‘मीडिया और न्यायपालिक में स्त्री के सवाल को लेकर बहुत सारे अंतर्विरोध हैं। स्त्री हिंसा की घटनायें लगातार बढ़ रही हैं और जितने कानून बने हैं वे नाकाफी हैं। इलेक्टोनिक, इंटरनेट और प्रिंट माध्यमों पर पोर्नोग्राफी को बढ़ावा मिल रहा है। छोटे-छोटे पर्दे और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यम मिस ब्यूटी और क्वीन कॉन्टेस्ट से भरे पड़ें हैं। इस वीभत्स बाजार के पीछे बड़ी और बहुराष्ट्रीय आवारा पूंजी लगी है। यह अजीब उहापोह की स्थिति है कि स्त्री को लेकर पुरुष सत्ता उसे आजादी भी देना चाहती है और प्रतिबंधित भी करना चाहती है। यह अकारण नहीं है कि स्त्री हिंसा की घटनायें बढ़ती चली जा रहीं हैं। कहते हैं कि हम आधुनिक हैं लेकिन भारतीय पुरुषों को घूंघट वाली स्त्री और सीता-पार्वती चाहिये। अपने व्यवसाय के लिये उन्हें बिकने वाली स्त्री भी चाहिए’। ये बातें प्रसिद्ध कानूनविद अरविंद जैन ने केंद्रीय वि.वि. गुलबर्गा में ‘कला और साहित्य में स्त्रियों के योगदान विषयक सेमिनार के अपने संबोधन में कही। स्त्रीकाल पत्रिका, भारतीय भाषा संस्थान मैसूर और केंद्रीय वि.वि. गुलबर्गा के साझा प्रयत्नों से इस सेमिनार का आयोजन किया गया था। दो दिनों में तीन सत्रों में बंटा पूरा कार्यक्रम ‘स्त्रियां और भागीदारी’ थीम पर एकाग्र रहा। ‘स्त्री सत्ता भागीदारी: यथार्थ या विभ्रम’, ‘साहित्य और कला में स्त्री का योगदान: स्पेस की दावेदारी’ एवं ‘भाषा, संवाद और मीडिया: पितृसत्ता और स्त्री के सवाल’ सरीखे विषयों पर इन अलग-अलग सत्रों में बातें संपन्न हुईं।
इसके कारणों की चर्चा करते हुए अरविंद ने कहा कि इसकी जड़ें ‘भारतीय संस्कृति’ की जातिवादी और लैंगिक हिंसा में समाई हुई हैं। लेकिन यह सुखद स्थिति है कि भ्रूण हत्या, देहज प्रथा, सती महिमा आदि हर मसले को लेकर आज की स्त्री चेतना संपन्न हुई है, आत्मनिर्भर हुई है। इसलिये यह चेतना उनमें नजर आती है। उन्होंने माना कि विवाह संस्था से उत्तराधिकार तक यह समाज स्त्रियों पर नकेल बनाने की हर संभव कोशिश करता रहा है। उन्होंने आजादी के सपनों का जिक्र करते हुये सवाल उठाया कि क्या हम स्वाधीन भारत के धर्मनिरपेक्ष देश के नागरिक हैं। क्या हुआ स्त्री-पुरुष के बीच के समानता और समानाधिकार की परिकल्पना का। समानता का मतलब क्या है? और कहा सुप्रीम कोर्ट कहती है कि समान लोगों में समानता है। उसके आधार बहुत हो सकते हैं लेकिन भाषा, लिंग और पदों के आधार पर समानता की यह खाई लगातार बढ़ती गई है। जब तक समाज में बराबरी का अधिकार नहीं होगा, किसी के साथ इंसाफ नहीं हो सकता। इसी तरह स्त्री हिंसा को लेकर जितने कानून हैं वे बहुत ही लचर हैं। इन कानूनों में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व है जिसे इन अंग्रेजीदां लोगों ने लूट का पर्याय बना रखा है। उन्होंने कहा कि आजादी के पहले से ही स्त्रियों के प्रति न्यायपालिका की नकारात्मक सोंच बनी हुई है। ज्यादातर कानून आज भी 1860-70 वाले ही हैं।
विवाह संस्था को लेकर बने कानूनों पर भी उन्होंने विस्तृत रूप से बात की। ‘वैध’ संताने अपने पिता की उत्तराधिकारी और ‘अवैध’(?) संताने अपनी माता की। आप इस मंशा का अंदाजा लगाइये कि जहां 96 प्रतिशत पूंजी पर मर्दों का अधिकार हो, वहां न्यायालय अंततः किसके हितों का पोषण कर रहा है। हम यह डींग हंकते नहीं अघाते कि देश के स्तर पर हम ‘डेमोक्रेटिक’ हैं लेकिन परिवार के स्तर पर यह कैसी डेमोक्रेसी है? अगर कोई हिन्दू लड़की किसी मुस्लिम से विवाह करेगी तो उसे विवाह की आजादी तो दे देंगे लेकिन परिवार से सारे संबंध खत्म कर देंगे। डेमोक्रेसी का ऐसा विरोधाभास तो दुनिया के किसी समाज में नहीं होगा कि आपके सामने देश और परिवार में से एक ही चुनने का विकल्प हो। अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े तमाम कानूनों के इतने सारे चोर दरवाजे हैं कि अपराधी बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं।
अपने उद्घाटन वक्तव्य में केंद्रीय गुलबर्गा वि.वि. के कुलपति प्रो. ईटी पुट्टय्या ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दक्षिण वालों के प्रति उत्तर वालों का नजरिया भेदभाव का रहा है। स्वागत भाषण करते हुए प्रो. परिमला अंबेकर ने कहा कि दक्षिण की भाषाई कमजोरियों को नजरअंदाज करें तो उनके लेखन की अपनी एक अलग जमीन रही है। उन्होंने विस्तारपूर्वक स्त्रीत्व के सवाल को अपने वक्तव्य में दर्ज किया। संगोष्ठी में इस मौके पर ‘द्वैतानुबंध’ एवं ‘प्रतिबद्धता एवं प्रतिबंध’ (लेखिक एवं संपादक, प्रो. परिमला अंबेकर) नामक पुस्तक का लोकार्पण उक्त लोगों के अलावा नीलिमा सिंहा, ओम थानवी एवं संजीव चंदन ने संयुक्त रूप से किया।
संगोष्ठी के पहले सत्र में ‘स्त्री सत्ता एवं भागीदारी: यथार्थ व विभ्रम’ में बीज वक्तव्य में कथाकार अर्चना वर्मा ने स्त्री असमानता के मानकों की चर्चा करते समय, राजनीति और संस्कृति की चर्चा की। मुख्य अतिथि ओम थानवी ने दलील दी कि दलित और सवर्ण स्त्रियों का विभाजन ठीक नहीं है। उन्होंने फिल्मों और मीडिया का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष दिया कि वहां स्त्रियों की हैसियत एक उत्पाद से अधिक की नहीं। उन्होंने कहा कि आम आदमी को अपने वक्त की चीजों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए नीलिमा सिन्हा ने माना कि प्रतिनिधित्व का सवाल स्त्री के संदर्भ में बहुत मौजू है क्योंकि स्त्री के बारे में हर तरह की राय का निर्धारण पुरुष सत्ता ही करती रही है। आपने एक कुंजी बना दिया कि महिलाएं दरअसल कमजोर ही हैं। वैवाहिक विज्ञापनों की चर्चा करते हुये उन्होंने कहा कि यह भी अंततः पितृसत्तात्मक समाज की ही देन है। उन्होंने सवाल उठाया कि स्त्री की रूचियां अंततः पुरुष ही क्यों तय करें?
अपने अध्यक्षीय भाषण में हेमलता माहेश्वर ने गढ़े गये मिथकों और स्त्री के पहनावे से जुड़े प्रतीकों को टारगेट करते हुये कहा कि यह सब इसलिये होता रहा है क्योंकि ज्ञान व अनुशासन के विभिन्न माध्यमों में लैंगिक विशमता की जड़ें गहरे तक मौजूद रही हैं। परिमला अंबेकर ने कहा कि जब कभी महिलाओं की भागीदारी जिस किसी भी क्षेत्र में की जाती है तो सारी व्यवस्था डगमगाने लगती है। महज 3 प्रतिशत ब्राह्मणों ने तमाम संसाधनों पर कब्जा जमा रखा है। यह संस्कृति स्त्रियों के बदलाव का समर्थन नहीं करती। दूसरी संस्कृति सदियों से जातिवाद के विरोध में संघर्ष करती रही है। आदिवासी, दलित और ओबीसी इसके आधार क्षेत्र हैं। इसी वर्ग की स्त्रियां जीवन में काम आने वाले तमाम तरह के उत्पादों को सृजित करती हैं। खेती, पषुपालन, मिट्टी के बर्तन, कपड़े का उत्पादन, मैला ढ़ोना, जूते बनाना और तमाम मनोरंजन के उत्पादन में इन्हीं का श्रम है। बावजूद इसके इसी वर्ग की स्त्रियां सबसे अधिक दयनीय स्थिति में रही है।
संगोष्ठी का तीसरा सत्र ‘भाषा, संवाद और मीडिया’ विषय पर एकाग्र रहा। गोष्ठी का आगाज संदीप मील ने किया। इसकी अध्यक्षता कानूनविद् अरविंद जैने ने की। निवेदिता, शैलेन्द्र सिंह, ज्योती कुलकर्णी और सुजाता पारमिता ने इस सत्र को संबोधित किया। पत्रकार निवेदिता ने कहा कि दुनिया में ऐसी कोई भाषा विकसित नहीं हुई जहां लैंगिक विभेद न हो। टीवी चैनल की चर्चा करते हुये उन्होंने बताया कि सभी हिन्दी धारावाहिकों की कथावस्तु स्त्री विरोधी रही है। इनमें स्त्री, स्त्री के विरुद्ध षडयंत्र करती नजर आती है। एक सर्वेक्षण का जिक्र करते हुये उन्होंने बतलाया कि तकरीबन 70 प्रतिशत खबरें महिलाओं पर केंद्रित हैं। इनमें से ज्यादातर खबरों की भाषा पुराने सामंती मूल्यों को स्थापित करतीं है। हालांकि पहले की तुलना में यह एप्रोच तोड़ा कम हुआ है। उन्होंने पहचान का सवाल उठाया और कहा कि मीडिया में आमतौर पर महिलाओं की पहचान उनकी वैवाहिक स्थितियों से आंकी जाती है। जैसे विधवा, परित्यक्ता, माशूका, दूसरी औरत, चार बच्चे की मां या बांझ। ये तस्वीर बताती है कि मीडिया की बुनावट में पुरुष वर्ग का शिकंजा किस तरह काम करता रहा है। तरुण तेजपाल परिघटना हो या निर्भया कांड, ये स्थितियां बतलाती हैं कि महिला के इस सवाल को लेकर मीडिया संवेदनशील भी है। यह एक दो धारी तलवार की तरह जो रचनात्मकक और विध्वंसक दोनों ही तरह की भूमिकाआं में नजर आता है। यह मीडिया ही है जिसने भंवरी बाई के मुद्दे को महिला आंदोलन का स्वरुप देने में योगदान किया।
शैलेन्द्र सिंह ने कहा कि स्त्रियों की भागीदारी की बात करते हुये हिस्सेदारी, साझेदारी, समझदारी और कल्याणकारी इन चार चीजों को ध्यान में रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में हमें इसके मूल्य और इसकी सीमाओं को ध्यान में रखना होगा। उन्होंने माना कि स्त्री विमर्श के सवाल को अंतर अनुशासनिक विमर्श बनाने की जरूरत है।
अपने धन्यवाद ज्ञापन में संजीव चंदन ने कहा कि मथुरा जैसी दलित महिला व आदिवासी स्त्रियों और उनके मुद्दों को स्त्रीवाद ने इस्तेमाल तो जरूर किया लेकिन उनके साथ कोई आत्मीय संबंध विकसित नहीं किया। उन्होंने कहा कि दो दिनों के इस सेमिनार में दलित और आदिवासी स्त्रियों की दृष्टि से साहित्य, संस्कृति और सत्ता को समझने की कोशिश की गई तथा भागीदारी और दावेदारी के विभिन्न पहलुओं पर बहस हुयी। यही इस सेमिनार की सफलता है।
अरुण नारायण की रिपोर्ट। संपर्कः हिंदी प्रकाशन, बिहार विधान परिषद, पटनाः800015 मोः 8292253306/ 7870868022