23 साल बाद वरिष्ठ पत्रकार एएल प्रजापति करेंगे वापसी

: संजय कुमार सिंह के बाद एक और जनसत्ताई नया इंडिया से जुड़े : अजीत द्विवेदी के कार्यकारी संपादक बनाए जाने की चर्चा : नई दिल्ली । वरिष्ठ पत्रकार एएल प्रजापति ने 23 साल बाद एक बार फिर हिंदी दैनिक में वापसी की है। इस बार उन्होंने अपनी पारी प्रख्यात पत्रकार हरिशंकर व्यास के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित होने जा रहे हिंदी दैनिक नया इंडिया से शुरू की है।

यशवंतजी, हमें जरा राहुल कुमार की बहादुरी भी देखने दीजिए!

संजय कुमार सिंहयशवंतजी, पत्रकार राहुल कुमार का प्रकरण मुझे याद है। अभी मैं इस चर्चा में नहीं पड़ रहा हूं कि पुलिस को उसके खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए कि नहीं या कार्रवाई सही है अथवा गलत। मुझे लग रहा है कि इस मामले से खुद को जोड़कर आप भी उसी भावुकता का परिचय दे रहे हैं, जो राहुल ने दिया था।

आईएनएस वालों व संदीप गुप्त, कान में तेल आंख में ड्राप डालें फिर इसे पढ़ें

संजय कुमार सिंह: ताकि ठीक से सुनाई-दिखाई पड़े और ठीक से समझ आए : ((जवाब- पार्ट एक)) : मोतियाबिन्द के लिए यह इलाज ठीक है क्या? : वेज बोर्ड की सिफारिशों से तिलमिलाए अखबार मालिकों ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ रखा है और भ्रम फैलाने वाली सूचनाएं प्रकाशित-प्रसारित कर रहे हैं।

मैं तो इसे नए लोगों को बेवकूफ बनाने की चाल ही कहूंगा

[caption id="attachment_20404" align="alignleft" width="122"]संजय कुमार सिंहसंजय कुमार सिंह[/caption]: ”पत्रकार बनने के लिए पत्रकारिता की डिग्री जरूरी नहीं” पर प्रतिक्रिया :  नए लोगों को बेवकूफ बनाने की चाल है। हिन्दी पत्रकारिता में कैरियर औसतन 45 साल का है – सब एडिटर के बाद सीनियर सब और चीफ सब तक। एक न्यूज एडिटर के तहत 30-40 उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक और मुख्य उपसंपादक रह सकते हैं। ऐसे में चीफ सब बनने के बाद प्रमोशन होगा नहीं तो आदमी कुंठित होगा।

यह रहा मेरी संपत्ति का नहीं, स्रोत का खुलासा

संजय सिंहजनसत्ता की नौकरी छोड़े नौ साल पूरे हो गए। 5 मई 2002 को 38 साल की उम्र में वीआरएस लिया था तो ये नहीं सोचा था कि बगैर नौकरी के नौ साल इतनी आसानी से कट जाएंगे। पर अनुवाद का धंधा मैंने सही समय पर शुरू किया और इसने पूरा साथ दिया है। दुनिया भर में चली मंदी का असर इस धंधे पर और इसके साथ मुझ पर भी हुआ और इसीलिए बीता साल कैसा रहा, लिखते हुए हालांकि मैंने स्थिति का बयान किया था पर कुछ लोगों ने उसमें निराशा का भाव देखा और चिन्ता भी जताई।

‘हवाला के देशद्रोही’ में भूषण पिता-पुत्र के कारनामे

[caption id="attachment_20224" align="alignleft" width="113"]संजय कुमार सिंह संजय सिंह[/caption]: हमने जो समाज बनाया है, यह उसी की अदा है : डॉ. नूतन ठाकुर के लेख, “भूषण पिता-पुत्र पर चुप क्यों हैं सिविल सोसाइटी के लोग” के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि उनके सवाल का जवाब हरीश साल्वे ने उसी टीवी कार्यक्रम में दे दिया था,  जिसमें पत्रकार विनीत नारायण ने भूषण पिता-पुत्र पर गंभीर आरोप लगाए थे और जिसकी चर्चा नूतन जी ने की है। हरीश साल्वे ने जो कहा उससे मैं भी सहमत हूं।

”किसी ने कह दिया, लिखने वाले ने लिख दिया और वही छप भी गया”

: भड़ास में छपे दो भड़ास पर मेरी भड़ास : दिल्ली में स्ट्रिंगरों की मनमानी और चैनलों की मजबूरी परस्पर विरोधी बातें हैं : भड़ास पर प्रकाशित एक लेख का ‘संपादन’ तो मैंने कर दिया। एक और कॉपी का संपादन ठीक से नहीं हुआ है। मेरी राय में यह खबर तो लगाने लायक ही नहीं थी इसलिए मैंने इसकी खामियां साफ-साफ बताते हुए ये कमेंट लिखा है पर एक अन्य खबर, खोजी पत्रकारिता के अभाव में घटी मीडिया की विश्वसनीयता – का संपादन नहीं हुआ है।

जूती चमकाने वाले का एक पद होना चाहिए

संजय कुमार सिंह: जैसे उप राष्ट्रपति के जूते संभालने वाला वह शख्स लाल बत्तियों में घूम रहा था, मेरे साथ : नेताओं के जूते झाड़ने वालों पर प्रतिक्रिया – एक ये और एक वो : मायावती की जूती साफ करने वाले पुलिस अधिकारी की खबर पढ़कर मुझे 1988-89 का एक मामला याद आ गया।

ऊंचे पद की नौकरी चाहिए तो बायोडाटा अलग ढंग से लिखना होगा

संजय कुमार सिंह: पुराना साल – नया साल : संजय कुमार सिंह की नजर में…. पहले मुझे काम करने वाले नहीं मिलते थे पर अब अपने करने भर काम भी नहीं है : नौकरी खोजने, घर में होम थिएटर लगाने और एक वेबसाइट बनाने की इच्छा : अनुवाद, अनुवादक और अब अनूदित का उपयोग : मेरे लिए बीता साल इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इस साल एक ज्ञान हुआ और मुझे सबसे ज्यादा खुशी इसी से हुई। अभी तक मैं मानता था कि जितना खर्च हो उतना कमाया जा सकता है। 1987 में नौकरी शुरू करने के बाद से इसी फार्मूले पर चल रहा था। खर्च पहले करता था कमाने की बाद में सोचता था। संयोग से गाड़ी ठीक-ठाक चलती रही।

रेलवे की कार्यकुशलता और निकम्मापन एक साथ!

संजय कुमार सिंहजमशेदपुर (टाटानगर) से दिल्ली आने के लिए भुवनेश्वर से दिल्ली आने वाली राजधानी एक्सप्रेस (2443ए) में मेरा कंफर्म आरक्षण था। शाम करीब चार बजे टाटानगर पहुंचने वाली ट्रेन के बारे में सुबह से ही पता करता रहा था और हमेशा यही बताया जाता रहा कि ट्रेन समय से चल रही थी। स्टेशन पहुंचा तो भी यही घोषणा सुनाई पड़ी लेकिन प्लैटफॉर्म की घोषणा होने से पहले यह एलान सुनाई पड़ा कि भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी आज टाटानगर नहीं आएगी।

खेल नहीं है विवाह पूर्व शारीरिक संबंध

संजय कुमार सिंहनिरूपमा हत्याकांड ने नया मोड़  ले लिया है और इससे साबित  हो गया है कि स्वच्छंद जीवन की वकालत करने वाले लोग फंस सकते हैं। शुरू में खबर यह थी कि ब्राह्मण परिवार की निरूपमा कथित नीची जाति के युवक से प्रेम करती थी और उसी से विवाह करना चाहती थी जो उसके परिवार वालों को मंजूर नहीं था और इसलिए उसकी हत्या कर दी गई। हत्या के मामले में पुलिस ने निरूपमा की मां को गिरफ्तार भी कर लिया पर अब निरूपमा की मां की शिकायत पर उसके प्रेमी प्रियभांशु रंजन से पूछताछ हो रही है और कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर उसे गिरफ्तार कर आगे की कार्रवाई के लिए कोडरमा /  तिलैया ले जाया जाए। वयस्क युवक युवती को किसी से भी प्रेम करने और किसी के भी साथ रहने तथा इच्छा हो तो शारीरिक संबंध बनाने की वकालत करने वाले लोग तकरीबन चुप हैं। चलिए, मान लेते हैं कि प्रियभांशु को फंसाया गया है पर निरूपमा की मां ने हत्या की या कराई है यह भी साफ नहीं है। इसलिए, यह भी मान लेते हैं कि निरूपमा ने खुदकुशी ही की है।

तो भाइयों! चींटी मत बनिए

[caption id="attachment_17113" align="alignleft"]संजयसंजय[/caption]इंटरनेट पर कहानी पढ़ने को मिली. यह काफी कुछ अखबारों के कॉरपोरेटीकरण से मिलती लग रही है. कहानी का हिन्दी अनुवाद पेश है. विश्वास मानिए, मैंने कोई फेरबदल नहीं किया है, पात्र भी ओरिजनल हैं.  तथ्यों-पात्रों का किसी पूर्व या मौजूदा पत्रकार या अखबार या अखबारी बाबू से मेल खाना सिर्फ संयोग होगा.

घीसू, धनिया, होरी से बाजार नहीं चलता मृणालजी

मृणाल पांडे ने इस बार सर्वहारा के ज्ञान से लेकर बाजार और हिन्दी पत्रकारों की खोई गरिमा तक पर अच्छा भाषण दिया है। मैंने उन्हें काफी देर से पढ़ना शुरू किया है इसलिए उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता पर जो भी पढ़ा है उससे यही लगता है कि वे बड़ी उलझी हुई हैं और गुस्से में भी। यह विडम्बना ही है कि जीवन भर हिन्दी पत्रकारिता करने के बावजूद वे खुद को हिन्दी पत्रकारों की श्रेणी में नहीं रखती हैं। दूसरी ओर, 2002 में नौकरी छोड़ देने के बाद भी मृणाल जी हिन्दी पत्रकारों के बारे में जो सरलीकरण करती हैं उससे मैं आहत होता हूं। कोशिश करूंगा कि अब मैं उनका लिखा न पढ़ूं और इस तरह प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर न होऊं। इसीलिए मैंने जनसत्ता लेना बंद कर दिया पर यशवंत जी ने उनके आलेख को भड़ास पर प्रकाशित कर यह सब करने के लिए मजबूर कर दिया।

किस कायदे की बात कर रहे राय साब

[caption id="attachment_16846" align="alignleft"]संजय कुमार सिंहसंजय कुमार सिंह[/caption]वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में जिस तरह अनिल चमड़िया को रखा और फिर हटाया गया उससे एक बात तो साफ हो गई है कि विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय अब जिस एक्जीक्यूटिव कमेटी (ईसी) को सबसे ताकतवर बता रहे हैं उसकी इच्छा के बिना भी कुलपति अपने मनमुताबिक नियुक्ति कर सकता है और छह आठ महीने वेतन देने के साथ-साथ अवैध या अस्थायी तौर पर नियुक्त व्यक्ति की इच्छा के अनुसार दूसरे खर्चे भी कर सकता है। अब यह साफ हो चुका है कि कुलपति विभूति नारायण राय ने इस छूट या लोच का लाभ उठाकर एक ऐसी नियुक्ति की जिसे बाद में ईसी ने सही नहीं माना। सवाल उठता है कि नियुक्ति के मामले में अगर ईसी सबसे ताकतवर है तो कुलपति ने उसकी सहमति के बगैर नियुक्ति क्यों की। और अगर कुलपति ने गलत निर्णय, गलत चुनाव किया तो उसे क्या कोई सजा मिलनी चाहिए। क्या उसे कोई पश्चाताप करना चाहिए। वीएन राय की मानें तो जो कुछ हुआ वह सब नियम और कायदे के मुताबिक हुआ। यानी विश्वविद्यालय का नियम इस बात की छूट देता है कि कुलपति जिसे चाहे हजारों रुपए प्रतिमाह की नौकरी पर रख ले और छह-आठ महीने बाद जब कभी ईसी की बैठक हो (या आयोजित कर सकें) तो ईसी कह दे कि नहीं साब हमारे महान कुलपति का निर्णय गलत है आप घर जाइए। ईसी ने अगर ऐसा किया है तो अपने कुलपति के किए पर भी तो अविश्वास जताया है। क्या नैतिकता का तकाजा नहीं है कुलपति इस्तीफा दे दें।

क्या लिखती और क्यों पढ़ी जाती हैं मृणाल पांडे

संजय कुमार सिंहमृणाल पांडे को प्रसार भारती का चेयरपर्सन बनाने की घोषणा क्या हुई जनसत्ता ने उनका पाक्षिक कॉलम छापने का भी एलान कर दिया। और मृणाल जी ने अपना पहला लेख लिखा – ‘असली चुनौतियां इधर हैं’ जिसे भड़ास4मीडिया ने ब्लॉग जगत के नियतिहीन कोने में दम नहीं शीर्षक से प्रकाशित किया। मैंने पूरा लेख कई बार पढ़ लिया पर समझ में नहीं आया कि मृणाल जी कहना क्या चाहती हैं और जो कहना चाहती हैं उसे साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं। भड़ास4मीडिया ने जो शीर्षक लगाया है वह उनके लेख का एक वाक्य है। अपने इस कथन के पक्ष में उन्होंने कुछ नहीं लिखा है और यह बताने की कोशिश भी नहीं की है कि ब्लॉग जगत का कोना क्यों नियति हीन है और उसमें दम क्यों और कैसे नहीं है। दम है यह कैसे समझ में आएगा या माना जाएगा। दम होने का पैमाना क्या है। या दम डालने के लिए क्या कुछ किया जाना चाहिए। जनसत्ता के शीर्षक – असली चुनौतियां इधर हैं, से भी नहीं समझ में आता है कि इधर का मतलब क्या है। पूरा लेख पढ़कर यही लगता है कि इसमें कोई दम नहीं है। लेकिन उनकी कुछ बातें गौर करने लायक है। सबसे पहले तो उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है कि हिन्दी मीडिया से उनका क्या तात्पर्य है?

और वाकई खामोश हो गया वर्ल्ड स्पेस रेडियो

[caption id="attachment_16643" align="alignleft"]अपने घर में रेडियो सुनते लेखक संजय कुमार सिंह.अपने घर में रेडियो सुनते लेखक संजय कुमार सिंह.[/caption]दिसंबर के अंतिम सप्ताह में बहुत दिनों बाद एक ऐसा मेल आया जिसने मुझे बेहद निराश किया और इसमें दी गई सूचना पर मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था। सूचना यह थी कि वर्ल्डस्पेस इंक की भारतीय सहायिका मेरे प्रिय रेडियो चैनल फरिस्ता और अपने अन्य चैनलों का प्रसारण 31 दिसंबर से बंद कर देगी। मैंने यह जानकारी अपने एक पत्रकार मित्र को दी उसने पता करके बताया कि खबर सही है, प्रकाशित खबर का लिंक भी दिया – वह खबर कई संबंधित लोगों से बात करके लिखी गई थी। फिर भी लग रहा था कि 31 दिसंबर से पहले कुछ न कुछ होगा और प्रसारण बंद नहीं होगा। वह भी तब जब इसकी मूल कंपनी के दिवालिया हो जाने से संबंधित मार्च और अगस्त में आई खबरों का अनुवाद मैंने ही किया था तथा वर्ल्ड स्पेस के ग्राहकों को ई मेल से भेजी गई सूचना में प्रसारण बंद होने का यही कारण बताया गया था। भारत में इस रेडियो के ब्रांड एम्बैसडर एआर रहमान हैं और अंग्रेजी में इसके विज्ञापन का कामचलाऊ अनुवाद होगा, “सुनने के लिए बहुत कुछ है।” जी हां, इस रेडियो के 40 चैनल थे और इन पर सुनने के लिए इतनी चीजें उपलब्ध थीं कि बता नहीं सकता। मैं एक ही चैनल सुनता था और सुनते-सुनते उसकी आदत लग गई थी, इसका पता अब चल रहा है। पूर्व सूचना होने के बावजूद 31 दिसंबर की सुबह रोज की तरह कंप्यूटर ऑन करने के बाद रेडियो ऑन किया तो प्रसारण बंद था। तब जाकर अहसास हुआ कि 31 दिसंबर से – का मतलब 31 दिसंबर की सुबह या शायद 30 दिसंबर की रात से ही था।

पायल का पत्र पढ़ मुझे अपना लिखा याद आया

संजय कुमार सिंहकहीं ऐसा न हो कि कुछ साल बाद हिन्दी मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोग न मिलें : हिन्दी पत्रकारिता और उसकी एक बड़ी दुकान की पोल खोलने के लिए पायल चक्रवर्ती की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। पायल का पत्र पढ़कर मुझे अपना लिखा याद आ गया था, ” …. आज मुझे तनख्वाह और भत्तों के नाम पर (एक राष्ट्रीय दैनिक में) जो कुछ मिलता है उतना मेरे साथ पढ़े लोगों को मकान का किराया भत्ता मिलता है।”  पायल को अगर ऑफिस के माहौल से शिकायत है तो मुझे कम पैसे मिलने का अफसोस था। हालांकि, यह भी मैंने अपने आप नहीं लिखा था बल्कि मीडिया पर एक कॉलम में जब पत्रकारिता को अच्छा पेशा बताया गया था तो मैं प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रेरित हुआ था क्योंकि उस समय तक मैं यह मानने लगा था कि मैंने इस पेशे को चुनकर गलत किया है।

‘खबर लेने आ गया आजतक’

[caption id="attachment_15833" align="alignleft"]संजय कुमार सिंहसंजय कुमार सिंह[/caption]15 सितंबर 2009 को अगर दूरदर्शन ने 50 साल पूरे कर लिए तो भारत से अपलिंक किया जाने वाला पहला उपग्रह चैनल आज तक 31 दिसंबर 2009 को 10 साल का हो जाएगा। दूरदर्शन को अगर 4 लाख रुपए में शुरू किया गया था तो 40 साल बाद आज तक को 60 करोड़ रुपए के निवेश से शुरू किया गया था। पेश है आज तक शुरू किए जाने पर जारी की गई विज्ञप्ति, जस का तस :

प्रभाषजी, नेट पर रहेंगे तो पाठक बढ़ेंगे ही!

[caption id="attachment_15060" align="alignleft"]संजय कुमार सिंहसंजय कुमार सिंह[/caption]आलोक तोमर के आलेख ‘नेट का भी अपना समाज है प्रभाष जी’ के क्रम में प्रभाष जी और उन जैसे तमाम लोगों को, जो नेट की हैसियत नहीं जानते या मानते, को यह बताना वाजिब होगा कि नेट के पाठक बिखरे हुए हैं, पर हैं काफी। यह अजीब बात है कि प्रभाष जी जनसत्ता में तो लिखते हैं पर नेट के पाठकों की संख्या को गंभीर नहीं मानते हैं। यहां मैं जनसत्ता के प्रसार की चर्चा नहीं करूंगा पर बताना चाहूंगा कि इंटरनेट गवरनेंस फोरम के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 8 करोड़ 10 लाख है। इसके अलावा दुनिया भर में फैले सैकड़ों भारतीय और हिन्दीभाषी नेट पर भारत से संबंधित और भारतीय लेखकों की सामग्री को पढ़ते हैं। इन्हें मिलाकर, इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री को पढ़ने वालों की संख्या अखबारों पत्रिकाओं के मुकाबले कई गुना ज्यादा होगी।

संपादक को सौ प्रतिशत जिम्मेदार माना जाना चाहिए

[caption id="attachment_15060" align="alignright"]संजय कुमार सिंहसंजय कुमार सिंह[/caption]पेज रिपीट होने के लिए संपादक को सौ प्रतिशत जिम्मेदार माना जाना चाहिए क्योंकि ऐसी भयानक गलती सिर्फ एक आदमी की लापरवाही से नहीं हो सकती है और अगर एक ही आदमी के सिर इतनी बड़ी जिम्मेदारी है तो संपादक को तनख्वाह काहे की मिलती है ? पेज रिपीट होने की गलती संपादकीय विभाग वालों की लापरवाही से कम और प्रेस वालों की लापरवाही से ज्यादा होने की आशंका रहती है। फिर भी अखबार निकालना टीम का काम है और टीम का मुखिया अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है।

‘शब्दों के चयन में संयम दिखाने की जरूरत’

कुमार संजय सिंहमुझे सबसे पहले अतुल अग्रवाल का लिखा पढ़ने को मिला और पढ़कर लगा कि खुशवंत सिंह ने इस उम्र में क्या लिख दिया कि अतुल इतने नाराज हो गए। मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित उनका अंग्रेजी का मूल लेख पढ़ा तो मुझे उसमें कुछ खास या नया नहीं लगा क्योंकि इस लेख में उन्होंने जो कुछ कहा है वैसा वे पहले भी कई बार कह चुके हैं। इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा था कि ये उनके निजी विचार हैं और इससे कई लोग सहमत नहीं होंगे। मूल लेख को पढ़ने के बाद लगा कि अतुल नाहक उत्तेजित हो गए हैं। अब आपका लेख पढ़कर लगता है कि अतुल अग्रवाल की नाराजगी का कारण वह भी हो सकता है जो आप कह रहे हैं।

जवाब हम देंगे (1)

कुमार संजय सिंहस्ट्रिंगरों का माफियानुमा दबदबा और मृणाल जी की हिटलरी !!

दैनिक हिंदुस्तान की प्रमुख संपादक मृणाल पांडेय का संपादकीय लेख पढ़कर ही लगा था कि इसका जवाब लिखना बेहद जरूरी है। मैंने लिखकर रोजी रोटी चलाने की कोशिश की थी पर मामला जमा नहीं और मुफ्त में लिखने का शौक या छपास रोग रहा नहीं। इसलिए लिखना हो नहीं पाया। पर भड़ास4मीडिया के यशवंत सिंह ने मानो चुनौती दी है कि मृणाल पांडेय को जवाब देना बहुत मुश्किल है।