द इकोनोमिस्‍ट ने लिखा – क्या कोई नरेंद्र मोदी को रोक सकता है?

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Om Thanvi : कल 'द इकोनोमिस्ट' के बहुचर्चित लेख पर बात हुई थी। मैंने लिखा था काश कोई इसका अनुवाद कर देता। दो मित्रों ने तुरंत कर भेजा। एक मित्र का सन्देश था कि कि वे भी भेज रहे हैं। वे कृपया मेहनत न करें, मित्रवर मनोज खरे Manoj Khare का उम्दा अनुवाद मिल गया है। समाजी सरोकार वाले तमाम मित्रों की ओर से उनका आभार।

क्या कोई नरेंद्र मोदी को रोक सकता है?

(सम्भव है वे भारत के अगले प्रधानमंत्री बन जाएं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि वे इसके योग्य हैं।)

कौन भारत में होने वाले आम चुनावों के संभावित परिणामों के बारे में नहीं सोच रहा है? सात अप्रैल से शुरू होने वाले चुनाव में मुंबई के करोड़पतियों के साथ-साथ अशिक्षित ग्रामीणों और झोपड़पट्टियों में रहने वाले गरीब-वंचित लोगों को भी अपनी सरकार चुनने का बराबर का हक होगा। नौ चरणों में पांच सप्ताह से ज्यादा चलने वाले मतदान में लगभग 81.5 करोड़ नागरिक अपने मत का प्रयोग करेंगे जो कि इतिहास में एक सबसे बड़ा सामूहिक लोकतांत्रिक कार्य होगा। लेकिन कौन भारत के राजनीतिज्ञों के दुर्बल, गैरजवाबदेह और अनैतिक चरित्र की निंदा नहीं करता? समस्याओं से आकंठ डूबा देश कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में बनी गठबंधन सरकार के अधीन दस वर्षों के दौरान मझदार में पहुंच गया है, जिसका कोई खेवनहार नहीं है। वृद्धि-दर घटकर लगभग आधी- 5 प्रतिशत के आस-पास रह गई है, जो कि प्रति वर्ष नौकरी करने के लिए बाजार में उतरने वाले करोड़ों युवा भारतीयों को रोजगार देने की दृष्टि से बहुत कम है। सुधार अधूरे रह गए हैं, सड़कें और बिजली उपलब्ध नहीं है। बच्चों की पढ़ाई- लिखाई नहीं हो पाती है। जबकि विडंबना यह है कि नेताओं और अफसरों द्वारा ली जाने वाली रिश्वत का आंकड़ा कांग्रेस के शासन-काल में चार से बारह बिलियन डॉलर के बीच पहुंच गया है।

भारतीय लोगों की नजर में राजनीति का मतलब है- भ्रष्टाचार। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी को भारत का अगला प्रधानमंत्री बनने के लिए जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है। लेकिन वे अपने कांग्रेस पार्टी के प्रतिद्वंद्वी नेता राहुल गांधी से ज्यादा अलग नहीं हैं। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रदौहित्र राहुल गांधी इस तरह पदग्रहण करने को तैयार बैठे हैं, मानो यह उनका दैवी अधिकार हो। जबकि मोदी पहले चाय बेचने वाले थे जो कि महज अपनी योग्यता के बलबूते ऊपर तक पहुंचे हैं। लगता है मिस्टर गांधी अपने ही मानस को नहीं समझते। यहां तक कि वे नहीं जानते कि उन्हें सत्ता चाहिए या नहीं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी का कामकाज दर्शाता है कि उन्होंने आर्थिक विकास किया है और वे विकास को धरातल पर उतार सकते हैं। राहुल गांधी के गठबंधन पर भ्रष्टाचार की कालिख पुती हुई है। जबकि तुलनात्मक रूप से मोदी साफ-सुथरे हैं। इस तरह प्रशंसा के लिए काफी कुछ है। फिर भी यह पत्रिका नरेंद्र मोदी को भारत के सर्वोच्च पद के लिए अपना समर्थन नहीं दे सकती।

मोदी की दुर्भावना

कारण शुरू होता है गुजरात में 2002 में मुसलमानों के विरूद्ध हिंदुओं के उन्मादी दंगों से, जिनमें कम से कम एक हजार लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। अमदाबाद और आसपास के कस्बों-गांवों में चला हत्याओं और बलात्कार का दौर, एक ट्रेन में सवार 59 हिंदू तीर्थयात्रियों की मुसलमानों द्वारा की गई हत्या का बदला था। नरेंद्र मोदी ने 1990 में अयोध्या स्थित पवित्र-स्थल पर एक यात्रा का आयोजन करने में सहायता की थी, जिसके परिणामस्वरूप दो वर्ष बाद हिंदू-मुसलमान झड़पों में 2000 लोगों को जान गवांनी पड़ी थी। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक आजीवन सदस्य हैं जो कि एक हिंदू राष्ट्रवादी समूह है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्य के प्रति समर्पित होने के कारण ही उन्होंने जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य अपनाया और अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को भड़काने वाले शर्मनाक भाषण दिए। 2002 में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और उन पर जनसंहार होने देने या समर्थन करने तक के आरोप लगे।

मोदी के बचावकर्त्ता और उनके अनेक समर्थक, खासकर वे जो कारोबारी अभिजात्य वर्ग के हैं, दो बातें कहते हैं। पहली, बार-बार की गई जांच-पड़तालों में जिसमें प्रशंसनीय स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट द्वारा कराई गई जांच भी शामिल है, ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसके आधार पर नरेंद्र मोदी पर कोई आरोप लगाया जा सके। और दूसरी बात वे कहते हैं कि नरेंद्र मोदी ने अब खुद में बदलाव लाया है। उन्होंने निवेश आकर्षित करने और हिंदू-मुसलमानों को समान रूप से फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से कारोबार को बढ़ावा देने के लिए अथक कार्य किया है। वे कहते हैं कि एक सुसंचालित अर्थव्यवस्था में देश भर के गरीब मुसलमानों को मिलने वाले भारी लाभ के बारे में सोचिए।

दोनों आधार पर यह अत्यंत उदार नजरिया है। दंगों के बारे में बैठायी गई जांच निष्कर्षहीन रहने का एक कारण यह है कि ज्यादातर सबूत या तो नष्ट हो गए थे या जानबूझ कर नष्ट कर दिए गए थे। और अगर 2002 में तथ्य अस्पष्ट और धुंधले थे तो नरेंद्र मोदी के विचार भी अब भी वैसे ही हैं। जो कुछ हुआ उसका स्पष्टीकरण देते हुए माफी मांग कर वे नरसंहार को अपने से पीछे छोड़ सकते थे। पर उन्हें दंगों और नरसंहार के बारे में पूछे गए सवालों का जवाब देना भी गवारा नहीं है। पिछले वर्ष दी गई एक दुर्लभ टिप्पणी में उन्होंने कहा था कि उन्हें मुसलमानों की पीड़ा पर उसी तरह का दुःख है, जैसा दुःख चलती कार के नीचे किसी कुत्ते के पिल्ले के आ जाने से होता है। शोर-शराबा मचने पर उन्होंने कहा कि उनका तात्पर्य सिर्फ इतना था कि हिंदू सभी प्राणियों का ध्यान रखते हैं। मुसलमानों और उग्र हिंदुओं ने इससे अलग-अलग संदेश ग्रहण किए। अन्य भाजपा नेताओं से अलग, नरेंद्र मोदी ने मुसलिम ढंग की टोपी पहनने से मना कर दिया और 2013 में उत्तर प्रदेश में हुए दंगो की निंदा नहीं की, जिसके ज्यादातर पीड़ित मुसलमान थे।

दो में कम बुरा

''डॉग-व्हिसिल पॉलिटिक्स'' हर देश में निंदनीय है, जिसमें ऐसी द्विअर्थी भाषा का प्रयोग होता है, जिसका आम जनता के लिए एक मतलब होता है तो किसी अन्य उप-समूह के लिए दूसरा। लेकिन भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा उभरती रही है। विभाजन के वक्त, जब ब्रिटिश भारत विभक्त हुआ था तब लगभग 1.2 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे और सैकड़ों मारे गए थे। 2002 के बाद में सांप्रदायिक हिंसा काफी कम हो चुकी है। लेकिन अभी भी सैकड़ों घटनाएं होती रहती हैं और प्रतिवर्ष दर्जनों जानें जाती हैं। कभी-कभी, जैसा कि उत्तर प्रदेश में हाल में हुआ, हिंसा खतरनाक स्तर पर होती है। चिंगारी बाहर से भी भड़क सकती है। मुंबई में 2008 में भारत आतंकवादियों के भयानक हमले का शिकार बना जो कि परमाणु-अस्त्रों से लैस पड़ोसी देश पाकिस्तान से आए थे। पाकिस्तान भारत के लिए हमेशा चिंता का कारण रहा है।

मुसलमानों के भय को समाप्त करने से इंकार करके मोदी उस भय को खुराक देते हैं। मुसलिम-विरोधी मतों को मजबूती से थाम कर वे इस भय को खाद-पानी देते हैं। भारत विभिन्न तरह के धार्मिक आस्थाओं, धर्मावलंबियों और विद्रोही लोगों का आनंदमय, लेकिन कोलाहलपूर्ण देश है। इनमें स्तंभकार दिवंगत खुशवंत सिंह जैसे श्रेष्ठ लोग भी हैं जो सांप्रदायिक घृणा से होने वाली क्षति के बारे में जानते हैं और उससे दुःखी रहते हैं।

नरेंद्र मोदी दिल्ली में अच्छी शुरुआत कर सकते हैं। लेकिन देर-सबेर उन्हें सांप्रदायिक खून-खराबे या पाकिस्तान के साथ संकट की स्थिति से दो-चार होना पड़ेगा। और कोई नहीं जानता, कम से कम वे आधुनिक लोग जो आज मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं, कि मोदी क्या करेंगे या मुसलमानों की मोदी जैसे विभाजनकारी व्यक्ति के प्रति कैसी प्रतिक्रिया होगी। अगर नरेंद्र मोदी हिंसा में अपनी भूमिका स्पष्ट करते और सच्चा पश्चाताप जाहिर करते तो हम उनका समर्थन करते। लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। उचित नहीं होगा कि उन जैसा शख्स जो लोगों को बांटता आया है, विस्फोट के मुहाने पर बैठे भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री बने। राहुल गांधी के नेतृत्व में कोई कांग्रेस सरकार बने इसके आसार हमें आशाजनक नहीं लगते। लेकिन हमें फिर भी कम गड़बड़ी वाले विकल्प के रूप में भारतीय जनमानस को इसकी अनुशंसा करना चाहेंगे।

अगर कांग्रेस जीतती है, जिसकी संभावना न के बराबर है, तो उसे अपने आप को फिर से नया करना पड़ेगा और देश का सुधार करना होगा। राहुल गांधी को चाहिए कि वे राजनीति से पीछे हट कर आधुनिकतावादियों को आगे लाएं और अपनी आत्मविश्वासहीनता को एक गुण के रूप में स्थापित करें। ऐसे लोग वहां बहुत हैं और आधुनिकता ही वह चीज है, जिसे भारतीय मतदाता ज्यादा से ज्यादा चाहते हैं। अगर भाजपा की जीत होती है, जिस की संभावना ज्यादा है, तो उसके गठबंधन सहयोगियों को मोदी को छोड़ किसी अन्य नेता को प्रधानमंत्री बनाने पर जोर देना चाहिए।

फिर भी वे नरेंद्र मोदी को ही चुनें तो? हम उनके भले की कामना करेंगे और हमें खुशी होगी अगर वे भारत को आधुनिक, ईमानदार और सम्यक सुशासन प्रदान कर हमें गलत साबित कर देंगे। लेकिन अभी तो नरेंद्र मोदी को उनके रिकार्ड के आधार पर ही जांचा जा सकता है, जो अब भी सांप्रदायिक घृणा से जुड़ा हुआ है। वहाँ कुछ भी आधुनिक, ईमानदार और सम्यक नहीं है। भारत को इससे बेहतर नेतृत्व मिलना चाहिए। (समाप्त)

वरिष्‍ठ पत्रकार एवं जनसत्‍ता के संपादक ओम थानवी के एफबी वॉल से साभार.

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