Connect with us

Hi, what are you looking for?

इंटरव्यू

हां, यह सच है कि दिल्ली मुझे रास नहीं आई

SN Vinodहमारा हीरोएसएन विनोद

पार्ट- (3)

”दिल्ली पहुंचने पर यहां की कार्यप्रणाली के बारे में एक मित्र ने बताया. दिल्ली का मूल-मंत्र है- ‘काम कम, बखान ज्यादा’! और दिल्ली ‘ईटिंग, मीटिंग और चीटिंग’ के लिए कुख्यात है! मुझे यह बड़ा अटपटा लगा. जब मैंने बताया कि मैंने तो हमेशा काम को प्रधानता दी है, तब उन्होंने भविष्यवाणी कर दी कि मैं दिल्ली में ज्यादा दिन नहीं टिक पाऊंगा!”


SN Vinod

SN Vinodहमारा हीरोएसएन विनोद

पार्ट- (3)

”दिल्ली पहुंचने पर यहां की कार्यप्रणाली के बारे में एक मित्र ने बताया. दिल्ली का मूल-मंत्र है- ‘काम कम, बखान ज्यादा’! और दिल्ली ‘ईटिंग, मीटिंग और चीटिंग’ के लिए कुख्यात है! मुझे यह बड़ा अटपटा लगा. जब मैंने बताया कि मैंने तो हमेशा काम को प्रधानता दी है, तब उन्होंने भविष्यवाणी कर दी कि मैं दिल्ली में ज्यादा दिन नहीं टिक पाऊंगा!”


-पत्रकारिता पर बाजार के दबाव के बारे में आपके क्या विचार हैं?

–देखिए, आजादी-पूर्व पत्रकारिता के सामने एक चिह्नित ‘मिशन’ था- देश की आज़ादी का! आजादी के बाद लगभग डेढ़ दशक तक राष्ट्र के नव-निर्माण का ‘मिशन’ पत्रकारिता के समक्ष था. यह भावना धीरे-धीरे लुप्त होने लगी. अब ‘मिशन’ की जगह ‘प्रोफेशन’ शब्द का मुलम्मा जोड़ पत्रकारिता की पवित्रता को कम कर आंकने की कोशिश की जा रही है. मेरी दृष्टि में पत्रकारिता ने पेशा का स्थान तो लिया है, लेकिन अभी भी इसके पूर्व ‘पवित्र’ शब्द जुड़ा हुआ है. इस पर बाजार का दबाव कई कारणों से है. चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक, इसके संचालन के लिए अब बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है. पूंजी लगाने वाला स्वाभाविक रूप से मुनाफा सहित वापसी चाहता है. पत्रकारों को भी लाखों की सेलरी और सुविधाएं चाहिए. ऐसे में मालिकों का मकसद अधिक से अधिक विज्ञापन जुटाना हो गया है और पत्रकार इस मिशन में उसके सहयोगी हो रहे हैं. चूंकि विज्ञापन प्रसार पर निर्भर करता है और इसके लिए अखबार घरानों में कड़ी प्रतिस्पर्धा है. इसलिए विज्ञापन बढ़ाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. मैं इसे बुरा नहीं मानता हूं, लेकिन जिस तरह प्रतिस्पर्धा ने उपहार संस्कृति को जन्म दिया है, उससे पत्रकारिता की मूल आत्मा कलुषित हो रही है. कई बड़े घराने अपने संपादकों की मीटिंग में अखबार के लिए अब प्रोडक्ट शब्द का इस्तेमाल करने लगे हैं. साबुन-सर्फ की शक्ल लेता अखबार भी अब कंटेंट से ज्यादा स्कीम के चलते पाठकों को प्रभावित करता है. प्रसार की लड़ाई एग्रेसिव मार्केटिंग और लुभावने स्कीम के सहारे लड़ी जा रही है. कंटेंट, एडिटोरियल वैल्यू और आब्जेक्टिव जर्नलिज्म पीछे छूट गए हैं.

Yashwant & SN Vinod JIअभी खबर आई थी कि पंजाब में एक बड़े मीडिया घराने ने 28 पेज के रंगीन अखबार की कीमत घटाकर एक रुपये कर दी. हॉकरों का कमीशन भी इसी में शामिल है. यह कैसे संभव हो सकता है! एक रुपये में तो इतने सादे पेज भी नहीं मिलेंगे. जाहिर है, सर्कुलेशन बढ़ाने के इस खेल में पाठकों को हम कंटेंट नहीं, प्रोडक्ट खरीदने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। ऐसे में पाठक और पत्रकार दोनों ठगे जा रहे हैं। पाठकों को रातों-रात करोड़पति बनाने का ख्वाब दिखाया जा रहा है। पाठक यह तय नहीं कर पाता है कि वह अखबार पढऩे के लिए खरीदे या उपहारों के लिए. पत्रकारिता पर हावी होते बाजार का यह विकृत रूप है, जिसकी कल्पना हमारे पहले की पीढ़ी ने तो नहीं ही की होगी। हां, मगर इसी नाउम्मीदी से नई राह भी निकल सकती है। इस दौर में बहुत हद तक पत्रकारों पर निर्भर करता है कि वे पूंजी निवेशक की जरूरत और पत्रकारिता की अपेक्षा के बीच संतुलन कैसे रखें! मालिकों को भी सोचना होगा कि मूल आत्मा को मारकर पत्रकारिता कब तक जश्न मनाएगी. उपहारों के नाम पर करोड़ों लुटाकर कुछ दिनों तक तो मार्केट में छाया जा सकता है, लेकिन पाठकों के दिलों पर राज केवल कंटेंट के जरिए ही संभव है और इसके लिए पत्रकारों को ही प्रतिबद्ध होना पड़ेगा. क्योंकि पत्रकारों के पेशेवर बन जाने से भी इस मिशन में भटकाव आया है।

हमें समाज के प्रति पत्रकारिता के दायत्वि को समझना होगा. अनुकूल अथवा विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति मात्र को ही नहीं, देश को भी दिशा-निर्देशित करने का दायित्व भी इसी पर है. बल्कि मैं तो यह मानता हूं कि राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी ‘व्यक्ति-निर्माण’ का गुरुत्तर दायित्व पत्रकारिता पर है. हां, यह दु:खदायी अवश्य है कि आज कुछ अपवाद छोड़ दें, तो पत्रकारिता से जुड़े अधिकांश व्यक्ति समझौतावादी हो गए हैं. अनेक मामलों में स्वार्थ आधारित समझौता! इस रोग ने ही चापलूसी अथवा खुशामद की प्रवृत्ति को जन्म दिया है. यही कारण है कि आज पत्रकारिता के स्तर और उसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े किए जाने लगे हैं, जबकि इससे बचा जा सकता है. मीडिया के क्षेत्र में पूंजी लगाने वाला व्यक्ति मुनाफे के साथ-साथ ताकत और प्रतिष्ठा भी चाहता है. उसकी इसी चाहत के कारण पत्रकारिता में खुशामदी तत्वों की भरमार हो गयी है. समझदार मालिक ऐसे तत्वों से दूर रहता है.

इस बिन्दु पर मैं अपने कुछ अनुभव आपसे बांटना चाहूंगा. उन दिनों मैं ‘लोकमत समाचार’ में था. एक बार मराठी ‘लोकमत’ को नया कलेवर देने के लिए मुंबई से एक ले-आउट डिजाइनर को बुलाया गया. नए डिजाइन के साथ उस दिन छपाई के लिए पृष्ठ तैयार किए जा रहे थे. संपादक सहित ‘लोकमत’ के अनेक वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी मेरे पास आए और कहा कि ”नया डिजाइन बिल्कुल भद्दा लग रहा है…. काला-काला कर दिया है…. पहले का ही अच्छा था.” दूसरे दिन नए ले-आउट के साथ अखबार छपा. ‘लोकमत’ के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक विजय दर्डा ने अपने घर पर वरिष्ठ संपादकीय सहयोगियों की एक मीटिंग बुलाई थी. जब मैं वहां पहुंचा, तब मराठी के संपादकीय सहयोगी ‘लोकमत’ के नए रूप को सड़कों पर : 1988 में केन्द्र सरकार द्वारा लाए गए मानहानि विधेयक के खिलाफ आयोजित प्रदर्शन में एसएन विनोदलेकर आलोचनात्मक टिप्पणियां कर रहे थे. विजय बाबू ऊपर कमरे में तैयार हो रहे थे. नीचे आने पर उन्होंने ‘लोकमत’ को उठाया और नए डिजाइन की प्रशंसा करते हुए कहा- ”काय झालं चांगला!” (क्या कहने! बहुत अच्छा). सभी ने तत्काल सिर हिलाते हुए एक स्वर से कहा- ”होय, चांगला!” (हां, बहुत अच्छा!) मैं अवाक् उनके चेहरे देखता रहा. बैठक के बाद जब हम बाहर निकले, तब मैंने मराठी के संपादक से पूछा, ”क्यों भई, कल रात से तो आप लोग नए डिजाइन की भत्र्सना कर रहे थे. अचानक यह ‘चांगला’ (बहुत अच्छा) कैसे हो गया?” संपादक का सपाट जवाब था- ”भाई, विजय बाबू ने ‘चांगला’ कहा न!….. चांगला हो गया!!” बाद में यह बात मैंने विजय बाबू को बतायी. उन्होंने तत्काल संपादक को बुलाकर डिजाइन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने के निर्देश दिए. विजय बाबू ने तब टिप्पणी की थी कि ”खुशामदी लोग वस्तुत: लाश होते हैं…. और मुझे लाश ढोने का शौक नहीं!”

दूसरी एक घटना तब की है, जब मैं ‘नवभारत’ में संपादक था. अक्षय ऊर्जा दिवस पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए दिल्ली में घोषणा की थी कि आगामी वर्षों में 1.5 लाख मेगावॉट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है. अखबार के मालिक विनोद माहेश्वरी ने एक पर्ची भेजी कि इस पर ‘विशेष टिप्पणी’ लिखी जाए. मैंने अपने एक सहायक संपादक को बुलाकर वह पर्ची देकर उन्हें टिप्पणी लिखने की जिम्मेदारी दी. उन बिन्दुओं को भी उन्हें बता दिया, जिनका समावेश टिप्पणी में किया जाना चाहिए था. रात को 12 बजे जब पहला संस्करण छप कर आया, तब उस विशेष टिप्पणी में 1.5 लाख मेगावॉट की जगह मात्र 1.5 मेगावॉट छपा हुआ था! प्रूफ की गलती समझ मैंने प्रूफ रीडर को बुलाकर पूछा तो उसने मूल कॉपी का हवाला दिया, जिसमें 1.5 मेगावॉट ही लिखा हुआ था. खैर, अगले संस्करणों में मैंने सुधार कर 1.5 लाख मेगावॉट करवा दिया. दूसरे दिन मैंने उस सहायक संपादक का ध्यान उस भूल की ओर आकृष्ट किया, तब उन्होंने तपाक  से माहेश्वरी की उस पर्ची को मेरे सामने रख दिया, जिसमें सिर्फ 1.5 मेगावॉट लिखा था. जाहिर है, लिखने की जल्दी में माहेश्वरी जी 1.5 के आगे लाख लगाना भूल गए होंगे.

जब मैंने सहायक संपादक से इस मामले में ‘स्वविवेक के इस्तेमाल’ की बात कही, तो उनका जवाब था- ”सर, विनोद बाबू के शब्दों को मैं कैसे बदल देता!” अब इसे क्या कहेंगे? आज पत्रकारिता में रेंगने वाले ऐसे पत्रकारों के कारण ही मीडिया पर अविश्वसनीयता का संकट गहरा गया है. खैर…. हम बातें बाजार के दबाव की कर रहे थे. कांटे की प्रतिस्पर्धा में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जहां टी.आर.पी. का दबाव है, वहीं प्रिंट मीडिया पर विज्ञापन का! इस जरूरत की पूर्ति की दौड़ में मानवीय कोना लुप्त हो रहा है. योग्य सवंदेनशील लोगों को स्थान नहीं मिल पा रहा है. इसके लिए मैं मालिकों से ज्यादा संपादकों को दोषी मानता हूं. संपादक अगर चाहे तो वह मालिक के साथ बैठ संस्थान के हित में तर्कों से अपनी बात मनवा सकता है. बाजार के दबाव के आगे झुकने की जगह उससे मुकाबला करने के उपाय निकाले जा सकते हैं.

बाजार में दबाव और पत्रकारीय अपेक्षा के बीच संतुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी संपादकों की है. बाजार भी तो अंतत: ‘श्रेष्ठता’ की ओर ही आकर्षित होता है. मैं समझता हूं, इस दबाव के सामने रेंगने की कोई जरूरत नहीं. स्तर व विश्वसनीयता के आधार पर इनका मुकाबला किया जा सकता है. पूंजीपतियों के अखबार भी बंद हो चुके हैं. अंबानी घराने का ‘बिजनेस एंड पॉलिटिकल आब्जर्वर’ और ‘संडे आब्जर्वर’ तथा रेमंड्स ग्रुप (सिंघानिया) का ‘इंडियन पोस्ट’ का उदाहरण दिया जा सकता है, जो बंद कर दिए गए. प्रसंगवश, ‘द इंडिपेंडेंट’ को भी उद्धृत करना चाहूंगा. इस अखबार का मुंबई से प्रकाशन ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के समीर जैन ने ही शुरू किया था. उन्होंने अपनी पृथक कल्पना के अनुसार ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के ही मुकाबले एक और अंग्रेजी दैनिक निकाला था. ‘द इंडिपेंडेंट’ भी असमय ही अंतत: बंद हो गया. क्या ये उदाहरण इस बात को प्रमाणित नहीं करते कि अखबार सिर्फ बड़ी पूंजी से ही नहीं चलते! जरूरत इस बात की है कि बाजारवाद और संपादकीय अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाया जाए. सिद्धांत और व्यवहार के बीच के Yashwant & SN Vinod JIफर्क को समझना होगा. इसके लिए खुला दिमाग चाहिए- मालिकों का भी, पत्रकारों का भी! अगर ऐसा नहीं हुआ तब शायद एक दिन यह बाजारवाद पत्रकारिता को एक ‘बाजार’ ही बना डालेगा.

-नए पत्रकारों में किसे बेहतर मानते हैं ? 

–अनेक ऐसे युवा पत्रकार हैं, जो विभिन्न समाचार-पत्रों/ पत्रिकाओं व टी.वी. चैनलों में पूरी ईमानदारी व निडरता के साथ दायित्व निर्वहन कर रहे हैं. किसी एक का नाम लेना उचित नहीं होगा. मैं यह कह सकता हूं कि दबाव एवं प्रलोभन के बावजूद पाठकों के प्रति इनके समर्पण के कारण ही अभी तक मीडिया पूरी तरह बिक नहीं पाया है. नैतिकता एवं मूल्य का पूर्णत: क्षरण नहीं हो पाया है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

-दिल्ली आपको कभी रास नहीं आयी. ऐसा क्यों? जबकि हर पत्रकार दिल्ली आने और यहीं बस जाने का स्वप्न देखता है.

–इस प्रश्न के उत्तर के पूर्व मैं ‘लोकमत समाचार’ पत्र-समूह के अध्यक्ष सांसद विजय दर्डा के 15 जून 2006 के पत्र के एक अंश को उद्धृत करना चाहूंगा. तब मुझे दिल्ली आए ठीक दो माह हुए थे. विजय बाबू ने अपने पत्र में जिज्ञासा व्यक्त की थी- ”… जीवन में सब-कुछ अपने मन मुताबिक नहीं होता विनोद जी! ‘मन’ अपना होता है और ‘जग’ जिन पर हम दूर से अपना अधिकार बताते हैं, वो किसका हुआ है, जो आपका होगा? फिर क्यों ‘मृगजल’ की ओर आप भाग रहे हो? ….”

आपका प्रश्न भी वस्तुत: विजय बाबू की जिज्ञासा का विस्तार ही है. हां, कभी-कभी मुझे अवश्य लगता है कि मैं सचमुच किसी मृग-मरीचिका के पीछे भाग रहा हूं. दिल्ली आने पर एक मित्र केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने भी मुझसे पूछा था कि ”विनोदजी, आपकी यह यात्रा कब खत्म होगी?” अब मैं अपने मन की किसे बताता कि मैं पत्रकारिता की उन ऊंचाइयों को ढूंढ़ता रहा हूं, जिन्हें मैंने बचपन में देखा था…. फिर यात्रा समाप्त हो तो कैसे?”

हां, यह सच है. दिल्ली मुझे रास नहीं आयी. मैं भी दिल्ली आकर बड़े कैनवास पर कुछ चित्रित करना चाहता था. सबसे पहले 1995 के दिसंबर माह में एक साप्ताहिक पत्रिका के प्रकाशन की योजना के साथ दिल्ली पहुंचा था. योजना बड़ी थी. उस प्रोजेक्ट में मेरे साथ संतोष भारतीय भी थे. पुण्य प्रसून वाजपेयी भी उसी प्रोजेक्ट के लिए मेरे साथ दिल्ली आए थे. राजकिशोर जी, अरुण रंजन और भूपेंद्र कुमार स्नेही का सक्रिय सहयोग मुझे मिला था. नागपुर से दिल्ली आकर संतोष मानव भी भरपूर साथ दे रहे थे. पूसा रोड पर एक बड़ा कार्यालय भी लिया गया था. डमी का प्रकाशन भी हो चुका था. मेरे दिल्ली आगमन और पत्रिका के योजना की चर्चा मीडिया जगत में होने लगी. एक बार पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपने भोंडसी आश्रम में देश के राजनीतिक परिदृश्य पर दो दिवसीय विचार-गोष्ठी का आयोजन किया था. देश के अनेक विख्यात पत्रकार-लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता उसमें भाग ले रहे थे. मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन के एक वक्तव्य से गोष्ठी को लेकर विवाद खड़े हो गए थे. अंतिम दिन मैंने अपने एक सहयोगी कृष्णमोहन सिंह से गोष्ठी में जाने की इच्छा प्रकट की. कृष्णमोहन मुझे वहां लेकर गए.

प्रभाष जोशी उस दिन गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे. उन्होंने मुझे भी वक्ता के रूप में शामिल कर लिया. दिल्ली में किसी ऐसी गोष्ठी को संबोधित करने का मेरा पहला अवसर था. ईमानदारी से कहूं, तो मुझे अधिकांश वक्ताओं से निराशा मिली. अपने संबोधन में मैंने अपनी भावना का उल्लेख भी किया. फिर आदत के अनुसार SN Vinodविषय पर बेबाक मैं अपनी बातें बोल गया. शाम में ‘विचार-गोष्ठी’ की खबर को प्रसारण-पूर्व देखने के बाद ‘आज तक’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने मुझे फोन किया. उन्होंने संबोधन की प्रशंसा तो की, लेकिन यह भी कहा- ”आपने बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया है. दिल्ली में यह नहीं चलेगा!” बाद में मैंने पाया कि ‘आज तक’ पर गोष्ठी के समाचार में मेरा कहीं उल्लेख न था. मुझे आश्चर्य के साथ-साथ तब ‘दिल्ली को लेकर’ दु:ख भी हुआ कि क्या सचमुच दिल्ली में बेबाकी को जगह नहीं है? समाचार-पत्रों में एक ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने मेरे संबोधन को प्रमुखता दी.

परिस्थितियों ने कुछ ऐसी करवट बदली कि मुझे पुन: ‘लोकमत समाचार’ में वापस नागपुर आ जाना पड़ा. हालांकि तब कुलदीप नायर सहित मेरे अनेक शुभचिंतकों ने दिल्ली से नागपुर लौटने पर नाराजगी जतायी थी. खैर… पुन: 2006 के अप्रैल माह में दिल्ली आया. मेरे मित्र और रिश्तेदार अंबिकानंद सहाय (संप्रति- डायरेक्टर न्यूज, आज़ाद चैनल) उन दिनों सीनियर मीडिया के एस-वन चैनल के न्यूज हेड तथा प्रधान थे. इसके पूर्व जब श्री सहाय सहारा ग्रुप में प्रधान थे, तब से इनकी इच्छा थी कि मैं दिल्ली आऊं. मेरी भी इच्छा थी.

‘सीनियर मीडिया’ ग्रुप के एस-वन चैनल में तब संजय कुमार इनपुट एडिटर थे. वे भी चाहते थे कि मैं दिल्ली आऊं. इन लोगों के प्रस्ताव पर संस्थान के अध्यक्ष विजय दीक्षित से चर्चा हुई और मैं ग्रुप की साप्ताहिक पत्रिका ‘सीनियर इंडिया’ से प्रधान संपादक के रूप में जुड़ गया. यह सन् 2006 के मध्य अप्रैल की बात है. इसके पूर्व आलोक तोमर पत्रिका के संपादक थे. अचानक जून के प्रथम सप्ताह में निजी कारणों से एस-वन चैनल से अंबिकानंद सहाय और डिप्टी न्यूज हेड मुकेश कुमार ने त्यागपत्र दे दिया. तब एस-वन चैनल की जिम्मेदारी भी मुझे दे दी गई. इस मुकाम पर मुझे कुछ कड़वे अनुभव हुए. अंबिका जी के इस्तीफे पर कुछ ‘विघ्न-संतोषियों’ ने मेरे नाम को लेकर दुष्प्रचार किया. जबकि सचाई यह थी कि अंबिका जी, इस्तीफा देने की तैयारी की पूर्व जानकारी मुझे दे चुके थे. वे एक बड़ी योजना पर कार्य कर रहे थे. तब मैं साप्ताहिक पत्रिका ‘सीनियर इंडिया’ और ‘एस-वन’ चैनल का काम देखने लगा. लेकिन इस दौरान ही मैं दिल्ली से निराश होने लगा.मुझे याद है, दिल्ली पहुंचने पर यहां की कार्यप्रणाली के बारे में मुझे एक पत्रकार मित्र ने बताया कि दिल्ली का मूल-मंत्र है- ‘काम कम, बखान ज्यादा’…! और दिल्ली ‘ईटिंग, मीटिंग और चीटिंग’ के लिए कुख्यात है! मुझे यह बड़ा अटपटा लगा. जब मैंने उन लोगों को बताया कि मैंने तो हमेशा काम को ही प्रधानता दी है और दूंगा! तब उन्होंने भविष्यवाणी कर दी कि मैं दिल्ली में ज्यादा दिन नहीं टिक पाऊंगा!

Yashwant & SN Vinod JI‘सीनियर मीडिया’ ग्रुप में चेयरमैन विजय दीक्षित व प्रबंध निदेशक कल्पना दीक्षित के अथक प्रयास के बावजूद ग्रुप को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने का मुख्य कारण भी मैं वहां की ‘राजनीति’ को मानता हूं. कनिष्ठ सहयोगियों की बातें छोड़ दीजिए, दु:ख तो तब पहुंचता था, जब वरिष्ठ सहयोगियों को इसमें लिप्त पाता था. झूठ का पहाड़ खड़ा कर सीना तान चलने वाले वरिष्ठ सहयोगियों ने हमेशा संस्थान का अहित किया. वैसे लोगों को राजनीति और भितरघात करते देखा, जो नौकरी पाने के लिए घंटों रिसेप्शन पर बैठ मेरा इंतजार किया करते थे- घर का चक्कर लगाया करते थे. लेकिन पाया कि नियुक्ति होने के बाद षडयंत्र और सिर्फ षडयंत्र रचते रहते थे. वैसे में जाहिर है, काम का स्तर प्रभावित होता था. कार्यालय का वातावरण दूषित होता था. षडयंत्रकारियों ने ऐसा प्रचार करना भी शुरू कर दिया था कि मैं ‘संघी पत्रकार’ हूं. (चूंकि मैं नागपुर से आया था.)

दिल्ली का सर्वाधिक दु:खद क्षण तब आया, जब एक वरिष्ठ पत्रकार मित्र पर मुकदमा दायर कर उन्हें गिरफ्तार करा दिया गया. दिल्ली मीडिया जगत में खलबली मच गयी. कमलेश्वर जी सहित अनेक वरिष्ठ लेखकों-पत्रकारों ने उनकी मदद करने के लिए मुझे कहा. भाई रामबहादुर राय, प्रभाष जोशी के संदेश के साथ कई बार मिलने आये. पूरे प्रकरण में मैं अंदर से बहुत दु:खी था. चूंकि मामले से पूरी पत्रकार बिरादरी पर सवालिया निशान लगने लगे थे. चेयरमैन दीक्षित जी भी दु:खी थे. उक्त पत्रकार से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं होने के बावजूद परिस्थितियों के कारण उनके विरुद्ध कदम उठाने पड़े थे. जमानत मिलने के बाद उक्त पत्रकार मुझसे मिले. उन्होंने पूरी घटना को ‘नियति’ निरूपित किया. मैं भी इससे सहमत था. खैर… हमारी बातचीत हुई और चेयरमैन दीक्षित जी की सहमति से समझौता कर मामले को खत्म करने का निर्णय लिया गया. अदालत ने समझौते को स्वीकार करते हुए मामले को खारिज कर दिया. लेकिन उस प्रकरण के कारण दिल्ली से मेरा मोहभंग होना शुरू हो गया था.

इस दौरान ऐसी अनेक घटनाएं हुईं, जिनके कारण मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि दिल्ली में निष्ठापूर्वक काम करने को अपराध माना जाता है. बाद में जब ‘इंडिया न्यूज’ ज्वाइन किया तब इस धारणा को मजबूती ही मिली. ‘दिल्ली चरित्र’ के कारण बहुत सारे वैसे मित्र दूर होते चले गए, जिनके साथ मजबूत रिश्तों पर मुझे गर्व था. ऐसी स्थिति मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही थी. ‘इंडिया न्यूज’ के संबंध में मैं पहले चर्चा कर चुका हूं. उसमें इतना और जोडऩा चाहूंगा कि वहां सक्रिय षडय़ंत्रकारी पिता-पुत्र के बीच मतभेद पैदा कर दूरी बढ़ाने की कोशिश भी करते रहे. पिता-पुत्र से मेरा आशय चेयरमैन और प्रबंध निदेशक से है. दिल्ली से मेरा मोह अब पूर्णत: भंग हो चुका था. नागपुर वापसी का निर्णय ले लिया था. हां, मेरा दिल्ली-प्रवास बिल्कुल निरर्थक नहीं रहा. देश की राजधानी दिल्ली ने अगर कड़वी गोलियां दी, तो एक अतुलनीय मानवीय रिश्तों के पथ पर एक मुंहबोली छोटी बहन के  रूप में कल्पना दीक्षित मिलीं. जिस दिन ‘सीनियर मीडिया’ ग्रुप मैं छोड़ रहा था, उस दिन उन्होंने मेरी कलाई पर राखी बांध यह सिद्ध कर दिया था कि रिश्ते सिर्फ व्यावसायिक नहीं होते. उस दिन और दिल्ली छोड़ कर नागपुर आने के दिन शांति निकेतन के उनके आवास पर मेरा अशांत मन, उनके आंसुओं से द्रवित था. शायद कभी भूल न पाऊं !

-परिवार में कौन-कौन हैं? शादी कब और कैसे हुई?

Advertisement. Scroll to continue reading.

–विवाह 21 जुलाई 1972 को शोभा से हुआ. परिवार में पत्नी, तीन बेटे नीलाभ, निबंध, अनुभव तथा तीन बहुएं- मृदुला, तपस्या व श्वेता हैं. दो पोतियां- भूमिका और हिया तथा एक पोता रूद्राक्ष है. पहले पुत्र नीलाभ विनोद सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और दूसरे निबंध विनोद हिन्दुस्तान टाइम्स (मुंबई) में चीफ कॉपी एडिटर हैं, तीसरे अनुभव विनोद भी मीडिया से जुड़े हैं, संप्रति ‘इंडिया न्यूज’ (मुंबई) में हैं. अनुभव ने कई टीवी सीरियल बनाए हैं, जिनमें ‘इन सर्च ऑफ रीयल हीरोज’ काफी चर्चित रहा व पुरस्कृत भी हुआ. इस सीरियल के 26 एपिसोड दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर प्रसारित हो चुके हैं. अनुभव के नाम भी दूरदर्शन के लिए सबसे कम उम्र का निर्माता-निर्देशक होने का कीर्तिमान है.

-पत्रकारिता में आपका रोल मॉडल कौन रहा है? जिंदगी में आप सबसे ज्यादा किससे प्रभावित रहे?

–पत्रकारिता में मैं सबसे ज्यादा प्रभावित अपने बड़े चाचा स्व. मुरली मनोहर प्रसाद से रहा. अगर रोल मॉडल के लिए चिह्नित करने की बात हो तब, कुलदीप नैयर और स्व. एस. सहाय (एडिटर, स्टेट्समैन) रहे.

-आपको कौन-सा गीत या कविता सबसे अधिक पसंद है? कुछ लाइनें सुनाएंगे?

कुलदीप नैयर के हाथों 'मानव मंदिर' द्वारा स्थापित स्व. अनिल कुमार पत्रकारिता पुरस्कार ग्रहण करते हुए. साथ में 'लोकमत' के संस्थापक संपादक (स्व.) जवाहरलालजी दर्डा. –एक अप्रकाशित कविता –

”हवा के होठों पर,

बेवफाई का सरगम,

दीये में बाती बाकी है,

इन्हें बुझाओ मत,

कि इनमें तेल के बदले,

Advertisement. Scroll to continue reading.

दिलों का खून जलता है.”

एक और…

”ताज के

ये ‘इमिटेशन’

आज पैसों पर बिकते हैं,

इन्हें जमुना में डुबो दो,

कि मेरा प्रेम चीखता है.”

-खाने-पीने में आपका फेवरिट क्या-क्या है?

–बहुत साधारण खाता हूं. लगभग उबला हुआ. वैसे फेवरिट के नाम पर पत्नी शोभा के हाथों बनाया हुआ ‘आलू का पुआ’ बहुत पसंद है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

-नई पीढ़ी में आपको क्या अच्छाइयां और बुराइयां नजर आती हैं?

–नई पीढ़ी में अच्छाइयों के खाते में जिज्ञासा-पूर्ति के प्रति उनकी ललक और लक्ष्य-प्राप्ति के प्रति आक्रामकता है. और अगर बात बुराई की की जाए तो स्वाध्याय-प्रवृत्ति का त्याग और मानवीय संवेदनाओं के प्रति अपेक्षित रुझान का अभाव.

-आपके समकालीन पत्रकार कौन-कौन हैं और अब वे कहां हैं?

–राजेंद्र माथुर, सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा और विजय किशोर आदि तो अब नहीं रहे हैं. डॉ. कन्हैयालाल नंदन, डॉ. वेदप्रताप वैदिक, दीनानाथ मिश्र, आलोक मेहता, विश्वनाथ सचदेव, संतोष भारतीय, राहुल देव, अरुण रंजन, एम.वाय. बोधनकर, विजय फणशीकर, सुरेश द्वादशीवार आदि अभी सक्रिय हैं. कुछ संपादक के रूप में, कुछ स्वतंत्र लेखक के रूप में.

-अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा दु:ख और सबसे बड़ी उपलब्धि किस चीज, किस घटना, व्यक्ति या अनुभव को मानते हैं?

नलिनी सिंह के साथ एसएन विनोद–सबसे बड़े दु:ख के रूप में (अत्यंत ही दु:खी मन से) मैं उस घटना को उद्धृत करना चाहूंगा जब विजय किशोर, जो मेरे बड़े भाई की तरह थे और जिन्हें मैं विजय भैया कहा करता था, जिन्होंने मुझे पत्रकारिता में प्रशिक्षित करने का गुरुत्तर दायित्व निभाया था, को ‘प्रभात खबर’ से प्रकाशन-पूर्व ही मणिमाला की शिकायत पर पृथक कर देना पड़ा था. तब उस निर्णय के लिए मैं अकेले में बहुत रोया था. लेकिन मैं ‘अनुशासन’ के ऊपर व्यक्तिगत संबंधों को तरजीह नहीं दे सकता था. सभी वरिष्ठ सहयोगी- सुनील श्रीवास्तव, विजय भास्कर व कल्याण कुमार सिन्हा भी उस ‘कार्रवाई’ के पक्षधर थे. जब बात उपलब्धि की आती है, तब मैं असहज हो उठता हूं. किसे चिह्नित करूं. वैसे ‘प्रभात खबर’ की कल्पना और उसके प्रकाशन को मूर्तरूप देने की घटना को मेरे मित्र ‘उपलब्धि’ के रूप में चिह्नित करते हैं. व्यक्तिगत जीवन में मैं शोभा के साथ विवाह को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं. पिछले 37 वर्षों से उन्होंने अनेक कष्ट झेलते हुए हर पल, हर क्षण मेरा साथ दिया है. आज भी दे रही हैं. वस्तुत: उनकी प्रेरणा से ही आज भी मेरी पत्रकारीय यात्रा जारी है.

-पांच दशक तक सक्रिय पत्रकारिता के बाद अब आपका कोई ऐसा सपना जो शेष रह गया हो?

–आज़ादी-पूर्व और आज़ादी-पश्चात् लगभग दो-ढाई दशक तक कायम उच्च पत्रकारीय मूल्य और सामाजिक सरोकारों तथा भारतीयता के प्रति समर्पण को पुन: पूरी आभा में देखना.

-ऐसी बात, जिसे आप कभी कह न कर पाए हों और ‘भड़ास4मीडिया’ के मंच से कहकर अपना दिल हल्का करना चाहते हों?

–वैसे मैं हमेशा से एक ‘खुली किताब’ रहा. कभी मन में कुछ नहीं रखा. जो बातें मन में आयीं, लेखन या मंच के माध्यम से कह डालीं. अकथ्य के नाम पर कुछ भी शेष नहीं…!

Advertisement. Scroll to continue reading.

समाप्त


इंटरव्यू का पहला और दूसरा पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें-

अगर आप एसएन विनोद तक अपनी कोई बात पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं। इस इंटरव्यू के बारे में कोई फीडबैक भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह तक पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें इस आईडी पर मेल करें- [email protected]

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

हलचल

: घोटाले में भागीदार रहे परवेज अहमद, जयंतो भट्टाचार्या और रितु वर्मा भी प्रेस क्लब से सस्पेंड : प्रेस क्लब आफ इंडिया के महासचिव...

Advertisement