उन्हें मोबाइल मिल तो गया पर अब उसे छूने में भी डरते हैं : शंभू झा को जानना बहुत जरूरी नहीं है, आप वो जानिए जो शंभू झा के साथ हुआ। शंभू झा न्यूज 24 में प्रोड्यूसर हैं। नोएडा में दफ्तर है। बीते साल 12 नवम्बर की रात दस बजे वह दफ्तर से घर के लिए निकले थे। नोएडा टोल ब्रिज से रोजाना कैब पकड़ते थे। उस रात भी वह कैब को रुकने के लिए हाथ दे रहे थे। एक मारुति 800 रुकी, तीन लोग पहले से थे। चौथे शंभू झा सवार हुए। कार आगे बढ़ी और टोल ब्रिज पर न जाकर ग्रेटर नोएडा की तरफ मुड़ गई। शंभू ने वजह पूछी तो बगल में बैठे शख्स ने तमंचा उनकी कनपटी से सटा दिया और पिटाई शुरू कर दी। कहा-अपनी आंखों पर हाथ रख लो। एहतियात के लिए उसने अपना हाथ भी उनके चेहरे पर रख दिया औऱ तमंचे से मरम्मत जारी रही। उनका बैग खंगाल लिया, जेब खंगाल लिया। दुर्भाग्य ये था कि 20 हजार रुपये दफ्तर से उसी दिन लिए थे। हाईटेक मोबाइल था करीब 19 हजार का। कार चल रही थी, पिटाई भी चल रही थी। कार एक्सप्रेस वे की साइड में पतली सड़क पर चल रही थी। 11 किलोमीटर दूर एक सूनसान जगह पर कार रुकी और गेट खोला। पीछे बैठा शख्स बोला-सीधे भागते हुए जाओ नहीं तो गोली मार दूंगा। शंभू झा क्या करते, भागते गए।
शंभू करीब आधे घंटे तक उस सूनसान जगह पर बेसुध पड़े थे। होश आया तो पास में कुछ भी नहीं था। रोड में अंडरपास था, उसी से वापस आए। हर कार को हाथ देना शुरू किया, एक भले प्राणी ने कार रोक दी और फिल्म सिटी तक छोड़ दिया। पुलिस को खबर दी गई, पुलिस अपने समय पर आई। पहले मौके पर गई और देर रात शंभू झा को थाने में लेकर पहुंची। थाने में रिपोर्ट लिखने का नाटक चला, लम्बा चला। एसएचओ एक ही सवाल 20-20 बार पूछ रहे थे। उस शख्स से जो इतनी पिटाई के बाद, अपने पैरों पर खड़ा था तो ये भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। रिपोर्ट दर्ज हुई तो सरकारी अस्पताल में मेडिकल भी हुआ। डॉक्टर साहब जगाए गए। एक पेनकिलर का इंजेक्शन लगाया। कुछ दवाएं दी खाने को। रिपोर्ट बनाई और वहां से रुखसत किया। शंभू के साथ लूट की खबर चैनल पर चली और सुबह एकाध अखबारों में भी छपी। ये शंभू झा के साथ लूट की पूर्वकथा है।
अब शंभू झा की उत्तर कथा पर आते हैं। लूट के करीब दस दिन बाद शंभू झा को नोएडा पुलिस ने बताया कि उनका मोबाइल बरामद हो गया है, अदालत से मिलेगा। वाह पुलिस वाह। दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास शंभू का घर, नोएडा में दफ्तर और नोएडा फेज टू में कोर्ट। यानी करीब 45 किलोमीटर का सफर। शंभू झा अपना मोबाइल लेने अदालत पहुंचे। अदालत से कहा गया- पहले अपना एक वकील कीजिए..। एक वकील साहब से बात की और केस सौंप दिया। अदालत ने थाने को रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा और अगली तारीख दे दी। अगली तारीख पर पहुंचे तो फिर अगली तारीख मिली। कई पेशियां हो चुकी थीं, मोबाइल जी टस से मस नहीं हुए। हर दिन छुट्टी लेनी पड़ती थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छुट्टी…। खैर, शंभू झा ने अपने वकील से कहा भाई मुझे मोबाइल नहीं लेना। जितने का मोबाइल है, उससे ज्यादा वह परेशान हो चुके हैं।
वकील ने जो कहा, उसे सुनकर शंभू झा के होश फाख्ता हो गए। वकील ने समझाया कि ये कानूनी मामला है, अगर आपने मोबाइल के लिए अप्लीकेशन दे दी है तो आपके हित में यही होगा कि मोबाइल ले लें। यानी कोई रास्ता नहीं था। अपना ही मोबाइल लेना शंभू के लिए रागदरबारी में लंगड़ की नकल लेने की तरह हो गया। रागदरबारी उपन्यास खत्म हो जाता है, लेकिन लंगड़ को नकल नहीं मिलती। खैर पेशी पर जाना मजबूरी था, तो जाना ही पड़ा। अब शंभू से लंगड़ के कोड में बात होती थी..। क्या शंभू जी, नकल मिली..। शंभू मुस्कुराकर कहते-बस कुछ ही दिन में मिल जाएगी।
शंभू सचमुच राग दरबारी के लंगड़ हो गए थे। अब उन्हें बता दिया गया था कि अगली पेशी में मोबाइल मिल जाएगा, जज ने ऑर्डर कर दिया है। शंभू कोर्ट पहुंचे विजेता की तरह मुस्कान लिए। लेकिन उन्हें बताया गया कि अपना आईडी प्रूफ, रेजिडेंस प्रूफ, डेट ऑफ बर्थ का प्रूफ और कई सारे प्रूफ लेकर आइए तब मिलेगा मोबाइल। शंभू बैरंग वापस। ध्यान रहे दिल्ली यूनिवर्सिटी से नोएडा और नोएडा से नोएडा फेज टू। सवारी मेट्रो, बस, ऑटो। खैर अगली तारीख पर शंभू सारे प्रूफ लेकर पहुंच गए इस उम्मीद के साथ कि अब नकल रूपी मोबाइल उन्हें मिल जाएगा। इस बार नया पेच फंस गया। बताया गया कि पहले मोबाइल की कीमत की जमानत देनी होगी। आपकी जमानत नहीं चलेगी, किसी और को जमानत देनी होगी। शंभू ने पूछा-किस नाते भाई..। जवाब मिला कि कहीं आप मोबाइल लेकर गायब न हो जाएं।
मरता क्या न करता। अपने एक मित्र को लेकर शंभू फिर कोर्ट पहुंचे। जमानत के तौर पर मित्र की मोटरसाइकिल के कागजात की फोटो कॉपी रखवाई। अदालत से उन्हें एक पर्चा मिला और कहा गया, थाने जाइए, मोबाइल ले लीजिए।
शंभू ने थाने में फोन किया, पता चला मालखाना खुलने और बंद होने का टाइम है, टाइम पर आइए। अगले दिन शंभू टाइम पर थाने पहुंचे तो मालखाने का इंचार्ज गायब था। इंचार्ज का मोबाइल नम्बर ले लिया। खैर सिर्फ तीन दिन दौड़ने के बाद शंभू झा को अपने मोबाइल के दर्शन प्राप्त हुए। मोबाइल उनके हाथ में था।
उत्तरकथा का क्लाइमेक्स अभी बाकी है। शंभू अब सिर्फ दफ्तर की कैब से जाते हैं और कई बार उन्हें भ्रम होता है कि कैब में उनके साथी नहीं, लुटेरे बैठे हैं। हर रात दहशत में गुजरती है। एटीएम जाते डर लगता है, बस और मेट्रो में भी डरकर बैठते हैं। पुलिस और वकील को देखकर भी डरते हैं। शंभू को ये नहीं पता कि उन्हें लूटने वाले पकड़े गए या नहीं। मोबाइल कहां से बरामद हुआ, लेकिन शंभू झा ने ये तय किया है कि अब इस मोबाइल को वो घर में सात तालों के भीतर रखेंगे। क्योंकि अदालत में उनसे लिखवाकर ले लिया गया है कि किसी भी सूरत में न तो ये मोबाइल खराब होना है, न ही गायब होना है और न ही इसे बेचना है। अगर ये मोबाइल गायब हुआ तो फिर उनके दोस्त की मोटरसाइकिल उठवा ली जाएगी। शंभू अब उस मोबाइल को छूते भी नहीं हैं, डरते हैं कि फिर लुटेरे मिल गए तो क्या होगा। लुटेरे उन्हें लूट लेंगे, उनका मोबाइल लूट लेंगे और कानून उनके दोस्त की मोटरसाइकिल लूट लेगा।
लेखक विकास मिश्र ‘न्यूज 24’ में सीनियर प्रोड्यूसर हैं.
yashwant singh
February 16, 2010 at 11:54 am
शंभू जी,
आपके साथ जो हुआ, वह बताता है कि कोर्ट-कचहरी-पुलिस का चक्कर कितना बुरा होता है. ये संस्थाएं न्याय दिलाते-दिलाते जाने-अनजाने में पीड़ित के साथ ही अन्याय करने लगती हैं. मेरठ में मेरे साथ यही वाकया हुआ. पत्नी की पर्स जिन महिलाओं ने भीड़ भरे बाजार में मार दिया, उन्हें तुरंत पकड़ भी लिया गया. थाने लाया गया. उनसे पैसे भी बरामद हो गए पर पुलिस ने लिखा-पढ़ी कर दी, सो उसे जमा करा दिया गया. कहा गया कि कोर्ट से मिलेगा. कई बार के प्रयास के बावजूद पैसा नहीं मिला. थक हारकर चार हजार रुपये को छोड़ दिया. जाहिर सी बात है कि वे पैसे अब पुलिस वालों के हो गए होंगे.
जब मीडिया का आदमी इतना झेलता है तो आम लोग कितना झेलते होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है. अपने बड़े-बुजुर्ग इसीलिए कहते हैं कि दो रोटी कम खाना लेकिन कोर्ट-कचहरी-पुलिस-वकील के चक्कर में न पड़ना वरना ये खेत बिकवा देंगे.
यशवंत
कुन्दन
February 16, 2010 at 1:03 pm
शंभू बाबू के साथ जो हुआ उसके लिये सहानुभुति जरूर है लेकिन विकास जी ने जिस तरीके से उनके दर्द का बखान किया है वो काबिले तारीफ़ है। भाई इस कथा को पढकर शंभूजी का दर्द और उसकी विडंबना के रूप में परिणति सचमुच मज़ेदार है—
(माफ़ कीजियेगा)
अमित
February 16, 2010 at 1:27 pm
शंभू जी,
यह दर्द मैंने भी करीब से महसूस किया है. मेरठ में मेरे बड़े भाई के साथ लूट हुई थी। मोबाइल, पैसे, सोने की चेन काफी कुछ लूट लिया गया। लुटेरे 10 दिन बाद पकड़े गए, उनके पास से मोबाइल भी मिला और चेन भी। कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते-काटते हम चेन कानून के पास ही छोड़ चुके हैं और मोबाइल यहां भी सात-तालों में बंद है, क्योंकि लगता है, अब वह कानून की अमानत है, जिसे संभालकर रखना है।
पंडित दुखहरण दास
February 17, 2010 at 6:53 am
कारे विकेशवा…बाड़ा बढ़िया लिखले बाड़े…शंभू जी त भांग ना छानेले…हं तू त छाने के उस्ताद हवे…बाकिर हामारा यकीन बा कि ई सब लिखे के पहिले भांग ना छनले होखबे…माजा आ गईल रे भाया..माजा
avinash jha
February 17, 2010 at 4:07 pm
bahut umda prastuti vikash ji ki…jo hua wo sharmnak hai…lakin kisi ne such hi kaha hai court katchari v police ka koi mai baap nahi hota hai…so sad shambhu ji.
SUDHIR K S DIXIT
February 18, 2010 at 2:55 am
बेहद दर्दनाक हादसे का बेहद उम्दा प्रस्तुतिकरण। पूरी कहानी एक फिल्म की तरह सामने घूम गई। NCC में आर्मी के साथ कैंप में ट्रेनिंग के दौरान हमारे कमांडर कर्नल साब ने बहुत ही उम्दा बात कही थी। उन्होंने कहा था इन चार ‘कोट’ के चक्कर में अच्छे-अच्छे बरबाद हो जाते हैं- सफेद कोट(डॉक्टर), काला कोट (वकील), खाकी कोट (पुलिस) और पेटीकोट
Renu
February 20, 2010 at 5:13 pm
THE DESCRIPTION IS TRULY LIVE
pooja prasad
May 2, 2010 at 6:15 am
विकास जी शंभू जी को बता दीजिएगा, इस देश में ही नहीं बल्कि इस शहर में इस मीडिया में ही उन्हीं की तरह बिना अपराध किए कानून की चपत खा रहे दूसरे लोग भी हैं जो मोबाइल चोरी की कंप्लेंट लिखवाने का खामियाजा अब भी कोर्ट जा जा कर भर रहे हैं..।