दिल्ली में आम आदमी पार्टी को विधान सभा चुनाव में मिली सफलता से कुछ लोग बड़े उत्साहित हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के तमाम विचारक रात-दिन हमें यह समझाते रहते हैं कि राजनीति के पतन और व्यवस्था में खराबियों के लिए जनता जिम्मेदार है क्योंकि वह सही प्रतिनिधि चुनकर संसद और विधानसभाओं में नहीं भेजती। जनता मन बना ले तो स्वच्छ, ईमानदार प्रतिनिधि चुनकर भेज सकती है और वे प्रतिनिधि सारे काम ठीक-ठाक कर सकते हैं, जैसे कि दिल्ली में हालिया शुरुआत हुई है। इस ‘ईमानदार’ प्रयास का देश-विदेश में जमकर स्वागत हो रहा है, और हमें समझाया भी जा रहा है कि इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
हम पहले यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जिस तरह की ईमानदारी दिख रही है, पहले तो वास्तविकता में नहीं है, यह कुछ और ही है। और अगर वास्तव में है भी तो यह ईमानदारी अधिक देर बरकरार नहीं रह पायेगी। चंद लोग अगर ईमानदार रहने पर डट भी गये तो हमारा दावा है कि यह पूंजीवादी व्यवस्था उन्हें टिकने नहीं देगी। इसे आप पिछले 2-3 सौ वर्षों के इतिहास से पुष्ट कर सकते हैं। हम मानते हैं कि अगर आप(आम आदमी पार्टी केंद्र की सत्ता पर भी कब्जा पा जाए तो भी कुछ खास बदलाव नहीं हो पाएगा। अधिक से अधिक आप 1977 की जनता पार्टी सरकार वाली राहत कुछ समय लोगों को दे सकती है। 1975 से 1978 तक का उथल-पुथल का दौर जिन लोगों ने देखा है वे जानते हैं कि जेपी और लोहिया के आंदोलनों और 77 के चुनाव में अनेक गंभीर, प्रतिबद्ध लोग शामिल थे। जपा सरकार ने लोगों को काफी राहत भी दी, लेकिन डेढ़ ही साल में सरकार का तिया-पांचा हो गया। आप में केजरीवाल और कुछ अन्य लोग खास वर्ग से आते हैं और अन्य खास वर्ग के लोग इसमें आ रहे हैं, इससे यह तय है कि जल्द ही यह खास आदमी पार्टी बन जाएगी। हमने माक्र्सवादी, लेनिनवादी पार्टियों के शासन वाले पश्चिम बंगाल का हाल भी देखा है। कम्युनिस्टों को सर्वहारा की पार्टियां कहलाई जाती हैं। चीन का हाल आज सबसे बुरा है सर्वहारा के लिए।
आजकल आप में शामिल होने वालों का तांता लगा हुआ है। गरीब, अमीर और मध्यवर्ग के लोग आप की सदस्यता को लाइन लगाए खड़े हैं। सदस्यता का महानगरों से गांव तक अभियान चल रहा है। मुख्यधारा का मीडिया आप की गतिविधियों को पर्याप्त स्थान दे रहा है। सदस्यता के लिए कोई अहर्ता शायद नहीं रखी गयी है, और कोई भी इसमें शामिल हो जा रहा है। ऐसे में सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा आदि पार्टियों और आप के सदस्यों में क्या भिन्नता है? और लोग अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है? इस घोर अनैतिकता और आर्थिक अराजकता के दौर में तो शुचिता, संयम और भी मुश्किल हैं। अभी तो केजरीवाल ने देश के तमाम बड़े मुद्दों पर अपनी राय भी स्पष्ट नहीं की है। मीडिया में आप को प्रारंभ से मिल रहा पर्याप्त स्थान ही इस बात का प्रमाण है कि पूंजी के खिलाड़ियों में उच्चस्तर पर पिछले कुछ समय से कुछ बड़ा खेल चल रहा है। अन्यथा तो मारुति मानेसर की ज्यादतियों और श्रमिकों की व्यथा-कथा, विभिन्न जनपक्षीय आंदोलनों की खबरें, दिल्ली और दूसरे स्थानों में होने वाले जनपक्षीय विचार-गोष्ठियां क्यों मुख्यधारा के मीडिया से गायब हैं? विभिन्न राज्यों में जल, जंगल, जमीन की लूट, घोटाले, बड़े लोगों के पक्ष में राज्य सरकारों द्वारा अंदरखाने दी जा रही सुविधाएं आदि क्यों इस मीडिया से गोल हैं?
यह सैकड़ों वर्षों की सच्चाई है कि पूंजी ने आम जनता के हितैषी किसी नेता, सरकार या व्यवस्था को कहीं भी टिकने नहीं दिया है। अगर कहीं अत्यधिक जनदबाव में समाजवाद या लोकतंत्र के नाम पर सुविधाएं देने का वादा किया भी है तो उसे बहुत न्यूनतम रूप में बहुत थोड़े समय के लिए दिया है। पूंजी ने धर्म के सिद्धांत ही बदल दिए हैं। यूरोप के इतिहास में हम पाते हैं कि मध्ययुग में चर्च बाइबिल का कथन कहता है कि ‘सुई के छेद से ऊंट का गुजर जाना संभव है पर एक धनी मनुष्य के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना संभव नहीं।’ चर्च ब्याज वृत्ति को पाप कहता था। आर्थिक मामले में चर्च का स्पष्ट कहना था कि किसी भी तरीके से जरूरत से अधिक या भविष्य में आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से संचय करना घोर पाप है। जबकि चर्च सबसे धनी हुआ करता था, और लोगों का बहुत शोषण करता था। चर्च और राज्य कुल उत्पादन का 80 प्रतिशत तक लोगों से ले लिया करते थे। चर्च लोगों को आश्रय देने, सहायता देने का भी काम करता था, लेकिन बहुत ही न्यून। कहते हैं कि चर्च और राज्य लोगों से करों के रूप में 80 फीसद तक न वसूलते तो लोगों को चर्च या राज्य के उपकार की जरूरत ही नहीं थी। लोगों का घोर शोषण और लोगों के नारकीय जीवन को से द्रवित एक रानी ने चर्च का अत्यंत विनम्र विरोध किया तो पादरियों ने उसे जवाब दिया कि वे चाहें तो अपने दासों को भूखा मारने का अधिकार रखते हैं। दास प्रथा में तो यह भी था कि जब तक दास काम करने लायक रहा तब तक उसे रखा और जब अशक्त हो गया तो उसे जंगल में धकिया दिया जाता था। तब व्यापार नहीं था और था भी तो अत्यंत न्यून। लेकिन जैसे-जैसे धन और व्यापार-उद्योग बढ़ा, चर्च का कथन बदलता गया। पहले वह अतिरिक्त प्राप्ति को पाप कहता था, वहीं वह सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अतिरिक्त प्राप्ति या संचय को पाप कहते हुए उसके साथ लेकिन लगाने लगा। इस लेकिन के साथ उसने तमाम तर्क गढ़े और उद्योगपति, कारोबारी, धनी की आर्थिक लिप्सा को वैध करार दिया। मतलब यह कि व्यापारियों ने शासकों/ चर्च से जैसा चाहा वैसा करवाया और कहलवाया।
व्यापार बढ़ने और मुद्रा के प्रचलन के बाद मनुष्यता ने और अधिक कष्ट उठाए। पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी असंख्य युद्धों का समय थी। इसके परिणामस्वरूप 1630 से दस वर्षों तक पेरिस की एक चौथाई आबादी भिखारियों की थी हॉलैंड, स्विटजरलैंड, इंग्लैंड आदि में भी हालत ऐसे ही थे। स्विटजरलैंड में यह भिखारी समूह में धनवानों को घेर लेते थे। तब इनसे छुटकारे के लिए धनवानों ने भिखारी शिकार दल गठित किए। जर्मनी में 1618 से 1648 तक युद्ध से कुल आबादी का दो तिहाई नष्ट हो गया, जो बचे उनके दुख अत्यंत नारकीय थे। हर छह में से पांच गांव नष्ट हो गये, एक तिहाई कृषि भूमि जनहीन हो गयी।
दुनिया की पहली पूंजीवादी क्रांति 1789 में फ्रांस में हुई। इस आंदोलन के कर्ता-धर्ता इतने गुस्से में थे कि उन्होंने राजा और रानी को दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला, फिर भी गुस्सा कम न हुआ तो ग्लोटीन मशीन में डालकर काटा। किले की एक-एक ईंट उखाड़कर ले गये। इसके बाद फ्रांस सहित यूरोप में पूंजीपतियों के हिसाब से सरकारें, व्यवस्थाएं, नियम कानून बनते रहे। लेकिन आम आदमी का शोषण जारी रहा। कई मायने में पहले से भी अधिक शोषण हुआ। तमाम नियमों, उदारताओं के बावजूद बहुसंख्यक आम आदमी का भला नहीं हो पाया। दास प्रथा का अंत यद्यपि अमेरिका में अब्राहम लिंकन ने कर दिया, इसके लिए उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी लेकिन विविध तरीकों से आम आदमी को गुलाम बनाए रखने का सिलसिला जारी रहा। तमाम विचारकों के नुस्खों के बावजूद ऐसा हल नहीं निकल पाया जिससे सभी लोगों की मूलभूत जरूरतें पूरी हो जातीं। पूंजीवाद मुनाफे को बढ़ाने के लिए मनुष्य को एक के बाद एक मुसीबत में डालता रहा। आम आदमी की समस्या का हल नहीं मिल रहा था, ऐसे में 1848 में जर्मनी में कार्ल मार्क्स ने समाजवाद का दर्शन दिया जिसमें सभी को उनकी जरूरतों के अनुरूप हर चीज मिल सकती थी। इसे कार्यरूप में व्लादिमीर लेनिन ने 1917 में परिणत किया। बाद के वर्षों में रूस की खुशहाली देख पूरी दुनिया का ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ। इससे पूंजीवादी व्यवस्थाएं हिल उठीं और उन्होंने रूस को युद्ध में लपेट लिया। इसके बाद रूस में बहुत कुछ नष्ट हो गया। बाद में समाजवाद और कई देशों में आया, उससे आम जनता का कुछ भला हुआ भी लेकिन पूंजीवादियों ने उन व्यवस्थाओं को टिकने नहीं दिया। अमेरिका ने तो अनेक राष्ट्रवादी, जनपक्षीय शासकों की हत्याएं करवाईं, सरकारें गिरवाईं। यह सिलसिला अब भी जारी है। अमेरिकी विदेश नीति में यह है कि जो देश अमेरिका के साथ नहीं वह अमेरिका के खिलाफ है।
इस पूंजीवादी व्यवस्था ने पिछले लगभग पांच सौ वर्षों से किसी भी जनपक्षीय शासक या व्यवस्था को टिकने नहीं दिया है, भारत में भी ऐसा ही है। विद्वान अर्थशास्त्री कहे जाने वाले मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते देश का जो हाल है वह सबके सामने है। जो लोग मोदी या केजरीवाल में बेहतर संभावनाएं देख रहे हैं, हम उनसे कहेंगे कि मोदी के शासन में तो आम आदमी त्राहि-त्राहि कर उठेगा। केजरीवाल इस व्यवस्था के खिलाफ ज्यादा दिन चल नहीं पाएंगे।
पूंजीवाद अधिक उत्पादन और कम खपत के कारण संकट में है, उसका मुनाफा कम हो रहा है। उसे हमारे देश में संसाधनों का अबाध दोहन चाहिए। पूंजीवाद को ऐसी व्यवस्था चाहिए जो उसके काम-काज में कम से कम हस्तक्षेप करे। मोदी पूंजीवाद के लिए एकदम मुफीद हैं। इसलिए मोदी को प्रमोट किया जा रहा है। अमेरिका, यूरोप आदि की सरकारें और पूंजीपति मोदी के साथ है। मोदी ने अपने राज्य में व्यवस्था कर रखी है कि सरकारी कर्मचारी किसी पूंजीपति के कारखाने आदि में नियम-कानून लागू किए जा रहे हैं या नहीं यह जांचने नहीं जाएंगे। मोदी भारत के हिटलर बनेंगे यह तय है यदि वे प्रधानमंत्री बन गये तो। मोदी राज में एक-एक कर जनकल्याणकारी योजनाएं खत्म की जाएंगी, सब्सिडी कम की जाएगी और पूंजीवाद के रास्ते में आने वाली हर बाधा हटाई जाएगी। और हम दावे के साथ कहते हैं कि पूंजीवाद की कार्यप्रणाली, गुजरात और मोदी की हकीकतें जाने बिना जो युवा आज मोदी के समर्थन में पगलाया हुआ है वही मोदी के राज में सबसे ज्यादा (मुट्ठी भर चंद धनाढ्यों को छोड़कर) रोएगा और कहेगा कि इससे तो पुरानी सरकार ही अच्छी थी।
फिलहाल एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी, कांग्रेस सबसे मुश्किल में है, भाजपा तो पहले ही उत्तर भारत तक सीमित है। ऐसे में आप ने मोदी के लिए थोड़ी मुश्किल खड़ी की है लेकिन संभव है कि उत्तर भारत में लोकसभा चुनाव में आप, कांगेस और मोदी ही मुकाबले में हों और मोदी जीत जाएं।
लेखक रुद्रपुर (उत्तराखंड) में रहते हैं। उनसे संपर्क मोबाइल 9897791822 या ईमेल [email protected] पर किया जा सकता है