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वेब-सिनेमा

न्यूज मैन कम, न्यूज मैनेजर ज्यादा हो गए

[caption id="attachment_16722" align="alignleft"]विष्णु त्रिपाठीविष्णु त्रिपाठी[/caption]बचपन के एक प्रसंग से बात शुरू करते हैं। मोहल्ले में एक सिद्धी गुरू हुआ करते थे। हमने तो उन्हें बुजुर्ग के तौर पर ही देखा था लेकिन जवानी में वो शौकिया तौर पर पहलवानी भी करते थे, सो उनका निकनेम हो गया सिद्धी गुरू। जबका ये प्रसंग है, तब उनकी उम्र 60 के ऊपर तो हो ही गई होगी। हमें तो बहुत एक्टिव दिखते थे। एक रात जब हम पिता जी के साथ कमल किशोर वैद्य जी के दवाखाने में बैठे थे तो सिद्धी गुरू का पदार्पण हुआ। कुछ बेचैने से थे, वैद्य जी से बोले पता नहीं क्या बात है, कुछ दिनों से पोर-पोर दुखता है। जोड़ों में पीर उठती है। पहले सोचा पुरवाई का असर है लेकिन अब तो पछुवा का जोर चल रहा है लेकिन पीर है कि घटने के बजाय और जोर मार रही है। वैद्य जी बड़ी-बड़ी सघन मूंछों के बीच मुस्कुराए, बोले दादा, पीर इसलिए जोर मार रही है कि आपने जोर करना बंद कर दिया है।

विष्णु त्रिपाठी

विष्णु त्रिपाठीबचपन के एक प्रसंग से बात शुरू करते हैं। मोहल्ले में एक सिद्धी गुरू हुआ करते थे। हमने तो उन्हें बुजुर्ग के तौर पर ही देखा था लेकिन जवानी में वो शौकिया तौर पर पहलवानी भी करते थे, सो उनका निकनेम हो गया सिद्धी गुरू। जबका ये प्रसंग है, तब उनकी उम्र 60 के ऊपर तो हो ही गई होगी। हमें तो बहुत एक्टिव दिखते थे। एक रात जब हम पिता जी के साथ कमल किशोर वैद्य जी के दवाखाने में बैठे थे तो सिद्धी गुरू का पदार्पण हुआ। कुछ बेचैने से थे, वैद्य जी से बोले पता नहीं क्या बात है, कुछ दिनों से पोर-पोर दुखता है। जोड़ों में पीर उठती है। पहले सोचा पुरवाई का असर है लेकिन अब तो पछुवा का जोर चल रहा है लेकिन पीर है कि घटने के बजाय और जोर मार रही है। वैद्य जी बड़ी-बड़ी सघन मूंछों के बीच मुस्कुराए, बोले दादा, पीर इसलिए जोर मार रही है कि आपने जोर करना बंद कर दिया है।

सिद्धी गुरू की मुखमुद्रा कुछ ऐसी बनी कि बात समझे नहीं। वैद्य जी ने बात और स्पष्ट की, आपने जोर करना जो छोड़ दिया है। हमें लगता है कि दंड बैठक अब आप करते नहीं, मुगदर भांजना तो दूर की बात रही। गुरू की मुख मुद्रा अब कुछ-कुछ समझने वाली थी। वैद्य जी जारी रहे, जवानी में आपने इतनी कसरत की, अखाड़े में जोर किया, दंड बैठक मारा, मुगदर भांजा तो शरीर जिस मेहनत की खुराक का अभ्यस्त था, वही आपने त्याग दिया, नतीजा शरीर अंदर से आवाज दे रहा है। वैद्य जी, जारी रहे, बोले हम आपके लिए बढ़िया च्यवन प्राश का प्रबंध कर देते हैं लेकिन आप उसके पहले अपना अभ्यास शुरू कर दीजिए। गुरू बोले…और दर्द की दवाई? वैद्य जी का जवाब था दवाई आपके ही पास है, मैंने बता तो दी है।

लिखने पढ़ने वालों के साथ भी कुछ ऐसा ही हो जाता है। एक बार अभ्यास कमजोर हुआ, बंद हुआ तो मन-चित्त अंदर से आवाज देना शुरू कर देता है। हम जैसे लोग जो अब मूलतः न्यूज मैन कम बल्कि न्यूज सुपरवाइजर या मैनेजर ज्यादा हो गए हैं, कंटेंट कंस्ट्रक्शन कंपनी के हेड मेट (मिस्त्री वाला मेट)। तभी लगता है कि कुछ-कुछ सिद्धी गुरू जैसी दिक्कत हो गई है। कभी कभी लगता है कि हम जैसे लोग खबरों की दुनिया में वाचिक परंपरा के अनुगामी होकर रह गए हैं (सौजन्य से नामवर सिंह)। कभी कभी ये भी लगता है कि लिख तो बहुत रहे हैं, लेकिन वह शब्द रचना नहीं है, बल्कि खबरों की चीर-फाड़, पूछताछ, खबरों का सौजन्यीकरण, समन्वय और तमाम खबरीय प्रशासनिक प्रकरणों को लेकर लंबे-चौड़े चिट्ठों का लेखन, मेल बाजी। हालांकि खबरों का लेखन भी अस्थायी भाव का लेखन है, जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य। बकौल सीनियर विष्णु त्रिपाठी (कानपुर वाले, वैसे हम भी कनपुरिया ही हैं) तीसरे दर्जे का साहित्य। फिर भी आत्मसंतोष होता था। खबर में ही कोई एंगिल देकर, कलर-फ्लेवर देकर, पर्सपेक्टिव देकर स्वांतः सुखाय हो जाता था। सत्ता के गलियारे सरीखे गासिप कालम लिख कर खबरी मन को थोड़ा बहुत तुष्ट कर लेते थे, लेकिन अब तो वो भी नहीं रहा।

जब जागरण जंक्शन की योजना सतह पर आई तो ये तय हुआ कि सबसे पहले माहौल बनाने के लिए जागरण के लोग लिखना शुरू करें। स्वाभाविक रूप से हमें जिम्मेदारी मिली कि जागरण के सम्मानित सहयोगियों से इस आशय का औपचारिक आग्रह करें। आग्रह किया भी गया और उसके परिणाम भी निकले, कई लोगों ने लिख कर भेजा भी, लेकिन आग्रह की अपेक्षानुरूप संख्या कम थी। सुकीर्ति जी ने एकाध बार आग्रह दोहराया भी, लोगों को एक बार फिर याद दिला दीजिये ना। याद तो नहीं दिलाया लेकिन सामने पड़ गए संतोष तिवारी जी से पूछ बैठा-आपने फोटो भेजी, कुछ लिखा? उन्होंने उसी रिदम में पूछ लिया-आपने फोटो भेजी, कुछ लिखा? मैं निरुत्तर, खुद पर बहुत लज्जा आई। वो कहानी याद आ गई। शायद कभी कल्याण में पढ़ी थी। मां अपने बेटे को लेकर एक साधु के पास गई, निवेदन किया-बाबा, ये मिठाई बहुत खाता है, आप कह देंगे, इसे समझायेंगे तो निश्चित तौर पर बुरी आदत तज देगा। बाबा ने कहा-माई, हफ्ते भर बाद आना। हफ्ते भर बाद मां फिर से बेटे को लेकर साधु बाबा के पास पहुंची। बाबा ने बच्चे को पास बिठाया, स्नेह के आंचल में भिगोया और कहा बेटा ज्यादा मिठाई खाना अच्छा नहीं, अति सबकी बुरी होती है। कम खाओगे तो मिठाई और ज्यादा अच्छी लगेगी, जाओ। मां ने शिकायती लहजे में कहा कि अगर यही तीन बोल बोलने थे तो उसी दिन बोल देते। हफ्ते भर का इंतजार क्यों कराया? बाबा बोले-माई, पिछले सात दिन मैं खुद कम मीठा खाने का अभ्यास कर रहा था। माई संतुष्ट हो गई।

रोज सोचते थे कि कहां से शुरू किया जाए? फिर सोचा कि चलो पहले अपनी फोटो ही भेज देते हैं, जागरण जंक्शन के संयोजकों-संचालकों को लगेगा तो कि कुछ हो रहा है। घर पर फोटो की ढुंढ़ाई शुरू की, बच्चा पार्टी से कहा-ऐसी फोटो निकालो जो प्रसन्नवदन हो, चेहरा खिलखिलाता न सही, मुस्कुराता हुआ ही हो। विनी ने कहा- ऐसी फोटो तो मुश्किल है। क्यों? उसका जवाब था ऐसी फोटो तो तब खिंचेगी जब चेहरा भी तो वैसा हो। मेथी की पत्तियां तोड़ रहीं श्रीमती जी को बस विनी के इसी वाक्य के बूते मुझ पर वार करने का एक और मौका मिल गया। बहरहाल एक कामचलाऊ फोटो मिली और उसका प्रेषण भी हो गया लेकिन सवाल यही था शुरू कहां से किया जाए। उपेंद्र स्वामी जी ने घंटी भी बजा दी, बोले फोटो तो आ गई, अब कुछ भी लिख दीजिए सर (सर, शायद उनका तकिया कलाम सरीखा है)। ब्लाग तो लेखन की असीमित दुनिया है, कुछ भी लिखा जा सकता है। मैंने सोचा ये कहना तो बहुत आसान है लेकिन कहीं भी, कभी भी क्या कुछ भी लिखा जा सकता है? मुझे सिद्धी गुरू याद आ रहे थे। वैद्य जी ने तो कह दिया था लेकिन उन्हें नए सिरे से जोर मारने में कितनी दिक्कतें पेश आई होंगी। फिर भी मन जो आवाज दे रहा है, अंदर से जो पोर-पोर दुख रहा है, उससे पार तो पाना ही है। विष्णु भाई, आप पार पा लेंगे।

चारो तरफ लोहड़ी की उमंग है, भगवान भुवन भास्कर उत्तरायण हो रहे हैं। कोई कह रहा था कि खरमास खत्म हो रहा है। मन पक्का हुआ तो कहां से शुरू किया जाए? का जवाब भी मिल गया। चलो वही लिख देते हैं कि फिर से लिखने की प्रक्रिया किस दौर से गुजरी। अब लिखा जाएगा, ओरिजनल लिखा जाएगा। उन्होंने कहा, उन्होंने बताया से आगे। विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि से और आगे। कोशिश करेंगे कि वो लिखा जाएगा जो स्थायी भाव का हो। जीवन के तमाम प्रसंग हैं, मन में भरे पड़े हैं, जिंदगी में तमाम ऐसे चरित्रों से साबका हुआ, जिनके बारे में लिखने की चाहत है, ऐसे चरित्र जो आपसे भी दो-चार हुए होंगे। गांव, मोहल्ले की बातें। रस्मो रिवाज की बातें। बाबा की बातें, अजिया की बातें। कनपुरिया-कनौजिया (कन्नौजिया नहीं) खान-पान की बातें। मूड होगा तो खालिस कनौजिया में लिखेंगे। कोई प्रवचन नहीं, उपेदश नहीं, शोध और रिसर्च नहीं। जिन प्रसंगों और लोगों ने कभी गुदगुदाया, आल्हादित किया, प्रेरणा दी, सिखाया, उन्हें शेयर करेंगे। निश्चित तौर पर सौ फीसद स्वांतः सुखाय लिखेंगे, पढ़ने वाले मुदित-प्रमुदित होंगे तो खुद धन्य समझेंगे।

लेखक विष्णु त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण, नोएडा में एसोसिएट एडिटर के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह आलेख उनके ब्लाग से साभार लिया गया है.

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0 Comments

  1. प्रदीप

    January 14, 2010 at 4:47 pm

    हम तो यह समझ ही नहीं सके कि आप किस विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं।

  2. kumar

    January 14, 2010 at 5:25 pm

    if end is proper samjho bhaiya all is well. that’s wat ur message is. It’s very good written wid proper hindi words & wisdom. keep it up.

  3. मुकुंद शाही

    January 15, 2010 at 10:39 am

    विष्णु सर….मैन…मैनेजर…क्य तुकबंदी है….वो भी बिना किसी मापदंड के…अगर आपकी लेखनी से मैन…मैनेजर…मीडिया और मापदंड पर कुछ प्रकाश डाला जाए तो शायद मीडिया के उन मालिकों को भी नसीहत मिले जो सिर्फ बोल वचन सिंहों के वायदों और बडी बड़ी बातों को सुनकर उन्हें ही अपना खेबनहार समझ लेते हैं….लेकिन हकीकत तो ये होती है कि उन्हीं खेबनहारों के बोझ से एक दिन उनकी टायटैनिक जमींदोज हो जाती है और उन्हें जब तक होश आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है….

  4. prem sharma

    January 15, 2010 at 3:47 pm

    aap kahna kya chaah rahe hain????

  5. veenit

    January 16, 2010 at 1:40 pm

    सर यशवंत जी मैंने कल कुछ भेजा था विष्णु पर..आपने छापा नहीं…अच्छी यारी निभा रहे हैं आप…सर जी थोड़ा आलोचना अगर कोई लिखता है, तो उसे भी छापिए

  6. अजय शुक्‍ला

    January 16, 2010 at 10:30 am

    इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा
    करते हैं कत्‍ल हाथ में तलवार भी नहीं

    शुक्र है, आपने सिद़धी गुरु की तरह पहलवानी नहीं छोड़ी और वैद्य जी की सलाह मान ली। वैसे, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि अपने कॅरियर के शुरुआती दिनों में मैं जिन दो पत्रकारों की लेखनी का अनुसरण करता रहा हूं उनमें एक आप और दूसरे श्री ज्ञानेंद्र शर्मा जी हैं। प्रणाम

  7. veenit

    January 17, 2010 at 1:36 pm

    दोबारा भेजा रहा हूं, यशवंत सर…छापिए जरूर…यारी मत निभाइएगा..सर आपने विनम्र निवेदन है..और वो भी जस का तस
    ————————————————————————————————-
    विष्णु का ये लेख भड़ास पर पढ़ा…पढ़ने के बाद समझ में ही नहीं आया कि ये आखिर क्या कहना चाह रहा है..हां एक बात जरूर समझ में आई कि मानों इस लेख की हेडिंग से विष्णु ने अपना पूरा व्यक्तित्व ही बयां कर दिया है..वैसे मैं सच बोलूं, तो न तो ये शख्स न्यूज मेकर ही है..और न ही अच्छा न्यूज मैनेजर….मैंने विष्णु के साथ करीब तीन साल काम किया..जब ये शख्स आया, तो लगा कि कुछ नया करेगा..जागरण ने सेंट्रल डेस्क का नया विचार शुरू किया था..पर तीन साल विष्णु के साथ गुजारने के बाद इसने अखबार में कंटेंट के लिहाज से तो कुछ नया नहीं किया..पर एक नई चीज जरूर की..वो ये कि लोगों की गर्दनें धड़ाधड़ कटनी शुरू हो गईं…जब विष्णु सेंट्रल पर आया था, तो यहां करीब 50 लोग थे..पर जब मैं सम्मानित ढंग से इस्तीफा देकर निकला, तो यहां दस-बारह लोग बचे थे…यानी कम से कम मैं तो इसकी नीतियों पर खरा उतरा..पर मेरी लेने में भी इसने कोई कसर नहीं छोड़ी…बहरहाल मैं एक सच वाक्या बताता हूं, जो मेरे साथ घटित हुआ…एक दिन मैं डेस्क पर अकेला था..और मेरे तीन साथी छुट्टी पर थे…मैं अकेला पड़ गया था..पर मैंने पूरा पेज निकाला…अगले दिन विष्णु ने तेज आवाज में मुझे बुलाया..बोला देखो कहां क्या गलत है..मैंने निगाह डाली..मैं बोला-सर कुछ दिखाई नहीं दिया..विष्णु बोला-ध्यान से देखो…मैंने कहा-सर थोड़े वाक्य जरूर लंबे हैं..इतने पर मदांध और सत्ता के नशे में चूर विष्णु ने पूरे हॉल में और तेज आवाज में बोलते हुए कहा कि वाक्य छोटे रखो..लंबा वो ही रखो, जिससे संतान उत्पन्न की जाती है..और वो तुम्हारी छोटी है…इतना कहकर विष्णु निकल गया…लेकिन मैं ऊपर से नीचे तक हिलकर रह गया…मानों किसी ने भरे बाजार मेरा चीरहरण कर दिया हो..रात भर नहीं सो सका..सोचता रहा कि आखिर क्या कह गया ये शख्स…क्या यही किसी संपादक का बौद्धिक स्तर हैं…मेरे ख्याल से तो इसे पंसारी की दुकान चलानी चाहिए….भई मैंने तो विष्णु के साथ कभी सेक्स भी नहीं किया…कम से कम मैं तो गे हूं नहीं..फिर इसे कैसे पता चला कि मेरी वस्तु विशेष छोटी है..मैंने इसके साथ खड़े होकर कभी पेशाब भी नहीं किया..? फिर इसने सार्वजनिक तौर पर ऐसा बयान कैसे दिया..(पूरे हॉल में तेज आवाज में)…तो इस घटना से इस आदमी का स्तर भाई लोगों आप समझ सकते हैं..जिसे अपने सहकर्मियों से फेस-टू-फेस बात करने मं तौहीन होती है…और पूरा दिन मेला-मेली में ये बिजी रहता है…मैंने अपने तीन साल के कार्यकाल में कभी नहीं देखा कि इसने कभी किसी विषय पर लेख लिखा हो…कोई गंभीर विषय पर कंटेट को लेक राय दी हो..हां लेख लिखने वालों का मनोबल जरूर गिराया…पूरा जागरण जानता है कि संजय गुप्ता के सबसे प्रिय सत्येंद्र सिंह के साथ विष्णु ने क्या किया…मेरे भाई विष्णु जर संभल कर…धरती पर रहकर चल मेरे भाई…सबको साथ लेकर आगे चल…वही सच्चा कप्तान होता है..वही कप्तान होता है, जो साथियों में भरोसा जगाता है, उन्हें आतंकित नहीं करता है..और हिटलर और परवेज मुशर्ऱफ जैसे लोगों का अंत कभी भला नहीं होता..अहंकार भरे सिर ज्यादा दिन खड़े नहीं रहते…खैरे मैं ईश्वर से दुआ करूंगा कि विष्णु की वस्तु विशेष हमेशा लंबी बनी रहे…
    ———————————————————————————————————-
    यशवंत सर..फिर आपसे विनम्र निवेदन है कि छापिएगा जरूर…..मैं आप जैसे और धर्मेंद्र प्रताप सिंह जैसे लोगों का प्रशंसक हूं…..और उम्मीद है कि आप मेरी विष्णु पर राय जरूर प्रकाशित करेंगे….आपका बहुत-बहुत और बहुत धन्यवाद………………………….

  8. veenit

    January 17, 2010 at 2:38 pm

    इस लेख को आप विशेष लेख के तौर पर बड़ी हेडिंग के साथ भी प्रकाशित कर सकते हैं….थैंक्स ए लॉट

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