काफी साल शायद पांच साल बाद दिल्ली जाना हुआ। भड़ास का बर्थ डे था और यशवंत जी का आदेश, पालना तो करनी ही थी। तड़के 3 बजे उठा दुरंतो एक्सप्रेस पकड़ी, भड़ास का जन्मदिन मनाया और चेतक एक्सप्रेस से वापस रात करीब साढ़े तीन बजे घर लौट आया। और इस तरह एक ही दिन में अजमेर से दिल्ली जाकर लौट आने का नया काम कर लिया। करीब पंद्रह-बीस साल पहले तो साल में दो तीन दफा दिल्ली के चक्कर लग जाते थे। एक ओर की यात्रा बारह से चौदह घंटा लेती थी।
बहुत इच्छा थी दिल्ली में रहकर पत्रकारिता करने की। हिन्दी पत्रकारिता के नाम पर नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और हिन्दुस्तान के अलावा और कोई बेहतर विकल्प नहीं था। तीनों की लिखित परीक्षाएं पास कीं परंतु साक्षात्कार में रह गया। इस तरह तीनों में मौका नहीं मिला। दूरदर्शन तो रात साढ़े आठ बजे बस एक समाचार दिखाता था। कभी कल्पना भी नहीं की थी आज जैसे मीडिया की।
दिल्ली में रह रहे कुछ मित्रों ने फोन पर गाइड कर दिया था लिहाजा दिल्ली मेट्रो के भरोसे आराम से राजेंद्र भवन पहुंच गया। राजेंद्र भवन से पहले निगाह पड़ी गांधी शांन्ति प्रतिष्ठान पर। पुरानी याद ताजा हो आई। अजमेर के एक वकील थे। सन् 1975 में आपातकाल लगा तो डर के मारे अपना खाकी निक्कर, काली टोपी और बेल्ट आदि पड़ोसी की छत पर फेंक दिए। आपातकाल हटा, कुछ दिनों बाद राजस्व मंडल के सदस्य बना दिए गए, फिर हाईकोर्ट जज नियुक्त हो गए। जब वकील थे तब गांधी शांति प्रतिष्ठान से बहुत गहरे तक जुड़े रहे। इतने गहरे कि राजस्थान में उनके नाम के साथ प्रतिष्ठान का नाम स्वतः ही जुड़ जाता था। खूब आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते थे। शायद रविवार या साप्ताहिक हिन्दुस्तान में राजस्थान में गांधी शांति प्रतिष्ठान में गड़बड़झाले की खबर छपी। बाद में कई अखबारों में मामला इतना उछला कि प्रतिष्ठान में हुए घोटालों की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन किया गया। आयोग का अध्यक्ष उन्हीं को बनाया गया। सरकार ने इस एक सदस्यीय आयोग का कार्यकाल कई बार बढ़ाया। दुनिया छोड़ने से कुछ समय पहले ही उन्होंने आयोग की रिपोर्ट सरकार को सौंपी।
माफ कीजिएगा, बात करनी थी भड़ास के हैप्पी बर्थ डे की और जाने कहां पहुंच गई। राजेंद्र भवन में कई लोगों से मिलना हुआ। कुछ नए साथी भी बने। रामबहादुर राय जी से परिचय बीस साल पुराना है, उनसे भी मुलाकात हुई। परांजय गुहा ठकुरता और मनीष सिसोदिया को अब तक टीवी पर ही देखा था। सब से ज्यादा प्रभावित किया दो सिंहों यशवंत और अनिल ने। दोनों की सादगी और साफगोई ने दिल जीत लिया। आगे की सीट पर एक भद्र महिला बैठीं थीं। आगंतुकों में से बहुत ऐसे थे जो उनका अभिवादन कर रहे थे, कुछ थोड़ी देर ठहरकर उनके साथ हालचाल साझा कर रहे थे। जब यशवंत ने मंच से पुकारा असीम को सम्मानित करेंगी सुप्रिया भाभी। एकदम पहचान हो गई। आलोक तोमर जी से एक आध मुलाकात ही हो पाई थी वह भी अरसा पहले जनसत्ता गया था तब। एक बार फोन पर भी अजमेर से ही बात हुई थी। पता नहीं कहां से ‘लिखि कागद कोरे,’ हाथ आ गई थी। एक जज साहब ने पढ़ने को ली तो तबादले के समय अपने सामान के साथ बांध ले गए। आलोक जी के लेखों में तो जिक्र था ही उनके अंतिम समय में यशवंत ने भी अपने लेखों में सुप्रिया जी का जिक्र किया था। आलोक जी के बाद किस जीवट और हिम्मत से वे अपने को, उनकी विरासत को, जिम्मेदारियों को संभाले हैं, देखने से ही समझ आ जाता है।
भड़ास के पांचवें बर्थ डे की दो बातें कभी नहीं भुलाई जा सकती। पहली-बिना किसी औपचारिकता के समारोह का आयोजन। ना कोई मुख्य अतिथि, ना अध्यक्ष, ना विशिष्ट अतिथि। ना कोई दीप प्रज्वलन। मंच किसी के लिए नहीं पर सबके लिए। जो पहले आया वह पहली कतार में बैठ गया। देरी से आने वाला कितना भी विशिष्ट हो, पहली कतार से किसी का किसी से उठने का आग्रह नहीं। पीछे जहां जगह मिली जाकर बैठ गया।
दूसरी-परंतु सबसे महत्वपूर्ण। अपनी जानेमल जेल के मुखपृष्ठ का विमोचन या प्रस्तुति अपने पिता के शुभ कर कमलों से करवाना। सचमुच, माता-पिता से बड़ा कोई कैसे हो सकता है? इस बारे में कुछ भी कहने-लिखने के लिए अपने पास तो शब्द ही नहीं हैं। कार्यक्रम की खबर अब तक भड़ास पर नहीं आना भी अपने आप में अनूठा है। एक निवेदन है, अगर
संभव हो तो भड़ास के बाकी बर्थ डे या फिर कोई और कार्यक्रम दिल्ली से बाहर भी करने का प्रयास करें, अच्छा लगेगा।अजमेर से राजेंद्र हाड़ा की रिपोर्ट. राजेंद्र जी से संपर्क 09549155160 या 09829270160 या [email protected] के जरिए कर सकते हैं. राजेंद्र हाड़ा करीब दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता में रहे. अब पूर्णकालिक वकील हैं. यदा-कदा लेखन भी करते हैं. लॉ और जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स को पढ़ा भी रहे हैं.
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