अंग्रेज इस देश को आजाद कराने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महात्मा गांधी को अव्वल दर्जे का धूर्त कहते थे। क्यों? गांधी जी ने अहिंसा के दम पर अंगरेजों की नाक में दम कर रखा था। गांधी अनशन करते। देश में अलख जगाते और प्राण त्यागने से पहले अनशन तोड़ देते (जैसा अंगरेज समझते थे)। बंदूक और तोपों के दम पर दुश्मनों से निपटने वालों के लिए यह नया अस्त्र था, सो अंगरेजों की खीज स्वाभाविक थी।
अब बाजार के चहेते लेखक चेतन भगत और पिता की वैमन्स्य राजनीति के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे ने अरविंद केजरीवाल को राजनीति की आइटम गर्ल कहा है। खैर….किसी घुटे हुए राजनेता से ज्यादा लेखक या बुद्धिजीवी जैसे जीव की बातें हमेशा गौर से सुनी जाती हैं । उद्धव की पीड़ा समझी जा सकती है। मीडिया में उन्हें कितनी जगह मिलती है और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्वीकार्यता कितनी है यह बताने की जरूरत नहीं है। वे जिस तरह की राजनीति की उपज हैं, वह भारतीय दर्शन और संस्कृति के सर्वथा विपरीत और अति निदंनीय रही है। फिर मुंबई जैसी जगहों पर अचानक उगी एक पार्टी की सक्रियता उन्हें परेशान तो करेगी ही।
और चेतन भगत… बाजार की भाषा समझते हैं और यह जान गए हैं कि जीवन में हर कर्म का आखिरी ध्येय धनोपार्जन होता है। धन आगमन के लिए वे लिखने के अलावा युवाओं में जोश जगाने का काम भी करते हैं। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे कुछ खास राज्यों में उनकी आमद से धनोपार्जन होता है, कितना? यह वही जानें। सवाल राजनीति के आइटम गर्ल का है। जवाब यह यह है कि इसी आइटम गर्ल से कुछ सीखने की बात राहुल गांधी कर रहे हैं और भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह गली-मोहल्लो में नहीं, फुटपाथ पर चप्पल घिस रहे हैं। राजस्थान की सीएम वसुंदरा राजे ने यूं ही अपनी सुरक्षा में लगे दर्जनों जवानों की संख्या आधी नहीं कर दी है। और छत्तीसगढ़ के सीएम डा. रमन सिंह अपने 80 करोड़ की लागत से बनने वाले बंगले की फाइल लौटा नहीं रहे हैं। भाजपाई गोवा के सीएम की सादगी का अचानक गुणगान यूं ही नहीं कर रहे हैं।
नेताओं की यह सादगी उनके मूल स्वभाव में नहीं है। न खून में हैं। यह बदली हवाओं के साथ बहने का प्रयास है। यह हवा चलाने का श्रेय अरविंद से कौन छीन सकता है। हमारा मानना है कि भारतीय व्यवस्था (कानून या सामाज) को क्षति न पहुंचाने वाले हर प्रहार का इस्तेमाल जायज है। इस सड़ी-गली व्यवस्था के गिरेबां को पकड़ने के लिए जो हो सकता है करना चाहिए। परंपराएं टूटनी चाहिए। गरिमा के नाम पर फैली गंदगी को साफ करना ही चाहिए। अगर लालू प्रसाद यादव जैसा अपराधी अरविंद केजरीवाल की मजाक उड़ाने लगे तो समझना चाहिए कि खीज क्यों हैं और किस स्तर के लोगों में हैं।
दरअसल, अगर अरविंद राजनीति के तय मानकों की उपज होते तो उनसे निपटना आसान होता। वे चंदाखोर होते, ठेकेदारों के कंधे पर चढ़कर राजनीति करते या फिर कारपोरेट के अरबपतियों के स्पांसर बनकर किसी एकाध राज्य पर कब्जा करते तो शायद उनके खिलाफ आरोप लगाने में आसानी होती। कुछ लोगों का दर्द स्वाभाविक है। पीआर पर अरबों खर्च कर जितना प्रचार कुछ नेता नहीं पा रहे हैं वे अरविंद एंड कंपनी को यूं ही मिल रहा है। फिर अचानक मोदीमय टीवी को अरविंद मय होते देख अगर चेतन भगत के पेट में दर्द होता है तो गलती अरविंद की नहीं है। चेतन की पाचन शक्ति की है।
रही बात अरविंद के तौर तरीको की, तो इस मुल्क को कई क्षेत्रों में आइटम गर्ल की जरूरत है। ताकि मुफ्त की ऐश करने वालों को काम की आदत पड़े। पांच साल में, या जरूरत पड़ने पर एकाध बार शपथ दिलाने वाले राज्यपालों की खबर ली जाए। महामहिमों को यह समझा सकें कि प्रतिभा पाटिल की तरह सिर्फ हवाई यात्राएं कर इस देश के गरीबों की आह न लें। जरूरी काम भी करें। संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को झकझोंर पूछे कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है। आम लोगों को सड़क से हटाने वाले हाथों को भी मरोड़ने की जरूरत है।
दरअसल जब भी कोई आम आदमी खास तबके के हिस्से पर दावा जताता है, प्राचीन दावेदारों की जुबान कड़वी होने लगती है। और दावेदारों के आसपास के ‘सुख भोगने वाले’भी सक्रिय हो जाते हैं। चेतन भगत और उद्धव ठाकरे ऐसे ही लोगों की नुमाइंदगी करते हैं।
आखिरी बात…
अरविंद एंड कंपनी इस देश में लंबे समय तक चलेगी या नहीं, यह सवाल फिलहाल अनुत्तरित ही रहेगा। क्योंकि बिना कुछ लिए, इस देश ही नहीं, पूरी दुनिया में कुछ नहीं मिलता। खासतौर पर वोट तो बिल्कुल नहीं। फिलहाल बिजली पानी सस्ता देकर अरविंद ने वोट की कीमत चुका दी है। पर हर बार वोट पाने के लिए वे क्या दे पाएंगे यह सवाल अनुत्तरित है। अगर इस देश के नागरिक इतने ही ईमान पसंद होते तो लालू, जयललिता, मुलायम, मायावती, येद्दूरप्पा जैसे लोगों का नाम लेवा कोई नहीं बचता।
ब्रह्मवीर सिंह