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साहित्य

दो बड़े अखबारों के तार-तार होने की कथा

: मीडिया पर केंद्रित एक नई कहानी-  ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े‘ : भाग एक : बाज़ार, व्यवस्था और बेरोजगारी से संघर्ष कर रहे मीडिया के तमाम साथियों की कहानी : ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ मतलब थके हारे मीडियाजनों के पराजित मन के असंख्य टुकड़े। मीडिया की चकमक दुनिया में कैसे तो उस का मिशनरी भाव नेस्तनाबूद हुआ और कैसे तो बाज़ार और उस की मार में घायल हो कर एक अप्रत्याशित दलदल को वह न्यौछावर हो गया, यह कथा भर ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ में नहीं है।

: मीडिया पर केंद्रित एक नई कहानी-  ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े‘ : भाग एक : बाज़ार, व्यवस्था और बेरोजगारी से संघर्ष कर रहे मीडिया के तमाम साथियों की कहानी : ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ मतलब थके हारे मीडियाजनों के पराजित मन के असंख्य टुकड़े। मीडिया की चकमक दुनिया में कैसे तो उस का मिशनरी भाव नेस्तनाबूद हुआ और कैसे तो बाज़ार और उस की मार में घायल हो कर एक अप्रत्याशित दलदल को वह न्यौछावर हो गया, यह कथा भर ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ में नहीं है।

कैसे ऐतिहासिक महत्व के दो अख़बार व्यावसायीकरण के व्याकरण में तार-तार हो गए, इसकी भी कथा है। कथा है पूंजीपतियों और राजनीतिज्ञों की अवैध संतान बन चुके इन अख़बारों से जुड़े तमाम कर्मचारियों की यातना की जिन के घरों के चूल्हे देखते-देखते ठंडे हो गए। कथा है ट्रेड यूनियन के क्षरण और अख़बार मालिकानों के मनमानेपन की। कि कर्मचारी-कर्मचारी नहीं गाय, बैल, बकरी, भैंस की तरह इस हाथ से उस हाथ बिक जाते हैं और, निःशब्द रह जाते हैं। दुनिया भर की आवाज़ बनने वाले अख़बारों के कर्मचारी कैसे वायसलेस होते जाते हैं, होते जाते हैं अभिशप्त। और मनमोहन कमल सरीखे भड़ुओं का आकाश बड़ा, और बड़ा होता जाता है। उन की घास चमकती जाती है। भइया जैसे संपादक कैसे तो इस सिस्टम को भा जाते हैं और सूर्य प्रताप जैसे संघर्षशील पत्रकार आहिस्ता-आहिस्ता दलाली के भंवर में लिपट कर निसार हो जाते हैं। चौहान जैसे थके हारे जब गाना चाहते हैं, ‘हम होंगे कामयाब!’ तो उनकी हारमोनियम तोड़ दी जाती है। अख़बार मालिकान का गुंडा संपादक और उस के गुर्गे तोड़ देते हैं हारमोनियम। कर्मचारी सड़क पर आ जाते हैं, उन के घरों के चूल्हे ठंडे पड़ जाते हैं। लेकिन सब की आवाज़ उठाने वाले ये अख़बार वाले अपनी आवाज़ नहीं उठा पाते। वायसलेस हो जाते हैं। इस निस्तब्ध इबारत की ही आंच में पगे हैं हारमोनियम के हज़ार टुकडे। मीडियाजनों के पराजित मन के टुकड़े।


हारमोनियम के हजार टुकड़े

-दयानंद पांडेय-

: नया संपादक मुख्यमंत्री का सिफ़ारिशी था : शराब लोगों और परिवार को बरबाद कर देती है। ऐसे उस ने अनेक क़िस्से सुने और देखे थे। पर शराब किसी संस्था को, वर्षों पुरानी किसी कंपनी को, वर्षों पुराने दो अख़बारों को भी बरबाद कर देगी यह वह पहली बार घटित होते देख रहा था। लेकिन अब सुनील सिवाय अफ़सोस के कुछ कर नहीं सकता था।

अस्सी के दशक में जब वह इस के सहयोगी प्रकाशन और हिंदी अख़बार ‘आज़ाद भारत’ में काम करने लखनऊ आया था तब वह रोटरी मशीन पर छपता था। बृहस्पतिवार के दिन उसका वास्तविक सरकुलेशन पता चलता था जब संडे मैगज़ीन छपा करती थी। एक ही संस्करण की सवा लाख प्रतियां वह भी हिंदी में तब एक रिकार्ड था, आज भी है। तब जब कि कई बार उस अख़बार में छपी फ़ोटो रोटरी छपाई के चलते पहचान में नहीं आती थी। फ़ोटो के नीचे छपे कैप्शन से फ़ोटो समझ में आती थी। कंटेंट वाइज़ भी यह अख़बार बहुत सुदृढ़ नहीं था फिर भी इस का सर्कुलेशन बहुत सारे अच्छे अख़बारों को न सिर्फ़ पीछे छोड़ता था, दूर-दूर तक कोई उस के आस-पास भी नहीं दिखता था। तो इस के एक नहीं अनेक कारण थे। तब चल रही विभिन्न लाटरियों के रिज़ल्ट, ठेकों के टेंडर, लोकल सिनेमा के विज्ञापन सिर्फ़ इसी अख़बार में छपते थे। और इस अख़बार का शहर में सब से पुराना होने के नाते लोगों की आदत में शुमार हो जाना भी था।

एक दिन दफ्तर की कैंटीन में बातों-बातों में सुनील ने आजिज़ आ कर कह ही दिया कि, ‘इतना रद्दी अख़बार इतना ज़्यादा कैसे बिकता है भला समझ में नहीं आता!’ तो रमताराम कहे जाने वाले मिश्रा जी जो उन दिनों प्रादेशिक पृष्ठों के प्रभारी थे और शहर में होने वाले प्रवचन रिपोर्ट करते थे बोले, ‘तुम अभी तक यह भी नहीं जान पाए?’ वह पूछ ऐसे रहे थे गोया बहुत बड़े रहस्य से परदा उठाने जा रहे हों। वह छूटते ही बोला, ‘आप ही बताइए!’ सुनते ही उन्होंने उसे मुसकुरा कर घूरा और वहीं मेज़ पर पड़ा अख़बार उठाया। अख़बार का मास्टहेड दिखाया और आज़ाद तथा भारत के बीच शंख फूंकते श्री कृष्ण की फ़ोटो दिखाई और बोले, ‘यह बेचते हैं अख़बार, इनके नाते इतना ज़्यादा बिकता है अख़बार!’ और वह फिर मुसकुराने लगे। सुनील भनभना गया। बोला, ‘क्या बेवक़ूफ़ी की बात करते हैं?’

‘अब तुम मत मानो पर सच यही है।’ कह कर वह उठ गए थे।

ख़ैर, अख़बार चाहे जैसा था संपादक अच्छे थे और ख़ासे कड़ियल। किसी के आगे झुकते नहीं थे। प्रबंधन के आगे भी नहीं। उस समय संपादक नाम की संस्था थी भी। उस ने बहुतेरे संपादक देखे और भोगे थे पर ऐसा संपादक तो भूतो न भविष्यति। राजनीति, साहित्य, खेल, साइंस, कामर्स, ज्योतिष, सिनेमा यहां तक कि खगोलशास्त्र पर भी वह हमेशा अपडेट रहते थे। वह सुनता था कि घर में तो वह हमेशा पढ़ते ही रहते थे दफ्तर में भी दिन के समय वह पढ़ते ही मिलते थे। किसी भी विषय पर वह पूरी तैयारी के साथ बोलते या लिखते थे। ख़बर चाहे किसी अल्लाह मियां के खि़लाफ़ भी क्यों न हो वह रोकते नहीं थे। प्रबंधन और मालिकान के लाख दख़ल के बावजूद। यह शायद इसी नीति का नतीजा था कि एक बार पानी सिर से ऊपर निकल गया। और अख़बार मालिकान की एक चीनी मिल के खि़लाफ़ भी विधान परिषद के हवाले से एक ख़बर पहले पेज पर छप गई। संपादक उस दिन छुट्टी पर थे। रिपोर्टर नया था। उसे जानकारी ही नहीं थी कि उक्त चीनी मिल इसी व्यवसायी की है और डेस्क ने भी ख़बर देर रात पास कर दी। बावजूद इस सब के संपादक ने उस रिपोर्टर को नौकरी से निकाला नहीं। उसे रिपोर्टिंग से हटा कर डेस्क पर कर दिया। मालिकान को समझा दिया कि रिपोर्टर को निकालने से ख़बर और उछलेगी फिर आप की बदनामी ज़्यादा होगी। मालिकान मान गए थे। रिपोर्टर की आंख में भी पानी था। उस ने भी जल्दी ही दिल्ली के एक अख़बार में नौकरी ढूंढ कर इस्तीफ़ा दे दिया। इस अख़बार के तब का प्रबंधन और मालिकान भी अख़बार वालों के साथ सम्मान से पेश आते थे।

मालिकान भी तब संपादक से कहते थे, ‘अगर आपके पास समय हो तो बताइए हम मिलना चाहते हैं।’

और संपादक भी ऐसे कि अगर काम का समय हो तो मना कर देने का जिगरा रखने वाले थे।

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अख़बार की यूनियन भी तब कड़ियल थी। अगर प्रबंधन बारह परसेंट बोनस का ऐलान करता तो यूनियन की दो घंटे के काम बंद और ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद में ही बोनस चौदह परसेंट का ऐलान हो जाता। कर्मचारी भी अगर एक बार नौकरी में आ जाते तो अपने को सरकारी कर्मचारी मान बैठते। यहीं से रिटायर होना वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लेते। कहीं किसी के हितों पर प्रबंधन भी चोट नहीं करता। कहीं किसी के साथ किसी कारण कुछ होता भी था तो यूनियन चट्टान की तरह उस के साथ खड़ी हो जाती, प्रबंधन को झुकना पड़ता। उसे याद है कि चौहान नाम का एक चपरासी अकसर शराब के नशे में कुछ न कुछ बवाल कर देता और सस्पेंड हो जाता। यूनियन बीच बचाव करती। वह बहाल हो जाता। एक बार यूनियन के महामंत्री ने आजिज़ आ कर उस से कहा कि, ‘चौहान सुधर जाओ। ऐसे जो हर महीने तुम बवाल काट कर सस्पेंड होओगे तो हम तुम्हारा साथ नहीं दे पाएंगे।’

‘कैसे नहीं दे पाएंगे?’ चौहान भी अड़ गया और अपनी जेब से यूनियन के चंदे की रसीद दिखाते हुए बोला, ‘ई पांच रुपए की रसीद क्या मु़त में कटाइत है हर महीने?’

यूनियन के महामंत्री सहित बाक़ी सदस्य भी हंसने लगे।

वैसे ही यूनियन का एक ख़ास हिस्सा था लखन। लखन था तो अख़बार में पेस्टर। पर जब यूनियन का जलसा होता सालाना हो या कोई और, हड़ताल हो या कोई तात्कालिक मोर्चा! हर किसी मौके़ पर गले में हारमोनियम लटका कर जब वह माइक के सामने खड़ा होता तो क्रांति का जैसे बिगुल फूंक देता।

कोई ढोलक या नगाड़े की जो उसे संगत मिल जाती तो वह एक-एक को अपनी गायकी के ललकार में लपेट लेता। ख़ास कर एक शब्द जय हिंद! जय हिंद!! जय हिंद!!! को तीन तरह के उच्चारण में भर कर नारे में तब्दील करता हुआ नुक्कड़ गीत गाने वालों को मीटर और सुर दोनों देता तो बड़े-बड़े उस के क़ायल हो जाते। कई बार तो बाक़ी अख़बारों के यूनियन वाले भी उसे उस की हारमोनियम के साथ अपने मोर्चे में ले जाते। कभी-कभी यह भी होता कि शासन और प्रशासन से भी प्रेस वालों को अपनी बात मनवानी होती। तो नारे लगाते जुलूस निकाले जाते, मशाल जुलूस निकलते। प्रेस क्लब से जी.पी.ओ. तक का मार्च होता। लखन अपनी हारमोनियम लटकाए सब के साथ होता। कई मौक़ों पर गाना-बजाना नहीं भी होता तो भी लखन हारमोनियम लटकाए ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!’ गाने को सार्थक करता यहां वहां घूमता रहता।

ऐसे ही थे एक इदरीस मियां। पढ़े-लिखे कुछ ख़ास नहीं थे पर हर किसी मार्च में वह अपने अख़बार के मैनेजमेंट के खि़लाफ़ ही नारे लगाते रहते। भले ही वह मोर्चा या मार्च शासन या प्रशासन के खि़लाफ़ हो पर उन का नारा जैसे शाश्वत रहता, ‘मनेजर साहिब होश में आओ!’ और वह माइक पर गए बिना रहते भी नहीं थे। फ़र्क़ यही था कि लखन पी पा कर बेगानी शादी में अब्दुल्ला बना रहता और इदरीस मियां बिना पिए, बिना छुए। पर दोनों की लय, उल्लास और आकाश एक ही होता!

पर जैसा कि हमेशा होता है, समय करवट लेता है, ले रहा था। पत्रकारिता बदल रही थी, लोग बदल रहे थे, राजनीति बदल रही थी, मैनेजमेंट और उस का एप्रोच बदल रहा था सो यूनियन का मिज़ाज भी बदला और मालिकान की मन मर्ज़ी भी। मालिकानों की दूसरी पीढ़ी काम-काज संभाल रही थी। और जो उन के पिता संपादक से पूछा करते थे कि, ‘अगर आप को समय हो तो बताइए, हम मिलना चाहते हैं।’ वहीं उन के बच्चे अब संपादक से कहते, ‘ज़रा जल्दी आ जाइए हमें कुछ बात करनी है।’ और जो संपादक कहते कि, ‘अभी तो अख़बार के काम का समय है।’ तो मालिकान कहते, ‘फिर बाद में हमारे पास समय नहीं होगा। आप फ़ौरन आइए!’

मालिकान बदले, उन की मन मर्ज़ी शुरू हुई तो प्रबंधन का बदलना भी लाज़िमी था। अब जनरल मैनेजर संपादक से ख़बरों के बारे में टोका-टाकी करने लगे। अख़बार मालिकों की पहले की पीढ़ी अख़बार पढ़ती थी, उस पर बात करती थी। लेकिन यह पीढ़ी हिंदी ही नहीं पढ़ती थी। हिंदी अख़बारों को भी अंगरेज़ी अख़बारों का अनुवाद बनाना चाहती थी। अब वह संपादक से बात करने के बजाय अपने मैनेजर से हुक्म भेजने लगी। हस्तक्षेप बढ़ने लगा। यह ख़बर ऐसे छापिए, वह ख़बर मत छापिए। पर संपादक ने जनरल मैनेजर की बातों की साफ़ अनदेखी की। कहा कि, ‘लाला ने तो कभी ख़बरों के बारे में बात नहीं की, आप भी मत करिए।’ पर जनरल मैनेजर ने संपादक को चिट्ठी लिख कर बाक़ायदा स्पष्टीकरण मांगा। संपादक की समझ में आ गया कि सत्ताइस साल पुरानी नौकरी का आज आखि़री दिन आ गया। अप्रेंटिसशिप से इसी अख़बार में उन्हों ने पत्रकारिता की शुरुआत कर अपने काम, मेहनत और योग्यता के बल पर संपादक की कुर्सी तक वह पहुंचे थे। हिंदी-अंगरेज़ी दोनों अख़बारों की संपादकी संभाली। कोई लालच, कोई दबाव उन के आगे अब तक बेमानी था। वह कभी झुकते नहीं थे। सिद्धांतों, पत्रकारीय मूल्यों को ही वह सर्वस्व समझते थे। सो जनरल मैनेजर की यह चिट्ठी पाते ही उन्होंने हाथ से ही इस्तीफ़ा लिखा, चपरासी बुलाया और एम.डी. के पास भिजवा कर अपना सामान समेटने लगे। एम.डी. भाग कर संपादक के पास आए। पूछा, ‘ऐसा क्या हो गया जो आप ने आनन फ़ानन इस्तीफ़ा भेज दिया?’

‘आपके पिता जी ने भी कभी ख़बरों के बारे में मुझ से स्पष्टीकरण नहीं मांगा इतने सालों की नौकरी में और आज आप के जनरल मैनेजर की इतनी हिम्मत कि मुझ से स्पष्टीकरण मांगे?’ संपादक ने जोड़ा, ‘बिना आप की शह के तो वह ऐसा कर नहीं सकता! सो अब मैं यहां इस तरह काम नहीं कर सकता!’

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‘मुझे सचमुच इस बारे में जानकारी नहीं थी।’

‘चलिए अब तो हो गई।’

‘आप अपना इस्तीफ़ा वापस ले लीजिए। प्लीज़!’

‘इस्तीफ़ा तो मैं ने दे दिया!’

‘कोई वैकल्पिक व्यवस्था होने तक ही रुक जाइए!’

‘संभव नहीं है।’

‘कोई नया संपादक तो ढूंढ लेने दीजिए!’

‘मालिकों के इशारों पर कुत्तों की तरह दुम हिलाने वालों की कमी नहीं है। बहुत मिल जाएंगे।’

‘अच्छा अख़बार के भीतर ही कोई वैकल्पिक व्यवस्था बना जाइए ताकि काम चलता रहे। नया संपादक आने तक!’

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‘यह व्यवस्था आलरेडी है।’ संपादक बोले, ‘तब तक के लिए मुकुट जी को कार्यकारी संपादक बना लीजिए। वह आप को सूट भी करेंगे। दुम हिलाने में भी वह माहिर हैं।’

मुकुट जी थे तो आज़ादी की लड़ाई के समय के। कवि थे। पर वीर रस की कविता भी ऐसे पढ़ते थे कि करुण रस की कविता भी पानी मांग जाती। वह आज़ाद भारत अख़बार के शुरुआती दिनों से ही थे। सो वह अख़बार के आदि पुरुष कहे जाते थे। जाने कितने लोग आए और गए। पर वह अंगद के पांव की तरह जमे रहे तो जमे रहे। अब रिटायर थे। पर मानदेय पर काम कर रहे थे। उन के तीन सपने थे। अख़बार का संपादक होना। विधान परिषद में जाना और पदमश्री के खि़ताब से सम्मानित होना। तीनों ही से वह वंचित थे। जब कि सहयोगी प्रकाशन और अंगरेज़ी अख़बार के घोष साहब जो उन के साथ के ही थे यह तीनों सपने साध कर रिटायर हुए थे और मुकुट जी की तरह वह भी मानदेय पर अपनी सेवाएं जारी रखे थे। दोनों ही मालिकानों के क़रीबी। दोनों ही दुम हिलाने में एक्सपर्ट। फ़र्क़ बस इतना ही था कि एक हिंदी में हिलाता था दूसरा अंगरेज़ी में। उन दिनों अख़बारों में क्या था कि अस्सी परसेंट पत्रकार काम करने वाले होते थे और बीस परसेंट दलाली करने वाले। और यह अनुपात भी रिपोर्टरों के बीच का ही होता। डेस्क का कोई इक्का-दुक्का ही दलाल पत्रकार होता। तो यह दलाल पत्रकारिता के नाम पर अख़बार मालिकों से ले कर मंत्रियों, अधिकारियों, दारोग़ाओं तक के आगे जी हुज़ूरी और दुम हिलाने में एक्सपर्ट। हिंदी वाले ज़रा जल्दी एक्सपोज़ हो जाते थे, अंगरेज़ी वाले देर से। तो यहां घोष साहब भी पद्मश्री, संपादक और विधान परिषद भोग लेने के बावजूद एक्सपोज़ हो चुके थे और मुकुट जी इन में से कुछ भी न भोग पाने के बावजूद एक्सपोज़ थे। मुकुट जी कवि भी थे और पत्रकार भी। बल्कि कहें कि पत्रकारों में कवि और कवियों में पत्रकार। वस्तुतः दोनों ही वह नहीं थे। न कवि, न पत्रकार। संपादक कहते भी थे कि, ‘मुकुट जी ज़िला संवाददाता होने की भी योग्यता नहीं रखते लेकिन उन की क़िस्मत देखिए कि वह वर्षों से विशेष संवाददाता हैं और विधानसभा कवर करते हैं।’ और अब यही संपादक मुकुट जी को कार्यकारी संपादक बनाने की तजवीज़ एम.डी. से कर रहे थे और बता रहे थे कि, ‘वह आप को सूट भी करेंगे।’

मुकुट जी कार्यकारी संपादक हो गए। अख़बार तो अख़बार शहर में भी खलबली मच गई। संपादक को आफ़िस से जाते वक्त गेट पर दरबान ने रोक लिया और उन्हें उनकी किताबें या पर्सनल चीज़ें भी नहीं ले जाने दीं। यह सब एम.डी. के इशारे पर हुआ। पहले के दिनों में संपादक इस अख़बार से बाक़ायदा फ़ेयरवेल पार्टी ले कर माला पहन कर गए थे पर अब इसी अख़बार से एक संपादक अपमानित हो कर गया। और इस अपमान के विरोध में एक भी पत्रकार, एक भी कर्मचारी खड़ा नहीं हुआ।

अख़बार, प्रबंधन और समाज यहां तक कि यूनियन भी अब एक नए बदलाव में करवट ले रही थी।

यह कौन सी आहट थी?

ख़ैर, मुकुट जी ने ह़फ्ते भर में ही समझ लिया और लोगों ने भी कि संपादक होना मुकुट जी की क़िस्मत में भले रहा हो, उन के वश का यह सब है नहीं। दलाली करना, दुम हिलाना और बात है, अख़बार चलाना और बात! कोई संपादकीय सहयोगी उन के क़ाबू में नहीं आता। वह परेशान हो गए।

उनको लगा कि कहीं पुराना संपादक तो नहीं सब को भड़का कर अख़बार नष्ट करवाने पर तुला है? फिर इसी बीच कुछ अफ़वाह ऐसी भी आई कि कई लोग यह अख़बार छोड़ कर फ़लां-फ़लां अख़बार में जा रहे हैं। मुकुट जी के हाथ पांव फूल गए। उन्हों ने जनरल मैनेजर को यह बात बताई। जनरल मैनेजर ने सब के प्रमोशन की तरकीब बताई और कहा कि इस से सब के पैसे भी बढ़ जाएंगे, कैडर भी सो कोई कहीं नहीं जाएगा।

यह पहली बार हुआ अख़बार में कि ए टू ज़ेड सब का प्रमोशन एक साथ हो गया। पर इस शर्त के साथ कि अगर काम संतोषजनक नहीं हुआ तो यह प्रमोशन रद्द हो सकता है। कुछ नए अप्रेंटिस भी रखे गए। कहां अख़बार में एक डिप्टी न्यूज़ एडीटर था, अब चार-चार न्यूज़ एडीटर हो गए थे। सभी डट कर काम करने में लग गए। अख़बार का सर्कुलेशन मुकुट जी के कार्यकाल में और बढ़ गया। रोटरी की जगह आफसेट मशीन आ गई। लाइनो और मोनो कंपोजिंग की जगह अब कंप्यूटर ने ले ली। अब मुकुट जी की महत्वाकांक्षाएं पेंग मारने लगीं। वह फ्रंट पेज एडिटोरियल लिखना चाहते थे अपने हस्ताक्षर सहित। कार्यकारी संपादक की जगह पूर्ण कालिक संपादक बनना चाहते थे। पद्मश्री, विधान परिषद के लिए भी वह प्रयासरत थे। बाक़ी तो सब कुछ उनके हाथ में नहीं था पर फ्रंट पेज एडीटोरियल उन के हाथ में था। पर वह लिख नहीं पा रहे थे। सहयोगियों से वह सलाह लेते तो वह सब खेल जाते। उन को उत्तरी वियतनाम-दक्षिणी वियतनाम जैसे विषय सुझा देते जो उन को समझ में ही नहीं आते। पर एक दिन वह सुबह मीटिंग में आए तो बहुत प्रसन्न। बोले, ‘यार आज मज़ा आ गया।’ लोगों ने पूछा, ‘क्या हो गया?’

‘महादेवी वर्मा मर गई!’ मुकुट जी बोले।

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‘तो इस में मज़ा आने की क्या बात है?’ एक सहयोगी ने सन्न हो कर पूछा।

‘अरे फ्रंट पेज एडीटोरियल आज मैं लिखूंगा। और इस में किसी से मुझे कुछ पूछना भी नहीं पड़ेगा। इतना भी नहीं समझते?’ उन्होंने महादेवी संबंधी किताबें दिखाते हुए कहा कि, ‘देखो यह सब लाया हूं।’

‘ओह!’

लेकिन एक सहयोगी ने उन्हें फ़र्ज़ी फ़ोन कर दूरदर्शन बुला लिया कि, ‘महादेवी जी पर श्रद्धांजलि देने के लिए रिकार्डिंग है आ जाइए।’ अब मुकुट जी परेशान कि क्या करें? उसी सहयोगी ने सलाह दी कि ‘दूरदर्शन जाइए पहले। यहां का एडीटोरियल तो आप के हाथ में है, जब चाहिएगा, लिख लीजिएगा।’

वह जा कर दिन भर दूरदर्शन में बैठे रहे। शाम को पता किया कि, ‘आखि़र रिकार्डिंग कब होगी?’ दूरदर्शन वालों ने पूछा, ‘कैसी रिकार्डिंग?’

मुकुट जी बोले, ‘महादेवी पर! उन को श्रद्धांजलि देनी है।’

‘ऐसा तो कुछ नहीं है।’

वह भाग कर द़फ्तर आए। महादेवी पर एडीटोरियल लिखते-लिखते उन्हें रात के ग्यारह बज गए। डाक एडीशन छप रहा था। तय यह हुआ कि अब एडीटोरियल कल जाएगा। दूसरे दिन सारे अख़बारों में महादेवी पर एडीटोरियल छप चुका था सो फ्रंट पेज पर छपने का प्रश्न ही नहीं था। उन का यह सपना भी टूट गया। वह यह शिकायत ले कर जनरल मैनेजर के पास भी गए। बाद में और भी ऐसी छोटी-छोटी शिकायतें ले कर वह जाते रहे। जनरल मैनेजर उन की सारी शिकायतें एम.डी. को बताता रहा। एम.डी. समझ गया कि जो एडीटर अपना एडीटोरियल अख़बार में नहीं छपवा सकता वह बाक़ी काम भी भला कैसे करता होगा?

नए संपादक की तलाश शुरू हो गई।

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नया संपादक मुख्यमंत्री का सिफ़ारिशी था। मुख्यमंत्री ने उसे संपादक बनाने के लिए कई लाख रुपए विज्ञापन के मद में एडवांस सूचना विभाग से अख़बार को दिलवा दिए। मुख्यमंत्री कांग्रेसी था पर संपादक भाजपाई भेजा उस ने। जातीय गणित के तहत! लेकिन यह चर्चा भी जल्दी ही थम गई। नया संपादक रिपोर्टर से सीधे संपादक बना था। दलाली और लायज़निंग में बेहद एक्सपर्ट। अख़बार मालिक के कई छोटे बड़े काम उस ने करवाए। एम.डी., चेयरमैन सभी प्रसन्न। हालां कि अख़बार में फ़र्ज़ी और प्रायोजित ख़बरों की बाढ़ आ गई थी। एक प्रतिद्वंद्वी अख़बार में एक नया आया संपादक जो अपने अख़बार का लगभग सर्वेसर्वा बन कर आया था, हाकर स्ट्रेटजी में लग गया। सुबह-सुबह हाकरों को वह शराब बांटता, घड़ी, पंखा से लगायत मोटरसाइकिल तक इंसेंटिव में देता। और फिर भी जो हाकर नहीं मानता उस की कुटाई करवा देता। हाथ पैर तुड़वा देता। नतीजा सामने था, वह अख़बार आगे जा रहा था, बाक़ी पीछे। आज़ाद भारत तो बहुत ही पीछे। लाटरियां बंद हो गईं थीं सो उन के परिणाम भी कहां छपते? टेंडर नोटिस में भी आज़ाद भारत की मोनोपोली टूट चुकी थी। लोकल सिनेमा के विज्ञापन अब प्रतिद्वंद्वी अख़बारों में भी थे। प्रतिद्वंद्वी अख़बार का नया संपादक आज़ाद भारत का न सिर्फ़ सर्कुलेशन छीन रहा था बल्कि विज्ञापन भी छीन रहा था। अख़बारों में यह संपादक एक ऐसा सवेरा उगा रहा था जिस सवेरे में सूरज नहीं था। उजाला नहीं था, अंधेरा था। लगता था जैसे हर सुबह एक सूर्यग्रहण लग जाता था। अपने अख़बार के संपादकीय विभाग में भी उस की गुंडई तारी थी। वह जिस को चाहता गालियां देता, जिस को चाहता थप्पड़ मारता, जिस को चाहता लात मार देता। कभी चूतड़ पर तो कभी मुंह पर। और जो यह सब नहीं स्वीकार करता उस के पेट पर लात मार देता। जिस महिला सहयोगी को वह चाहता अपनी रखैल बना लेता। कहीं कोई चीत्कार या अस्वीकार नहीं। लोग उस को भइया कहते और वह सब की मइया…….करता!

अजब था।

अजब यह भी था कि कहीं किसी स्तर पर इस का प्रतिरोध नहीं था। न भीतर, न बाहर। भइया नाम के इस संपादक की गुंडई की चहुं ओर स्वीकृति पर सुनील जैसे कुछ लोग शर्मशार थे। पर बंद कमरों में। बाहर प्रतिरोध की हिम्मत उन में भी नहीं थी।

यह वही दिन थे जब अख़बारों में स्ट्रिंगर्स और संवाद सूत्र की फ़ौज खड़ी हो रही थी। पहले के दिनों में अख़बारों में अप्रेंटिस आते थे। साल छः महीने या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल में ट्रेनिंग पूरी कर वह उप संपादक या स्टाफ़ रिपोर्टर बन जाते। पर अब वह स्ट्रिंगर बन रहे थे, संवाद सूत्र बन रहे थे। भइया का पैर छू कर यह संवाद सूत्र और स्ट्रिंगर का छूत बाक़ी अख़बारों में भी पांव पसार रहा था। शोषण की एक नई नींव रखी जा रही थी, नई इबारत लिखी जा रही थी, एक नई चौहद्दी बनाई जा रही थी। जिस पर किसी यूनियन, किसी जर्नलिस्ट फ़ेडरेशन, किसी जर्नलिस्ट एसोसिएशन या किसी प्रेस काउंसिल को रत्ती भर भी ऐतराज़ नहीं था।

यह क्या था?

ख़ैर, इन्हीं दिनों आज़ाद भारत के सहयोगी प्रकाशन अंगरेज़ी अख़बार के सवा सौ साल पूरे हो रहे थे। सो तय हुआ कि यह एक सौ पचीसवीं जयंती समारोह पूर्वक मनाई जाए। अख़बार के दलाल संपादक ने वाया मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री से टाइम लेने की ज़िम्मेदारी ले ली। और यह लीजिए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने टाइम दे दिया। दिल्ली के विज्ञान भवन में समारोह पूर्वक अंगरेज़ी अख़बार की एक सौ पचीसवीं जयंती मनाई गई। अख़बार मालिक ने मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाया। प्रधानमंत्री से मेल मुलाक़ात का। दो केमिकल फै़क्ट्रियों का लाइसेंस ले लिया। फ़टाफ़ट। प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा में पत्रकारों की टीम में अपनी जगह फ़िक्स की। और उस विदेश यात्रा में भी दो फै़क्ट्रियों के लाइसेंस जुगाड़ लिए।

अब सवाल था कि इन फ़ैक्ट्रियों को लगाने की पूंजी कहां से आए? कभी देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर गिने जाने वाले इस व्यावसायिक मारवाड़ी परिवार ने जो अब शहर में भी पांचवें नंबर के पैसे वालों में नहीं रह गया था, इस अख़बार और इस की बिल्डिंग से ही लागत पूंजी निकालने की तरकीब निकाली।

आलम यह था कि बोफ़ोर्स की बाढ़ में राजीव गांधी की सरकार बह चुकी थी और मंडल कमंडल की आंच में वी.पी. सिंह सरकार ध्वस्त हो गई थी।

चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व में जीप वाली पार्टी कांग्रेस के ट्रक को खींच रही थी। फ़ैक्ट्रियों के लाइसेंस डूबते दिख रहे थे। अंततः कांग्रेस में एक खे़मा सक्रिय हुआ। और उन दिनों देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर उपस्थित एक उद्योग घराने ने दोनों अख़बार और अख़बार की नई बन रही बिल्डिंग को कांग्रेस के इशारे पर ख़रीद लिया। यह संयोग भी अजब था कि जो घराना इस अख़बार और कंपनी को बेच रहा था उस ने भी जब इस कंपनी और अख़बार को ख़रीदा था तब देश के औद्योगिक जगत में पांचवें नंबर पर था। और अब नया ख़रीददार भी उसी पायदान पर था। यह अख़बार और यह कंपनी अपने को चौथी बार बिकते पा रहे थे। कभी अंगरेज़ों का रहा यह अख़बार जिस में कभी चर्चिल जैसों ने काम किया था जो बाद में इंगलैंड के प्रधानमंत्री बने थे, अपने सौभाग्य पर एक बार फिर मुसकुरा रहा था। हालां कि तजु़र्बेकार आंखें इसे सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य मान रही थीं, इस अख़बार का। पर अभी होशियार टिप्पणीकार कुछ भी कहना जल्दबाज़ी बता रहे थे। गोया दिल्ली भी दूर थी और लंका भी!

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अभी तो उस व्यावसायिक घराने के प्रताप के चर्चे थे। काग़ज, शराब और अन्य तमाम मिलों के अलावा शिपिंग कंपनी भी इस घराने के पास थी। सो कितने पानी के जहाज़ हैं इस कंपनी के पास, इस के भी चर्चे थे। इस व्यावसायिक घराने का चेयरमैन पंजाबी था और कुंवारा था। जब कि पिछला घराना मारवाड़ी था। पिछले घराने का चेयरमैन बाल बच्चेदार था। कभी उस की भी तमाम काटन और चीनी मिलें थीं। पर नया चेयरमैन जल्दी ही फ़ेरा क़ानून में पकड़ा गया था, यह ख़बरें भी चलीं। और कि कैसे इस ने क़ानून को तब ख़रीद लिया था, यह चर्चा भी चली। राजीव गांधी सरकार में वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस उद्योगपति को राजीव के विरोध के बावजूद फ़ेरा का़नून में गिऱतार करवाया था। इस उद्योगपति ने जेल जाने से बचने के लिए तब पानी की तरह पैसा बहाया था। और जैसा कि प्रेमचंद कभी लिख गए थे कि न्याय लक्ष्मी की कठपुतली है, वह जैसे चाहती है वैसे ही यह उठती बैठती है, को सार्थक करते हुए यह उद्योगपति जेल जाते समय रास्ते में रुक कर ज़मानत पा गया था। हुआ यह कि सुप्रीम कोर्ट में लगभग सभी जस्टिसों का दरवाज़ा इस उद्योगपति ने खटखटाया। पर बढ़ते विवाद और वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सक्रियता को देखते हुए किसी जस्टिस की हिम्मत नहीं पड़ी कि इस उद्योगपति को ज़मानत दे कर इसे जेल जाने से बचा सके। पर क़िस्मत कहिए कि संयोग या कुछ और उसी दिन एक जस्टिस महोदय रिटायर हो गए थे। इस उद्योगपति के कारिंदों ने उन से संपर्क किया। वह रिटायर्ड जस्टिस रिस्क लेने को आनन-फ़ानन तैयार हो गए। बस दिक़्क़त यह भर थी कि उस दिन लंच के पहले उन्हों ने कार्य भार से मुक्ति ले ली थी। मामला फंसा कि रिलीव होने से पहले के टाइम में ही वह ज़मानत दे सकते थे। इस के लिए सुप्रीम कोर्ट की तमाम मशीनरी को साधना था। कारिंदों ने सुप्रीम कोर्ट की इस तमाम मशीनरी को पानी की तरह पैसा बहा कर क़दम-क़दम पर ख़रीद लिया। जस्टिस के रिलीव होने के पहले का टाइम दर्ज हुआ, ज़मानत दर्ज हुई। पर तब तक इस उद्योगपति को तिहाड़ जेल रवाना किया जा चुका था। तब मोबाइल का भी ज़माना नहीं था। तो भी सब कुछ मैनेज किया गया और बीच रास्ते ज़मानत का पेपर दिखा कर इस उद्योगपति को जेल जाने से इस के कारिंदों ने रोक लिया। और बाद में जनमोर्चा के दिनों में ‘पैग़ाम उन का/पता तुम्हारा/बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा’ जैसी कविता लिखने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह तब कसमसा कर रह गए थे। पर हाथ मलने के अलावा उन के पास और कोई चारा नहीं था।

और अब यही व्यावसायिक घराना आज़ाद भारत और उस के सहयोगी प्रकाशन अंगरेज़ी अख़बार और इस कंपनी का नया मालिक बन चुका था। कोई पचीस करोड़ के इस सौदे में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष टाइप नेता आगे-आगे थे जिन के लिए कहा जाता था कि न खाता न बही केसरी जो कहे वही सही! कांग्रेस का अपना अख़बार नेशनल हेरल्ड और नवजीवन बंद हो चुका था। अब उस को अपने अख़बार की ज़रूरत महसूस हो रही थी कि करवाई जा रही थी जो भी हो यह दोनों अख़बार अब कांग्रेस की जेब में थे। हर्र लगे न फिटकरी के तर्ज़ पर। हालां कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद जब कांग्रेस दुबारा सत्ता में लौटी थी तब इंदिरा गांधी से किसी पत्रकार ने नेशनल हेरल्ड और नवजीवन के बारे में पूछा तो उन्हों ने साफ़ कहा था कि, ‘अब जब सभी अख़बार हमारी बात ख़ुद कह रहे हैं तब हमें अपना अख़बार निकालने की ज़रूरत भी कहां है?’ पर नवंबर, 1990 में अयोध्या घटना में जब यू.पी. के लगभग सभी अख़बार हिंदुत्ववादी ख़बरों से लैस दिखे ख़ास कर हिंदी अख़बार तो कांग्रेस को इस की चिंता हुई या करवाई गई जो भी हो सो यह सौदा इसी आड़ में करवाया गया।

तो इस घराने ने यह दोनों अख़बार ख़रीदने के बाद दो लाख रुपए महीने का एक सी.ई.ओ. नियुक्त किया। यू.पी. के किसी अख़बार में तब इतने पैसे वाला मैनेजर एक नई और बड़ी घटना थी। आज़ाद भारत की यूनियन इस फ़ैसले पर भौंचक रह गई। कि क्या इतना पैसा अख़बार के पास है कि इतने मंहगे सी.ई.ओ. का बोझ उठा सके? ऐसे तो कंपनी दो दिन में डूब जाएगी और दोनों अख़बार बंद हो जाएंगे। पर बाद में मैनेजमेंट ने साफ़ किया कि इस सी.ई.ओ. को वेतन अख़बार वाली कंपनी नहीं देगी। उस व्यावसायिक घराने की मूल कंपनी देगी। तो मामला शांत हुआ।

बाद में अंगरेज़ी अख़बार के लिए एक नामी गिरामी, ईमानदार और अंगरेज़ी पत्रकारिता में एक शीर्ष नाम मेहता को एडीटर इन चीफ़ बनाया गया। साथ ही ऐलान हुआ कि मेहता दिल्ली में बैठेंगे और कि इस अंगरेज़ी अख़बार की लांचिंग दिल्ली से भी होगी जो बाद के दिनों में हुई भी। मेहता ने लचक गए अंगरेज़ी अख़बार में प्राण भी फूंके। मेहता हिंदी अख़बार के लिए भी हिंदी के एक शीर्ष और सुलझे पत्रकार को संपादक बना कर लाना चाहते थे पर तब तक पुराने भाजपाई संपादक ने अपने कांग्रेसी संपर्कों को खंगाला और केसरी को साध कर अपने को कांटिन्यू करवा लिया। पर बात ज़्यादा दिनों तक चली नहीं। लायज़निंग में सिद्धहस्त मनमोहन कमल ने बरास्ता केसरी ही अपनी नियुक्ति बतौर प्रधान संपादक करवा ली। मनमोहन कमल मूलतः बिहार के मुंगेर ज़िले के निवासी थे। दत्तक पुत्र थे बनारस के एक परिवार में। बनारस में ही उन की पढ़ाई लिखाई हुई थी। पढ़ाई के दौरान ही उन्हों ने वैश्य परिवार की एक लड़की से प्रेम किया। फिर प्रेम विवाह भी। यह अंतरजातीय विवाह था। मनमोहन कमल की पत्नी के परिवार से एक सज्जन कांग्रेस में थे जो बाद में राज्यपाल भी हुए। मनमोहन कमल ने इन राज्यपाल महोदय के संपर्कों को ले कर कांग्रेस में ढेर सारे संपर्क बनाए। एक हिंदी समाचार एजेंसी के संपादक और महाप्रबंधक बन गए। मनमोहन कमल ने इस समाचार एजेंसी में रहते हुए अपने संपर्कों को और प्रगाढ़ और सुदृढ़ किया। चौतरफ़ा! पर समाचार एजेंसी फिर भी बंद हो गई। फिर वह लखनऊ के एक सांध्य दैनिक के संपादक हो गए। सांध्य दैनिक का कलेवर और कंटेंट दोनों ही बहुत बढ़िया बनाया उन्होंने। अख़बार बहुत अच्छा निकलने के बावजूद बंद हो गया। दरअसल लखनऊ जैसे छोटे शहर में सांध्य दैनिक की बहुत ज़रूरत तब थी भी नहीं। अब वह दिल्ली में एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्रिका के संपादक हो गए। जल्दी ही यह पत्रिका अपना स्वरूप बदल कर साप्ताहिक अख़बार बन गई। यह अख़बार भी मनमोहन कमल ने बहुत अच्छा निकाला। कंटेंट, ले आऊट और तमाम मामलों में बहुत ही आगे हो गया अख़बार। पर कहते हैं कि मनमोहन कमल की औरतबाज़ी के फेर में बंद हो गया। जाने यह मसला गासिप था कि सच पर कहानी यह चली कि इस साप्ताहिक अख़बार में एक लड़की पर मनमोहन कमल रीझ गए। उसे खजुराहो कवर करने का एसाइनमेंट दिया। वह टालती रही और यह दबाव बनाते रहे। अंततः एक दिन इन्होंने दो एयर टिकट खजुराहो के मंगवा लिए और लड़की से कहा कि, ‘चलों मैं भी साथ चलता हूं। तुम्हारी मदद कर दूंगा।’ यह पत्रकार लड़की एक वरिष्ठ आई.ए.एस. की बेटी थी। उस ने अपने पिता को मनमोहन कमल की इस हरकत को बता दिया। वह वरिष्ठ आई.ए.एस. अफ़सर भड़क गया। सीधे अख़बार के मालिकों से बात की। मालिकान वैसे भी अपने हिंदी प्रकाशनों को अच्छी नज़र से नहीं देखते थे, यह अख़बार भी भारी घाटे में था। हिंदी का था ही। सो इस अख़बार को बंद करने का फ़ैसला अनान-फ़ानन हो गया। मनमोहन कमल फिर ख़ाली हो गए।

: भाजपाई संपादक छुट्टी पर चला गया : मनमोहन कमल भले हिंदी के पत्रकार थे पर रहते खूब ठाट-बाट से थे। बिलकुल किसी करोड़पति-अरबपति सेठ की तरह। हरदम सफ़ारी सूट में लकदक सेंट से गमकते हुए। गले में मोटी सी चेन, हाथों की अंगुलियों में अंगूठी। लहसुन, प्याज भले न खाते हों पर पीते स्काच ही थे। मंहगी घड़ी, मंहगी चेन, हीरे की अंगूठी और मंहगे कपड़ों में इत्र में गमकते हुए हिंदी पत्रकार तो क्या पत्रकार भी नहीं दिखते थे। किसी कारपोरेट सेक्टर के सी.ई.ओ. की तरह हमेशा चाक चौबंद! लेकिन महिला प्रेम के लिए भी उन की शोहरत कम नहीं थी। जब समाचार एजेंसी में थे तब भी अपनी पी.ए. से ले कर किसिम-किसिम की महिलाओं के लिए उन का अनुराग, उन की आसक्ति अख़बारी लोगों के बीच सुर्खि़यों में रहती। इस समाचार एजेंसी में उनके पूर्ववर्ती संपादक भी एक सिक्खड़ी पी.ए. पर आसक्त रहे थे। और जब वह यहां से विदा हुए तो भी उसे अपने साप्ताहिक अख़बार में भी ले गए थे। खै़र, मनमोहन कमल ने उन की परंपरा को और संवर्धित किया। और जब वह लखनऊ के सांध्य समाचार में थे तब भी उन के महिला प्रेम के क़िस्से तोता-मैना की कहानी की तरह फैले हुए थे। एक सूचनाधिकारी की पत्नी से उन के संबंधों की आंच अभी लोग ताप ही रहे थे कि लोगों ने उसी सूचनाधिकारी की बेटी से भी उन का नाम जोड़ दिया। वह उन के साथ काम भी कर रही थी। अभी यह सब चल ही रहा था कि एक बैडमिंटन खिलाड़ी के साथ भी यह प्रयासरत हो गए। वहां एक दो राजनीतिक और व्यवसायी पहले से ही लगे पड़े थे। कि तभी इन्हों ने एक मंत्री के खि़लाफ़ बिना नाम लिए उस महिला खिलाड़ी को परेशान करने की ख़बरें छापनी शुरू कर दीं। मंत्री आजिज़ आ गया। बुलाया मनमोहन कमल को अपने घर स्काच की दावत पर। स्काच पिलाई और फिर अख़बारी भाषा में कहें तो जैसा कि कहा जाता है, कमरा बंद कर के ख़ूब जूते भी खिलाए। मनमोहन कमल के एक मुंहलगे रिपोर्टर ने मामला विधान सभा में उठवाने की कोशिश की तो उस मंत्री ने उस रिपोर्टर को विधान सभा के गलियारे में ही दबोच लिया।

मनमोहन कमल के महिला प्रेम के ऐसे अनेक क़िस्से उनसे लिपटे पड़े थे गोया जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग, चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग! उन से उन की आसक्ति और बढ़ती जाती उन का कैरियर और उछाल पाता जाता। कोई उन का कुछ बिगाड़ नहीं पाता। क़िस्मत जैसे उन के लिए हमेशा उन की तरक्क़ी का दरवाज़ा खोले बैठे रहती। मनमोहन कमल की एक बड़ी ख़ासियत यह भी थी कि तमाम हिंदी पत्रकारों की तरह रूढ़ियों, दक़ियानूसी ख़यालों और अभावों में वह नहीं जीते थे। उन की समझ और सोच पर कहीं कोई सवाल नहीं था। भाषा जैसे उन की ग़ुलाम थी।

साहित्य और राजनीति में उनकी समझ और सूचनाएं हमेशा अद्यतन रहतीं। सुनील जैसे लोग मनमोहन कमल की तमाम ख़ामियों के बावजूद उनकी भाषा पर मोहित रहते। तो भी जाने क्यों लोग मानमोहन कमल के लिखे पर चर्चा करने के बजाय उन की महिलाओं और लायज़निंग की ही चर्चा करते। और सच यह भी था कि लगातार जो उन की क़िस्मत का दरवाज़ा खुला रहता तो उन की भाषा या समझ के बूते नहीं बल्कि उन की लायज़निंग में निपुणता के चलते ही खुला रहता।

और अब मेहता की नापसंदगी के बावजूद यही मनमोहन कमल आज़ाद भारत के प्रधान संपादक नियुक्त हो गए थे। बरास्ता केसरी। जिन के लिए तब कहा जाता था न खाता न बही, केसरी जो कहे वही सही। केसरी से एक बार पूछा गया कि ऐसा क्यों कहा जाता है आप के लिए? तो उन्हों ने बताया था कि चूंकि वह कोषाध्यक्ष हैं वर्षों से पार्टी के। सो चुनाव के समय उम्मीदावारों को पोस्टर, पैसा, गाड़ी वग़ैरह की ज़िम्मेदारी प्रकारांतर से उन पर ही रहती है।

तो पहले दौर में तो लगभग सभी उम्मीदवार पोस्टर, पर्चा, पैसा वग़ैरह ले जाते हैं। दूसरे दौर में कई उम्मीदवार यह सब मांगने नहीं आते हैं तो मैं समझ जाता हूं कि पट्ठा चुनाव क्लीयर कट जीत रहा है इस लिए इन सब झंझटों से वह छुट्टी पा कर चुनाव लड़ने में लगा है। उस के पास समय कहां है जो यह सब मांगने आए! दूसरे दौर में भी जो उम्मीदवार यह सब मांगने आता तो उस के मांगने का अंदाज़ भांप लेता हूं। कि कौन सेमीफ़ाइनल तक जाएगा और कौन फ़ाइनल तक। और फिर जो तीसरे दौर में भी पोस्टर पैसा मांगने आ जाता है तो मैं समझ जाता हूं कि यह पट्ठा फ़ुल फे़लियर है। कि इसकी ज़मानत बचनी मुश्किल है तो यह पोस्टर पैसे की माया में पड़ा है। इसी आकलन पर चुनाव परिणाम के पहले ही मैं अपना अनुमान घोषित कर देता हूं कि हमारी पार्टी फ़लां-फ़लां जगह से इतनी सीट ला रही है। जो अमूमन चुनाव परिणाम से मेल खा जाती है। सो मेरी बात सही हो जाती है। और लोग कह बैठते हैं कि न खाता न बही केसरी जो कहे वही सही!

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तो इन्हीं केसरी की कृपा से मनमोहन कमल आज़ाद भारत के प्रधान संपादक घोषित हो गए। पर वह लखनऊ आए तभी जब उन का ए.सी. चैम्बर बन कर पूरी तरह तैयार हो गया। अब यह अलग बात है कि उन की भाषा का मुरीद रहा सुनील भाजपाई संपादक से भिड़ कर पहले ही अख़बार से बाहर हो गया था। भाजपाई संपादक ने कंपनी के नए सी.ई.ओ. के सामने सुनील को अनुशासनहीनता का मुद्दा बना कर पेश किया। नए सी.ई.ओ. ने भी आनन फ़ानन में सुनील को नहीं निपटाया। निपटाया पर आहिस्ता-आहिस्ता। वह जानता था कि यहां यूनियन मज़बूत है, सीधे मोर्चा लेना ठीक नहीं है।

वह लोगों से ह्युमन मैनेजमेंट की बात करता और इतनी सरलता और सहजता से कि लोग उस की बातों में आ जाते। सो उस ने पहले दौर में सुनील के खि़लाफ़ विभागीय जांच करवाई। चार्जशीट दिया। फिर बाक़ायदा लेबर लॉ के जानकार एक वकील से एक इंक्वायरी करवाई। उसको दोषी साबित किया। फिर उस की बर्खास्तगी की चिट्ठी बनवाई। सुनील को बुलाया, बर्खास्तगी की चिट्ठी दिखाई और समझाया कि इस्तीफ़ा दे देने में ही उस की भलाई है।

सुनील ने बर्खास्तगी की चिट्ठी लेने और इस्तीफ़ा दोनों से इंकार कर दिया। सी.ई.ओ. जानता था कि यूनियन हस्तक्षेप करेगी। यूनियन ने किया भी। उसने यूनियन के नेताओं को दिल्ली बुलाया बातचीत के लिए। सुनील के ख़र्चे पर यूनियन के तीन लोग गए भी दिल्ली उस से बातचीत करने। उसने यूनियन को बधिया बनाते हुए सुनील से कहा कि सारा मामला भाजपाई संपादक के ईगो का है। मैं उस को ही निपटा रहा हूं। तब तक उस का तीन महीने के लिए कानपुर यूनिट में ट्रांसफर कर दिया जा रहा है। भाजपाई संपादक के जाते ही उसे वापस लखनऊ बुला लिया जाएगा। सब लोग ख़ुशी-ख़ुशी लौटे। पर लखनऊ आ कर जो चिट्ठी मिली सुनील को उस में उस की बर्खास्तगी को सिर्फ़ तीन महीने के लिए स्थगित किया गया था। और कहा गया था कि इस तीन महीने में उस का काम काज और व्यवहार वाच किया जाएगा। और जो रिपोर्ट संतोषजनक निकली तो वापस ले लिया जाएगा। वह चला गया कानपुर। चंद्रशेखर सरकार का पतन हो गया था। चुनाव घोषित हो गया था। कि राजीव गांधी की हत्या की ख़बर आ गई। चुनाव की तारीख़ें आगे बढ़ा दी गईं थीं। सुनील का ट्रांसफ़र भी दो महीने के लिए और एक्स्टेंड कर दिया गया। और अंततः उसे लखनऊ बुला कर बर्खास्तगी की चिट्ठी दे दी गई। इन पांच महीनों में सी.ई.ओ. ने यूनियन को बधिया बना दिया था। साम दाम दंड भेद उर्फ ह्यूमन मैनेजमेंट से।

चौहान चपरासी साफ़ कहता कि, ‘भइया सुनील हमारी यूनियन भी पत्रकार हो गई है!’

‘मतलब?’

‘अरे इतना भी नहीं समझते कि पत्रकार माने का होता है?’ और जैसे वह जोड़ता, ‘पत्रकार माने दलाल!’

और चौहान ही क्यों अब कोई भी अख़बार की यूनियन को दलाल कहने में परहेज़ नहीं कर रहा था। सी.ई.ओ. ने यूनियन के महामंत्री को सचमुच ख़रीद कर अपना कुत्ता बना लिया था। महामंत्री और अध्यक्ष को पहले का मैनेजमेंट भी बाक़ायदा हर महीने पैसे देता था। पर इस नए मैनेजमेंट ने एकमुश्त भारी रक़म दे दी थी। लोग कहते कि लाखों में। जो भी हो, जितना भी हो पर यूनियन के महामंत्री का नया घर बनने लगा था।

अख़बार में पहले बात-बात पर आंदोलन की धमकी दे कर चुटकी में मसले हल कर लेने वाला यह महामंत्री अब जो कोई समस्या आती तो आंदोलन की जगह बात की जाएगी की बात करता। और यह बात भी दिल्ली में सी.ई.ओ. से होती संबंधित पीड़ित के ख़र्चे पर। बातचीत में पीड़ित को बधिया बना कर दिल्ली से भेज दिया जाता। और वह पीड़ित फिर सारे अपमान, सारी यातनाएं भुगत लेता पर यूनियन के पास जाने से तौबा कर लेता।

सी.ई.ओ. के ह्यूमन मैनेजमेंट में कर्मचारी, पत्रकार, यूनियन सभी मैनेज हो गए थे।

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वैसे भी अख़बारों से ट्रेड यूनियन की विदाई के यह दिन थे।

अख़बारों में लायज़नर्स की चांदी के दिन भी अब उछाल पर थे। और जो पहले यह होता था कि अख़बारों में अस्सी परसेंट पत्रकार काम करने वाले होते थे और बीस परसेंट दलाली करने वाले, अब यह अनुपात भी बदल रहा था। अब अख़बारों में काम करने वालों का अनुपात बीस प्रतिशत पर आ गया था और दलालों का अनुपात अस्सी प्रतिशत पर। संपादक भी अब विद्वान नहीं चाहिए थे मैनेजमेंट को। पी.आर.ओ. या लायज़नर्स टाइप चाहिए थे।

मनमोहन कमल की ख़ासियत यह थी कि वह लायज़निंग में भी निपुण थे और संपादन में भी। एडीटोरियल टीम बनाने में भी उन का जवाब नहीं था। जैसे वह ख़ुद पढ़े लिखे भी थे और लायज़नर भी। तो अपनी टीम में भी दोनों तरह के लोग वह रखते ही रखते थे। यहां आज़ाद भारत में भी रखा। बल्कि यहां तो उन का एक शिष्य रिपोर्टर सूर्य प्रताप तो दो क़दम आगे निकल गया। सूर्य प्रताप के साथ भी यह दुर्लभ संयोग था कि वह कलम का भी धनी था और लायज़निंग का भी। पर उस के साथ एक बड़ी दिक्क़त यह थी कि वह कोई काम छुपा कर नहीं करता था। खुला खेल फर्रुख़ाबादी वाला मामला था उस का। जो काम मनमोहन कमल या उन जैसे लोग एक परदेदारी में करते थे, थोड़ी शालीनता और सोफ़िस्टिकेटेड ढंग से करते, डिप्लोमेटिक ढंग से करते यह सब सूर्य प्रताप को नहीं आता था। वह कहता कि आप मर रहे होते हैं और डॉक्टर के पास जाते हैं पर डॉक्टर बिना फ़ीस लिए आप को छूता भी नहीं है। वकील के पास न्याय की लड़ाई लड़ने जाते हैं बिना फ़ीस लिए एक क़दम भी वह नहीं चलता है। पूरी फ़ीस ले कर भी वह आप का केस जीत ही जाए, कोई गारंटी नहीं। डॉक्टर फ़ीस दवाई के पैसे ले कर भी आप की जान को बचा ले इस की कोई गारंटी नहीं। वहां आप फिर भी चुपचाप पैसा दे आते हैं। उ़फ़ भी नहीं करते। सरकारी दफ्तरों में अफ़सरों, बाबुओं को बात बेबात पैसा दे आते हैं, लेकिन आप हमारे पास आते हैं तो चाहते हैं कि बिना कुछ ख़र्च किए काम चल जाए। चलिए जो हम आप से कोई ख़बर लिखने का पैसा मांगें तो आप हम को दस जूता मारिए। पर आप चाहते हैं कि जहां लाखों का रेट खुला है, वहां आप का ट्रांसफ़र मु़त में करवा दें? करोड़ों का ठेका आप को मु़त दिलवा दें? क्यों भाई क्यों? वह कहता कि बताइए पचीस साल से ऊपर हो गया पत्रकारिता में कलम घसीटते पर खटारा स्कूटर पर चल रहे हैं। अरे कुचीपुड़ी या भरतनाट्यम डांस भी किए होते पांच साल तो राष्ट्रीय स्तर के डांसर हो गए होते। पर यहां क्या? भइया की पिछाड़ी धो रहे हैं। भइया मतलब शहर के नंबर वन अख़बार के संपादक। सूर्य प्रताप उन दिनों उसी अख़बार में शरण लिए बेहतरीन मौके़ की तलाश में था। मास कम्युनिकेशन की डिग्री से लैस सूर्य प्रताप ख़बरों के मामले में बड़ों-बड़ों के कान काटता था। पहले वह कविताएं लिखता था। अब कविताएं बंद थीं। पुराने मित्र पूछते कि, ‘सूर्य प्रताप जी अब कविताएं क्यों नहीं लिखते?’ सूर्य प्रताप कहता, ‘मेरी ख़बरें पढ़ते हो?’ लोग कहते कि, ‘हां।’ तो सूर्य प्रताप कहता कि, ‘अरे मूर्खों यह ख़बरें नहीं, मेरी कविताएं हैं। फिर से पढ़ कर बताना अगर कविता सी तकलीफ़ न हो मेरी ख़बरें पढ़ कर तो बताना!’ तो ख़बरों को कविता की सी मुहब्बत से लिखने वाला सूर्य प्रताप भी अभावों में जीते जीते कब लायज़निंग करने लगा यह उस को भी नहीं पता चला। हां, शुरुआत शराब से हुई यह उसे पता था। फिर कब रात हो गई यह वह नहीं जानता था। वह एक फ़िल्मी गाना गुनगुना कर प्रतीकों में ही बताता, ‘तूने काजल लगाया दिन में रात हो गई/छुप गए तारे नज़ारे ओये क्या बात हो गई।’ सूर्य प्रताप का यह रूपक, यह प्रतीक समझने वाले समझते। नहीं समझने वाले गाने का आनंद ले लेते। तो जिस दिन मनमोहन कमल की नियुक्ति आज़ाद भारत के प्रधान संपादक पद पर हुई, सूर्य प्रताप को तुरंत पता चल गई। सूर्य प्रताप को यह ख़बर मनमोहन कमल ने ही फ़ोन पर बताई। क्यों कि भइया से परेशान सूर्य प्रताप अकसर मनमोहन कमल को दिल्ली फ़ोन करता और कहता, ‘कमल जी कुछ कीजिए। अब यहां भइया को बर्दाश्त करना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है।’ सो उस दिन भी सूर्य प्रताप ने मनमोहन कमल को फ़ोन किया था। और मनमोहन कमल ने सूर्य प्रताप को आज़ाद भारत में अपनी नियुक्ति के बाबत बताया था। शाम का समय था। सूर्य प्रताप से रहा नहीं गया। ख़ुशी सेलीब्रेट करने की गरज से दो तीन पेग एक मित्र के साथ ले लिया। फिर अचानक जाने क्या हुआ कि उस ने स्कूटर स्टार्ट की और पहुंच गया आज़ाद भारत के दफ्तर। सीधे संपादकीय विभाग में पहुंचा। ब्यूरो के रिपोर्टरों से कहा, ‘अब आज से मैं यहां का ब्यूरो चीफ़ अब मुझे सलाम करो!’

‘क्या?’ दो तीन रिपोर्टर एक साथ अचकचा पड़े।

‘हां।’ सूर्य प्रताप बोला, ‘आज से भाजपाई राशन पानी बंद! यह संपादक गया। अब मनमोहन कमल तुम्हारे एडीटर इन चीफ और मैं ब्यूरो चीफ!’

सूर्य प्रताप चलते-चलते बोला, ‘सब मिल कर मुझे सलाम करो।’

बाद में वहां का ब्यूरो चीफ बोला, ‘ससुरे को चढ़ गई है। नादान है।’

पर भाजपाई संपादक के गुर्गों ने सूर्य प्रताप की बात में वज़न ढूंढ लिया था। जा कर संपादक को सूर्य प्रताप की बात और सूर्य प्रताप का तेवर बताया। यह भी बताया कि मनमोहन कमल एडीटर इन चीफ़ बन गए हैं। अपने गुर्गों की बात सुन कर भाजपाई संपादक का चेहरा तनाव में आ गया। हवाइयां उड़ने लगीं। धीरे से बोला, ‘हां केसरी जी के यहां इधर मनमोहन कमल आ जा तो रहे थे। फिर भी पता करता हूं।’

पता क्या करना था दूसरे दिन मनमोहन कमल के प्रधान संपादक बनने की सूचना नोटिस बोर्ड पर लग गई थी।

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भाजपाई संपादक छुट्टी पर चला गया। फिर वाया केसरी बहुत संपर्क साधा उस ने पर उस की दाल नहीं गली।

मनमोहन कमल का ए.सी. चैम्बर जब बन कर तैयार हो गया तभी वह आए। उन दिनों संपादक का ए.सी. चैम्बर बड़ी बात माना जाता था। आते ही मनमोहन कमल ने कुछ पढ़े लिखे पत्रकारों की नियुक्तियां कीं। कुछ लायज़नर्स पत्रकारों को भी अख़बार से जोड़ा। कुछ ऐसे लोगों को भी जोड़ा जो दोनों ही कलाओं में पारंगत थे। डिप्टी रेज़ीडेंट एडीटर मानवेंद्र शर्मा और ब्यूरो चीफ़ सूर्य प्रताप तथा कुमारेंद्र भदौरिया जैसे ऐसे ही लोगों में शुमार थे। मनमोहन कमल ने अपनी आदत के मुताबिक़ एक सुंदर सी स्टेनो भी नियुक्त की और कुछ सुंदर महिला पत्रकारों को भी। कुछ बेरोज़गार पर बेहतरीन पत्रकारों का शोषण करते हुए कम पैसों पर रखा। कुल मिला कर जैसे कोई प्राइम मिनिस्टर या कोई चीफ़ मिनिस्टर अपनी कैबिनेट क्षेत्रीय, जातीय तथा अन्य समीकरण बैलेंस कर के बनाता है, मनमोहन कमल ने भी यही किया। यही नहीं कि सिर्फ़ नए लोगों को ही अपनी कैबिनेट में रखा बल्कि कई पुरानों को भी इस में जोड़ा। नतीजा सामने था। अख़बार का रंग रूप निखर गया था। बिलकुल उस विज्ञापन के लहजे में जो कहें कि रूप निखर आया गुणकारी हल्दी और चंदन से! तो अख़बार कंटेंट और ले आऊट दोनों में ही बेहतर हो गया था। पृष्ठ संख्या भी बढ़ गई थी। कई अच्छे लिखने वाले जुड़ गए थे। और कि भाजपाई संपादक के ज़माने में जो फ़र्जी और प्रायोजित ख़बरों की बाढ़ आई हुई थी, अख़बार में, वह बाढ़ विदा हो गई थी। हां, अब चुनी हुई प्रायोजित ख़बरें ही छपती थीं और इस सलीक़े से कि दाल में नमक लगे। नमक में दाल नहीं। कुल मिला कर यह कि आज़ाद भारत अब अपने सहयोगी अंगरेज़ी अख़बार से किसी भी मामले में उन्नीस नहीं था। बराबरी पर आ गया था। अब बारी अन्य यूनिटों और ब्यूरो की थी। तो मनमोहन कमल ने अपनी पसंद के लोग वहां भी बिठाए। दिल्ली आफ़िस में भी बाक़ायदा ब्यूरो चीफ़ और फ़ीचर एडीटर रखे। दिल्ली में बैठ रही फ़ीचर एडीटर लखनऊ की ही थी, उन के साथ लखनऊ के संध्या दैनिक और दिल्ली के साप्ताहिक में काम कर चुकी थी और जो अब लगभग उन की हमसफ़र थी। सुंदर नयन नक्श, सलीक़ा और नफ़ासत। जीवन में भी, लिखने-पढ़ने में भी और बाक़ी काम काज में भी।

अब हो यह गया था कि लगभग हर यूनिट और ब्यूरो में किसी सुदर्शना का होना ज़रूरी था। कि जब कभी मनमोहन कमल वहां जाएं तो उन का सौंदर्यबोध तृप्त हो और उन्हें कामकाज में आसानी हो। लखनऊ में तो तमाम पुरुष साथी महिला साथियों की बढ़ती गति से लाचार हो कर कहते, ‘यार हम लोग भी अब आपरेशन करवा कर अपना जेंडर चेंज करवा लें, सफलता, प्रमोशन, पैसा तभी मिलेगा।’

जो भी हो आज़ाद भारत अख़बार में अब कहीं कोई कमी नहीं थी। बिलकुल पूर्णमासी का चांद था। भरापुरा। कि तभी वह जो कहते हैं न कि हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा!

तारा टूट गया।

लोग पहले ही से कहते थे कि मनमोहन कमल तो वो गिद्ध हैं जो जिस भी किसी की मुंडेर पर बैठा उस का देहावसान तय है। अख़बारों के बंद कराने का लांछन उन के आगे-आगे चलता था। लांछन पहले आता, वह बाद में आते।

दिल्ली में फ़ीचर एडीटर को ले कर सी.ई.ओ. और मनमोहन कमल में ठन गई। कहा जाता है का जो सहारा ले कर कहें तो सी.ई.ओ. की नज़र भी फ़ीचर एडीटर पर गई। पर फ़ीचर एडीटर ने सी.ई.ओ. को घास नहीं डाली। उलटे मनमोहन कमल को बता दिया। मनमोहन कमल ने सी.ई.ओ. के कुछ गड़े मुर्दे उखाड़े। उस की अनियमितताओं, वित्तीय घपलों की फ़ेहरिस्त तैयार की और सीधे चेयरमैन को दे दी। चेयरमैन सी.ई.ओ. और आज़ाद भारत के प्रधान संपादक के इस झगड़े से चिंतित हुए और ख़फ़ा भी। इतना कि लखनऊ में जब वह इस कंपनी के शेयर होल्डर्स की बैठक में पहली बार आए तो एयरपोर्ट से सीधे होटल पहुंचे जहां शेयर होल्डर्स की मीटिंग थी। मीटिंग की और होटल से सीधे एयरपोर्ट चले गए चेयरमैन। पर रास्ते में ही पड़ने वाले अपने अख़बार के दफ्तर की ओर झांका भी नहीं चेयरमैन ने। तब जब कि तमाम कर्मचारी पलक पांवड़े बिछाए खड़े रहे कि चेयरमैन आएंगे। पर बात वहीं ठहर गई कि वो आए भी नहीं और तमाशा भी न हुआ। लखन अपनी हारमोनियम साफ़ वाफ़ कर के तैयार था कि नहीं कुछ तो जय हिंद का नारा और एक मुर्दाबाद का गीत तो वह गा ही देगा। कि बता देगा कि बाहर से आ रहे लोगों को मोटी-मोटी तनख़्वाह दे कर उन का पेट फुला रहे हो। और पुराने लोगों के पेट की हवा निकाल रहे हो? ठीक-ठाक यूनियन को ‘पत्रकार’ बना दिए हो। आखि़र क्या चाहते हो। पर सुना था कि वो आएंगे अंजुमन में ये बात होगी वो बात होगी…..यहीं सुबह होगी यहीं रात होगी! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। और वो गा रहा था कि जो निकले थे घर से तो क्या जानते थे कि भरी धूप में यों बरसात होगी।

हां चेयरमैन के आने की धूम लखन की गायकी की बरसात में धुल गई थी। उस की हारमोनियम कैम्पस में अकेले बज रही थी।  बिना किसी गायकी के।

इतनी लाचार क्यों हो गई थी लखन की हारमोनियम?

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लाचारगी की इस तपन को हर कोई महसूस कर रहा था लेकिन कोई किसी से कुछ भी पूछ नहीं रहा था।

दुमबाज़ भी एयरपोर्ट से लौट आए थे। चेयरमैन को सी ऑफ़ कर के। एक मैनेजर को लखन के हारमोनियम की तान सुनाई पड़ गई। वह उस पर बरस पड़ा। फिर बहुत दिनों तक उस ने हारमोनियम नहीं बजाई। नहीं पहले मौक़ा बे मौक़ा कोई जलसा आंदोलन न भी हो तो भी वह यूनियन आफ़िस में जा कर कोई अवधी लोकगीत गा कर या जय हिंद को कई तरह उच्चार कर ही सही हारमोनियम के तारों का तनाव छांटने की कोशिश करता।

पर वह अपने इस तनाव का क्या करता?

उसका तनाव था कि उस की यूनियन ‘पत्रकार’ यानी दलाल क्यों हो गई है?

उसका सवाल जुनून बन कर भटकता रहता पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था।

पहला तारा टूट कर अंतरिक्ष में विलीन हो गया था।

लेकिन सी.ई.ओ. और मनमोहन कमल की जंग कोल्ड वार में कनवर्ट थी। फ़ीचर एडीटर का तबादला दिल्ली से लखनऊ हो गया था। शुरू में वह अपने रिटायर्ड सूचनाधिकारी पिता के साथ रही। पर वहां मनमोहन कमल को दिक्क़त होती थी। एक तो उस की मां वहां होती सो वह वहां सहज नहीं हो पाते। दूसरे, घर भी छोटा था और उन के सौंदर्य बोध के प्रतिकूल भी।

जल्दी ही वह अकेले दूसरे घर में रहने लगी।

लोग कहते मनमोहन कमल ने उससे विवाह कर लिया है। कोई कहता पहली पत्नी के जीवित रहते? कोई कहता वह तो उन की बेटी की उम्र की है। कोई कुछ कहता, कोई कुछ।

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लोग चाहे जो कहें पर जल्दी ही दोनों साथ रहने लगे। सरकारी घर में।

बात आई गई होते हुए भी आई गई नहीं हुई। छोटे शहर की सिफ़त ही कुछ ऐसी होती है। कैफ़ियत ही कुछ ऐसी होती है। तफ़सील ही कुछ ऐसी होती है। सारा खुलापन, सारी प्रगतिशीलता घास चरने चली जाती है। एक हिप्पोक्रेसी घर सा बना लेती है।

वो जो कहते हैं कि हर आदमी के भीतर दस बीस आदमी होते हैं। तो मनमोहन कमल के भीतर सौ-पचास आदमी रहते थे। पर नरेश कहता कि, ‘नहीं इसके भीतर हज़ार दो हज़ार आदमी रहते हैं।’ खै़र, वह अपने भीतर के किस आदमी को कब जगा बैठें और कब किस को सुला बैठें यह कोई नहीं जानता था। अब तो दफ्तर में कुछ सुदर्शनाएं भी दबी ज़बान ही सही मनमोहन कमल के लिए कहतीं, ‘ऐसा कोई सगा नहीं जिस को मैं ने ठगा नहीं।

मनमोहन कमल के भीतर के चार-पांच आदमी तो दफ्तर में ही साफ़ देखे जाते थे। चैंबर के भीतर का मनमोहन कमल निहायत शूड, झक्की, निर्दयी और तानाशाह होता। चैंबर के बाहर का मनमोहन कमल निहायत उदार, प्रजातांत्रिक और भाई चारे वाला होता मुसकुराता, इठलाता पानी की तरह छलछल बहता। चैंबर में भी एक मनमोहन कमल आगंतुकों से लचीला, सा़टली और शराफ़त पसंद होता। सहयोगियों से यही मनमोहन कमल उलट जाता। जल्लाद, सनकी और तनाशाह हो जाता। पुरुषों से और, स्त्रियों से और। स्त्रियां जब चैंबर में जातीं तो बाहर का लाल बल्ब जल जाता। जिस का मतलब होता कि कोई भीतर नहीं आए। चपरासी भी उस का सख़्त हो जाता। हरगिज़ किसी को जाने नहीं देता। स्त्री जब चैंबर से बाहर निकलती तो लोग उस के अस्त व्यस्त बाल देखते। उस के होठों के लिपिस्टिक लोग चेक करते कि फैल गई है, कि पुंछ गई है, कि वैसी ही है। साड़ी की सिलवटें देखते कि ज़्यादा तुड़ी-मुड़ी है कि वैसी ही है? प्लेटें वैसी ही हैं जैसी पहले थीं या बदल गई हैं। शलवार शमीज़ में भी लोग ब्यौरे बटोर ही लेते। मनोज जिस दिन ज़्यादा व्याकुल होता तो धीरे से गा ही देता, ‘ अंखियां बता रही हैं लूटी कहीं गई है!’

इसके उलट प्रतिद्वंद्वी अख़बार में भइया सब कुछ कर लेते। एक साथ दो-दो औरतों को गोद में बिठा लेते, खुले आम गालों में चिकोटी काट लेते। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, इधर-उधर दबा देते। किसी की हिम्मत नहीं पड़ती कि सांस भी ले ले, आंख उठा कर देख भी ले। पर मनमोहन कमल सब कुछ थे पर भइया की तरह गुंडे नहीं थे। मनमोहन कमल की गुंडई भी नफ़ासत वाली थी। कि बाबू जी धीरे चलना, बड़े धोखे हैं इस राह में वाले अंदाज़ में।

मनमोहन कमल के चैंबर में जाते समय वैसे भी आदमी जाते ही एक फ़ुट नीचे हो जाता था और वह मुसकुराते हुए आने वाला का नीचा हो जाना देखते। अपने ऊपर होना और अगले का नीचा होना उन्हें सुख भी देता और संतुष्टि भी। मनोज अकसर उन के चैंबर में जाने से बचता। उसे देखते ही मनमोहन कमल मुंह अजीब सा बनाते और कहते, ‘लहसुन खाना बंद करो या मेरे पास आना बंद करो। आते ही बास मारते हो!’ वह अपमानित हो कर रह जाता। एक कवियत्री जाती उन के चैंबर में तो वह उसे देखते ही ख़ुश हो जाते। पर वह उन का ठसका उतारते हुए कहती, ‘यह ए.सी. ज़रा बंद कीजिए। मुझे दिक्क़त होती है। ज़ुकाम हो जाता है।’

‘हां, हां। अभी बंद करता हूं।’ कह कर वह ए.सी. का रिमोट खोजने लगते।

घर में भी मनमोहन कमल बड़े सलीक़े से रहते थे। उन का सौंदर्य बोध साफ़ झलकता।

पूरे घर में बिछी कारपेट। छत पर मख़मली घास वाला लॉन। पीतल के गमलों में पौधे। सब कुछ बड़े सलीक़े से। एरोस्ट्रोक्रेटिक अंदाज़ में। अंदाज़ में ऐरिस्ट्रोक्रेसी, व्यवहार में डिप्लोमेसी, नफ़ासत भरी बातचीत मनमोहन कमल बड़ों-बड़ों को मोह लेते। कोई बात हो तो नौकर को आवाज़ देने के बजाय हाथ में रखा बज दबाते। नौकर घर में कहीं भी हो घंटी सुनते ही आ जाता उन के पास।

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एक बार उन की गाड़ी रास्ते में ख़राब हो गई। अब वह परेशान। घर वहां से एक फर्लांग की ही दूरी पर था। पर नफ़ासत और हिप्पोक्रेसी के मारे मनमोहन कमल पैदल कैसे जाएं भला? कॉलोनी के लोग क्या सोचेंगे? कि तभी प्रतिद्वंद्वी अख़बार के संपादक यानी भइया ने उन्हें देख लिया। भइया उन के ही अख़बार की एक महिला रिपोर्टर के साथ थे जो कभी पहले भइया के अख़बार में रिपोर्टर रही थी। भइया ने उन के पास जा कर अपनी गाड़ी रोकी। हालचाल पूछा। तो मनमोहन कमल ने बताया कि, ‘गाड़ी अचानक ख़राब हो गई है। आफ़िस फ़ोन कर दिया है ड्राइवर ने। कोई दूसरी कार आती ही होगी।’ भइया भी बनारस के थे। अपने बनारसी होने का वास्ता दिया और कहा कि, ‘आइए मेरी गाड़ी में बैठ जाइए। आप को आप के घर छोड़ देता हूं।’ नहीं-नहीं कहते-कहते मनमोहन कमल को भइया के दबाव में आना पड़ा। बैठ गए वह भइया की कार में जिसे भइया ख़ुद ड्राइव कर रहे थे। अब भइया ने जब उन को उन के घर छोड़ा तो कर्टसी में उन्हों ने भी अपने घर में तुरंत आमंत्रित कर लिया। नहीं-नहीं कहते हुए भइया भी उन के घर चले गए। भइया भी कोई भिखमंगों की तरह नहीं रहते थे अपने घर में। पूरी शानो शौकत और अय्याशी से रहते थे। पर मनमोहन कमल के घर की एरोस्ट्रोकेसी देख कर वह दंग रह गए। ख़ैर, मनमोहन कमल ने उन्हें अपने ड्राइंग रूम में बिठाया। घंटी बजाई। नौकर आया। उन्हों ने उसे कुछ इशारे से समझाया। स्काच की बोतल, गिलास, पानी, सोडा, बर्फ, स्नैक्स और भुने हुए काजू वग़ैरह सब कुछ सामने था। इधर-उधर की बातें हुईं ड्रिंक्स के दौरान। भइया ने बातें भी डट कर कीं और पिया भी छक कर। इतना कि पेशाब ज़ोर की लग आई। उन्हों ने बाथरूम जाने की इच्छा जताई। मनमोहन कमल ने घंटी बजाई। नौकर आया। भइया को बाथरूम ले गया। भइया बाथरूम में जा कर भी अचकचाए। रजनीगंधा के फूल और अगरबत्ती देख कर। सेंट की गमक ने उन्हें चौंकाया। भइया ने सोचा कि कहीं पूजा घर में तो वह ग़लती से नहीं आ गए? फिर उन्हों ने पॉट देखा तो समझ गए कि सही जगह आए हैं। और वो जो कहते हैं कि फिर छरछरा के मूत दिया। वापस ड्राइंग रूम में आ कर बैठ गए। मनमोहन कमल ने फिर घंटी बजाई। नौकर आया। उसे मनमोहन कमल ने कुछ इशारा किया। नौकर वापस जा कर बाथरूम में बाल्टी-बाल्टी पानी डाल कर धोना शुरू किया। ऐसे जैसे बाल्टियां छर-छर मूत रही हों। भइया को मनमोहन कमल की यह हरकत नागवार गुज़री। यह सब कुछ बड़ा अपमानजनक लगा उन्हें। वह मनमोहन कमल के घर से तब चुपचाप चल दिए थे। पर होली के दिन मानवेंद्र शर्मा के घर पर बैठ कर कुछ साथियों के साथ शराब पीते हुए उन्हों ने अपनी यह अपमानकथा बताते हुए मानवेंद्र से कहा कि, ‘मुझे फिर पेशाब लग गई है। ज़ोर की। चलो मनमोहन कमल के घर चलते हैं। आज उस के ड्राइंग रूम में ही छरछरा कर मूत दूंगा। सारी एरोस्ट्रोकेसी भूल जाएगा साला!’

मानवेंद्र ने हाथ जोड़ा भइया से। तो भइया बोले, ‘मेरे आने के बाद भी वह अपना बाथरूम धुलवा सकता था। यह तो मेरा अपमान था सरासर! तुम्हें क्या पता कि मैंने अपने आप को तब कैसे संभाला था? कैसे ज़ब्त किया था अपने आप को? आखि़र मैं भी संपादक हूं। अपनी कंपनी के डायरेक्टर बोर्ड में हूं। वह साला क्या है?’

…..जारी….

कहानी के अगले अंक में पढ़िए…  बढ़ती जा रही थीं भइया की अपमान कथाएं

लेखक दयानंद पांडेय पिछले 33 सालों से पत्रकारिता के पेशे में सक्रिय हैं। दयानंद अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिए चर्चित हैं। उनकी अब तक एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दो उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। गोरखपुर के गांव बैदौली के निवासी दयानंद को उनके दयानंद पांडेयउपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से ‘प्रेमचंद सम्मान’ और ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ कहानी संग्रह के लिए ‘यशपाल सम्मान’ मिल चुका है। ‘अपने-अपने युद्ध’ उनका अब तक सबसे चर्चित उपन्यास रहा है। अन्य उपन्यास हैं- ‘दरकते दरवाजे’, ‘जाने-अनजाने पुल’ और कहानी संग्रह हैं- ‘बर्फ में फंसी मछली’, ‘सुमि का स्पेस’, ‘सुंदर लड़कियों वाला शहर’, ‘बड़की दी का यक्ष-प्रश्न’। ‘सूरज का शिकारी’ बाल कहानी संग्रह है।  दयानंद से संपर्क इन माध्यमों से किया जा सकता है- फोन : 0522-2207728, मोबाइल : 09415130127 और 09335233424 मेल : [email protected] पोस्टल एड्रेस- दयानंद पांडेय, 5/7, डालीबाग, लखनऊ. दयानंद पांडेय की अन्य कहानियों व रचनाओं को पढ़ने के लिए क्लिक करें भड़ास पर दनपा

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0 Comments

  1. dhirendra prata singh

    September 18, 2010 at 3:25 pm

    ruchikar aur majedar hone ke sath patrakarita aur samaj ke badalte chehre ki sundar katha thanku panday ji———dhirendra pratap singh

  2. Rupesh

    September 18, 2010 at 5:12 pm

    Pioneer aur Swatantra Bharat ka achha khaaka kheencha aapne. Bas ek detail rah gaya. Ghanshyam Pankaj urf Manmohan Kamal apni table par ek revolver bhi rakha karte the.

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