जाति पाति पूछे नहिं कोई, हरि का भजे सो हरि का होई : ये लोकतंत्र है। किसी को भी किसी के खिलाफ या पक्ष में कुछ भी बोलने का हक मिला हुआ है। यह जो ‘हक’ है, ‘अधिकार’ है, बहुत बड़ी चीज है पर हम इसका इस्तेमाल जब नफे-नुकसान से प्रेरित होकर करने लगते हैं तो यह आजादी और अधिकार अपनी गरिमा खोने लगते हैं। कुछ लोगों ने हरिवंश जी को जातिवादी कहते हुए उन पर शाब्दिक प्रहार करने की कोशिश पिछले दिनों की। मैं प्रभात खबर में रहा हूं और हरिवंश जी को अच्छी तरह जानता हूं। वे कहीं से भी जातिवादी नहीं हैं। वे एक अखबार के प्रधान संपादक औऱ मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं। जाति देख कर काम करते तो उनका अखबार इतना चर्चित नहीं होता।
कोई भी व्यक्ति जब किसी अखबार या अभियान का नेतृत्व करता है तो ‘जाति पाति पूछे नहिं कोई, हरि का भजे सो हरि का होई’ के सिद्धांत को लेकर चलता है। अब आप कहेंगे कि आप क्षत्रिय हैं, इसलिए उनके पक्ष में बोल रहे हैं। मुझे प्रभात खबर में नौकरी का लालच नहीं है। मैं जहां हूं, ठीक हूं। मित्र, मेरे क्षत्रिय होने में मेरा कोई हाथ नहीं है। जहां जन्म होता है, उसमें व्यक्ति का कोई हाथ नहीं होता। इसलिए इसे स्वीकार कर चुपचाप काम करना चाहिए। मैं प्रभात खबर में पत्रिका प्रभारी था। इसके पहले मैं टाइम्स आफ इंडिया की पत्रिका ‘दिनमान’ से जुड़ा था और दिल्ली में रहता था। पत्रिका निकालने के मेरे अनुभव को देखते हुए ही हरिवंश जी ने मुझे पत्रिका निकालने के लिए बुलाया। अभी साल भर भी प्रभात खबर में काम करते नहीं हुआ कि मुझे जनसत्ता से बुलावा आ गया। यहां भी मैं फीचर सेक्शन देखता हूं और रिपोर्टिंग करता हूं।
मैंने हरिवंश जी से प्रभात खबर छोड़ने की इजाजत मांगी। हरिवंश जी ने मेरे कई मित्रों को संपादक पद के लिए बुलाया लेकिन मुझे नहीं। जबकि वे जानते हैं मैं यह काम अच्छी तरह कर सकता हूं। उनसे आज भी बातचीत होती है और मेरे दिल में उनके लिए बहुत सम्मान है। अगर वे जातिवादी होते तो अन्य जातियों के लोगों को संपादक बनाने के बजाय मुझे ही संपादक बना देते। ऐसे कई मौके आए हैं जब उन्होंने काम के मामले में राजपूत की बजाय अन्य जाति के लोगों को महत्व दिया। आपका चश्मा जिस रंग का होगा, आपको सारा दृश्य उसी रंग का दिखाई देगा। जो हरिवंश जी दिन रात पढ़ने-लिखने और अखबार की योजनाओं में व्यस्त रहते हैं, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी संपत्ति के बारे में बता दिया है और जो जाति नहीं कर्म में भरोसा करते हैं, उन्हें एक खास घेरे में रखने की कोशिश कर कुछ भी लिख देना अनुचित है। चूंकि मैं उनके लक्ष्य, उनके मिशन और उनके सिद्धांतों से परिचित हूं, इसलिए उनके प्रति मेरे मन में सम्मान है। मित्रों, एक बार फिर सोच कर देखिए, कोई बड़ा काम जाति के बंधन में रह कर नहीं हो सकता। इतना बड़ा अखबार यानी प्रभात खबर क्या एक जाति के आधार पर चल रहा है? क्या हो रहा है अभिव्यक्ति और आजादी की इस दुनिया में ?
अंधविश्वास के कारण दस साल बच्ची की दुर्गति : अजमेर के दुर्गावास गांव में पिछले दिनों जो कुछ हुआ उसने फिर संवेदनशील लोगों को झकझोर कर रख दिया। एक 10 साल की बच्ची को बुखार हो गया और उसके बदन में भारी दर्द था। उसके पिता को डाक्टर के पास ले जाना चाहिए था। लेकिन उसे लगा कि बच्ची को किसी भूत-प्रेत ने पकड़ लिया है, इसीलिए बुखार है। पिता बच्ची को पड़ोस के गांव में एक ओझा के पास ले गया। ओझा आग में लोहे की छड़ गर्म करता रहा और जब छड़ लाल हो गई तो उसने बच्ची के हाथ पर रख दिया। उसने कहा- इससे बच्ची के शरीर पर आई प्रेतात्मा भाग जाएगी। बेचारी बच्ची चिल्लाती रही। उसका पूरा हाथ फूल गया है। उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया है। तांत्रिक कहीं भाग गया है औऱ बच्ची की हालत बद से बदतर हो गई है।
हमारे देश में अशिक्षा के कारण रोज ऐसी घटनाएं हो रही हैं। विग्यान युग में ऐसी घटनाएं हमें शर्मसार करती हैं। यह हम सब पढ़े- लिखे लोगों के लिए भी चिंता का विषय है। कोलकाता में एक विग्यान मंच है जो हर अंधविश्वास के खिलाफ अभियान छेड़े हुए है। हालांकि बंगाल में भी अंधविश्वास से मौते होती हैं लेकिन कम। यहां भी ओझाओं का व्यवसाय खूब फल- फूल रहा है। कई बार लगता है पाषाण युग के अवशेष हमारे समाज में अब भी हैं। अस्पताल में छटपटा रही इस अबोध बच्ची का क्या दोष है? सिर्फ इतना ही कि उसने एक अंधविश्वासी परिवार में जन्म लिया है। लेकिन डायन, ओझा और इसी तरह के लोग एक अव्यक्त भय दिखा कर न जाने कितने लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं। किसी समाज या देश में हो रही घटनाएं, उस समाज या देश को प्रतिबिंबित करती हैं। भड़ास फार मीडिया ने अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम छेड़ी है। इसलिए इस तरह की घटनाएं दर्ज होनी चाहिए और इस पर जम कर बहस होनी चाहिए। यह सोचने से काम नहीं चलेगा कि यह तो अनपढ़ करते हैं, हम नहीं। यह सबके लिए शर्म की बात है। यह हम सबका देश और समाज है। जो बुद्धिजीवी हैं, जो खुद को समाज का प्रहरी बताते हैं, उन्हें इस अभियान में हिस्सा लेना चाहिए। भूत- प्रेत औऱ जादू- टोना का व्यवसाय खूब फल- फूल रहा है। इस पर क्यों नहीं रोक लगती? अनपढ़ व्यक्ति डाक्टर के पास शायद इसलिए नहीं जाता क्योंकि उसके पास पैसे नहीं होते। लेकिन जब हालत बिगड़ती है तो उसे सरकार अस्पताल की शरण लेनी पड़ती है। लोगों को अनपढ़ रख कर, अग्यानी रख कर राज करने की मानसिकता आजादी के ६० साल बाद भी नहीं बदली है। जो संगठन अंधविश्वास के खिलाफ लड़ रहे हैं, वे एकजुट क्यों नहीं होते और अनपढ़ लोगों के मन से भूत-प्रेत, जादू- टोना का विश्वास क्यों नहीं दूर करते?
अगर जादू- टोना से ही सब कुछ हो जाता तो देश में इतने बेरोजगार न होते और न ही सामान्य अधिकारों के लिए आम आदमी को इतना जूझना पड़ता। भूत और प्रेत तो वे ही हैं जो हमारे हकों को लूट ले गए हैं और देश में न शुद्ध पीने का पानी है और न ही चिकित्सा और शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था। छोटे शहर का आदमी बड़ी बीमारी से ग्रस्त होने पर या तो छटपटा कर मर जाता है या प्रदेश की राजधानी में जा कर लुट जाता है। एक बड़ी बीमारी जिस देश के आम आदमी को कंगाल कर दे, उसे आप कैसा देश कहेंगे?
sagarbandhu
January 24, 2010 at 10:32 am
Harivans jee par jaat-paat ka aarop laganewale bade hi sankirn vichar wale log hai. un par aarop lagne wale log wahi hai jo unki unchaio se jalte hai. sach to ye hai ki harivans jee jaise vicharadhara ke sampadak aaj ke daur me kam se kam hindi patrakarita me nahi hai. unhone sada pratibhawan logo ko mauka diya hai. unhoane kabhi bhi aapne sansthan me kisi ke sath pkshpat nahi kiya hai. weh patrakaro ki har mushibat me madad karte rahe hai. aarthi sankat ke bad bhi unhone prabahtkhabar ki desh me alag pahchan banai hai, jo bade gharane ke akhabar nahi kar paye hai. desh ke bade patrakar bhi aaj ke din me harivansjee ka loha mante hai. yadi harivansjee vichar ke dhani nahi hote tho ve bhi aaj ke din kisi bade aakhabar ke pradhan sampadak bane hote.