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क्या शशि शेखर का इतिहास ज्ञान कमजोर है?

हिंदुस्तान में शशि शेखर के संपादकीय का एक अंशशशि शेखर को ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करते वक्त गूगल या विकीपीडिया को सर्च करने की जरूरत है. अगर तकनीक फ्रेंडली न हों तो उन्हें इतिहास और सामान्य ज्ञान की किताबें अपने पास रखने की आवश्यकता है. खासकर उन मौकों पर जब वे रविवार के दिन के लिए ‘हिंदुस्तान’ में कोई संपादकीय नुमा लेख अपने नाम से लिखते हैं. पिछले दिनों उन्होंने एक गलती की थी. उस गलती के लिए अगले हफ्ते के रविवार के अंक में क्षमा याचना भी की गई. वैसी ही गलती आज के दिन उन्होंने फिर कर दी है. गलती देखने में तो बहुत छोटी है पर इस छोटी-सी गलती के कारण समय का पहिया सौ साल पीछे चला जाता है. पहले बताते हैं कि पहली गलती क्या थी.

हिंदुस्तान में शशि शेखर के संपादकीय का एक अंश

हिंदुस्तान में शशि शेखर के संपादकीय का एक अंशशशि शेखर को ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करते वक्त गूगल या विकीपीडिया को सर्च करने की जरूरत है. अगर तकनीक फ्रेंडली न हों तो उन्हें इतिहास और सामान्य ज्ञान की किताबें अपने पास रखने की आवश्यकता है. खासकर उन मौकों पर जब वे रविवार के दिन के लिए ‘हिंदुस्तान’ में कोई संपादकीय नुमा लेख अपने नाम से लिखते हैं. पिछले दिनों उन्होंने एक गलती की थी. उस गलती के लिए अगले हफ्ते के रविवार के अंक में क्षमा याचना भी की गई. वैसी ही गलती आज के दिन उन्होंने फिर कर दी है. गलती देखने में तो बहुत छोटी है पर इस छोटी-सी गलती के कारण समय का पहिया सौ साल पीछे चला जाता है. पहले बताते हैं कि पहली गलती क्या थी.

‘हिंदुस्तान’ अखबार में किसी एक रविवार उन्होंने ‘इस सड़क पर चलने में डर क्यों लगता है?’ शीर्षक से एक लेख लिखा. इसमें एक जगह उन्होंने लिखा- ‘वह पाकिस्तान जो लोगो के सपनों में आदर्श देश हुआ करता था, अपनी अखंडता को 30 साल भी सुरक्षित नहीं रख पाया। 1975 में पूर्वी पाकिस्तान के लोग सशस्त्र क्रांति के जरिए संप्रभु राष्ट्र में तब्दील हो गए।’ इस लाइन से साफ है कि शशिशेखर की नजर में बांग्लादेश की आजादी 1975 में हुई. पर इतिहास को थोड़ा भी जानने-समझने वाला, खासकर वो जो बांग्लादेश की आजादी के वक्त युवा रहा होगा, जानता है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971 में हुआ और इसी साल बांग्लादेश बन गया.

अच्छी बात यह रही कि शशिशेखर ने इस गलती के लिए इस लेख के छपने के अगले वाले रविवार के अंक में गलती मानी और माफी मांगी. इसी तरह की गलती आज फिर शशि शेखर ने की है. उन्होंने हिंदुस्तान में संपादकीय पेज पर ‘जी, मुझे प्रेम हो गया है’ शीर्षक से लिखे अपने लेख में एक जगह लिखा है- ‘…पूरी दुनिया में प्रेम के नाम पर घृणा और कटुता बोई जा रही है. रूसो याद आ रहे हैं. 17वीं शताब्दी में उन्होंने कहा था कि मनुष्य आजाद पैदा हुआ है, परंतु हर ओर बंधनों से जकड़ा हुआ है.’

शशि शेखर ने लेख बहुत अच्छा लिखा है. प्रेम को लेकर उनका युवा मन जिस तरह की अभिव्यक्ति दे रहा है, वह प्रशंसनीय है. पर तथ्यों की जांच पड़ताल में भी वे संपादक की बजाय आधुनिक युवाओं जैसे हो गए. रूसो 18वीं शताब्दी में इस दुनिया के हिस्से रहे. उनका जीवनकाल 18वीं सदी का है. विकीपीडिया देखें तो रूसो 1712 में पैदा हुए और उनका देहांत 1778 में हुआ. इस तरह वे 18वीं सदी के दौरान जी और लिख-पढ़ पाए. पर शशि शेखर के आलेख में उन्हें 17वीं सदी का बताया गया है. सामान्य गणित है कि अगर हम 2010 के इस साल को 21वीं सदी के नाम से पुकारते रहे हैं तो 1712 से 1778 के समय को भी 18वीं सदी कह कर पुकारेंगे.

यह गलती तकनीकी रूप से भले छोटी हो पर तथ्य के लिहाज से बहुत बड़ी है. कई बार भाव और भाषा के चमत्कार में तथ्यों की अवहेलना पत्रकार कर जाते हैं पर अगर शशि शेखर जैसे संपादक यह गल्ती करें तो उस पर चर्चा जरूरी है. ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसी ही गल्तियों के कारण शशि शेखर के अधीन काम करने वाले उप संपादकों की नौकरियां चली जाया करती हैं. उम्मीद है, ‘हिंदुस्तान’ के साथी संपादक लोग अगले रविवार को भी इस गल्ती के लिए अपने पाठकों से क्षमा याचना करेंगे और रूसो के जीवनकाल के बारे में सही जानकारी अपने पाठकों तक पहुंचाएंगे.

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0 Comments

  1. ashok bansal

    February 14, 2010 at 1:19 pm

    aaj ke bhotik yug me likhapari ki bhool mane nahi rakhati,career se jure fesalon me bhool nahi honi chahiye.
    Ashok

  2. शेष नारायण सिंह

    February 14, 2010 at 1:31 pm

    जो लोग बार बार कहते हैं कि सम्पादक नाम की संस्था ख़त्म हो रही है ,उन्हें चाहिए कि संपादकों से भी अपील करें कि इस तरह की गलतियाँ न करें. दर असल संपादक नाम की संस्था को गरिमा बहस से मिलती है . मैंने सुना है कि आज कल सपादक से बहस करने का रिवाज़ ही ख़त्म हो गया है . दैनिक हिन्दुस्तान के सम्पादक को चाहिए कि उस परंपरा को जिंदा करें. लेकिन यह भी ध्यान रखें कि बहस पढ़े लिखे लोगों के साथ हो , हाँ में हाँ मिलाने वाले भक्त टाइप लोगों को उनका यथोचित स्थान दें लेकिन चर्चा के लिए दफ्तर में विद्वत्ता का माहौल बनाएं.

  3. Tripuresh Mishra

    February 14, 2010 at 1:45 pm

    bade log hai kar sakte hai unhe choot hai nahi to amar ujala ke hajaro naujavaano ka carrier na bigda hota
    ramcharit manas me likha hai
    samrath ko nahi doos gosai

  4. Arvind Kumar

    February 14, 2010 at 3:52 pm

    News paper samaj ka aaina hoti hai jis tarah se filmon se samaj badalta hai seekhta hai theek usi prakar se samaj patra patrikao main likhi hui chijon ko akatya manata hai kyunki india ki jyadatar abadi itani prabudh naheen hai jitani ki patrakarita ke shikhar purush.main meri jawani ko yaad karta hun to jahan tak mujhe yaad ata hai ki velentine ka naam main yahee koyee 10 saal pahale se sunta chala aa raha hun ..aur pichle saal se suna ki yah velentine saptah (week ) manate hai ..shayad 10 saal ke baad ye sunane ko mile ke velentine month manaya jayega…..aaj kal ki jindagi bahut bhagdaud ki jindagi ho gayee hai.pahale manushya ke paas pura wakt hota tha pyar karne ke liye ..ab aisa nahee hai..ek samay aisa bhi aayega ki velentine month manega …isi maheene jitana pyar karna ho kar len theek 9 maheen baad children day manayen aur baki ke dino main shayad ek dusare ko najar nahee aayen matalab dono busy ho jayen….prem ko jitana mahatwa indian culture ne diya hai shayad hi koyee aur desh main itana .india main ham radha krishn aur meera ke prem ko ek bhakti ke rup main dekhte hain…prem ko india main jitna oncha sthan diya gaya hai wah pujniya hai..mandiron main bhi prem ko darshaya gaya hai..konark ka surya mandir aisa hi hai…aise ye kal chakra hai manusya pahle asabhya tha .janglon main rahta tha phir wo shabhya huaa use kaga ki ab mandiron main aisi bhaw-bhangima ko darshana theek nahee tabhi sief konark ka surya mandir ..tatha ajanta alora ki guphayen main hi aisa dikhta hai ..shayad logon ko laga ki ye theek naheen hai aue fir ye band ho gaya isake alawa aur kaheen bhi kisi mandir main shayad hi ho….ab hame lagta hai ki hamen phir asabhya hona chahiye ….ham log ab sabhyata se asabhyata ki taraf badh rahe hai ..tabhi to aap kolkata ke VICTORIA main pariwar ke saath naheen ja sakte …delhi ke kisi park main pyar karna aam baat hai ..juhu beach per besharmi khule taur per dekhi ja sakti hai…..abhi ham aur asabhya honge….kyunki pahle logon ke paas ghar naheen hote the log gupha main rahte the aur pyar karte the ..aaj bhi metropolitan cities main bahut se logon ke paas pyar karne ko jagah naheenhai isiliye ab parkon main pyar karte hain aur wakt nahee hai isiliye velentine day ke roop main apane pyar ka ijhaar karte hai…..

  5. dinesh gandhi lucknow

    February 14, 2010 at 4:19 pm

    shashi ji ke lekh mea jo galti yaswanat je app nikal rahe hea. woh usi tarah hea jis tarah koi half gilas pani ko alag-alag nazriea se dekhata hea. aisy batto ke alawao aur bhi subject hea dimag lagane ke lea.

  6. KUMAR RAJENDRA

    February 14, 2010 at 7:12 pm

    Bade Patrakaar han Jo Bhi likh de brahma vakya jaisa hi maana jaata ha, Inhe isse kya matlab ki kya galat ha kya sahi, koyi chhota likhta to uski naukri hi chali jaati. ajkal ke sampadak naatak jyada kerne lage han. yahi vajah ha ki gyan paksh kamjor ho raha ha. bhagwaan bachaye aise patrakaaron se.

  7. anil pande

    February 14, 2010 at 8:53 pm

    जो लोग पेज देख रहे हैं , वे भी बराबर के दोषी हैं.
    उनके संपादन की प्रतिभा पर भी बहस होनी चाहिए.
    वे पत्रकार है, या चाटुकार? नौकरी बचा रहे हैं, या संपादन कर रहे हैं?

    इसी संडे कालम मे एक बार शशि शेखर ने “बुद्ध का जनम नेपाल मे” लिख दिया था. जबकि उस ज़माने मे कपिलवस्तु भारत का हिस्सा था. कपिलवस्तु मे अशोक स्तंभ इसका प्रमाण है, जिसमे नागरिको को कर माफी का आदेश दिया गया था.
    -अनिल पांडे

  8. anil pande

    February 15, 2010 at 5:16 am

    दिनेश गांधी, पानी बेचने का ही धंधा करो यार, क्यों पत्रकारिता मे खाली-पीली दिमाग़ लगा रहे हो.
    यशवंत ने गंभीर सवाल उठाया है.
    सवाल संपादक नामक संस्था, उस पद की गरिमा, और लेखन की जवाबदेही का है.
    बार-बार गलती करने वाले ग्रुप एडिटर को क्या उस पद पर बने रहने का अधिकार है?
    जब रेल दुर्घटना पर रेल मंत्री से इस्तीफ़ा मांगा जाता है, तो इस तरह की लगातार ग़लतियों पर संपादक को इस्तीफ़ा क्यों नही देना चाहिए?

    सवाल यह भी है कि लेख देखने वाले असोशिएट एडिटर के पद पर बैठे “साहेब बहादुर” लोग क्या कर रहे थे? ये लोग तो सीधी मुँह बात तक नही करते.
    इसी हिन्दुस्तान टाइम्स मे कोई दो साल पहले अंग्रेज़ी मे छपा था- ” NAZAR HATI, G+++D FATI ”

    – अनिल पांडे

  9. avikal chaudhary

    February 15, 2010 at 6:55 am

    Anil bha, apni bhadas bhale hi aap nikaal rahin hon per ye gangi to naa likho yaar, humein kisi shashi ya sampadak se matlab nahi hai, jo bhi likha tha ya jo bhi galati thi use bhadas ne diya ye thik hai, magar us per aise commeny kerna Sharm ki rekha ko laangh raha hai, Yashwant bhai kya is baat per dyaan denge ki bhada4media me fati-vati jo chaahe jo likhe vah araam se aa jaata hai……….

  10. anil pande

    February 15, 2010 at 7:24 am

    यह मेरी टिप्पणी नही.

    हिन्दुस्तान टाइम्स मे दो साल पहले 40 पॉइंट मे यह हेडिंग लगी थी.

    मैने सिर्फ़ उस “महान अखबार” की याद दिलाई है.

    यशवंत जी चाहें तो हटा सकते है.

    अनिल

  11. अनाम

    February 15, 2010 at 7:40 am

    कृपा कर विकीपिडिया को सच या अंतिम सच न मानें । बाकी शशिशेखर या किसी भी प्रधान संपादक नुमा जीव से ऐसी गलतियां होती ही रहती हैं । संपादक कभी गलत नहीं होता – घोंघा प्रसाद वसंत लाल

  12. aparna khare

    February 15, 2010 at 11:03 am

    यशवंत जी, जब कहने को कुछ न हो और भड़ास निकालनी ही हो तो इसी तरह की चीरफाड़ होती है। लिखने या बोलने मेंं ऐसी मामूली चूक बहुत सहज है। वे लोग ऐसी गलतियां नहीं करते जो कभी लिखते ही नहीं। भड़ास में ऐसी गलतियां यदा-कदा दिख ही जाती हैं। आपका पोर्टल अब एक खास मुकाम पर है। ऐसी बातें शायद बेजरूरी और मुद्दे से भटकाने वाली होती हैं। – अपर्णा

  13. anil pande

    February 15, 2010 at 2:44 pm

    मान गये.
    हिन्दी पत्रकारिता मे गदहा-घोड़ा सब बराबर.
    “जो लिखता है, वही गलती करता है”, क्या तर्क दिया है ! भक्तजनो की नौकरी पक्की.

    भड़ास पोर्टल की तारीफ पर विद्वानो की खाल ओढ़े गदहों को बेनकाब करना बंद मत कर देना यशवंत. ये वही शशि शेखर हैं, जिन्होने बिंदी और कामा छूटने पर पता नही कितने पत्रकारों की नौकरी खाई है. ज़रा सी गलती पर सार्वजनिक रूप से गलियाँ देना, अपमानित करना संपादक जी का शगल रहा है.पता नही शोभना भरतिया को अपने इस तथाकथित विद्वान हिन्दी संपादक के बारे मे जानने की फुरसत है, या नही.

    -अनिल पांडे

  14. ashish kumar

    February 16, 2010 at 4:50 am

    Shashi shekhar se pehle Hindustan jagrook jogon ka akbhar maana jata tha ek par shashi shekhar ke aane ke baad aur abhi jo akhbar ka parivartit roop samne aaya hai akhbar lagta hai woh sab bhholta jaa raha hai,us category mein sirf ab navbarat is akela khada dikta hai,shashi ji ki jagrrokta aur knowledge ka kya kehna abhi teen char din pehle Hindustan mein ek heading thi “Orkut ke baad gmail bhi laya Buzz” are mahan patrakar kuch dekhkar to chapa karo orkut or gmail ek hi company ke product hai aur orkut SNC hai aur gmail mail browser hai pata nahi yeh adhoore gyani log logon ko yeh pahayenge to ho gayi Hindustan ki poori tayyari duba denge hindustan ki asmita ko ab to akbhar padhne ka man bhi nahi karta yeh to maine ek chai ki dukan par padha tha sun rahe hai naa amit chopra ji ,shobna ji aap pls kuch kadam uthaiye varna pata nahi kya hoga “hindustan Media ltd” ko “hindustan lever Ltd ” banae se bachiye

  15. Kumar Sauvir, Mahuaa News, Lucknow

    February 16, 2010 at 1:24 pm

    Shashi shekhar ji ki kaabiliyat par to koi shaq hee nahee hae.
    Yeh deegar baat hae ki aesi galti SAMPADAK ke stur par nahi honi chaahiye. Sampadak ke theek neeche walo ko is bare me mustaidi se nigrani karni chahiye.
    Lekin Hindustan ke CHINTOO log sampaadak ki MASKA-BAAJI ke baad jo thoda-bahut samaya bachta hae, usme ek-doosare ki taang-khichaayi aur naye aur kamjor-juniors ko pareshaan karne me hi laga dete hae.
    Abhi 2 saal hee hue hae, jab Varanasi ke RE Visheshwar Kumar ne apne ek lekh me Raja Banaaras ko thakur likh diya tha. Jabki ve bhoomihaar hae.
    Vaise Visheshwar Kumar ke bare me logo ki yeh aam rai hae ki haisiyat haath me aate hee unke dimaag aur doosare ango ki tarah hee muh me bhi bavaseer bhadak uthta hae. Unke CHINTUO ne isi mauke ka fayada uthaaya aur bina check kiye hi vo aalekh chhap jaane diya, aur fir vahi hua jiska andesha tha. Jitni ho sakti thee, Visheshwar Kumar ji ki jam kar thukk-fajeehat hui. Itna sadma aur asar pada Visheshwar Kumar ke dimag par( halaanki kuchh log is se inkaar karte hae ki Visheshwar Kumar ke pas dimaag hae bhi? ) ki agala lekh likhne ke pahle unhe maheeno tak chheenke aati rahi. Ab suna hae ki Hindustaan se poore samman ke saath nikaale jaane ke baad Dainik Jagaran ki LUTIYA dubone me praan-pran se jute hue hae.
    KUMAR SAUVIR, MAHUAA NEWS, LUCKNOW
    [email protected]

  16. सर्वदमन

    February 16, 2010 at 6:05 pm

    अनिल पांडेयजी,
    आप सत्य बोल रहे है. इसे सिर्फ किसी व्यक्ति का दोहरा चरित्र ही कहेंगे की अपने लिए कुछ अलग नियम और जूनियर सहयोगियों के लिए दूसरे नियम/ अगर कामा और बिंदु की गलती पर सहयोगियों की नौकरी लेने वाले व्यक्ति ने अपने लेख में तथ्यात्मक गलतियाँ की हो तो फिर उन्हें स्वयं ही अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए / पत्रकारिता में कामा और बिंदु की गलती तो बहुत ही छोटी होती है पर तथ्यात्मक गलती बहुत बड़ी होती है / पर शायद दोहरे चरित्र के लोगो को तो सिर्फ दूसरो की गलतियाँ ही अक्षम्य लगती है / बुरा न मानिये पर आज की हिंदी पत्रकारिता में इस तरह के दोहरे चरित्र के लोग बहुत तेजी से ऊपर की तरफ बढ़ रहे है और शायद बड़े पदों पर पहुचने के लिए इस तरह के चरित्र की आवश्यकता होती हो / अब हम सिर्फ पाठको से ही निवेदन कर सकते है की इनके लेख पड़ने से पूर्व इतिहास की किताबों को पास रखे और सही तथ्यों का किताबो से मिलान कर ले / आपने यह भी बताया कि ये छोटी बातो पर सहयोगियों को गलियां देते है और अपमानित करते है, तो मैं मानूंगा कि यह सहयोगियों की गलती है कि वे ऐसा सुन लेते है / ऐसे पत्रकार जो वाहर रौब झाड़ते है और आफिस में गाली सुनते है तो उनका क्या किया जा सकता है? शायद ऐसे लोगो की नियति भी यही है / बिंदु और कामा की गलती पर निकाल दिए जाने से बेहतर तो यह होता की गाली सुनने पर उसी तरह का व्यवहार जवाब में करते/
    धन्यवाद

  17. SONOO

    February 19, 2010 at 5:46 am

    AAPKE IS COLUMN KE BAAD AGLE DIN hINDUSTAN ME BHOOL SUDHAR B PRAKASHIT HUI.[b][/b][b][/b]

  18. Updesh Saxena

    February 20, 2010 at 3:50 pm

    भाई यशवंत ने अच्छा मुद्दा उठाया है. मैं पिछले २४ बरसों से पत्रकारिता से जुड़ा हूँ, इस दरम्यान ऐसे कई स्वनामधन्य संपादकों से वास्ता पड़ा है जो खुद को ज्ञान कोष समझते थे. उनका सामान्य ज्ञान इतना था जिसे यहाँ बताया नहीं जा सकता, संपादक पद का अपमान होगा. मध्यप्रदेश के एक बड़े अखबार ने १५ बरस पहले पहले पेज पर लीड स्टोरी लगाईं थी जिसमें एक बड़े नेता की दिल के दौरे से मौत को अंग्रेजी में- Hard Attack लिखा गया था. आज वही महानुभाव अंग्रेजी के प्रकांड पंडित बन चुके हैं. मुझे याद आता है भोपाल मैं देशबंधु का ज़माना, उस वक़्त राजेश पाण्डेय हमारे स्थानीय सम्पादक हुआ करते थे, उनकी शैली, शिक्षाओं ने मुझे इतना सिखाया जितना मैं कभी नहीं सीख सकता था. ऐसे सम्पादक होना भी चाहिए जिन्हें पत्रकार याद रख सकें. बिंदी-कामा को छोटी गलती मानने वाले बंधुओं यही बिंदी ‘चिंता’ को चिता बना देती है. मध्य प्रदेश के सबसे बड़े अखबार समूह में व्यापार पेज पर ‘जूतों की सेल’ हैडिंग में ज की जगह च भी छप चुका है. ये तमाम उद्धरण बताते हैं कि सम्पादक नाम की संस्था कितनी बर्बाद होती जा रही है’. भड़ास’ मीडिया पर चिंता करने का मंच है तो सच्चाई पर दूसरों को मिर्ची क्यों लगती है?” यशवंत जी को पुनः धन्यवाद.

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