बचपन में मेरी जिन आदतों और हरकतों से दादी की जान जलती थी, उनमें से एक था मेरा घुमक्कड़ी स्वभाव। घर में मेरे पैर कभी टिके नहीं। मुझे हर समय घूमने को चाहिए। अब जितना मौका था, उतना ही घूमती थी। ऐसा तो नहीं कि मुंह उठाया और इलाहाबाद से बनारस पहुंच गई, बनारस से मुंह उठाया और लखीमपुर खीरी पहुंच गई। एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में ही तो जाती थी। फिर भी इतनी तकलीफ। दादी समेत तकरीबन सभी पारंपरिक परिवारों को इतिहास, मनुस्मृति और धर्मग्रंथों से मिला ज्ञान ये कहता है, जिसे वह पैदा होने के साथ ही पोलियो के टीके की तरह अपनी लड़कियों के खून में इंजेक्ट कर देते हैं कि-
1- लड़कियों को ज्यादा घूमना-फिरना नहीं चाहिए।
2- उन्हें घर में रहना चाहिए और सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, पाक कला आदि में महारत हासिल करनी चाहिए।
3- ज्यादा घूमने-फिरने की इच्छा करना अच्छी लड़की के लक्षण नहीं हैं।
4- जिस स्त्री के पांव घर में न टिकें, उसका चरित्र ठीक नहीं है।
5- अच्छी लड़कियां घूमने तो खैर नहीं ही जातीं, घर की छत पर, खिड़की-दरवाजे पर भी ज्यादा नहीं जातीं। (इसका विरोध कृपया न करें। हिंदुस्तान के छोटे शहरों के बहुसंख्यक परिवारों में आज भी यही होता है।)
हर संभव तरीके से ये बताने की कोशिश कि लड़कियों के लिए घूमना-फिरना अच्छी बात नहीं है और ऐसा करने वाली लड़कियों का चरित्र शक के दायरे में रहता है।
अब इस आइडिया के बड़े निहितार्थ क्या हैं ?
बेसिकली मूवमेंट को सिर्फ घर तक सीमित करने और घूमने-फिरने पर रोक लगाने का अर्थ है एक बड़ी दुनिया, अनुभव, एक्सपोजर, ज्ञान, विचार आदि से लड़कियों को पूरी तरह काट देना और उन्हें डंब बना देना।
किसी भी प्रजाति को सिर्फ दस साल तक घर के अंदर बंद करके देखिए। उसके मानसिक विकास का क्या होता है। स्त्रियां तो हजारों साल से बंद हैं। उनका मानसिक विकास तो जनरेशंस से अवरुद्ध हो गया है।
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पूरी मानव सभ्यता की शुरुआत में ज्ञान हासिल करने के टूल और स्रोत क्या क्या थे। कोई किताब नहीं, कोई सिनेमा नहीं। सिर्फ घुमक्कड़ी और उससे अर्जित अनुभवों और ज्ञान ने किताब, दर्शन, विज्ञान आदि की शक्ल अख्तियार की। मनुष्य ने ऐसे ही ज्ञान हासिल किया। एक घुमक्कड़ अपना जहाज तैयार कर निकला हिंदुस्तान की खोज में। उसे पता नहीं था कि ग्लोब में नॉर्थ अमेरिका भी कोई चीज है। वह इंडिया समझकर उस जमीन पर उतरा और अमेरिका की खोज कर ली। वह कोलंबस था।
एक और घुमक्कड़ पुर्तगाल से चला और समुद्री रास्ते से खोजता हुआ हिंदुस्तान पहुंच गया। हमने बचपन में उसके बारे में किताबों में पढ़ाया गया। वह वास्कोडिगामा था। और भी ऐसे जाने कितने थे घुमक्कड़, यायावर, संसार की खोज करने वाले। भूगोल, इतिहास, विज्ञान, दर्शन के दरवाजे खोलने वाले। मार्को पोलो, मेगस्थनीज, फाह्यान, इब्नबतूता वगैरह-वगैरह।
लेकिन संसार के अब तक के समूचे इतिहास में अब तक कोई स्त्री घुमक्कड़, Traveller नहीं हुई। वह कभी इस तरह अपना जहाज बांधकर बस किसी भी दिशा में संसार की खोज में नहीं निकली। उसने पूरे ग्लोब पर जमीन कोई नया टुकड़ा नहीं ढूंढा। आखिर क्यों औरतें कभी भी Traveller नहीं हुईं। एक समूची प्रजाति को Travelling से काट देने का अर्थ था, उसे ज्ञान और अनुभवों के स्रोत से काट देना। ज्ञान और अनुभव के बुनियादी स्रोत से कट जाने के कारण स्त्रियों का मानसिक, बौद्धिक और व्यक्तित्वगत विकास अवरुद्ध हो गया।
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घूमने का अर्थ है ज्ञान हासिल करना। घूमने का अर्थ है अनुभवों का विस्तार। घूमने का अर्थ है आजादी। घूमने का अर्थ है अपने दिल-दिमाग और अपने शरीर पर हक। घूमने का अर्थ है एक तयशुदा घेरे से आजाद हो जाना और फिर अपनी मर्जी, खुशी और आजादी से विभिन्न तरह के समाजों, संस्कृतियों, लोगों और परिस्थितियों के बीच रहना, जीना और व्यवहार करना। घूमने का अर्थ है नियंत्रणों से मुक्त होना। घूमने का अर्थ है जो अच्छा लगे, उससे प्रेम करना और इच्छा हो तो उसके साथ सोना भी। घमने का अर्थ है हमेशा नई जिज्ञासाओं और सवालों से भरे रहना। उनके उत्तर तलाशना। घूमने का अर्थ है अपने अस्तित्व को संसार और प्रकृति के बड़े समूह के साथ जोड़कर देखना।
घूमने के ये बहुत सारे अर्थ है। और इन सारे अर्थों से समूचे इतिहास में स्त्रियों का जीवन हमेशा कटा रहा। उनके पास न ज्ञान था, न अनुभव, न अपनी देह पर हक। अपनी मर्जी का पुरुष चुनने और उसके साथ सोने की आजादी नहीं। वो एक पुरुष विशेष की निजी संपत्ति थीं। और उन्हें अपना जहाज बांधकर हिंदुस्तान की खोज करने के लिए छोड़ देने का मतलब था उनकी देह को आजाद कर देना। औरत के शरीर पर से आदमी का Control खत्म। इसलिए इतिहास में औरतें कभी घुमक्कड़ नहीं हुईं। कोई कोलंबस नहीं, कोई वास्कोडिगामा नहीं।
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एक नए पैदा हुए बच्चे को लगता है कि मां की गोद ही पूरा संसार है। फिर जब वह गोद से उतरकर घर में चलने-फिरने लगता है तो उसे पता चलता है कि संसार ये चार कमरे, रसोई, आंगन, बगीचा, बालकनी और छत भी है। फिर जब वह स्कूल जाना शुरू करता है कि समझता है कि संसार में स्कूल है, स्कूल के ढेर सारे बच्चे हैं, टीचर हैं, मोहल्ले के दोस्त हैं, स्कूल के रास्ते में दिखने वाले लोग हैं, मकान हैं, दुकानें हैं। फिर बच्चा बड़ा होता जाता है और पता चलता है कि संसार एक बहुत बड़ा सा शहर है, जहां तरह-तरह की चीजें हैं। फिर वो सारे शहर उसके संसार का हिस्सा होते जाते हैं, जहां नानी, चाची, बुआ, ताऊ और तमाम रिश्तेदारों के यहां शादी-ब्याह, जन्म और मरण में जाना होता है। या वो शहर, जहां वह नौकरी करने जाता है। जीवन आगे बढ़ता है और अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब के वही परिचित, दोस्त, रिश्तेदार और पट्टीदार ही एक मनुष्य का सारा संसार होकर रह जाते हैं। बाकी की दुनिया सिर्फ ग्लोब पर बारीक अक्षरों में लिखा हुआ कोई नाम भर है।
– अब अपनी जाति, अपने धर्म, अपने कुटुंब, अपने परिवार और रिश्तेदार के संकरे कुएं में पूरा जीवन बिता देने वाला इंसान ये कैसे जानेगा कि संसार बहुत बड़ा है, संस्कृतियां बहुत सारी। अनगिनत लोग, विचार, जीवन और अनुभवों का विराट संसार। और जीवन का मकसद दुबेजी-तिवारी-चौबेजी की दुनिया में सुरक्षित होकर रहना नहीं, जीवन का मकसद अनुभवों के उस विराट संसार की सैर है।
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मुझे अकसर दिल्ली Metro में ऐसी लड़कियां मिलती हैं, जो हिंदुस्तान घूमने आई हैं। 18 साल से लेकर 22-25 साल तक की लड़कियां अपने कंधे पर एक बैग टांगकर दुनिया देखने निकल पड़ती हैं। एक बार जयपुर में एक डच लड़की मिली, जो 25 दिनों से अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ इंडिया घूम रही थी। वो क्यों घूमती है, का सीधा सा जवाब उसके पास था, "I want to see the world." उसका ऑब्जर्वेशन कहता था कि हिंदुस्तानी लड़कियों को एक निश्चित दायरे के बाहर अकेले घूमने की इजाजत नहीं है। और इसकी वजह जो उसकी समझ में आई, वो तो और भी कमाल थी, "Because chastity is very important for Indian women." घूमने-फिरने पर नियंत्रण के पीछे ये चेस्टिटी ही है। शरीर की पवित्रता, शुद्धता और कौमार्य की रक्षा।
इंडिया टुडे की फीचर एडिटर मनीषा पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार.