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साहित्य

‘दयानंद पांडेय एक पागल पोर्नोग्राफर है’

अपने-अपने युद्धSir, The so called masterpiece of DAYANAND / DANDACHAND is a cheap stuff. Can he ask his son or daughter to read it aloud in his presence? Certinly not. In his explanation he talked of TATALITY (SAMAGRATA). He quoted ancient literaure also. He fogot to say about porn sites like YOUPORN,  PORNTUBE,  and many others in his ZABAB HAZIR HAI to justify himself.

अपने-अपने युद्ध

अपने-अपने युद्धSir, The so called masterpiece of DAYANAND / DANDACHAND is a cheap stuff. Can he ask his son or daughter to read it aloud in his presence? Certinly not. In his explanation he talked of TATALITY (SAMAGRATA). He quoted ancient literaure also. He fogot to say about porn sites like YOUPORN,  PORNTUBE,  and many others in his ZABAB HAZIR HAI to justify himself.

YASHWANTJI, we, all, have differant opinion about you and b4m. PLEASE do not play into the hands of a mad pornograoher. Remove all the 13 parts and related comments.He has contributed some good items to your portal.I have read those  including the write up about 81 year old scholar ARVIND KUMAR.Even then,your decision to publish it is not justified.NOW IT IS UPTO YOU TO MAKE YOUR PORTAL HEAVEN OR HELL  /  SSCHOOL OR BROTHEL.

Thanks.

SAVITA

[email protected]


प्रिय सविता जी,

आप की चिट्ठी मिली है, क्रोध में नहाई हुई।

आपको बताऊं कि यह उपन्यास दस साल पहले छप चुका है। और काफ़ी आरोप प्रत्यारोप हो चुके हैं। वह सब भी आप पढ ही चुकी होंगी। न पढी हों तो पढ लें। उसमें एक बात कही थी मैंने कि अश्लीलता से बचने का एक सबसे सरल तरीका है कि उसे न पढ़ा जाए। पर आपतो न सिर्फ़ पढ़ रही हैं बल्कि पढ़ कर मुझे कुछ पोर्न साइटों का पता भी दे रही हैं। अजब अंतर्विरोध है भाई आपका। असल में बताऊं आपको कि ‘अपने-अपने युद्ध’ की कुल कथा यह है कि जो पढ़ता है, वह बात करता है और जो नहीं पढ़ पाता, वह पछताता है।

दस साल पुराना यह उपन्यास अपनी कथा भूमि के लिए आज भी प्रासंगिक है। और कथाभूमि सेक्स नहीं, मीडिया का नरक और न्यायपालिका की अप्रासंगिकता, सामाजिक न्याय का छल वगैरह है। पर कुछ लोगों को सिर्फ़ सेक्स ही दिखता है। तो मैं क्या कर सकता हूं भला? हां, मैं यह ज़रूर स्वीकार करता हूं कि ‘अपने-अपने युद्ध’ शुचिता पसंद या कहूं कि सती सावित्री-सती अनुसुइया-पतिव्रता टाइप लोगों के लिए नहीं है। पर आप तो शायद उनमें से भी नहीं हैं। आप तो उन पोर्न ऐड्रेसेज़ के बारे में भी जानती हैं जिनकी जानकारी मुझे भी नहीं है। और कि, मेरी उसमें कोई दिलचस्पी भी नहीं है।

बहरहाल, आपने चिट्ठी लिखी आप का आभारी हूं। आप का क्रोध सर आंखों पर।

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आपका,

दयानंद पांडेय

लेखक

‘अपने-अपने युद्ध’


आदरणीय यशवन्तजी

आज पहली बार बी4एम पर दयानन्द पान्डे के उपन्यास का पार्ट12 व 13 पढा। अश्लील प्रसंगों पर आपसे फोन पर बात हुई। आपके कहने पर अन्य भागों को भी देखा। सुश्री श्वेता व राजमणि सिंह के कमेन्ट पर लेखक का जबाब भी देखा। दयानन्द की बेशर्मी पर खेद हुआ। इसे प्रकाशित करके आप अपने पोर्टल की गरिमा नष्ट कर रहे हैं। बाजार में ऐसी किताबों की भरमार है। इसी प्रकार वेश्याओं की भी कमी नहीं है। यह तो दुनिया है। मेरी प्रतिक्रिया केवल आपके पोर्टल की लोकप्रियता के कारण है, जिसे लोग मन्दिर या स्कूल समझतें हों, वहां रण्डियां अंग प्रदर्शन करें तो ठीक नहीं लगता।  

आपका शुभचिन्तक

डा. हरीराम त्रिपाठी

लखनऊ

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प्रिय हरिराम जी,

नमस्कार

आपकी चिट्ठी मिली। आप की भावना पढ़ी। आपके ऐतराज सर आंखों पर। सबका अपना-अपना नज़रिया है। आप थोड़ा कुएं से बाहर निकलेंगे तो तस्वीर थोड़ी और साफ होगी। मेरा फिर यह कहना है कि उपन्यास में जीवन है, समग्र जीवन। समग्रता में पढेंगे तो अश्लील नहीं लगेगा, वरन आप को अपना आरोप ही अश्लील लगेगा। थोड़ा दिमाग के खिड़की दरवाज़े खोलिए न !

आपका,

दयानंद पांडेय

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0 Comments

  1. रचित पंकज

    February 2, 2010 at 9:11 am

    क्या कहूं सविता जी आप को और कैसे कहूं? समझ नहीं आता। हरिराम जी का भी क्या करें? यह लोग अभी तक एडल्ट नहीं हो पाए और लिट्रेट भी नहीं हो पाए। शर्म आनी चाहिए। मैं खालिस साहित्य की तो बात भी नहीं कर रहा। कभी पोर्नो साहित्य भी पढा है आप लोगों ने? कहीं ऐसा होता है पोर्नो साहित्य? देह संबंधों का ज़िक्र करना पोर्नो साहित्य नहीं होता। हमें लगता है यह दोनों लोग खाली पोर्नो साइट पर फ़ोटो देख कर ही अभी काम चला रहे हैं। पोर्नो सहित्य से अभी भेंट नहीं हुई है। खालिश साहित्य से तो खैर क्या हुई होगी? अपने-अपने युद्ध जिसका राजेन्द्र यादव, राजकिशोर जैसे विद्वान लेखकों ने अपने संपादकीय और कालम में सम्मान दिया उस उपन्यास के बारे में ऐसी छिछली टिप्पणी अनुचित है। यह सारे लोग कुंठित आत्माएं हैं। इनका वश चले तो यह लोग सडक पर चल रहे लोगों के लिंग सूचक अंगों को भी काट कर चलें। क्या तो अश्लील है। हद है यह तो। क्सिइ रस्ते चलती औरत के नितंब और स्तन भी आप लोग काट देंगे कि सेक्सी है, अश्लील है। अजब हो जाएगा तब तो। अभी तक तो मैने जो पढा है इस उपन्यास में वह पोर्नो नहीं लगा। इसलिये कह रहा हूं कि घचाघच वाली शब्दावली और इससे आगे भी जाने क्या क्या नहीं है। नान्वेज लतीफ़े है, देह संबंधों क ज़िक्र है। एस एम एस पर अगर नान्वेज लतीफ़ो का जखीरा न हो तो एस एम एस का धंधा चौपट हो जाए। यह सब अगर समाज में है, अवैध संबंध अगर समाज में है चोरी के अमरूद अगर समाज में हैं तो इस उपन्यास में भी है। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। जो समाज में है, अपने अपने युद्ध में भी है। त्ब गलत क्या है सविता जी! पर आप तो पगला गई हैं और दनपा जी को पागल पोर्नोग्राफर लिख रही हैं। खुद पोर्नो साइट का पता बता रही हैं। अगर आप के बच्चे भी आप के पत्र से यह पता जान जाएंगे तो आप की तो वाट लग जाएगी। राम राम हरिराम जी बच कर रहिएगा। आप भी यशवंत टी आर पी के लिए कैसे कैसे लेटर छाप देते हैं। छि छी।

  2. आवेश तिवारी

    February 2, 2010 at 9:29 am

    [b]ये पोर्नोग्राफी नहीं एक अघोरी का तप है[/b]
    हिंदुस्तान की मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है |दयानंद पाण्डेय के उपन्यास अपने अपने युद्ध के आलोचकों के साथ भी यही परेशानी है,दयानंद पाण्डेय ने उपन्यास में वही लिखा है जिसमे आज का रंगकर्मी और अखबारनवीस जीता है |शब्दों के पीछे छिपे दृश्यों और पात्रों के चरित्र के प्रस्तुतीकरण के लिए ये बेहद ही आवश्यक था | जो कुछ भी लिखा गया है वो सच के बेहद आस-पास है या कहें सच इससे भी बढ़कर है ,आज जब मीडिया में सेक्स पर लेकर मीडिया के भीतर ही जोरदार बहस चल रही है “अपना अपना युद्ध “किसी हलफनामे की तरह है |सीधे साधे शब्दों में कहा जाए तो इस उपन्यास की आलोचना करने का अधिकार उन मीडियाकर्मियों को ही है जिन्होंने जिंदगी के तमाम झंझावातों के बावजूद ख़बरों को जीने की कोशिश की है ,एक पल को कल्पना करिए उस समय कि जब दयानंद पाण्डेय ने ये उपन्यास लिखा होगा ,जब उन्होंने नीला और संजय के सेक्स संबंधों और फिर संजय द्वारा गर्भ गिराने की बात को लिखा होगा ,ये किसी गैर पत्रकार ने लिखा होता तो शायद कोई आश्चर्य की बात नहीं होती ,लेकिन हिंदी पत्रकारिता के एक बेहद सशक्त हस्ताक्षर के द्वारा ये लिखना न सिर्फ असीम साहस की चीज है बल्कि इसके लिए खुद को कटघरे में रखने का भी मादा होना चाहिए |मै नहीं समझता इस उपन्यास के आलोचकों के पास या फिर भड़ास पर इस उपन्यास की वेबकास्टिंग का विरोध करने वालों के पास खुद का ये पूरी मीडिया जगत के इस कदर आत्ममूल्यांकन का साहस होगा|

    वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सबसे बड़ी वजह मीडिया खुद है ,मीडिया के भीतर परस्त्री सम्बंध ,विवाहेतर सम्बंध और काम के बदले अनाज योजना की तरह सेक्स के बदले काम जैसी चीजें हमेशा से मौजूद रही हैं ,बेहद गुपचुप तरीके से इन चीजों को मीडिया ने शेष समाज में भी स्थापित कर दिया ,अब कुछ भी अपवर्जित नहीं है ,अगर अपना अपना युद्ध पढ़ें तो इन वर्जनाओं के टूटने की कहानी अपने आप पता चल जाती है ,अगर इस उपन्यास में सेक्स के लाइव दृश्य शामिल नहीं किया जाते तो शायद ये कदापि संभव नहीं हो पाता ,लीना और संजय का मुख मैथुन ,लीना का संजय पर टूट पड़ना और बिना दरवाजा बंद किये सेक्स करना और फिर चेतना का प्रकरण पोर्नोग्राफी नहीं है ये दृश्य बताते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ खबर लिखने तक ही नहीं रही अगर इमानदारी से कहा जाए तो एक अखबारनवीस ख़बरों को ही अपने अस्तित्व का प्रतीक नहीं मानता ,उसके लिए ये उन्मुक्त सेक्स ,देर रात तक चलने वाली पार्टीज और कई लड़कियों या महिलाओं से रिश्ते भी उसके अपने अस्तित्व का हिस्सा है |
    अगर हमें विरोध दर्ज कराना ही है तो उपन्यास पर नहीं उपन्यास के पात्रों पर कराना चाहिए ,जो हमारे आपने बीच बैठे हुए हैं न सिर्फ बैठे हुए हैं सर के ऊपर विराजमान हैं ,हमें ये स्वीकार करने में तनिक भी ऐतराज नहीं होना चाहिए ,दयानंद पाण्डेय ने एक उपन्यासकार के रूप में प्रत्येक पात्र के साथ पूरी इमानदारी बरती हैं ,तब हम इमानदारी से इसके कथानक को स्वीकार क्यूँ नहीं कर लेते |इस उपन्यास की तेरहवी किस्त में जब रीना संजय को बोलती है,”इसमें फेड अप होने की क्या बात है। हकीकत यही है कि जर्नलिस्ट पोलिटिसियंस के तलवे चाटकर ही कायदे के जर्नलिस्ट बन पाते हैं।””माइंड योर लैंग्वेज रीना। माइंड योर लैंग्वेज!” संजय को रीना की ये बातें बुरी लगती हैं मगर फिर भी वो उस वक़्त सेक्स में लिप्त रहता हैं ,इसी किस्त में पता चलता है कि उसे अखबार मालिकों के खबर बेचू चरित्र पर आपति है लेकिन वो खुद के गिरेबान में झाँकने से पहले पलायन कर जाता है ,उपन्यास के नायक का ये चरित्र चित्रण अपने आप में अनूठा है ,ये सिर्फ एक कहानी नहीं है, मीडिया और सेक्स की परिभाषा को समझाता हुआ बेहद अनूठा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी है |
    मीडिया में कई चीजें ऐसी हैं जिन पर हमें अपनी आँखें बंद कर लेनी चाहिए और अपनी आपति जतानी चैये मगर हम अपने होंठ सीकर रखते हैं ,अगर अरुंधती राय ,शोभा डे सेक्स से जुड़ा कुछ लिखती है तो हम उनकी समीक्षाएं लिखते हैं ,लेकिन जब दयानंद पाण्डेय जैसा कोई व्यक्ति जिसने तमाम प्रलोभनों को ठुकराकर एक अघोर पत्रकार बनना समीचीन समझा ,कुछ लिखता है तो हम उसे अश्लीलता और फूहड़पन के तराजू में तौलने लगते हैं ,मै कितने ही पत्रकार मित्रों को जानता हूँ जो दिन रात पोर्न साईट खोल कर बैठे रहते हैं ,उनको भी जानता हूँ जो अपनी सहकर्मी महिलाओं के सामने और पीठ पीच्चे बेहद अश्लील टिप्पणियां करते हैं ,उनके लिए ये उपन्यास शीशा है |यशवंत का इस उपन्यास को वेबसाईट पर प्रस्तुत करना और कडवे सच को स्वीकार करना निस्संदेह बेहद साहस भरा है , हमें अपना नजरिया तो बदलना होगा ही ,खुद को भी पानी में उतरने का सलीका सीखना होगा |
    -आवेश तिवारी
    सोनभद्र

  3. vijay singh

    February 2, 2010 at 9:32 am

    DNP sir
    aap ke upanyas ki kuch log bhale aalochna kare pr mai manta hu ki
    kahaniyo-upanyaso me pathniyata nahi hogi to kai hath nahi
    lagayega.aap ne jo bate likhi hai.unme aschayi nazar aati hai. sachyi
    padhne me mujhe aanad aata hai. koro kalpana me nahi. pls mujhe bataye
    ki apne-apne yudh kaise aur kaha milegi..aap ke uttar ka intzar
    rahega………
    vijay singh
    sr. reporter
    navbharat,
    mumbai

  4. रचित पंकज

    February 2, 2010 at 9:57 am

    और हां सविता जी, एक बात आप से पूछनी थी कि क्या आप कभी हिंदी फ़िल्में या हालीवुड वाली फ़िल्में देखती है? कभी विपाश वसु या मलिका शेरावत के बोल्ड सीन भी देखे ही होंगे। फिर तो आप उन फ़िल्मों को ब्ल्यू फ़िल्म कह देंगी। और जो आप के निर्धारित मानक पर सेंसर बोर्ड चलने लगे तो आधी से अधिक बंबइया फ़िल्में ब्ल्यू फ़िल्में हो जाएंगी। बाप रे बाप फिर क्या होगा? बहुत सारे सीरियल भी अंड-बंड हो जाएंगे। आप तो फिर एक नया तालिबान बना देंगी।

  5. Naresh Arora Jalandhar

    February 2, 2010 at 11:08 am

    सविता जी एक नजर में आपकी हर बात को सही मान भी लिया जाये तो भी यह सवाल तो जरुर खड़ा होता है की आपको पत्र में पोर्न साईट का पता देने की जरुरत कहाँ से पड़ गयी ? ऐसी पर्ण साईट्स तो नॉर्मली लड़कों को भी पता नहीं होती …आप की प्रतिक्रिया की मंशा पर सवाल नहीं है लेकिन प्रतिक्रिया का तरीका ठीक नहीं है..

  6. अरविंद कुमार

    February 2, 2010 at 12:53 pm

    मैं ने अपने अपने युद्ध कई बार पढ़ा है- मैं ने दिल्ली के नाट्य मंडल, नाट्य विद्यालय के काफ़ी नज़दीक रहा हूँ. साथ ही पत्रकारिता में लगभग साठ साल गुज़ारे हैं… फ़िल्मी अश्लीलता और अमानवीय क्रूरता के विरुद्ध 14 साल के माधुरी संपादन काल में शक्तिशाली संघर्ष किया है.

    अपने अपने युद्ध पहली बार पढ़ो तो ऊपरी तौर पर अश्लील लगता है. हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं. पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं. लोहिया जी ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र अश्लील नहीं है. साठ सत्तर साल पहले मेरठ में हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार कि जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी. उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है. पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे. लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है…
    इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुलआम सुन सुनाए जाते थे. हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे. उन की उम्र होती है. पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं.

    जिन बच्चों को वह किताब पढ़ने को दी जाने पर शर्म आने की बात की जा रही है वही बच्चे ऐसी किताबें जो पूरी तरह अश्लील हैं या ऐसे किस्से पढ़ सुन रहे होंगे. ख़ुशवंत सिंह साहित्यकार हैं – दयानंद पांडेय अश्लील है — वाह

    अरविंद

  7. krishna murari

    February 2, 2010 at 3:09 pm

    apne apne yuddh par sara comment padha, kis duniya me ji rhe hai log ,sex ko lekar howa khada karnewale kya kisi cyber cafe me ghume hai jahan ladkiyan porn site khol ke ghanto baithi rahti hai. aaj ka samaj badal gaya nhi ,badal chuka hai. pahle wala jamana nhi rha ki parde ke pichhe sare narak machaye rakho. sex ko lekar bhi khuli bahas chali hai ye achchhi baat hai. jahan tak media ki baat hai abhi bhartiya media bachchha hai. kuchh salo tak aisa hi chalta rahega.uske baad sab apne aukat par aa jayenge. dukan sametana hoga. jaisa ki suru ho bhi chuka hai.

  8. rajendrakumar

    February 2, 2010 at 7:12 pm

    Dayanand Ji daya karke un bishayon ko he hath lagayiye jinko aaj ke patrakaar chhoona nahin pasand karte. porn-sorn me vakt jaya karne ka vakt nahi bacha ha

  9. radheshyam Tewari

    February 3, 2010 at 3:51 am

    daya ji, aap ne jo bhi likha hai kabhi nahin likha gaya. Mubarak. lekin Bhaiya Kapre pahan kar nange pan ki bat mat kijiye.conttadiction lagata hai.Isase yatharth Kya ho sakta hai ki har aurat aur mard Nanga paida hota hai. fir use Dhak kar kyon rakhate hai.? usse adhik nanga aapka sahitya nahin hai. Thik iske biprit aap kahna chah rahe hai ki wahan kitni Gandagi hai jo nahin hona chahiye . hai na ? log is satya ko samajh nahin pa rahe hai .Jane dijiye. aap ne likh diya use defend mt karea to behtar hai. kab tak aur kahan tak defend karenge?

  10. k

    February 3, 2010 at 5:01 am

    दयानंद पांडेय ने कोई नई या अनूठी चीज नहीं लिख दी। एक कहानी है जो ज्यादा उम्मीद है कि कहीं न कहीं किसी न किसी के अनुभव या कल्पना पर आधारित होगी। सविता जी को नहीं पसंद तो इतनी गंभीरता से न पढ़ें। मैंने भी सतही तौर पर ही पढ़ी। वैसे उनका आग्रह कि पांडेय जी इसे अपने बेटे-बेटी के साथ पढ़ें पल्ले नहीं पड़ा। क्या हम जो भी करते हैं, बेटी-बेटियों की मौजूदगी में ही करते हैं। बहुत से काम खुद के लिए होते हैं। अब तो बड़ी हो जाइए सविता जी।

  11. कमल शर्मा

    February 3, 2010 at 6:31 am

    शील-अशलील क्‍या..पोर्न और नॉन पोर्न क्‍या..। यह सब इसी समाज द्धारा खींची गई रेखाएं हैं जो अपनी अपनी और समय की सुविधानुसार बनीं। क्‍या अतीत में किसी ने श्रृंगार रस पर नहीं लिखा..प्रेयसी की कल्‍पना न हुई, खुजराहो और कोनार्क मंदिर जाएं, जहां भगवान को होना चाहिए वहां की दिवारों पर आकृतियां देखिए एकदम दे दनादन सेक्‍स। कोनार्क में विश्‍वामित्र कैसे मेनका के जाल में फंस रहे हैं और सेक्‍स का आनंद लूट रहे हैं। अब बताएं कि किस समाज में और किस समय यह नहीं रहा। सविता जी आपने पांडेय जी के उपन्‍यास को पढ़ने और समझने का नजरिया गलत लिया। आप शायद इसे इंद्रलोक या जलती जवानी जैसे पत्रिका या पीली किताब के रुप में पढ़ रही हैं। मन और मस्तिष्‍क को साफ कीजिए और हर चीजों को अच्‍छे नजरिये से देखिए, बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। आप दो कौडी के लुच्‍चे सेक्‍स पत्रिका के रुप में इसे न पढ़े। मैं एक बात कह सकता हूं कि दुनिया में संभवत: शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो सेक्‍स या पोर्न पर मन में बाते न करता हो, भले चाहे दुनिया के सामने हरिश्‍चंद्र का वशंज बन रहा हो। मौका मिलने पर हर कोई इसके बारे में सोचता है।

  12. vinod kandpal

    February 3, 2010 at 7:26 am

    savita jaisi chritrheen aurten jo khud porn site dekhati hain unko apne apane yudh par sawal uthane ki haisiyat kisne de di? jo aurat lekhak ka nam bhi dayanand/dandachand likhati hai uski mansikta ka andaza lagaya ja sakta hai. ki wah ya to itni magroor hai ya phir use khud dandachand ki zaroorat hai. bhadas ke logon ko bhi thik english nahin aati. galat anuwad kiya hai. waise is bat se main sahamat hoon ki apne apane yudh ke lekhak dayanand pandey ko mahila prasngon se thoda bacana chahiye tha. ab mahilawon ke chakkar men padoge bhaiya to bhugatana to padega hi. pahle bhoga to bhugato. bhoga huwa ytharth isi ko kahate hain. neela , reena ko bhoga to ab savita ko bhugto. dikkat kya hai pandey ji. is bhugatane par bhi koyi novel na likh dena aur savita ko charecter na bana dena.

  13. pankaj

    February 3, 2010 at 12:52 pm

    although I disagree with Savita, I feel that Mr Kandpal is also crossing the limit. He must behave more responsibly

  14. anaam

    February 3, 2010 at 1:13 pm

    mujhe na to upanyaas par kuchh kahna hai aur na hi kisi ki tippani par. bas ek baat samajh nahi aai.ki pande ji ne yah boring upanyaas kis maksad se likha hai

  15. rajmani

    February 3, 2010 at 5:17 pm

    ab sharm karo dayanand ke ? savita jee aur kisi ko chor do aur lage dayanand ki rasili kahaniye me

  16. ramendra singh

    February 4, 2010 at 5:04 am

    savita ji jawab den
    savita ji yah bataaye ki kahin aisa to nahin ki apne apne yudh ki nila rina ya chetana men apni chavi dekh kar aap baukhala gayi hain aur us hatane ka demand kar diya?aur to aur danadachand yah aap hi ka rakha huwa nam hai porn site ka address dena samajh se bahar hai. aap kya karti hain yah bhi nahin bataya. itne sare logon ne aap ko katghare men khada kar diya hai, kuch to jawab aap ko bhi dena hi chahiye. pankaj jaise log aap ke samarthan men aaye hain. unko kandpal ki bhasha par aitraj hai par aap ke attitude par nahin. yah to anuchit hai. mera kahana hai ki limit men rah kar is par helthy bahas honi chahiye. kisi ke sath bhed bhav nahin hona chahiye.

  17. naveen ghosh

    February 4, 2010 at 5:43 am

    hamko to apne apne yudh men abhi tak kuch bhi ashleel nahin laga. balki yah upanyas to aurton ke fevour men khada hai. susheela ko jis traha dahej ke nark se sanjay nikalta hai, chetana ki madad karta hai. neela ki madad karta hai. use hamesh sahi salah deta hai. abkya chahte hain log ki wah jiski madad karta hai usse rakhi bhi badhawata chale? aur sabse hi to uske sambanh hain bhi nahi. maine sare aarop padhane ke bad sari kist phir se padhi aur paya ki apne apne yudh aurton ke favour men hai. khaskar wahan jahan sanjaya neela se kahat hai ki naukari mat chodana. aaj ki tarikh men naukari aurton ka sabse bada hathiyar hai. bat sahi hai.savita ji khamkha angry ho gayi hain. kuch log unki matampursi men bhi aa gaye hain. sahitya ko sahitya hi rahane dijiye. political akhada mat banayiye. maine to arundhati, pankaj mishra, tasleema nasreen sabko padha hai. nawo ashleel hai na apne apne yudh ashleel hai, na porno hai jaisa ki iljam lagaya ja raha hai.

  18. suneel varma

    February 4, 2010 at 7:44 am

    थिसारस वाले अरविंद कुमार की राय के बाद अब स्वेता, राजमणि, हरिराम और सविता भारती जैसों को समझ आ जानी चाहिए। यह भी कि साहित्य में तालिबान या ठाकरे का अखाडा नहीं चल सकता। खुशवंत सिंह क्या पोर्नो लिखते हैं? अरूंधति राय, मनोहर श्याम जोशी, तसलीमा, पंकज मिश्रा क्या पोर्नो लेखक हैं? इस्मत चुगताई क्या पोर्नो लेखक हैं? अगर हैं तो जाहिलियत है यह तो। फिर तो हुसेन भी पोर्नो पेंटर हो गए? सविता जी क्या आप शिव सेना वाली हैं या विहिप वाली? बता दीजिए। तो आप जैसे लोगों को समझना आसान हो जाएगा।

  19. devendra ranjan

    February 4, 2010 at 8:34 am

    kuch nahin ek akeli aurat ko itne sare papiyon ne gher liya hai. arey papiyon kuch to sharm karo. agar apne apne yudh likhana pap nahin hai to porn site dekhana bhi pap nahin hai. hai to dono hai. ek abla aurat ko itna tang karana bhartiya samaj men accha nahin hai.

  20. raghuvansh

    February 4, 2010 at 10:07 am

    सविता जी, बर्रे के छ्त्ते में हाथ डालने की ज़रूरत क्य थी? उपन्यास दस साल पुराना है। फिर भी यशवंत जैसे धंधेबाज़ फिर से छाप रहे हैं तो कुछ तो बात है। साफ बात है कि लोग पढ भी रहे हैं। नहीं अगर कोई पढता नहीं तो छपता क्यों? फिर आप को डाक्टर ने कहा था कि बर्रे के छत्ते में हाथ डालिए? गलत बयाना ले लिया आप ने। और जो विरोध करना ही था तो साफ सुथरे ढंग से करतीं। ये पोर्न साइट का पता देने की ज़रूरत क्या थी? वैसे बताऊं मुझे तो मालूम भी नहीं था पर आप ने बता दिया। बहुत अच्छी साइट है। थैंक यू सविता जी।

  21. rakesh kumar

    February 4, 2010 at 1:42 pm

    savita ji sangharsh karo ham tumhare sath hain.

  22. sanjeev kumar

    February 4, 2010 at 5:10 pm

    क्या यह वही दयानंद पांडेय हैं जो प्रभाश जोशी, अरविन्द कुमार जैसे विद्वान लोगों पर बडी बेबाकी से लिखते है? क्या यह वही दयानंद पांडेय हैं जो नरेंद्र मोहन जैसों के स्याह सफ़ेद पर खुल कर लिखते हैं? वही दयानंद पांडेय हैं जो धर्मेंद्र सिंह जैसे बेरोजगारों के हक में खडे दीखते हैं और कि रवीश कुमार जैसे साफ सुथरे एंकर की शिनाख्त करते हैं? अगर वही दयानंद पांडेय हैं और यह अपने-अपने युद्ध वाले भी हैं तो माफ़ कीजिए वह पोर्नोगाफ़र कैसे हो सकते हैं? भडास वालों को ऐसी हेडिंग लगाने के पहले दस बार सोचना चाहिए था नहीं मर जाना चाहिए था लगाने से पहले। किसी की गरिमा को भरे बाज़ार इस तरह किसी सविता फविता की चिट्ठी के आधार पर ऐसी हेडिंग नहीं लगानी चाहिए। दयानंद पांडेय की एक पहचान है बतौर पत्रकार भी और बतौर कहानीकार भी। पर यह सविता कौन है, क्या करती है कौन जानता है जिसके लेटर के आधार पर इस तरह की हेडिंग लगा दी गई। यह तो पत्रकारीय एथिक्स के भी खिलाफ़ है। यशवंत को इस हेडिंग को तुरंत बदलना चाहिए। और सबसे माफ़ी मांगनी चाहिए। या फिर दयानंद पांडेय को फिर कभी भडास पर कोई जगह नहीं देनी चाहिए। आखिर एक पागल पोर्नोग्राफर को कोई क्यों पढना चाहेगा? यह एक गंभीर मसला है और इसे पूरी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यशवंत सिंह को पूरा स्पश्ट करना चाहिए। अगर अपने पाठकों से उनका ज़रा भी कमिट्मेंट है तो।

  23. रचित पंकज

    February 5, 2010 at 7:59 am

    संजीव जी आप की बात में दम है। लेकिन लगता है यशवंत टी. आर. पी. के खेल में नैतिकता का, पाठकों से कमिटमेंट भूल चले हैं। प्रकाश झा के जहाजी टिकट की खुमारी अभी चढी हुई है। शायद इसीलिए वह संजीव जी आप की बात पर गौर नहीं कर पाए। अब तो उन्हें अपने अपने युद्ध का प्रकाशन ही नैतिक रूप से बंद कर देना चाहिए। क्योंकि उन्होंने मान लिया है कि वह पोर्नोग्राफी है इसीलिए खामोश हैं। धिक्कार है ऐसी खामोशी पर। रजत शर्मा के चैनल और भडास में कोई फ़र्क नहीं है अब तो।

  24. Sushil Rana

    February 6, 2010 at 1:47 pm

    Given below is blurb I have read recently:
    Supreme Court Justice Potter Stewart was once charged with determining
    whether or not a film was pornographic. In his ruling, Potter said he wouldn’t
    even attempt to define pornography—“but,” he added, “I know it when I see
    it.”
    One thing I would like to say, “Almost people (mature) enjoy it, some people enjoy it but don’t accept it, but few people enjoy it but retaliate too”. It’s depend on both the writer’s intention and the reader’s interest.

  25. Arvind Kumar

    February 13, 2010 at 4:14 pm

    hi all …..bahut charcha ho gayee is upanyas ke baare mainis upanyas ne apane apane yudh suru kare diya..har log ise padh kar ise apana yudh maan rahe hain…….arvind ji ko bhi maine padha unhone likha hai khuswant singh ke baare main ..khuskismati se maine bhi khushwant ji ko kafi padha hai….abhi kuch samay pahle ki baat hai pakistan se aaye hui ek sabhya pariwar ki 14 saal ki ladaki ke mathe ko jab khushwant ji ne chuma tha to kafi hangama ho gaya tha ..jabki isame kuch abhi galat naheen tha ..lekin jaise khushwant singh ke vichar chapte hain patra-patrikao main koyee apani bakri bhi unake gali main bandhna nahee chahega….aap jaisa soanchate hain waisa hi likhte hain ..aisa naheen hai ki aap kayar hain aur aap veer rash ki koyee kavita likh den. ya veer rash ka koyee kavi hasya rash main …..ham jaisa soanchte hain waisa hi likhte hai….ye daya nand pandey ji ki koyee galti naheen hai unhe ishwar ne aisa hi banaya hai yahee sonch diya hai…isi tarah bahut log hain jo ki aisa hi sonchte hai…..ye to kuch naheen hai ..aaaiye ek bangi dekhiye aaj- kal chapne wale classified advertisement ki …ek yantra bech rahe hai wo aaj kal ..ab main hubahu us yantra ki khasiyat ke baaare main main bol bhi nahe sakata likhana to door ..aisa mujhe lagata hai ……lekin samachar patron main jo wigyapan chap raha hai ..matlab jo chap rahe hai unhen aisa naheen lagta….main yahan bhi naheen likh sakta …..dayanand ji lekhak hain …lekhak to premchand bhi the .par premchand ki kalam main itani shakti kahan ki wo aisi rachna paida karte apani lekhni ke dam per ….dayanand ji yug purush hain…..matlab birle hi paida hote hain aise log main yashwant jo ko bahut bahut dhanyabad dena chahte hun ki aise mahanubhaw ke gunoon ko is dunia ke samne laaye….ek sachhi kahani hai main chahte hun ki aap logon se share karoon…ek din main bhi is kahani ko padh par bhaw-vibhor ho hi raha tha ki mere senior mere kamre main aa gaye ….unhone pucha ki kya kar rahe ho arvind …aur mere pc ke kafi kareeb aa gaye…bhala ho is website ka ki isaka naam bhadas4media hai….aur main ashleel shahitya padhte hui bhi bach gaya maine kaha…..sir main ..wo bas bhadas4media dekh raha hun…..unhone pucha ..koyee khas khabar… maine kaha nahee sir…..bas ek stori thi……ok bol kar sir nikal gaye…yashwant ji main apani kis antaratma se aap ka shukriya ada karoon….aisi stori aur kab chap rahe hain….kya dayanand pandey ne aise ..matlab ..*mastram* jaisi series ki kewal ek hi stori likhi hai..unhe mauka dijiye …aur kuch achha se likhne ko kahiye …ham bas isi injaar main baithe hain ……….thanks …..Arvind Kumar

  26. KAMAL KAPUR

    February 22, 2010 at 11:27 am

    “RAJIYA ( SAVITA ) FAS GAI GUNDAN ME”

  27. tehzeeb

    February 23, 2010 at 5:01 am

    iss 10 saal purane upaniyas pe chidi is behas ko puri tarah se padha..fir iss kitab ko bhi padha..meri umar bahut zayda nahi hai ..par agar savita ji ko zawab dena hua toh main yahi kahungi ki agar mera pita kuch iss tarah ka sach apne jivan ka sabke samne rakhte toh shayad main garv se unke saath khadi hoti..ki kya hua jo unhone ne kiya woh galat tha ya sahi woh uss samay ka sawal tha ab nahi…aaj woh agar iss baat ko bata sakte hai toh jahir si baat hai ye unki nazar main galat nahi tha..aur hum sab wahi karte hai jo humari nazar main sahi hota hai..dhoka dena sanjay ka maksad nahi tha…aur fir bhi ye sab sach ya fir lekhak ki kalpana ye kaun keh sakta hai..hum kisi ki kalpana ko apne vash main ya fir samaj ke hisab se toh kalpana nahi kar sakte ….iss discussion ko thoda aur healthy hona chahiye tha taki youth bhi behichak iss main shamil ho sake..good work pandey ji..

  28. tehzeeb

    February 23, 2010 at 5:30 am

    aur shayad kuch falto baato ke chakar main hum mudde ki baat ko hi bhul gaye..lekhak keh kuch raha hai aur hum san behas kisi aur baat ko leke kar rahe hai ..uchit rahega hum sab asal mudde ki baat kare..sanjay ke sawalo ka zawab dhundhe ..fir apne andar jhake..toh shayd kuch hadd tak hum apni yudh bhi jeet chuke honge..dhyanvad

  29. दयानंद पांडेय

    February 23, 2010 at 7:57 am

    बहुत सारे मित्रों ने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दिलचस्पी दिखाई है और प्रकाशक के बारे में जानना चाहा है। बता रहा हूं।
    जनवाणी प्रकाशन प्रा.लि.
    30/35-36, गली नंबर-9, विश्वास नगर
    दिल्ली-110032
    प्रकाशक के फ़ोन नंबर हैं
    09868246199
    011-22385935
    011-22382559
    दिलचस्प यह है कि ज़्यादातर मित्रों ने उपन्यास के बारे में कम सविता जी की चिट्ठी पर बहस की है। अलबत्ता तहज़ीब ने इस बात को उठाया भी है। खैर, पाठकों की राय हमेशा सीख देती है, सो सब की राय सर माथे। उपन्यास पर इतना प्यार जताने के लिए भी सभी मित्रों का हृदय से आभारी हूं। अभी तो तीस प्रतिशत उपन्यास ही आप के सामने यहां आ पाया है। सचमुच जब पूरा उपन्यास आप सब के सामने आ जाएगा तब असली बहस होगी,अश्लीललता पर नहीं, सिस्टम पर पत्रकारिता पर छाए कुहासे और पूंजीपतियों के कुचक्र पर। आमीन !

  30. Arvind Kumar

    February 25, 2010 at 10:28 am

    Lo khul gayee Dukaan…………..

  31. सुधांशु

    February 26, 2010 at 12:23 am

    इसमें दुकान खुलने की क्या बात है? मुझे लगता है कि ये अरविंद फ़्रस्ट्रेटेड दिमाग का है। इसका पहला वाला कमेंट भी फ़्रस्ट्रेशन में डूबा था। यह दूसरा वाला उसकी परिणति है। प्रकाशक का पता मैंने भी पूछा था। अब मिल गया है। यह अच्छा हुआ कि पांडेय जी ने बता दिया। कोई किताब एक सांस में भी पढना चाहता है तो पढ सकता है। किताब हाथ में लेकर पढने का अपना सुख है। अरविंद जैसे फ़्रस्ट्रेटेड व्यक्ति इस सुख को क्या जानें? थैक्यू पांडेय जी।

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