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कहिन

मसूरी में भीख मांगते देखे गए यशवंत

यशवंत सिंह

भीख मांगना. उर्फ भिक्षाटन करना. यह कोई नया काम नहीं है. बहुत लोग करते रहते हैं. जीने के लिए पैसे चाहिए. पैसे पाने के लिए धंधा करना पड़ता है. या फिर नौकर बनना पड़ता है. जो लोग नौकर नहीं बन पाते, वे धंधा करते हैं. जो धंधा नहीं कर पाते भीख मांगते हैं. कई धंधेबाज भीख मंगवाने का धंधा करते हैं. भीख मंगवाने वाले धंधेबाज इसी बाजार की उपज हैं. ये बाजार जो बताता है कि अगर आपके पास पैसा है तो आप किंग हैं. आपके पास पैसा है तो आपके पास सभी सुख-सुविधाएं हैं. आपके पास पैसा नहीं है तो आप के व्यक्तित्व और आपके जिस्म के साथ कुछ भी हो सकता है. हो रहा है बहुत लोगों के साथ.

यशवंत सिंह

यशवंत सिंह

भीख मांगना. उर्फ भिक्षाटन करना. यह कोई नया काम नहीं है. बहुत लोग करते रहते हैं. जीने के लिए पैसे चाहिए. पैसे पाने के लिए धंधा करना पड़ता है. या फिर नौकर बनना पड़ता है. जो लोग नौकर नहीं बन पाते, वे धंधा करते हैं. जो धंधा नहीं कर पाते भीख मांगते हैं. कई धंधेबाज भीख मंगवाने का धंधा करते हैं. भीख मंगवाने वाले धंधेबाज इसी बाजार की उपज हैं. ये बाजार जो बताता है कि अगर आपके पास पैसा है तो आप किंग हैं. आपके पास पैसा है तो आपके पास सभी सुख-सुविधाएं हैं. आपके पास पैसा नहीं है तो आप के व्यक्तित्व और आपके जिस्म के साथ कुछ भी हो सकता है. हो रहा है बहुत लोगों के साथ.

जिनके पास पैसा नहीं है वे मामूली से अपराध में तिहाड़ जेल में बंद होने के कारण दिन भर खटते हैं और हिक भर लात भी खाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है तिहाड़ के सिस्टम को देने के लिए. जिनके पास पैसा होता है वो बिना वजह किसी के माथे पर गोली मारने के बावजूद सारी सुख सुविधाओं से तिहाड़ में लैस रहते हैं. जब जी चाहे छूटकर चले आते हैं और जब जी चाहे अंदर घुस जाते हैं. तिहाड़ का सिस्टम उनका गुलाम होता है, जी हुजूरी करता है. तिहाड़ तो माडल जेल है. गाजीपुर की जेल चले जाइए या झांसी की. बहुत बुरी हालत है. मेरे एक मित्र छोटे जिले के जेल में थे. वे कई बार जेल में गए हैं, हनुमानी करके. वह जेल के हालात देखकर परेशान हो जाते. उनके सामने सामान्य अपराधों में बंद पैसा विहीन कैदियों पर अत्याचार होता था.

अपने दोस्त का नाम अपराधी कैटगरी के लोगों में इज्जत के साथ लिया जाता है सो उनके जेल जाने पर अंदर के सारे सुनामी अपराधी उनकी आवभगत में लग गए और उन्हें बिना पैसा खर्च किए वीआईपी ट्रीटमेंट मिल गया. बता रहे थे कि एक दिन एक मास्टर साहब नकल कराने के अपराध में जेल में आए. बड़े अपराधियों ने उन्हें इतना पीटा, सिर्फ यह कहकर कि अपने घर वालों से कहो कि मटन-चिकन और दारू भिजवाएं वरना हम लोग तुम्हें हर रोज ऐसे ही तोड़ते रहेंगे. सो, मास्टर साहब ने घर फोन किया कि घर भले बिक जाए पर रोज-रोज कई टिफिन में मटन चिकन और दारू डालकर भिजवा दिया करो. बाकी अपराधियों ने देखा कि मास्टर तो मारने पर अच्छा-अच्छा माल घर से बनवाकर भिजवाता है सो बाकी भी उसे पीटने लगे. देखते-देखते पुलिस वाले भी उसे पीटने लगे कि पैसा मंगवाओ वरना यूं ही पीटते रहेंगे. कुल मिलाकर सीधे-साधे मास्टर साहब ने नकल के कथित जुर्म में पैसे के लिए जो पिटाई झेली उसके बाद वो जिंदगी जीना भूल गए. किसी भी आदमी के चेहरे से डरने लगे.

बात से भटक गया था. पर जरूरी था बताना पैसे की महिमा. पैसे की महिमा को त्यागकर भीख मांगने निकल जाना बड़ी बात होती है. भीख इसलिए नहीं मांगना कि पैसे बटोरना है. भीख इसलिए मांगने कि जीने भर खाना मिल जाए. पाव भर आलू. दस ग्राम तेल. दस ग्राम नून. आधा किलो आटा और दस-बीस उपले. बस. इतने में एक टाइम का भोजन हो जाता है. दो टाइम खाना खाने को मेडिकली भी अय्याशी माना जाता है. जब भूख लगे तो मौसमी फल खा लो. मूली चबा लो. ईख चूभ लोग. पत्ते चुग लो. यही नाश्ता काफी है. यह आइडिया मेरे दिमाग में कहां से आया, ये ठीक ठीक पता नहीं लेकिन इतना याद है कि अपने गांव में बचपन से साधु-संतों को घर आते देखता रहा हूं.

भांति-भांति के साधु. कोई सिर्फ एक टाइम खाता था अपने हाथ से बनाकर. तो कोई साधु बाबा कुछ भी खा लेते थे, देने पर, बिना दिए मांगते न थे. उन साधुओं ने बहुत प्रभावित किया. घरवाले बड़े सम्मान से उन्हें रखते और उनकी आवभगत करते. एक गायक आया करते थे. पंडीजी थे. मुंह दबाकर कुछ लोग कहते कि ये मोहपातर हैं. जो समझ में आया उसके मुताबिक मोहपातर माने सबसे दलित ब्राह्मण. तो वो गायक पंडीजी सिर्फ गाते थे. महीने, दो-चार महीने में एक दफे आते. खांसी को रोकते हुए वे गाते. गजब का आलाप लेते. मेरे जीवन अनुभव के लिहाज से शास्त्रीय संगीत के मेरे पहले गायक वही थे. राम और कृष्ण के भक्ति गीतों को जिस कदर चढ़ा-उतार कर गाते, मैं दंग रह जाता. मैं मन ही मन तय करता कि इन्हीं की तरह गाऊंगा. पर तब लाख प्रयास करने के बाद भी गा न पाता. पंडीजी के गाना खत्म करते ही चाचा, दादा, बाबा अपनी फरमाइश करते. पंडीजी खुश होकर सुनाते. पंडीजी को लगता कि देखो, मेरे कितने लोग फैन हैं और मेरा गाया इन्हें याद है इसीलिए फरमाइश कर रहे हैं. गाना खत्म करने के बाद रामृ-कृष्ण की बातें करते हुए पंडीजी अपने घर-परिवार का दुख वर्णन करने लगते और उन्हें तब सुनकर लगता कि दरअसल दुख पंडीजी के घर में नहीं है, राम-कृष्ण के ही घर में है. पिताजी, चाचा, बाबा…. सब उन्हें ठीकठाक पैसे देते, गांव के लेन-देन के तत्कालीन स्तर के मुताबिक. पंडीजी खुशी-खुशी चले जाते, अपने कंधे पर गमछा टांगकर, एक हाथ में धोती का एक किनारा पकड़कर.

वो गांव में उन चुनिंदा घरों में जाते जहां उनकी इज्जत होती थी. हर जगह से पैसे लेकर वे दूसरे गांव को प्रस्थान कर जाते. पंडीजी तो बहुत पहले मर गए लेकिन अब मुझे लगता है कि पंडीजी दरअसल अपने गायकी की हुनर से एक तरह से भिक्षाटन ही करते थे. इस बात का विस्तार करें तो लगता है कि हम सब दिल्ली से लेकर दरभंगा तक वाले, सही मायने में भिक्षाटन ही कर रहे हैं, अपने-अपने हुनर को अपने मालिकों और मालिकों की कंपनियों के कर्ताधर्ताओं को दिखाकर. जब तक ठीक से ‘गा-बजा’ पाते हैं तब तक बदले में पारितोषिक मिलता रहता है. जिस दिन ‘कंठ’ सूख गया, हुनर खत्म हो गया, उस दिन से मजबूर हो जाते हैं हम. कई बार लगता है कि अगर भिक्षाटन ही जीवन है तो असली भिक्षाटन क्यों न करें. सिर्फ उतना ही मांगें, जितने में पेट भर जाए. जीने-खाने के लिए काहे को झूठ का इतना बड़ा तामझाम और जीवन में इतने सारे तनाव.

मेरे इस विचार को एक दिन अचानक बल दिया उदय सिन्हा ने. लखनऊ में जब पत्रकारिता शुरू करने आया था तो उदय जी स्वतंत्र भारत के संपादक हुआ करते थे, प्रमोद जोशी उनके अधीन न्यूज एडिटर. उदय जी मेरे लिखे आलेख को पढ़ने के बाद उसे प्रमोद जी को बुलाकर दे देते और साथ में छापने के निर्देश भी. दो-चार दिनों में वह छपा मिलता. संपादकीय पेज पर उपर कुलदीप नैय्यर और उनकी ठीक नीचे मेरा लेख. उससे बड़ी खुशी मुझे आज तक नहीं मिली पत्रकारिता में. तो उन्हीं उदय सिन्हा जी का जब भड़ास4मीडिया पर इंटरव्यू प्रकाशित किया तो उनने एक बड़ी बात कह दी थी. उन्होंने कहा कि उनकी भिक्षाटन करने की इच्छा शेष है. साथ ही यह भी कहा कि भिक्षाटन करने से हमारा इगो किल होता है, मनुष्य होने का भान होता है. काफी बातें कहीं. कई बातें इंटरव्यू में छपी भीं और कई रह गईं. तो इस तरह गायकी और भिक्षाटन, ये दोनों बुखार मुझे चढ़ गए. 2009 खत्म होना शुरू हो रहा था. पत्नी-बच्चों ने ताना-मारना शुरू कर दिया था… इस छुट्टी भी कही ले चलेंगे या यूं ही दिल्ली में मुर्दा बने रहेंगे हम लोग. एक दिन नशे में आदेश दे दिया, बैग-बैगेज तैयार कर लो, कल निकल रहे हैं मसूरी के लिए.

पत्नी-बच्चों को विश्वास नहीं हुआ. उन सबों ने सोचा कि दारूबाज ने कोई बात कही है, कहो, कल ये कही हुई बात भूल जाए. परिजनों ने दो-तीन बार पूछा… लाक किया जाए… श्योर…. पक्का…. सच है न…। मैंने कहा दो सौ फीसदी सच है. भड़ास4मीडिया रहे या बंद हो जाए, मुझे तुम लोगों को लेकर चलना है मसूरी. पत्नी के कान में रात में बोला कि शादी के बाद हम-तुम देहाती कहीं नहीं जा पाए थे हनीमून मनाने, मान लेना कि हनीमून अब मन रहा है. पत्नी को यकीन हो गया कि बंदा घुमाने के मूड में है. सब लोग तैयार. सब कुछ पैक. और मैं वाकई निकल लिया. दो दिन मेरठ में रुका. दो दिन देहरादून और दो दिन मसूरी. कुछ पत्रकार मित्रों के सौजन्य से यात्रा में रुकने का खर्चा नहीं देना पड़ा. खुद कार ड्राइव करके गया और आया. मसूरी जब पहुंचा तो एक दिन घूमने के लिए कंपनी बाग (शायद यही नाम है, आईएएस ट्रेनिंग अकादमी के पास) की तरफ गया. कंपनी बाग से ठीक पहले मैं रुक गया. रिक्शे पर बैठकर गये थे ताकि शहर और पहाड़ी रास्तों का आनंद लिया जा सके.

कंपनी बाग से ठीक पहले  रिक्शेवाले ने रोक दिया. उसने बोला… यहां से ज्यादा बड़ी ऊंचाई शुरू हो रही है, सो, आप लोग पैदल आइए, मैं उपर पहुंच कर वेट करता हूं. बच्चे पत्नी चल दिए पर मैं ठिठक गया. यहां मैं बता दूं कि मैं दिन में ही दो पैग लगा चुका था, पत्नी-बच्चों के चुपके, सो, पहाड़ की विराटता और गहराई खूब साफ-साफ समझ में आ रही थी. मैं ठिठका इसलिए कि एक भिखमंगा टाइप बुजुर्ग शख्स आराम से पहाड़ की ओट लेकर बैठा-नुमा-लेटा दिखा. बगल में मूंगफली की खांची.. डलिया… छिट्टा… जो कहिए… और उस पर तराजू. कार से आए थे और होटल में गर्माहट में रहे सो ठंडी का एहसास नहीं हुआ था लेकिन कंपनी बाग के लिए रिक्शे पर चले तो रास्ते में हाड़तोड़ ठंड ने अपने भयंकर वजूद का एहसास कराया था. हम सब सी सी कर रहे थे.

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पहाड़, दोपहर की धूप, मूंगफली, भिक्षाटन…. इन सबने मुझे रोक लिया. ठिठक गया. पसर गया मैं वहीं. बुजुर्ग शख्स के बगल में. पत्नी-बच्चे थोड़े आगे निकल चुके थे. जब उन सबों ने मुड़कर मुझे देखा तो उनके चेहरे पर थोड़े हैरत के भाव थे. पर मैंने उन्हें इशारे में ….मार्च आन साथियों… का इशारा कर दिया और खुद कमांडर की माफिक आराम करने की मुद्रा में फैल गया.

बुजुर्ग शख्स से उनका नाम पूछा तो उन्होंने बड़े तैश से …अग्रवाल… बताया. मेरे मुंह से भी उसी तैश में निकला… बनिया होकर इतनी घटिया दुकान चलाते हैं? तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया… बिजनेस इज बिजनेस माइ डियर… इसमें छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता…. मेरी तो आंखें खुली की खुली रह गई. जिन्हें मैं भिखारी माफिक समझ रहा था, वे तो बड़े दार्शनिक निकले. बात आगे बढ़ाई. वे जवाब देते रहे. मैंने उनकी मूंगफली खरीदी, पांच रुपये की. एक कागज के पैकेट में पहले से भरी मूंगफली उन्होंने पकड़ा दी. पर मैं तो माहौल देखकर सनका हुआ था भीख मांगने के लिए, सो बुजुर्ग अग्रवाल साहब की उपस्थिति को नजरअंदाज कर कंपनी बाग जा रहे सैलानियों से भीख मांगना शुरू किया.

पांच-दस रुपये जो गिरते, वो अग्रवाल साहब की ओर टरका देता. मैंने इस बात का ध्यान रखा कि भीख मांगने में गायकी का होना अनिवार्य है वरना भिखमंगे का प्रभाव जनता पर नहीं पड़ेगा. मैंने कबीर के भजन को गाना शुरू किया. ताजा-ताजा सीखा था … नइहरवा हमका ना भावे वाला… अंदाज वही कुमार गंधर्व वाला….

बाहर से आए कुछ लोगों को मेरी भिखमंगई का अंदाज पसंद आया… किसी ने दस डाला, किसी ने पांच तो एकाध ने बीस और पचास…. अग्रवाल साहब मुझ पर मोहित. मैंने उन्हें धीरे से कहा… बिजनेस इज बिजनेस फादर…. वे हल्के से मुस्काए. आधे घंटे बाद पत्नी और बच्चे हाजिर… उलाहनों के साथ… यहां क्या कर रहे हैं, चलिए, गजब आदमी हैं, दुनिया पार्क में इंज्वाय कर रही है ये यहां बैठे हैं. ऐसे ही बैठना था तो क्यों ले आए….. मैंने मनुहार की… हे मेरे परिजनों, मेरी कुछ तस्वीरें खींच लो, मेरे मोबाइल से, ताकि मैं अपने इस क्षण को याद रख सकूं…. टेक्नोसेवी युवा पीढ़ी आगे आई. मेरे हाथ से करीब-करीब मोबाइल छीनते हुए मेरी फोटो लेना शुरू कर दी बच्चों ने. पत्नी ने हाथ पकड़ा और मुझ भिखमंगे को माडर्न पार्क की ओर लेकर बढ़ चलीं.

कुछ तस्वीरें, जो उस वक्त खींची गई थीं, वे इस प्रकार हैं….

बेटा, ये जो पहाड़ की ऊंचाई है, उसे समझो-बूझो.

बेटा, ये जो पहाड़ की ऊंचाई है, उसे समझो-बूझो.

दादा, तुम उधर देख ही रहे हो तो मैं जरा एक मूंगफली तोड़ लूं.

दादा, तुम उधर देख ही रहे हो तो मैं जरा एक मूंगफली तोड़ लूं.

पार्टनर, तुम उधर क्लाइंट देखो, मैं इधर.

पार्टनर, तुम उधर क्लाइंट देखो, मैं इधर.

अग्रवाल साहब, गर्मी तो इसी जिंदगी में है, बाकी तो हर ओर ठंढी है.

अग्रवाल साहब, गर्मी तो इसी जिंदगी में है, बाकी तो हर ओर ठंढी है.


इस यात्रा वृत्तांत पर अपनी राय आप यशवंत तक [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं.
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0 Comments

  1. Sachin jain

    January 16, 2010 at 9:05 am

    kya baat hai

  2. well wisher

    January 16, 2010 at 9:30 am

    Good work i think yeshwant is doing a great job by helping that poor.

  3. nemish hemant

    January 16, 2010 at 10:54 am

    wakai me jandar hai jine ka, khud ko samajhne ka yah tarika

  4. राजेश श्रीनेत

    January 16, 2010 at 2:59 pm

    बहुत अच्छे, मजा आ गया भइए।

  5. op saxena

    January 16, 2010 at 4:53 pm

    its mind blowing yar.

  6. harsh pandey

    January 17, 2010 at 4:35 am

    mind blowing

  7. RAJAN SHUKLA

    January 17, 2010 at 7:11 am

    SIR JE TUSE KAMAAL HO.
    DO PAIK PEENY KE BAAD JO JINDGI AAP JEETY HO KAMAAL HAI.
    ASLI JENDGI JENEY KA MAJA SIRF AUR SIRF AAP LE RAHY HO. GOOD LUCK SIR………RAJAN

  8. rahul tripathi

    January 17, 2010 at 7:52 am

    yah to bahut khaas andaj hai …..aise najare par kuch laine yaad aa gayi hai !

    gar martba chahe to kar khidmat fakiro ki,bala ko rok deti hai dua roshan jamiro ki !

    lage rahiye ……

  9. pankaj kumar singh 09951879247

    January 17, 2010 at 1:26 pm

    yasgwantjee,
    aap garibi ko mahimamandit karne ki koshish kar rahe hain,esase bharat ke log kam dham chhod kar bhikh mang kar jivan chalane ki prerna le sakte hain ,aapne ye bhi nahin bataya ki ekatra huye paise ka aapne kya kiya.Britain ki sansad me ek bar bahas ke dauran virodhiyon ne tipni ki thi ki,sata pachh maharani ki chaplusi karta hai to satta pachh ke sadsyon ne kaha tha hum to maharani ki karte hain aap garibon aur garbi ko mahimamandit karte hain,bhichhatan ka anubhaw lena buri baat nahin magar use prasarit kar aap kya sandesh dena chahte hain hume pata nahin.bura nahin manege main positive bahas chahata hu.

  10. siddharth

    January 17, 2010 at 7:53 pm

    such the best things

  11. satya prakash azad

    January 18, 2010 at 3:34 am

    guru, ise kahate hain banarasi andaz.

  12. tilak raj sharma

    January 18, 2010 at 4:31 am

    çÂýØ Øàæ´ßÌ
    ×éÛæð ¥æ·¤è §Uâ SÅUæðÚUè ×ð´ â“ææ§Uü ÙÁÚU ¥æ§üU , ˜淤æÚU ÁÕ Ì·¤ Ùæñ·¤ÚUè ·¤ÚU â·¤Ìæ ãñU ÁÕ Ì·¤ ßãU Øæ Ìæð ×æçÜ·¤ ·¤è ¹éàææ×Î ·¤ÚÔU Øæ çȤÚU Õ´ÎÚU ·¤è ÌÚUãU ¹ðÜ çιæÌæ ÚUãðUÐ ¹ðÜ çιæÙð ·¤æ ãéUÙÚU ÖéÜæ ¥æñÚU ¹Ì×Ð

  13. Ankit Mishra

    January 18, 2010 at 6:37 am

    Bhayya Aap Mahan Ho……..
    Ankit Mishra
    Barabanki(U.P.)

  14. shrikant

    January 18, 2010 at 10:28 am

    प्रिय बंधु,
    बहुत अच्छा किया। आत्मोन्नति के लिए खोजा नसरुद्दीन और कई दूसरे साधक ऐसे प्रयोग करते रहे हैं। आपने भी इस प्रयोग से कुछ तो पाया ही होगा उसे ढूंढ़िये और अच्छा लगे तो औरों के साथ बांटिए।

  15. suresh mishra , auraiya .u.p.

    January 18, 2010 at 12:07 pm

    respected yashwant ji , aap ne jo karya kiya wah sabke bas ki baat nahi. yahi sab karke gaandhi ji mahaatma kahlaaye. shaayad media ke aur saathi aapka anusharan karen. main bhi prayash karoonga.

  16. ashutosh dwivedi

    January 18, 2010 at 4:12 pm

    yashwant ji

    bhai wah! baniya ke shath jab jaise bhi ek chhatriya bhikh mangne lage tab asli, aghoshit samyawad aa jayega. tabhi to jyoti basu ji ka ab koi kam nahi raha wah chale gaye.

  17. [email protected]

    January 19, 2010 at 4:39 am

    Yashawant Bhaiyaa, Aapne gareebo ki madad ke liye ek najeer pesh ki hai, You are great.

  18. Patrakar Tomar, Gwalior

    January 19, 2010 at 4:56 am

    Wah, Kya Baat, Hai, Lage Rahain Yashwant Ji.

  19. devesh charan

    January 20, 2010 at 7:52 am

    i do not know what to comment on ur story. but one thing is clear u r hundred percent detached person and fortunately GOD has given u chance to pen out ur thoughts who judeges even himself in a very humorous manner. Carry on YAswant.
    aapke OR SE JANTA KE LIYE ek sher arz karta hun…

    KUHNI PE TIKE HUA LOG
    SUVIDHA SE BIKE HUA LOG
    BARGAD KI BAAT KARTE HIE
    GAMLE MEI UGE HUA LOG

  20. shekhar pandit

    January 20, 2010 at 4:56 pm

    guru kahi aankhe kahi chehara …………………………….. badi muskil hai banjaramijaji. salika chahiye aawargi me . kammal kar diya ye jeene ka salika hai isi ada se jio . isi eak baat se ahale jamaana hai khafa hamse . lakire hum jamaane se jaraa hatkar banaate hai guru grt . shekhar pandit jaipur

  21. madho singh

    January 21, 2010 at 7:02 pm

    kya baat he sir jee, kamaal kar diya

  22. संजय गुप्ता

    January 22, 2010 at 2:17 am

    यशवंत भाई नमस्कार, आपका मंसूरी यात्रा का वृतांत पढ़ा, काफी अच्छा लगा| पत्रकारों की भागमभाग जिन्दगी में आपने पर्यटन का सुखद अहसास दिला दिया| आपने तो भिक्षाटन को केवल अपना अनुभव बढाने के लिए प्रयोग किया लेकिन वर्तमान परिदृश्य में भी देखा जाए तो कहीं न कहीं कुछ पत्रकारों की स्थिति भिखारियों से काम नहीं रह गई है. क्योंकि अखबार में खबरें लिखने के नाम पर कुछ लोगो के द्वारा 50 और 100 रुपये या दारु की बोतल की मांग की जाती है उससे तो यही जाहिर होता है कि निसंदेह पत्रकारिता कहीं न कहीं कलंकित हो रही है| आपके वृतांत में जेल में शिक्षक का प्रसंग भी अच्छा लगा. ऐसे भ्रष्ट शिक्षकों के साथ ऐसा ही बर्ताव होना चाहिए …
    आपका अनुज…
    संजय गुप्ता

  23. शशि सागर

    January 22, 2010 at 2:24 am

    यशवंत बाबु, आलिंगन, आपके लेखन शैली का कायल तो मैं हूँ ही | बड़ा लंबा लेख देखा सोचा कि थोडा पढ़ कर देखता हूँ, शीर्षक देने में तो आप उस्ताद हैं ही और बस पढता चला गया |
    हंसी की साथ-साथ बातें चुभ भी रही थी | शुरुआत में जिसे आपने विषयांतर होना कहा है उस घटना को जगह की तालाश थी और बड़ी ही सुन्दरता से आपने जगह दिया भी | वैसे विषयांतर होकर अच्छे से लिया है आपने व्यवस्था को | मसूरी वाली घटना से आपके दार्शनिक रूप को पहली बार देखा, वैसे कम्युनिस्ट रहे हैं तो चन्दा मांगने की आदत तो रही ही होगी |
    कुल मिलाकर इतना लंबा लेख पढ़ कर समय बर्बाद नही ही हुआ | अच्छा लगा आपको पढ़ना |
    आपका शुभेक्षु
    शशि सागर

  24. योगेश्वर शर्मा

    January 22, 2010 at 2:32 am

    यशवंत जी नमास्कार!
    संस्मरण पढ़ा और मैंने भी आपको मसूरी में भीख मांगते देखा। इतनी सूबसूरत प्रस्तुति के लिए बधाई!
    कई बार ऐसा होता है कि सारे तामझाम के साथ स्टोरी कवर करने जाते है और बैरंग लौट आते है कारण यह कि विचार और कलम में तालमेल नहीं बैठ पाता या संकोच के कारण हम घटनाक्रम और आपबीती का सत्यता के साथ जिक्र नहीं कर पाते। आपने अपने भ्रमण को संस्करण के रूप में इस खूबसूरती से लिखा शुरु से अंत तक पढ़ता चला गया। लेख में दो बातें खास तौर पर प्रभावित किया पहला यह कि परिवार साथ में होने के बाद भी आपने खुद के साथ यह प्रयोग किया जो आपके हौसले से ज्यादा उनके सहन शक्ति का परिचायक है। दूसरी बात स य सामाज हो या कानून और अपराध की दुनिया में पैसा का गुणगान भी आपने खूब किया। वैसे सभी मानते है पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं तो भला मैं इससे इनकार कैसे कर सकता हूं।
    सच का सामना बहुत मुश्किल होता है। संस्मरण में उदय जी का जिक्र आने पर लगा मानो सच से सामना हो रहा है। लेख पर सुभाष गुप्ता जी की टिप्पणी, मीडियाकर्मियों की स्थिति व भिखारी की स्थति से की गई तुलना ने एक बार फिर पुराने ज मों को कुरेद दिया। प्रबंधन की मनमानी का इससे बड़ा और उदाहरण क्या हो सकता है कि तानाशाही पूर्वक दस-दस, बारह-बारह घंटे तक काम कराने के बाद भी केवल झूठा आश्वासन और थोड़ा भी विरोध करने पर ऐसे स्थान पर तबादला जहां जाना ही संभव न हो। पांच सात पहले पत्रकारिता को करियर के रूप में शुरु करने के पहले मैंने कभी सोचा नहीं था कि इस प्रकार का हताशा व निराशा का सामना मुझे करना होगा कि अपने जीवन का इतना महत्वपूर्ण समय यहां खर्च करने के बाद एक बार फिर क्षेत्र बदलने के बारे में सोचना पड़े।
    अभी कुछ महीने पहले की ही बात है मार्केटिंग विभाग के एक साथी ने इस मीडिया संस्थान में मुझे या ये कहे कि एडिटोरियल विभाग की औकात बताई थी। हुआ यह था कि उनके इच्छा के अनुसार मैं खबर प्रकाशित करने से इनकार कर दिया था जबकि उन्होंने मेरे सीनियरों से कह कर वही काम मुझसे करा लिया था। इतना ही नहीं इंसेंटिव, इंक्रीमेट बोनस और प्रमोशन जैसी मुद्दों पर भी बहस हो चली थी और मैने यह पाया था कि अनुभव, योग्यता सहित अन्य मामलों में मुझसे उन्नीस होने के बाद भी वह मुझ पर हावी है। क्योकि उन्हे सुविधाएं और महत्व हमसे कहीं ज्याद मिल रहे है। यह किसी से छीपा नहीं है कि मीडिया संस्थान में एडिटोरियल मेटर का कितना महत्व है या किसी मीडिया समूह को होने वाली कुल आमदनी में एडिटोरियल का कितना योगदान। दरअसल मीडिया जगत में मार्केटिंग का वर्चस्व और एडिटोरियल की बदहाली का कारण एडिटोरियल के प्रभावी और जानकार लोगों का छोटे-बड़े स्वार्थ के चलते बनना बिगड़ना है, जो अपने नाम व प्रभाव के चलते छोटे और कमजोर लोगों का शोषण की हद तक केवल उपयोग करते है।
    शुभ कामनाओं सहित!
    आपका
    योगेश्वर शर्मा

  25. Parvesh Sharma

    January 23, 2010 at 5:52 am

    sir aap ki yeh mahanta hai jo aap ne kisi bhikhari ke pass ja kar itne kareeb se dekha warna toh aaj ke time main koi kisi bhikhari ke pass khada bhi nahi hona pasand karta hai

    thanks
    sir aap ki mahanta hai yeh…………

  26. media ka madhav

    January 23, 2010 at 7:30 am

    kahin patrakaron ke future kee jhalak to nahin?

  27. sapan yagyawalkya

    January 23, 2010 at 4:40 pm

    mahan log hi aisa kar pate hain.

  28. indu shekhawat

    January 24, 2010 at 2:30 pm

    Yashwant ji, kya baat hai, lekh pada majaa agaya. yeh sab bhi talli mein hi hota hai, khair jeena ise ka naam hai

  29. ALAM KHAN (Editor) Tanda A.Nagar

    July 17, 2010 at 9:59 pm

    Respt sir,
    Aap haqiqat me kalam kar hai. Aap ne apne lekh me apni haisiyat o maksad bahut achche tarike se peas kar diya hai. Padh kar achcha laga. Lekin kya media me kamyab hone ke liya daro pina jaruri hai ? Ye sawal is liye puch raha hu kyu ki 7 saal se mai bhi media se juda hu aur media me jitne kamyab logo ko mai janta hu lagbag sabhi daru pite hai. Kuch kam ya kuch jyada. Plz ans jaror de kyu ki aap ki soch ka mai kayal hu.aap ka apna Alam khan Editor
    Email::[email protected] cell:9839372709

  30. amitabh

    September 26, 2010 at 10:25 am

    very good
    amitabh
    durg

  31. arvind singh

    December 4, 2010 at 2:33 pm

    yashwant sir aapane apane sansamaran ke madhyam se apani fakiri jindagi ka jo dard baya kar diya hai use samazane ke liye bahut dimaag chahiye. wastav me aap ek gr8 patrakaar ho jo samaj ke liye ek mishaal hai.sir bahut prabhavit hu aapase.roj padhata hu aapaka portal.really u r a gr8 human being.

  32. madan kumar tiwary

    December 9, 2010 at 2:13 pm

    आज की निंद तो ले ली आपने । दारु भी नही पी सकता बीबी की तबियत खराब है। लगता है ज्यादा दिनों तक भडास पर रहा और आपका इस तरह का दो चार और लेख पढ लिया तो भिक्षाटन के लिये निकलना पडेगा । रजनीश ने भी नाम को अहंम माना था और उसे भुलाने की बात की थी , अहम से छुटकारा पाने के लिये। आप तो एक कदम आगे जा रहे है। बस यार एक बात याद रखना कभी आत्मा को न मारना । अब दे रहा हू बधाई , बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत हीं अच्छा लगा । काफ़ी दिनों के बाद दिल को छुने वाला कोई लेख पढा। अंदर तक छु गई आपकी बात । सीधे सपाट शब्दों मे अनुभव और प्रयोगों को उतारना सबसे बडी कला है जिसका व्याकरण के गुलाम हिंदी लेखको के पास अभाव है। अच्छा होता सलमान रश्दी की किताबों को पढते तब पता चलता नये शब्दों का प्रयोग। कुछ और इसी तरह का लेकर आयें बिना लाग लपेट वाली चीज ।

  33. GHANSHYAM RAI

    December 12, 2010 at 9:53 am

    KYA EATNI BADI SAED KA ETER AESA BHI KR SAKTA H MUJHE WISHWAS HI NHI HO RHA THAKS SIR ! HUM JAISE PTRKARO KO ES LEKH SE PRENA LENI CHAHIA

  34. डॉ. अशोक कुमार शर्मा

    December 17, 2010 at 5:56 pm

    मेरे अंजाम पे हंसनेवाले, खुद पे न ऐसे इतरा
    मेरी फकीरी पे सुल्तान भी ललचाते हैं
    -‘अक्स’ अलीग
    (खाकसार का पुराना तखल्लुस)

  35. GHANSHYAM RAI

    December 21, 2010 at 10:46 am

    sir ab kya nya kr rhe h? khayalo ke pulaw se behater h ki hum aatmlochan kren. sayad ! aapka tarika jiwan aur sansar ko samjhane ka sahi w saral trika h

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