इतिहास के कालखण्ड का ये वो दौर था जब भारतीय जनमानस दिशाहीन गुलामी के घने कुहासे में बेड़ियों में जकड़ा मुक्ति के लिए अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा था। तत्कालीन दिग्रभमित राजनीति आजादी का कोई मुक्कमल रास्ता नहीं तलाश पा रही थी। कुछ छ्दम स्वतंत्रा सेनानी परोक्ष रूप से बरतानिया हुकूमत की मदद ही कर रहे थे। योर हाईनेस कहकर हुकूमत के चरणों में शीश नवाने वाले राजा, महाराजाओ, जोतदार, जागिरदार, जमीदारों की भी कमी नहीं थी। यानि अपने ही घर के भेदिये सात समंदर पार से आये गोरे अंग्रेजो के हुकूमत को महफूज बनाने के लिए पूरी तरह से मदद कर रहे थे।
आम जन मानस के दिलों में गुस्से का गुबार था और फिजाओं में आजादी के नारे। पर आजादी किन रास्तों से आयेगी ये पता नहीं था। ऐसे में सात साल की उम्र में जालियांबाला बाग पहुंच वहां की मिट्टी को टटोल उस मिट्टी की आंच को अपने अन्दर जज्ब करने वाले बच्चे ने आगे चलकर जब इंकलाब-जिदांबाद कहा तो देखते ही देखते एक मुकम्मल आजादी की तस्वीर उभर का सामने आ गयी। अन्याय पर टिकी व्यवस्था के समूल विनाश में ही उसे नए जनवादी भारत का भविष्य नजर आया। जिदंगी की तमाम खुबसूरती का रंग उसे आजादी में नजर आया, तो वो आजादी लाने चल पड़ा रास्ता दुर्गम था और लक्ष्य कठिन पर निश्चय का धनी वो युवक रूका नहीं न अपने लक्ष्य से डिगा, किसी ने सिरफिरा कहा तो किसी ने पागल पर वो इतना ही कहता गया….. दूर तक यादें वतन आयी थी समझाने को…..।
23 मार्च 1931 को राजगुरू, सुखदेव के साथ साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ फांसी के फन्दे को चूमने वाला भगत सिंह वो नाम है, जिसने आजादी की लड़ाई का रूख बदल कर रख दिया। नए जनवादी भारत के लिए संघर्ष छेड़ने वाले इस 23 साल के युवक की समझदारी आजादी को लेकर बिल्कुल साफ थी, अपने साथियों से बातचीत के दौरान जब उन्होनें कहा कि हमारे लिए संघर्ष का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है और वो ये कि जब तक कि शोषण पर टिकी व्यवस्था का अंत न हो जाए, संघर्ष हर सूरत में जारी रहना चाहिए, फर्क नहीं पड़ता हमें लूटने वाले गोरे अंग्रेज है या फिर विशुद्ध भारतीय।
यहीं से भगतसिंह आने वाले भारत के पीढ़ियों को ताकीद कर रहे थे, कि आजादी चाहते हो तो संघर्ष को भूलना मत न किसी छलावे में आना। लेकिन उनका यहीं एक रूप नहीं था। वो जानते थे कि आजादी को बरकरार रखने का काम आसान नहीं है, इसके लिए असीम धैर्य और त्याग की जरूरत होती है। खुद के वजूद को नींव का ईट सरीखा बनाना पड़ता है। जेल में अपने साथी सुखदेव को समझाते हुए भगत सिंह कहते है। …सुखदेव मैं जानता हूं संघर्ष के दौरान ऐसा भी समय आता है, जब एक-एक कर साथी छूटने लगते है। हम अकेले रह जाते है। ऐेसे में तमाम विरोधी ताकते ये साबित करने में लग जाती है, कि हमारा उठाया गया कदम हमारा निर्णय गलत था, ऐसे में घबराने की नहीं अपने विचारों के सान को और तेज करने की जरूरत होती है, ताकि अंधेरी ताकतों से लड़ते हुए हम़ अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ते रहें। अपने साथी को कही गयी उनकी ये बातें हमे बताती है कि एक क्रान्तिकारी किस हद तक संवेदनशील हो सकता है।
भगत सिंह ने हमे बताया कि क्रान्तिकारी होने और व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई में हमारा संवेदनशील होना बेहद जरूरी है। तभी हम आम आदमी के दर्द के मर्म को समझ कर उसके संघर्षों के भागीदार बन सकते है। सत्ता की लूट-खसोट, तानाशाही, शोषण, आम जिदंगी के सवालों को मतलब परस्त राजनीति के भंवर में भटकाने के लिए छोड़ देने के विरोध में खड़ा होने का नाम ही भगत सिंह है। इससे ज्यादा और इससे कम में भगतसिंह को याद करने का मतलब आज के हालात में कुछ और हो नहीं सकता। खासकर तब जब सत्ताएं बेरहम और बहरी हो चली है, तो क्या बहरी और बेरहम सत्ता को इन्कलाब-जिन्दाबाद सुनाने के लिए हम तैयार है? एक मार्गदर्षक, एक साथी के रूप में शहीदे आजम भगतसिंह शायद हमसे यही चाहते है…. कम से आज के दिन खुद में भगतसिंह को टटोलिये, खुद से पूछिये तो सही।
भास्कर गुहा नियोगी। संपर्कः [email protected]