा शांत होते ही सहज हो जाते।”

श्री गंगवार याद करते हैं – “मुझे याद है एक दिन मुहावरे के प्रयोग को लेकर मैंने उनका विरोध किया और उन्होंने डांटते कहा – ‘अब भाषा मुझे तुमसे सीखनी पड़ेगी ?’ वह अपन जगह सही थे – शब्द को नया अर्थ देते उन्हें देर नहीं लगती थी। फिर मैं भला उन्हें क्या भाषा सिखाता। लेकिन उस दिन उनका व्यवहार सचमुच भीतर तक बेध गया, क्योंकि मैं सही था। चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। एक घण्टे बाद वे मेरी और बोले, ‘तुम्हीं सही हो। अब चाय तो मंगाओ।’ दिनमान के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार कन्हैयालाल नन्दन का मानना है कि “सर्वेश्वर जी ऐसे साहित्यकारों में थे जिनकी न तो उपस्थिति की उपेक्षा की जा सकती थी, और न उनके लिखे शब्दों की। सर्वेश्वर इस बात को लेकर बराबर चिंतित रहा करते थे कि लोग इतने ठंडे क्यों पड़ते जा रहे हैं कि लगता है कि जैसे लिखने का कोई अर्थ भी नहीं रहा जा रहा।”

सर्वेश्वर के व्यक्तित्व के निर्माण में इन संदर्भों का गहरा प्रभाव पड़ा। आरंभिक समय गांव में तथा विपन्नता व तंगी से परेशान हाल रहने के कारण उनके मन में ग्रामीण व कस्बाई परिवेश से गहरा लगाव दिखता है। शोषित, पीड़ित, दलित एवं वंचित वर्गों की पक्षधरता एवं लगाव उनके सम्पूर्ण लेखन का मूल भाव है। साहित्य एवं पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में बराबर की दखल ने उनके व्यक्तित्व को इस कदर प्रभावित किया कि उनके साहित्य में पत्रकारिता का दबाव और पत्रकारिता में साहित्य का प्रभाव स्प्ष्ट दिखता है। साहित्य जो स्थायी मूल्यों की ओर उन्मुख होता है, पर पत्रकारिता के प्रभाव के चलते सर्वेश्वर के साहित्य में तात्कालिकता ज्यादा है। पैराफ्रेजिंग, सपाट बयानी एवं समस्याओं के समाधान हेतु साहित्य को हथियार बनाने की रोशिश सर्वेश्वर में स्पष्ट दिखती है। जो निश्चय ही सर्वेश्वर के साहित्य पर पत्रकारीय प्रभाव का प्रमाण है।

इसके विपरीत पत्रकारिता में गंभीर दृष्टि के चलते वह तात्कालिकता सु ऊपर उठकर गहन मानवीय दृष्टिकोण की पक्षधरता ग्रहण करती है। इन अर्थों में सर्वेश्वर पत्रकारिता की भाषा को कुछ जटिल बनाते नजर आते हैं। सर्वेश्वर का समूचा व्यक्तित्व इसी द्वन्द की यात्रा है। वे नए शब्द रचने एवं उन्हें नए अर्थ देने में प्रवीण थे। कुल मिलाकर सर्वेश्वर पत्रकारिता की संजय द्विवेदीजमीन पर खड़े हों या साहित्य की, वे अपन रचनाकर्म एवं प्रदेय में हमेशा विशिष्ट रहेंगे। उनका काव्य व्यक्तित्व सहज, निश्छल एवं खिलखिलाकर हंस सकने वाला है तो एक आम आदमी की तरह उनके गुस्साने, नाराज हो जाने, बिदकने, निंदा या आलोचना न सुनने जैसे भाव हैं, जो बताते हैं कि सर्वेश्वर एक आम आदमी की तरह जिए। उन्होंने खास होते हुए भी खास दिखने की कोशिश नहीं की।

लेखक संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं.

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0 Comments

  1. jaatak

    September 16, 2010 at 4:27 am

    “शक्ति अगर सीमित है
    तो हर चीज़ अशक्त भी है,
    भुजाएँ अगर छोटी हैं,
    तो सागर भी सिमटा हुआ है,
    सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
    जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
    वह नियति की नहीं मेरी है।”………his poems inspire….:)

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