-श्रवण जी, आप अपने बारे में बताएं. जन्म कहां हुआ. पढ़ाई लिखाई कहां व कैसे हुई.
–14 मई 1947 को इंदौर में मेरा जन्म हुआ. उस समय मेरे परिवार के लोग इंदौर में आकर बस गए थे. मेरा परिवार मूलरूप से राजस्थान का रहने वाला था. संघर्ष करने वाले लोगों का परिवार था. मेरे पिता जी ने भी राजस्थान से आकर इंदौर में काफी समय तक संघर्ष किया. घर से बिना कुछ लिए आए थे. इंदौर में हमारे बगल में वेद प्रताप वैदिक रहते थे. हमारे और उनके घर के बीच में मात्र एक ही दीवार थी. हमारे कच्चे मकान थे. बहुत संघर्ष था जीवन में. साधारण परिवार से निकला हूं. उस समय बिजली नहीं थी घर में. मेरे पिताजी व्यापार करते थे. मेरी शुरुआती पढ़ाई लिखाई इंदौर में ही हुई. पहले मैंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियर में डिप्लोमा किया. बाद में ग्रेजुएशन किया. इसके बाद मैं १९७१ में दिल्ली आ गया और भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता की पढ़ाई की. यहां अंग्रेजी पत्रकारिता का कोर्स किया. दिल्ली में दस वर्ष कार्य करने के बाद इंदौर चला गया नई दुनिया में. फिर मेरा सेलेक्शन इंग्लैंड में थामसन फाउंडेशन के कोर्स के लिए हो गया. यह तीन महीने का कोर्स था. पूरे हिन्दुस्तान से केवल दो लोगों का सेलेक्शन हुआ था.
-इसका मतलब आप बीच में ही पत्रकारिता छोड़ कर चले गए?
–नहीं, नहीं! वहां मैं पत्रकार की हैसियत से ही गया था. वहां पर लगभग तीन महीने रहा. दिल्ली में रहते हुए 197२ में प्रभाष जी ने मैंने और अनुपम मिश्र ने मिलकर एक किताब लिखी. जो चंबल घाटी के डाकुओं के जेपी के समक्ष समर्पण पर थी. किताब का शीर्षक था- ‘चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में.’ उस समय यह किताब बहुत चर्चित रही थी. इसके बाद 1974 में मैं पटना चला गया. वहां जयप्रकाश जी के साथ बिहार मूवमेंट में साल भर रहा. वहां भी मैं पत्रकार की हैसियत से ही गया था. मुझे बिहार मूवमेंट के कवरेज के लिए दिल्ली से भेजा गया था, पर जेपी ने वही रोक लिया. फिर मैंने जो किताब लिखी, वो ही एक अधिकृत पुस्तक है बिहार आंदोलन पर. पुस्तक का नाम है- ‘बिहार आंदोलन एक सिंहावलोकन.’ इसके बाद 74 के अंत में मैं दिल्ली आ गया. फिर प्रभाष जी के साथ जुड़ गया. उस समय हमलोग ‘प्रजानीति’ अखबार निकालते थे इंडियन एक्सप्रेस से. उसमें प्रभाष जी, अनुपम, उदयन शर्मा, मंगलेश डबराल और बहुत सारे लोग थे. इमरजेंसी आई तो प्रजानीति बंद हो गया. 1976 में ‘प्रजानीति’ को ‘आसपास’ में कनवर्ट कर दिया गया. इसमें फिल्म और साहित्य को प्रमुखता दी गई. कुछ समय बाद ‘आसपास’ भी बंद हो गया. इसके बाद 1976 में ही मैं अंग्रेजी पत्रकारिता में चला गया और इंडियन एक्सप्रेस के अंग्रेेजी दैनिक फाइनेंसियल एक्सप्रेस से जुड़ गया.
-आपने प्रभाष जी के अलावा किन-किन लोगों के साथ काम किया ?
–प्रभाष जी के साथ मैंने कई सालों तक काम किया है. भवानी प्रसाद मिश्र जी के साथ काम किया है. हिन्दी में जितने बड़े नाम हो सकते हैं, उन सबके साथ काम किया है. प्रभाष जी के साथ एक तो संबंध यह रहा कि वो भी इंदौर के थे और मैं भी इंदौर का था. हम लोग इंदौर से ही जुड़े रहे. 1962-63 से लिखना शुरू कर दिया था मैंने. मैं 1971 में दिल्ली में आकर प्रभाष जी के साथ जुड़ा. दिल्ली में राजघाट स्थित गांधी स्मारकनिधि पर मेरी मुलाकात प्रभाष जी से हुई. मैं, प्रभाष जी और अनुपम मिश्र तीनों साथ काम करते थे. जब डाकुओं के सरेण्डर का मामला हुआ, तब मैं चम्बल घाटी में चला गया. वहां तीन महीने तक मैं रहा.
-आपकी पढ़ाई-लिखाई बाइलिंग्वल थी ?
-बाइलिंग्वल तो हुई पर, बहुत मेहनत करनी पड़ी पत्रकारिता में बने रहने के लिए. हिन्दी-अंग्रेजी के अलावा जब गुजराती का दिव्य भास्कर लांच हुआ, तो गुजराती सीखने का मौका मिला. सीखने का काम चलता रहता है। अभी भी चल रहा है। मैं मानता हूं कि कभी भी सीखना बंद नहीं करना चाहिए.
-आपने पत्रकारिता में आंदोलन का दौर देखा है, आंदोलन कवर भी किया. आजकल आंदोलन का दौर नहीं है. समस्याएं छुपाई जाती हैं. इस पर आपको कैसा लगता है?
-देखिए, जब चीजें बदलती हैं तो वो टुकड़े-टुकड़े में नहीं बदलती हैं. ऐसा नहीं होता है कि कपड़े तो आप बहुत आधुनिक ढंग के पहन रहे हैं पर अंदर बनियान वही पुराने स्टाइल का दर्जी का सिला हुआ है. आप हर एक चीज को बदलते हैं. सिस्टम जब बदलता है, तो सारी चीजें एक साथ बदलतीं हैं. पूरी पत्रकारिता बदल रही है. मुझे उससे कोई निराशा भी नहीं होती है. दुख क्यों व्यक्त करें. जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, वे लोग आजादी के बाद देश की हालत देखकर कहते हैं : क्या हम इसी के लिए आजादी की लड़ाई लड़े थे? मेरा ये मानना है कि हर चीज में अगर आप अच्छाई देखना शुरू कर दें तो उम्मीद कायम रहेगी. ये मानें कि सोलह पन्ने का, बीस पन्ने का, आठ पन्ने का या जो भी अखबार है, उनमें कुछ कोने तो ऐसे हैं जिसमें आप ईमानदारी से पत्रकारिता कर सकते हैं. पत्रकार जगत में, चाहे जितना लोग कहते हैं कि खराबी आ गई है, मैं खराबी नहीं देखता हूं. मैं अपने आस-पास हमेशा अच्छे पत्रकारों को टटोलने की कोशिश करता हूं. मैं ज्यादा से ज्यादा अच्छे पत्रकारों को ही सामने लाने की कोशिश करता हूं. गलती से जो खराब लोग आ गए हैं, उनको भी डांट-डपट कर या समझा कर अच्छा काम करवाया जा सकता है. आपने अभी बातचीत के दौरान कि कहा कि दिल्ली में दैनिक भास्कर अखबार अच्छा निकल रहा है. ये अखबार वही पत्रकार साथी निकाल रहे हैं, जहां कभी खराब अखबार निकलता था. ऐसा नहीं है कि मैंने पुराने लोगों को निकाल के फेंक दिया है और बाहर से पूरी नई खेप खरीदकर लाया हूं, ऐसा कुछ नहीं किया है. दो चार लोग नए आए होंगे जो छोडक़र गए होंगे उनके एवज में. पुराना वही स्टाफ है, हमारा बेसिक स्ट्रक्चर वही है. मेरे हिसाब से पत्रकारिता में जो कमी है वो ये है कि जब एक एडिटर कहीं जाता है या कोई पत्रकार सीनियर लेबल पर कहीं जाता है तो वो अपने साथ साथ पत्रकारों की पूरी खेप लेकर जाता है. ये ठेकेदार की मानसिकता होती है कि सारा कुछ मेरा होगा. मेरे हिसाब से यह सब चलता नहीं है. अगर आप अच्छे पत्रकार हैं तो आप पुराने लोगों से ही बढिय़ा काम करा सकते हैं.
-जीवन में सबसे ज्यादा सुख कब मिला, सबसे ज्यादा संतोष कब मिला?
–मैं जब विनोबा जी के मूवमेंट के लिए काम करता था और बिहार में घूमता था या देश के गांवों में घूमता था या जेपी के साथ जब मैं पूरे बिहार का दौरा करता था. वहां मैं जगह जगह लोगों को देखता था कि वे किस तरह लोकनायक के प्रति समर्पित हैं. जब मुझे लगता था कि मैं जेपी के साथ खड़ा हूं, जेपी के साथ गाड़ी में बैठा हूं या जेपी के साथ घूम रहा हूं या बिनोवा जी से बात कर रहा हूं. उस वक्त मुझे लगता था कि यह जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. महानायकों के साथ और कुछ ऐसे लोगों के साथ रहने का वो जो सुख था, वह सबसे बड़ा सुख था और ताकत भी. मुझे लगता है कि मैं अगर पत्रकारिता में ईमानदारी के साथ बना हुआ हूं या निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहा हूं और पिछले चालीस-बयालीस सालों में भी अगर कोई दाग मुझ पर नहीं लगा है, मुझे संस्थान में इज्जत मिली है तो इसका बहुत बड़ा कारण उन लोगों का साथ रहा है.
-जीवन में कभी कुछ अवसाद के पल भी रहे होंगे, जब आप मानसिक रूप से परेशान हुए हों?
-बिल्कुल रहे हैं. अवसाद के बहुत सारे पल रहे हैं. मैं जब इंदौर में फ्री प्रेस में काम करता था. 83 में ज्वाइन किया. 86 तक काम किया. पता नहीं किस गलतफहमी के चलते मैनेजमेंट ने मेरा ट्रांसफर कर दिया. पनिशमेंट के तौर पर. उस वक्त मेरे बच्चे बहुत छोटे-छोटे थे. तनख्वाह भी बहुत कम मिलती थी. उस उसम लगता था कैसे करेंगे, कैसे जियेंगे. तुरंत अगले दिन भोपाल में एमपी क्रॉनिकल की नौकरी मिल गई. पत्नी और बच्चों को लेकर मैं भोपाल चला गया. फिर 1986 से 1989 तक एमपी क्रॉनिकल अखबार में काम किया. उसको बहुत अच्छा अखबार बना दिया हमने. 1989 में फिर फ्री प्रेस वाले पीछे पड़ गए कि आपको एडिटर बनकर आना पड़ेगा. उनके आग्रह को देखते हुए इस अखबार के साथ फिर जुड़ गया. इसके साथ मैंने 1991 तक काम किया. फ्री प्रेस के लोगों ने एक बार फिर कहा कि साहब हमारी आपकी बनती नहीं है, आप हमारा अखबार छोड़ दीजिए. मैंने तत्काल यह अखबार छोड़ दिया. इसके बाद मैं काफी डिप्रेशन में भी रहा. ये जो मौका आता है जिंदगी में कि आप एक नौकरी में हैं और वो छूट गई. आप दूसरी नौकरी ढूंढ रहे हैं. ये एक मुश्किल दौर होता है. ऐसे में एक व्यक्ति के तौर पर और एक पत्रकार के तौर पर आप किस तरह का व्यवहार करते हैं, ये आपकी सबसे बड़ी पहचान है. नौकरी में रहते हुए आप तमाम तरह के नेगोसिएशन कर सकते हैं. पर नौकरी में ना रहते हुए या ट्रांजिशन पीरियड में थोड़ा मुश्किल होता है. ऐसे ट्रांजिशन पीरियड मेरी जिंदगी में कई बार आ चुके हैं.
-भास्कर में भी कभी ट्रांजिशन पीरियड आया, जब आप परेशान हुए हों?
–भास्कर में भी एक ट्रांजिशन फेज आया था, मैंने इस्तीफा दे दिया था. पर मैनेजमेंट ने रोका तो मैं रुक गया. मेरा मानना है कि हमलोगों को जिंदगी में हर चीज हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए. मैं इस चीज से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूं कि पत्रकारिता खराब हो गई है या पत्रकार भ्रष्ट हो गए हैं. मुझे लगता है कि पत्रकारिता की लीडरशिप में कमी आई है, उस जमाने के जो लीडर हुआ करते थे, वो असल मायने में प्रेरणा के पुंज हुआ करते थे. उस तरह के लोग आजकल कम हो गए हैं. फिर भी, आज पत्रकारिता बढ़ रही है आगे, इसका विस्तार हो रहा है.
-आपने जीवन में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, इनके पीछे किसकी प्रेरणा रही है. आप किसको अपना आदर्श मानते हैं?
–मेरे माता-पिता ही मेरी प्रेरणा हैं. उन लोगों ने मेरे लिए काफी ज्यादा संघर्ष किया. वो मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे पर मेरा मन नहीं लगा. सौ-डेढ़ सौ की नौकरी करने पत्रकारिता में चले आए इधर. कलकत्ता में अच्छी भली इंजीनियरिंग की सरकारी नौकरी मिली थी, उसे 67 में छोड़ कर इंदौर आ गया. अन्य लोग, जिनस मैं प्रभावित हुआ, उनको गिनाने के लिए काफी पीछे जाना पड़ेगा. काफी चीजों को खंगालना पड़ेगा. पर निश्चित रूप से जयप्रकाश नारायण एक व्यक्तित्व हैं, राजेन्द्र माथुर हैं. ये दो लोग स्पष्ट तौर पर मुझे काफी रोमांचित करते रहे हैं. मुझे महात्मा गांधी के जीवन से काफी प्रेरणा और ताकत मिलती है. जितना ज्यादा मैं उनके बारे में जानने की कोशिश करता हूं, हर बार उतना ही कोई ना कोई नया पक्ष उभर कर सामने आ जाता है. इसके अलावा डॉ. राम मनोहर लोहिया से मैं बहुत प्रभावित रहा. एक व्यक्तित्व हैं अटल बिहारी वाजपेयी. कोई ना कोई चीज इन लोगों की मुझे प्रभावित करती रही.
-एक समय था जब आप सरकारी नौकरी में थे. उस क्षण अचानक ऐसा क्या हुआ जो आप सरकारी नौकरी छोडकर आंदोलन में चले आए?
–ऐसा नहीं था सीधे आंदोलन में चला आया. कलकत्ता में मेरा मन नहीं लगता था. 1967 की बात है. उस समय मैं बीस साल का ही था. घर से दूर, मां-बाप से दूर रहने में दिक्कत होती थी, होम सिकनेस महसूस करता था. ऐसा लगता था घर के पास जो भी मिलेगा वही कर लेंगे. यह कोई आंदोलन के चलते नहीं था. मैं इसे कोई सैद्धान्तिक कवर नहीं देना चाहता. उस उम्र में तो ऐसा रहता भी नहीं है. अब तो ऐसे हो गया है कि हम कहीं भी जाने को तैयार रहते हैं.
-आपको कौन-कौन से अभिनेता-अभिनेत्री प्रभावित करते हैं?
–हां, बहुत फिल्में देखता था. देवानंद काफी प्रभावित करते थे. देवानंद की जो फिल्में उन दिनों आतीं थीं, वो बहुत अच्छी होती थीं. अभिनेत्रियों में नूतन बहुत पसंद थी. परफॉर्मेंस और करेक्टर के साथ इन्वॉल्वमेंट में ये दोनों बहुत अच्छे कलाकार थे. आम भारतीयों के प्रतिनिधि थे ये दोनों लोग.
-जीवन की पहली फिल्म आपने कैसे देखी, घरवालों की सहमति से या चोरी से?
–पहली फिल्म तो चोरी छिपे देखी थी. कई फिल्में चोरी-छिपे देखी हैं. घर वाले बहुत सीधे होते हैं. वो कई सारे छोटे-मोटे अपराधों को छुपा लेते हैं. घरवालों के न होने का बहुत बड़ा अभाव इसलिए है कि आपकी गल्तियों को एक स्थिति के बाद छुपाने वाला कोई नहीं बचता है, उनको ढंकने वाला कोई नहीं बचता है. सब घर वालों को याद करते हैं.
-आप जिस प्रोफेशन में हैं, उसमें रहकर आप घरवालों को ज्यादा समय नहीं दे पाते होंगे ?
-हां, कई बार लगता भी है कि घरवालों को ज्यादा समय नहीं दिया. माता-पिता को समय ही नहीं दे पाया. यहां तक कि मैं बच्चों को भी टाइम नहीं दे पाया. रात को देर से घर जाता था, उस वक्त बच्चे सोए हुए मिलते थे. जब देर से उठता था तब तक बच्चे स्कूल जा चुके होते थे. मेरी मुलाकात तभी हो पाती थी, जब सुबह घर में आने के बाद उन्हें पढऩे के लिए उठाता था. अब तो बच्चे दूर चले गए मुझसे. बेटी ऑस्ट्रेलिया में है, बेटा चेन्नई में है. इस वक्त मेरे दोनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं और काफी सफल हैं. इस बात का मुझे काफी गर्व है.
-दोनों बच्चे किस प्रोफेशन में हैं?
-बेटा कुणाल इंजीनियर है. उसने पहले ही प्रयास में आईआईटी प्रवेश परीक्षा पास कर लिया. उसे अच्छी रैंक मिल गई. अच्छी ब्रांच भी मिल गई. अभी वो चेन्नई में बहुत अच्छी नौकरी कर रहा है. बेटी ऑस्ट्रेलिया में डॉक्टर है, ओरल सर्जन है. मेलबोर्न के अच्छे हॉस्पीटल में काम कर रही है. मेरे दामाद भी डॉक्टर हैं. कुछ लोगों का मानना है कि ईमानदारी से आप कुछ भी एचीव नहीं कर सकते. मेरा मानना है कि ईमानदारी से आप सब कुछ एचीव कर सकते हैं. एचीवमेंट के मायने सबके लिए अलग-अलग होते हैं.
-आपकी निगाह में आपकी कमियां क्या हैं?
-मेरे अंदर बहुत कमियां हैं. क्रोध करना अपने आप में बहुत बड़ी कमी है. किसी की गल्तियों पर बहुत गुस्सा आता है. कोई झूठ बोले तो बहुत गुस्सा आता है, गलत काम करे तो गुस्सा आता है. खाने पीने का कोई खास शौक नहीं, मैं शराब नहीं पीता. मांस-अंडा नहीं खाता. मेरे कोई खास खर्चे भी नही हैं. मुझे अच्छे कपड़े पहनने का और घूमने-फिरने का शौक जरूर है.
-आपके करियर के अलावा आपका कोई ऐसा सपना है या कोई ऐसी फैन्टसी जो पूरी न हो पाई हो?
–ऐसा लगता है कि जिन्दगी में बहुत कुछ अचीव करना था पर कर नहीं पाया. अभी भी बहुत कुछ अचीव करना बाकी है. मुझे लगता है कि जीवन में इतना लिखने के बावजूद कोई अच्छी किताब नहीं दे पाया, नहीं लिख पाया. इतना सोचता हूं पर पता नहीं लिखता क्यों नही हूं. बहुत सारे काम हैं जो मैं कर सकता था पर नहीं किए मैंने. कभी लगता है कि गांवों से कनेक्ट होना चाहिए, जैसे- जयप्रकाशजी करते थे. मैं कनेक्ट होता भी हूं हालांकि इसका तरीका थोड़ा बदल दिया है. जो लोग काम करते हैं, मैं उनको समय देता हूं. उनके बीच में जाकर बैठता हूं, उनकी चीजों को भास्कर में जगह देता हूं. उनको प्रमोट करता हूं और कोशिश करता हूं कि आर्थिक रूप से मदद करूं. कोशिश करता हूं ऐसे लोगों को लेखक और पत्रकार बनाऊं. अगर आप चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं.
-इस समय की पत्रकारिता में कोई ऐसा नाम जो आपको लगता हो कि अच्छा काम कर रहे हैं?
–बहुत लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. छोटे-छोटे अखबारों में निश्चित रूप से बहुत लोग लगे हुए हैं और बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. कई बार बहुत अच्छा लिखते भी हैं. ऐसे बहुत से पत्रकार मिलते हैं जो काफी कुछ करना चाहते हैं पर उन्हें मौके नहीं मिलते, उनको मौके की तलाश करनी पड़ती है. मुझे इस बात का बहुत दुख होता है कि मैं बहुत चीजें करने की स्थिति में नही हूं. मेरी कल्पना का एक आदर्श अखबार है. मैं वो निकालना चाहता हूं, पता नहीं वो कब निकलेगा. मुझे लगता है कि हिन्दी में एक बहुत अच्छा अखबार निकाला जा सकता है और बहुत सारे अच्छे पत्रकार उपस्थित हैं, जो मौकों की तलाश में हैं. उनको साथ में जोड़ा जा सकता है.
-जीवन में क्या कभी ऐसा मौका भी आया जब किसी ने आपसे विश्वासघात किया हो ?
–इसका लेखा-जोखा मैं रखना नहीं चाहता, लेकिन इन बातों का सबक मैंने ऐसे लिया कि इससे घबराकर आप लोगों की मदद करना मत छोडि़ए. ऐसा होता है कि कई बार आप लोगों की मदद करते हैं. आप उनको आगे बढाते हैं फिर आपको लगता है कि आपने तो गलत आदमी को आगे बढ़ा दिया है. इसमें कई लोगों का रिजल्यूशन होता है कि इस काम को बंद कर देना चाहिए जबकि मेरी धारणा यह होती है कि इस काम को कभी बंद नहीं करना चाहिए. मेरा मानना है कि एक्सीडेंट हो जाने के बाद भी यात्रा करना बंद नहीं की जाती है.
-आपने अपने रिटायरमेंट की कोई तारीख तय की है?
–रिटायरमेंट का मतलब अगर ये है कि काम बंद कर दिया जाए, पूरी तरह से घर पर बैठ जाएं तो मेरी जिंदगी में ऐसा कुछ आने वाला नहीं है. मैं हमेशा कुछ न कुछ करता ही रहूंगा. मैं जानता हूं कि कई सारी चीजें हैं, जो मैं करना चाहता हूं और मैं जानता हूं कि वो कैसे की जाती हैं. उसके लिए आप कहीं भी बैठ के कुछ भी कर सकते हैं. इसके लिए हमेशा किसी संस्थान का होना जरूरी नहीं है. मेरे कोई ज्यादा खर्चे नहीं हैं. मुझे याद है 1971 में जब मैं दिल्ली आया था तो मुझे काफी कम रुपये मिलते थे. तीन सौ बीस रुपए महीने का मिलता था. अनुपम और प्रभाष जी बगल में रहते थे. तब भी काम चल जाता था.
-कभी जीवन में ऐसी स्थितियां आईं कि आपको ऐसा लगा हो कि आपने एक गलत पेशा चुन लिया?
–ऐसा कभी कुछ नहीं सोचा. जीवन में बस एक ही मकसद था, कुछ अच्छा काम करना. मैं लंबे समय तक सर्वोदय आंदोलन में रहा. उस वक्त बस ऐसा लगता था मानो क्रांति आने ही वाली है. सब कुछ बदलने वाला है. दरअसल आपको अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग व्यक्ति बनने की इच्छा होती है.
-आजकल पेड न्यूज की बहुत बात हो रही है. पेड न्यूज को लेकर क्या कभी भास्कर में कोई डिबेट हुई?
-पेड न्यूज को लेकर सारे संस्थनों में डिबेट होती है. भास्कर में भी होती है. भास्कर में कहीं लोकल लेवल पर ऐसा हुआ होगा किसी ने कुछ किया हो, लेकिन बाद में जब यह मैनेजमेंट के संज्ञान में आया तो बंद हो गया. देखिए, ये बहुत बड़ा संस्थान है और कई कई जगहों पर अलग-अलग लोग अलग-अलग दबावों में कुछ न कुछ करते रहते हैं. हां, अगर कहीं गलत होने की सूचना मिलती है तो उसे प्रबंधन ठीक करता है.
-हिन्दी के कुछ मालिकों का कहना है कि अंग्रेजी के अखबारों में पेड न्यूज बहुत पहले से था, लेकिन उनके बारे में कोई चर्चा नहीं हो रही थी?
–मैं एक चीज बताऊं आपको, मुझे तो पता ही नहीं चलता कि खबरों में कितना पेड है, कितना अनपेड है. मैंने चर्चा की थी कि ये जो विदेशी समाचार एजेंसियों से हम खबर उठाते हैं, इसमें जो भी एजेंसी वाले भेजते हैं, हम छाप देते हैं. हमको कुछ पता ही नहीं है कि उनकी किस तरह के इरादे हैं और वो किस इन्टेंशन से खबर छाप भेज रहे हैं. किसी राजनेता को बदनाम करने के लिए या किसी देश को बदनाम करने के लिए या दो देशों के बीच युद्ध कराने के लिए. हम इसको कभी कंसीडर ही नहीं करते कि ये भी पेड न्यूज हो सकती है. पेड न्यूज को लेकर हमारी जो सोच का दायरा है उसको बहुत सीमित कर लिया गया है. यहां पर लोग संसद में तो सवाल पूछने तक के लिए पैसे देते हैं, पर हम कभी उस पर सवाल नहीं उठाते. वो जो दस लोगों का स्टिंग हुआ था, उनमें से एक आदमी फिर चुनकर आ गया संसद में. पेड न्यूज का संसार अलग किस्म का है. इसे आप केवल अखबारों तक ही सीमित न रखें. ये तो फिल्मों में, खबरों में है और कहा जा रहा है कि दूध में से पानी को अलग करके दिखाइये. ये एक सिस्टम है जिसमें विज्ञापन एजेंसिया हैं, बड़े-बड़े कॉरपोरेट आफिस हैं. अमेरिका में तो आप पायेंगे कि बड़े-बड़े फर्मों के मालिक अखबारों और रेडियो स्टेशनों के मालिक हैं. सिगरेट बनाने वाली कंपनियां, खिलौने बनाने वाली कंपनियां, शराब बनाने वाली कंपनियां इसमें शामिल हैं. ये लोग अखबार के पन्नों को स्पेस की तरह से देखते हैं, बेसिक डिफरेंस ये है. पेड न्यूज का मुद्दा मेरे सामने कभी नहीं आया. मुझे कभी मेरे मालिकों ने इस बारे में कुछ कहा भी नहीं. सब कुछ के बावजूद अखबार अच्छा काम कर रहे हैं. मैं अपनी भूमिका से खुश हूं.
-आपने पत्रकारिता में अभी तक लगभग कितने लोगों को चांस दिया होगा?
–पत्रकारिता में बहुत लोगों को चांस दिया है. बहुत लोगों को जॉब दिया है. सबसे अच्छी बात तो ये है कि सारे लोग अभी तक मुझसे जुड़े हुए हैं.
-आपने लव मैरिज की थी या अरेंज मैरिज?
–मैं अपनी पत्नी के पिताजी के साथ इंदौर के निकट कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय ट्रस्ट में काम करता था. हमारी शादी होनी थी, सो हो गई. इसे प्रेम विवाह नहीं कहेंगे. प्रेम विवाह तो लडक़ा-लडक़ी तय करके करते हैं. बहुत ही साधारण तरीके से हम दोनों की शादी हो गई. मेरे पास तो उस जमाने में अतिरिक्त कपड़े भी नहीं होते थे. शादी के समय अपने कजिन ब्रदर से मांग कर कपड़े पहने थे. पैसे भी नहीं थे, शायद उधार लिए थे मैने कुछ. मेरी शादी 1976 में हुई थी, वो भी एक चर्चा का विषय है. ये एक इन्टरकास्ट मैरिज थी. उस जमाने में.
-यह अजीब-सी बात है, आपकी इन्टरकास्ट मैरिज थी पर लव मैरिज नहीं, ऐसा कैसे हुआ?
-ऐसी कोई बात नहीं है. मेरे ससुर और उनके परिवार के लोग गांधीवादी थे. उन्हें लगा कि लडक़ा अच्छा है, सो कर दी शादी.
-आजकल ऑनर किलिंग का दौर चल रहा है, आपको क्या लगता है, आपने उस जमाने में जो मुहिम चलाई थी, वो कमजोर थी?
–हमने तो बहुत मुहिम चलाई थी. डॉ. वैदिक के साथ दहेज विरोधी आंदोलन चलाया था हमने. हम दहेज मांगने वाले लोगों के खिलाफ धरने देते थे. उस समय हम पंद्रह-सोलह साल के थे. इस दिशा में तो बहुत काम किया है. हर जमाने में कुछ अच्छे लोग निकलते हैं, वो चीजों को ठीक कर देते हैं. आनर किलिंग के खिलाफ भी लोग सक्रिय हो गए हैं.
-ऐसी बातें सामने आ रही हैं कि भास्कर में श्रवण जी को साइड लाइन किया जा रहा है? उन्हें दिल्ली तक ही सीमित कर दिया गया है और अब नए लोगों को उभारा जा रहा है?
–बहुत अच्छी बात है. मुझे इस बारे में पता नहीं है. पर अगर ऐसा है तो मुझे कोई परेशानी नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए. आप जीवन भर स्टेज पर क्यों रहना चाहते हैं? भूमिकाएं बदलते रहना चाहिए और नए लोगों को आप क्यों नहीं जिम्मेदारी देंगे? जब तक नए लोग जिम्मेदारी नहीं लेंगे तब तक मेरी इज्जत कैसे होगी. अब तक जिन कामों को मैं करता रहा हूं, उसे नए लोग करेंगे और अगर वो परफॉर्म करेंगे तब संस्थान को अच्छा लाभ होगा. तब एक कंपेटिटिव स्ट्रेटेजी बनेगी कि भाई साहब ये बेहतर काम कर रहे हैं. मेरा मूल्यांकन करने के लिए भी बहुत जरूरी है कि नए लोग आएं. साइडलाइन जैसी तो कोई चीज नहीं है. अगर आपमें अपने आप को कायम रखने की ताकत है तो तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी आप अपने आपको कायम रख सकते हैं. अगर संस्थान को मेरी जरूरत है ही नहीं, तो फिर दिल्ली में भी क्यों होनी चाहिए. दिल्ली में तो सबसे ज्यादा काम है. दिल्ली में तो मेरी जो प्रोफाइल है उसमें मैं संस्थान को रीप्रेजेंट कर रहा हूं.
-क्या आपको भगवान पर भरोसा है? आप आस्तिक हैं या नास्तिक?
–मुझे बहुत भरोसा है भगवान पर. मैं आस्तिक हूं. मैं बहुत आध्यात्मिक हूं. मैं असल में बहुत भावुक और सरल आदमी हूं. मैं कोई ऐसी पिक्चर, जिसमें किसी पर अत्याचार हो रहा हो, नहीं देख पाता हूं. वहां से भाग जाता हूं. पता नहीं क्यों ऐसा होता है. शायद ज्यादा संवेदनशीलता के कारण.
-इस वक्त ऐसा कोई नेता है जो आपको पसंद हो?
–राहुल गांधी. बेसिकली वो एक ईमानदार आदमी हैं. उनके चेहरे पर ईमानदारी दिखती है. वो आदमी बेईमान नजर नहीं आता है. उसने अपने इर्द-गिद जिन लोगों को खड़ा किया है वो भी काफी ईमानदार हैं. और वो जिन लोगों को प्रमोट कर रहे हंै, वो भी ईमानदार हैं. मेरे हिसाब से ये एक बड़ी चीज है कि हमारे इर्द-र्गिद ऐसे लोग जमा हो रहे हैं, जिनसे हम कुछ उम्मीद कर सकते हैं.
-आपको यह कब तक लगता है कि आप भास्कर के लिए जागरण का नंबर वन छीन लेंगे?
–हम किसी को नंबर वन से हटाने के लिए काम नहीं कर रहे हैं. हां, पर हम खुद को नंबर वन बनाने के लिए काम कर रहे हैं. हमारे समूह की लाइन है कि हम दूसरों की लकीर को छोटा नहीं करते हम अपनी लकीर को बड़ा करते हैं.
-ऑफिस और घर परिवार के अलावा ऐसी कौन सी चीज है, जिसे करके आपके अन्तरमन को सुख मिलता हो?
–मुझे संगीत का बहुत शौक है. वोकल, इंस्ट्रूमेंटल, गजल आदि सुनना अच्छा लगता है. अच्छी फिल्में देखने का शौक है. खाने का शौक है. पर्यटन और फोटोग्राफी का बहुत शौक है. बहुत फोटोग्राफी की है मैंने. जहां भी जाता हूं अपना कैमरा साथ लेकर जाता हूं. अभी अमेरिका गया था, वहां से एक कैमरा लेकर आया हूं. मैं फोटोग्राफ्स की एडिटिंग कर सकता हूं. अच्छे फोटोग्राफ्स को एप्रीशिएट भी करता हूं. मुझे कविताएं लिखने का भी बहुत शौक है.
-अपना लिखा हुआ कुछ सुनाना चाहेंगे?
–इससे पहले कि रवाना करो तुम हवाओं को ढूंढने के लिए मुझे,
मैं दबे पांव लौट कर समा जाना चाहता हूं
ओस से भीगी हुई तुम्हारी पलकों में,
पता है मुझे, गुलाब वहां रख छोड़ा है तुमने अभी भी,
खय्याम की रूबाइयों के पन्नों में,
जिसे नजरें चुरा कर तुम्हारी,
रख दिया था,
तुम्हारे ही जूड़े से चुराकर मैंने.
-सर, आपको बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने इतना समय दिया.
-धन्यवाद यशवंतजी.
Comments on “किसी को नंबर वन से हटाने के लिए काम नहीं कर रहे : श्रवण गर्ग”
बहुत-बहुत धन्यवाद यशवंत जी.गर्ग साहब ke bare me kafi suna tha aaj unke vichar padker kafi sukun mila hai kripya mujhe garg ji ka email id mil sakta hai
jpankajdubey@gmail.com 09769365220 pankaj dubey
Bahut-bahut Dhanyawad Yashwantji… Kaafi samay baad Garg sahab ki Taswiren aur unke Vichar janne ka mouka mila. maine Sir ke sannidhya me Indore me kaafi samay tk kaam kiya hai, islie kah sakta hoon ki unki baten kisi ko buri to lag sakti hain kintu sir ke dil me koi durav nahin hota. ve Nariyal ki tarah Sakht, kintu Andar se Dhawal aur Naram hain. sir ke baare me kai anjane pahalu jankar Achchha laga…. punah Bahut-bahut dhanyawad.
unche ohde par pahunche har vyakti ka jivan safar mushkilon bhara hota hai. ek baar phir garg ji ka interview ke baad vishvaas ho gaya ki, ji lagan se mehnat karta hai, use saphlata jarur milti hai. leki yahan ek baat jarur hai ki, kai naamchin akhbaar aur media hause naye ubhar rahe aur kuch kar gujrane ka maddaa rakhne vaalon ko manch nahin dete. yah ek badi samasya naye patrakaaron aur lekhkon ke liye hai. vaise is interviev ke liye yashvant ji aapko badhaai. kai mahatvpurn jaankari mili.
यशवंत जी.गर्ग साहब nmskar साक्षात्कार में कही गयी एक-एक बात सच्चाई से भरी lagti है.खरी-खरी कहने का दुस्साहस रखने वाले हैं aap. sir aap k साक्षात्कार प्रेरणा प्राप्त करेंगे.पुनः alwar.raj.
Ye Bhaskar ke vo (dimanod)hire hai. jinhe bhaskar ek janm to kya sat(7) janm me bhi nahi bhul sakta hai.agar aaj bhaskar ke (4)char per hai to vo ek shri sharvan garg hai.jinhone is bhaskar ko international lavel per naya aayam diya hai
garg jee ka mail id likhana chahiye tha taki pratikiriya di ja sake
Shrawanji ke saath Chandigarh, Ahmedabad mein kam karne ke mauka mila tha… ek hi Flat mein bhi rahe the…sonf ki chay banakar pilate the… kadak hote hue bhi ve ek naram dil insan bhi hein… tarah-tarah ke juto ke bhi shaukin hein…
यशवंत जी,. आपका शुक्रिया, जो आपने सर को चुना. सर के साथ जिसने भी काम किया है वो उनके बारे में बेहतर ढंग से जानता है. वो कभी नहीं बदलते और हमेशा एक जैसे रहते है. मैं उनमें से एक हूं, जिन्हें सर ने मौका दिया अपने साथ काम करने का.
yeshvantji, insan yadi apne bnaye hue niymo par adig rahte hue jivan jeeta hai to…uski prtisprdha apne aap se hoti hai…grag sir unhi logo mai se ek hai…bhaskar mai rahne na rahne se unki Personality koi fark nahi padne wala.
VAH BAHUT ACHCHHA INTERVIEW HAI.AB TAK BHASKAR KE FIRST PAGE PAR TIPPANI HEE PADATE THE AB SHRAWAN JI KEE VYATIGAT JINDAGI KE BAARE MEIN PATA CHALA.VERY INSPIRATIONAL
बहुत-बहुत धन्यवाद यशवंत जी.गर्ग साहब के साथ काम कर चुका व्यक्ति ही जान सकता है कि साक्षात्कार में कही गयी एक-एक बात सच्चाई से भरी है.कोई बात बनावटी नहीं है.खरी-खरी कहने का दुस्साहस रखने वाले हैं श्रवण जी.साक्षात्कार से नए लोग भी उन्हें जानेंगे और उनसे प्रेरणा प्राप्त करेंगे.पुनः धन्यवाद
bahut sunder ati sunder
garg jee,aapka ek pathak. aaj aapke bare padh kar achchha laga. yashvant ji ko thanks, aapko good luck. hamesha muskurate raho.
prernaspad hai interview tarkesh kumar ojha, kharagpur(west bengal) contact_ 09434453934
hur chij thik hai sir jee lekin garg sahab aap to dawa karte tejhi say badta samachan patra hai aap ka lekin JAMSHEDPUR SAY BHASKAR JO CHAPTA HAI USME 23 JAN KAY ANKE MAY AAP LOGO NAY “NETAJI -SUBHAS CHANDRA BOSE ”SAY SAMBANDHIT KOI ARTICALE NAHI PHOTO NAHI aap log KYA AYSA HI SAMMAN DETAY HAI SAHIDO KO,WAH AAP KA JABAB NAHI NAHI .
yashwantji. karmyogi gargshab ka interview jeevan darshan hai. naiuraja ka sanchar hua hai.app ko dhanyabad.
yashwantji, karmyaogi garg shaab ka interview ne nai rah dikhai hai. shaab ka taiyar kia kai patarkar ajj desh ka nai rah dikha raha hai.mp ki .patrakarita ko samradha kiya hai. kai nai logo ki pratibha ko paahchan kar unhe tarasha hai. ajj ve appni jimmedari bakhauvi niva raha hai.
shri garg g ka kahana sach hai ki abhi bhi press line me honesty hai lekin usaka % bohot kam hai . yaha large fish small fish ko nigal hi jati hai . aap kitana bhi prayas karo . aise me shri garg sir ka interview bohot aachha laga . mai mere father LATE SHRI CHANDRA PRAKASH TIWARI ke sath sir se indore me unake nawlakha wale ghar me mila tha wo bhi bohot darte darate kyoki sir ko GUSSA bohot aata hai . now i think that kabhi sir se mulakat hogi to bohot khushi higi. meri duww bhagawan se hai ki sir ki AGE 100 YEARS ho
Yeshvantji. GARG SIR ke vichar or unke bare me jankar achchha laga. sir ke tippani pada karta tha. Bhaskar AJMER me naya hun. naiuraja ka sanchar hua hai. NAYA ubhar rahe PATRAKAARON ka jivan SAFAR aasan karne ke liya bahut bahut DHANYAWAD. Santosh Gupta
I thank you Yashavantji for this interview. It gave an opportunity to know more about the Garg Sahab. I am one of those fortunates who had a chance to work under him at time of the launch of “Divya Bhaskar” in Gujarat. Garg Sahab has been my role model since than and always will be.
पेड न्यूज़ के बारे में सरासर झूठ बोल रहे हैं श्रवण जी. दैनिक भास्कर खुलेआम पैसे लेकर खबर छापता है, आज भी ढेरों कटिंग्स दिखाई जा सकती हैं. खासकर पिछले लोकसभा चुनाव में तो मैनेजमेंट के लोग पैसे के बदले खबर छापने के लिए नेताओं और अफसरों के घरों के चक्कर लगा रहें थे. कितनी आसानी से श्रवण जी कह गए कि बाद में जब यह मैनेजमेंट के संज्ञान में आया तो बंद हो गया. आज भी भास्कर वही सब कर रहा है और प्रबंधन अपने संपादकों से पत्रकारिता के बजाये दलाली और सांठ-गाँठ करने के अपेक्षा करता है. जिन लोगों को राहुल गांधी बेसिकली ईमानदार आदमी लगता हो, उनके चेहरे पर ईमानदारी दिखती हो वे कांग्रेस के चरित्र को भी छुपा गए जिसने भ्रष्टाचार को बाकायदा प्रोत्साहित किया और उसके बल पर कभी सरकारें बचाई तो कभी घोटाले किये. श्रवण जी हिंदी पत्रकारिता के सम्मानीय चेहरे नहीं बल्कि निहायत अवसरवादी चेहरे हैं जिन्होंने अपनी नौकरी और रुतबे के लिए प्रबंधन के हर अच्छे-बुरे फैसले का साथ दिया और कास्ट-कटिंग के दौर में सैकड़ों की नौकरी भी खायी.
Thanks a lot Yashvant Bhai for interviewing Shravanji. I have worked under him. He trained me and many journalists who are at present working at the senior positions in reputed organizations. He is a tough trainer. There are some political activists working as journalists; they may not like him, but that’s their choice.
I look into Bhadas4media occasionally. Many a time, I thought I wasted my time. But this time I did not repent my decision. I read the entire interview of Mr Shravan Garg. Being a journalist and while working in Madhya Pradesh I know Mr Shravan Garg for a long time but from the outside. I have met him on a few occasions only. Truly speaking, I didn’t know this much about him as to how he struggled hard in his life to get to the present position, before going through the interview. His life is really inspiring for journalists and others too. Wish him all the best.
the name of the book which is written jointly by shri shravan garg, shri anupam mishra and shri prabash joshi on the occasion of surrendring of dacoites is ” chambal ki banduke, gandhi ke charno me”, not chambal ke bangle as it is mention in interview.
प्रभाषजी, श्रवण जी और अनुपम जी ने जो पुस्तक मिलकर लिखी है उसका नाम चंबल की बंदूकें गांधी के चरणों में हैं..
Yashwantji ek shaandar sakchhatkar ke liye badhai. me garg sir ka bada fan hoon. unse life me kewal ek baar baat huyi, wo bhi kaam mangne ke silsile me. wo muze Indore se bahar jaane ka kah rahe the aur mera durbhagya ki me ja nahi paya. eska jivan bhar afsos rahega.
श्रवण जी ..अपने कभी सोअचा तो नहीं होगा की एसा भी दिन आयेगा की जिस कुर्सी को आप अपनी बपोती मानकर बेठे थे ओअर ना जाने कितने पत्रकारों के साथ खिलवाड़ करते थे वही से आप बे अबरू होकर निकले..मै एक पत्रकार के रूप में आपकी बड़ी कद्र करता हु..लेकिन आपने रमेश चंदर की भास्कर रूपी दुकान ज़माने की लिए कितने लोगो का अहित किया आपको दो याद भी नहीं होगा…लेकिन आप भूल गए के रमेश चंदर का अपना के इतिहाश रहा है की एसा कोई सगा नहीं जिसको हमने चका नहीं फिर बरी तो आपकी भी अणि थी..घर जाकर याद कीजयेगा की आप नो जवान पत्रकारों को भास्कर के नाम पर कितने परवचन देते थे..जब कोई बेह्चारा भास्कर को त्याग कर जाता तो आप उसके इस्तीफे को ध्यान से पड़ते भी नहीं थे ..
खेर बड़े बेआबरू होकर आप भी कुचे से निकले ..तो आपको भी पता चल गया क्या होता है दर्दे डिस्को
YASHVANT JI GARG SAHIB NE KAI BATEN FALSE KAHI HAIN. SEPTEMBER 2011 ME INKE CHELE DR. PRADIP BHATNAGAR (EK NIKRISHT AADMI) NE ALWAR (RAJASTHAN) KE YOGYA JOURNALISTS YASHVANT AGRVAL, PRADIP YADAV ARUNABH MISHRA AUR SURESH SHARMA KO RESIGN KE LIYE MAZBOOR KIYA TO ISKI GARG SAHIB SAHIT POORE MANAGEMENT KO COMPLAINT KI GAI. LEKIN INKA CHELA THA ISLIYE USE KOI PUNISHMENT NAHI DIYA GAYA.
श्रीमान गर्ग साहब ने साक्षात्कार में वही कहा जो उन्हें दुनिया को दिखाना था। वे इतने ही महान होते तो उनके पीड़ितों की संख्या कम होती जो कि नहीं है। किसी भी परपीड़क को दूसरे का दर्द समझ में नहीं आता केवल खुद की ही बात सही लगती है। अगर पुराने नाकारा लोगों को नईदुनिया से निकाला है तो उसकी तस्वीर अब तक बदल जानी चाहिए थी। श्रीमान गर्ग जी को लगता है कि दुनिया में वे ही सही हैं और काम करने वाले मातहत गलत हैं। उन्हें हर सुबह एक पंच बैग की जरूरत होती है। उनसे पूछना चाहिए कि इतने सालों में उनकी मर्जी का अखबार किस दिन पाठकों के सामने आया था। महानता पाने की चाहत बहुत लोगों में तब जाग जाती है जब वे महान लोगों के सानिध्य में कुछ समय बिता लेते हैं। जिन महान प्रभाष जी का जिक्र वे करते है क्या उन्होंने किसी भी दिन दैनिक भास्कर अथवा नईदुनिया में रहते हुए जनसत्ता नाम के अखबार के मुकाबिल कोई अंक निकाला था। जब आपको पूरा मौका मिला था तब तो किसी भी दिन पाठकों के लिए उजाला नहीं कर सके अब काहे का मलाल है। श्रीमान गर्ग जी ने अब तक ऐसा कोई काम नहीं किया है जिसे महानता की श्रेणी में रखा जा सके। स्व.राहुल जी, स्व.राजेन्द्र माथुर जी तथा स्व. प्रभाष जोशी जी ने जो किया है वह एक नजीर है जिसे हिंदी का हर पत्रकार अपने सिरहाने रखकर सोना चाहता है, इन श्रीमान इतने सालों में ऐसा क्या लिखा है। यशवंत जी आपने साक्षात्कार के बहाने उनकी विरुदावली ही गाई है, उनके असली चेहरे को तो आप भी छुपा गए।