महिला पत्रकार के साथ ममता के तथाकथित लोगों द्वारा रेप करने की बात पर पुण्य प्रसून वाजपेयी जी कुछ ज्यादा ही सेंटिमेंटल हो गये हैं। सत्ता का दमन तो उन्हें दिखाई दे रहा है लेकिन सैद्धांतिक रूप में पत्रकारिता की सीमा को निर्धारित करने से वह परहेज करते हुये दिखते रहे हैं। साथ ही यह स्वीकार कर रहे हैं कि व्यवहारिक तौर पर पत्रकारिता मीडिया हाउसों मालिकों की लौंडी हो चली है, और उसकी सारी अकुलाहट मीडिया मालिकों पर अपना प्यार न्योछावर करने के लिए है। छद्म रूप में ही सही पुण्य प्रसून वाजपेयी पत्रकारिता के जमीनी हकीकत को स्वीकार तो कर ही रहे हैं। एक सधे हुये कलमची की तरह वह लिखते हैं, ‘लेकिन यहां सवाल उस राजनीति की है, जो पहले संस्थानो को मुनाफे या धंधे के आधार पर बांटती है और उसके बाद उसमें काम करने वाला पत्रकार अपनी सारी क्रियटीविटी इसी में लगाना चाहता है कि वह भी संस्थान या मालिक से साथ खड़ा है।’
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जब जिसकी सत्ता तब तिसके अखबार
राजा का बाजा बजा : इधर ममता बनर्जी, सोमा को लेकर भाई लोग पिल पडे़ हैं। पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा। वास्तव में भड़ुआगिरी वाली पत्रकारिता की नींव इमरजेंसी में ही पड़ गई थी। बहुत कम कुलदीप नैय्यर तब खड़े हो पाए थे। पर सोचिए कि अगर रामनाथ गोयनका न चाहते तो कुलदीप नैय्यर क्या कर लेते? स्पष्ट है कि अगर अखबार या चैनल मालिक न चाहे तो सारी अभिव्यक्ति और उसके खतरे किसी पटवारी के खसरे खतौनी में बिला जाते हैं। जब जनता पार्टी की सरकार आई तो तबके सूचना प्रसारण मंत्री आडवाणी ने बयान दिया था कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में पत्रकारों से बैठने को कहा, पर वह तो लेट गए! पर दिक्कत यह थी कि जनता पार्टी सरकार भी पत्रकारों को लिटाने से बाज़ नहीं आई।
खुलकर विरोध क्यों नहीं करते पत्रकार?
[caption id="attachment_16040" align="alignleft"]जॉयदीप दासगुप्ता[/caption]‘आकाश बांग्ला’ न्यूज चैनल की जिस पोलिटिकल करेस्पांडेंट कोमोलिका को ममता बनर्जी की प्रेस कांफ्रेंस में घुसने से रोक दिया था, उनके पति हैं जॉयदीप दासगुप्ता। टेलीग्राफ और स्टेटसमैन में काम कर चुके जॉयदीप इन दिनों जी न्यूज के कोलकाता के ब्यूरो चीफ हैं। कोमोलिका और जॉयदीप, दोनों इससे पूर्व सहारा के न्यूज चैनलों के लिए उसके कोलकाता ब्यूरो में कार्यरत थे। पत्रकारिता को अपना ईमान-धर्म मानने वाले कोमोलिका और जॉयदीप को कभी सपने में भी अंदाजा नहीं था कि उनमें से किसी के साथ कभी ऐसा हादसा होगा कि उन्हें किसी प्रेस कांफ्रेंस में घुसने से रोक दिया जाएगा। इससे ज्यादा दुख इन्हें इस बात का है कि लोग उन्हें फोन करके घटना पर क्षोभ तो व्यक्त कर रहे हैं पर कोई खुलकर विरोध करने के लिए सामने नहीं आ रहा। कोमोलिका के साथ जो बर्ताव हुआ है, उस पर जॉयदीप अपने मन की बात कहना चाहते हैं…
जो बोया वही काटेंगे
बंगाल की टीवी रिपोर्टर शोभा दास के खिलाफ केस, चंडीगढ़ में प्रेस से जुड़े लोगों को कमरे में बंद किए जाना… ऐसी खबरें अब आम हो गई हैं। महानगरों में रहने वाले, बड़ी-बड़ी तनख्वाह पाने वाले, ऊंचे नाम वाले पत्रकारों को कोई अचरज इन ख़बरों से हो तो हो, हमें तो नहीं है। हो भी क्यूं, जो बोया वही तो काट रहें हैं। वर्तमान में अखबार अखबार नहीं रहा, एक प्रोडक्ट हो गया, और पाठक एक ग्राहक। हर तीस चालीस किलोमीटर पर अखबार में ख़बर बदल जाती है। ग्राहक में तब्दील हो चुके पाठक को लुभाने के लिए नित नई स्कीम चलाई जाती है। पाठक जो चाहता है, वह अख़बार मालिक दे नहीं सकता, क्योंकि वह भी तो व्यापारी हो गया। इसलिए उसको ग्राहक में बदलना पड़ा। ग्राहक को तो स्कीम देकर खुश किया जा सकता है, पाठक को नहीं।
बस पत्रकार रहिये और एकजुट होइये
सवाल पत्रकारिता और पत्रकार का था और प्रतिक्रिया में मीडिया संस्थानों पर बात होने लगी। आलोक नंदन जी, आपसे यही आग्रह है कि एक बार पत्रकार हो जाइये तो समझ जायेंगे कि खबरों को पकड़ने की कुलबुलाहट क्या होती है? सवाल ममता बनर्जी का नहीं है। सवाल है उस सत्ता का जिसे ममता चुनौती दे भी रही है और खुद भी उसी सत्ता सरीखा व्यवहार करने लगी हैं। यहां ममता के बदले कोई और होता तो भी किसी पत्रकार के लिये फर्क नहीं पड़ता। और जहां तक रेप शब्द में आपको फिल्मी तत्व दिख रहा है तो यह आपका मानसिक दिवालियापन है। आपको एक बार शोमा और कोमलिका से बात करनी चाहिये……कि हकीकत में और क्या क्या कहा गया…और उन पर भरोसा करना तो सीखना ही होगा। जहां तक व्यक्तिगत सीमा का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार के लिये कोई खबर पकड़ने में कोई सीमा होती है। यहां महिला-पुरुष का अंतर भी नहीं करना चाहिये …पत्रकार पत्रकार होता है।
घाघ पत्रकारों और लालची मालिकों से बचाइए
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ममता बनर्जी से जुड़े शोमा और कोमलिका प्रकरण पर जो मुख्य सवाल उठाया है, वह यही है कि पत्रकारिता कैसे की जाये? यह सवाल आज के समय में बहुत महत्त्वपूर्ण है और खासकर उन लोगों के लिए जो पत्रकारिता में नए आए हैं, इसके उसूलों और सिद्धांतों के लिए इसे अपना पेशा बनाया है। पुराने और मंजे हुए लोग जान गए हैं कि मीडिया की आजादी जितनी समझी जाती और दिखाई देती है, उतनी दरअसल है नहीं। लेकिन इस पेशे में नए आने वालों को इसका अंदाजा नहीं है। इसीलिए वे गच्चा खा जाते हैं। उन्हें इसका जवाब दिया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी के पास इसके जवाब नहीं है – हैं, और खूब हैं, पर वे इससे बचना चाह रहे हैं। इतने गंभीर मुद्दे से बचने की उनकी इसी कोशिश ने विमल पांडे को विरोध ब्लॉग पर यह लिखने के लिए मजबूर किया होगा कि…
पत्रकारिता कैसे की जाये?
शोमा दास की उम्र सिर्फ 25 साल की है। पत्रकारिता का पहला पाठ ही कुछ ऐसा पढ़ने को मिला कि हत्या करने का आरोप उसके खिलाफ दर्ज हो गया। हत्या करने का आरोप जिस शख्स ने लगाया संयोग से उसी के तेवरों को देखकर और उसी के आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों को देखकर ही शोमा ने पत्रकारिता में आने की सोची। या कहें न्यूज चैनल में बतौर रिपोर्टर बनकर कुछ नायाब पत्रकारिता की सोच शोमा ने पाल रखी थी।
ममता बनर्जी के रवैए से टीवी जर्नलिस्ट सदमे में
कोलकाता में रेलवे मंत्री ममता बनर्जी ने जो किया उससे पश्चिम बंगाल समेत देश भर के पत्रकार दुखी हैं। खासकर महिला पत्रकार स्तब्ध हैं। कोलकाता के एक स्थानीय बांग्ला न्यूज चैनल ’24 घंटे’ की एक महिला रिपोर्टर पर ममता बनर्जी ने जान से मारने के लिए पीछा करने का आरोप लगाया। इसको लेकर मीडिया में खबरें भी आ रही हैं। ममता का कहना है कि उनका पीछा प्रेस लिखी एक कार कर रही थी। ममता की शिकायत के बाद पुलिस ने प्रेस लिखी कार को घेर लिया और महिला रिपोर्टर, कैमरामैन व ड्राइवर को कई घंटे हिरासत में रखकर पूछताछ की। यह सब बीती रात 12 बजे के करीब हुआ। हालांकि रात में कई घंटे तक हुई पूछताछ के बाद पुलिस ने महिला रिपोर्टर समेत सभी को छोड़ दिया है पर कोलकाता के पत्रकार ममता और पुलिस के रवैए से बेहद नाराज हैं। पत्रकारों का आरोप है कि ममता ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए ऐसा किया है। यह गलत तरीका है।