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अनिवार्य मतदान की व्यवस्था पर ज़रूरी है व्यापक बहस

कुछ साल पहले आज की अपेक्षा कम मतदान होता था, इससे चिंतित इंतजामिया ने लोगों को प्रेरित करने के लिए अभियान चलाने प्रारंभ किए। आज सरकार से लेकर हर राजनीतिक दल, हजारों स्वयंसेवी संगठनों सहित मीडिया और बाजारवाद के तमाम मंच लोगों को वोट जरूर डालने के प्रति जागरूक कर रहे हैं। मतदान को राष्ट्र, समाज हित में और पुनीत कर्तव्य बता रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने विगत दिनों अहमदाबाद में कहा है कि चुनाव के बाद केंद्र में उनकी सरकार बनी तो देश में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जायेगी। उन्होंने सुझाया है कि वोट नहीं देनेवालों को दंडस्वरूप अगले चुनाव में मतदान के अधिकार से वंचित करने की व्यवस्था बनायी जा सकती है।

कुछ साल पहले आज की अपेक्षा कम मतदान होता था, इससे चिंतित इंतजामिया ने लोगों को प्रेरित करने के लिए अभियान चलाने प्रारंभ किए। आज सरकार से लेकर हर राजनीतिक दल, हजारों स्वयंसेवी संगठनों सहित मीडिया और बाजारवाद के तमाम मंच लोगों को वोट जरूर डालने के प्रति जागरूक कर रहे हैं। मतदान को राष्ट्र, समाज हित में और पुनीत कर्तव्य बता रहे हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने विगत दिनों अहमदाबाद में कहा है कि चुनाव के बाद केंद्र में उनकी सरकार बनी तो देश में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जायेगी। उन्होंने सुझाया है कि वोट नहीं देनेवालों को दंडस्वरूप अगले चुनाव में मतदान के अधिकार से वंचित करने की व्यवस्था बनायी जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार एवं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी अनिवार्य मतदान के पक्षधर हैं। यही क्यों देश में, तमाम विचारक, व्यवस्था के सभी अंगों से जुड़े बहुतेरे लोगों का विचार है कि वोट न देने वाले को कड़ी सजा दी जानी चाहिए।

गुजरात अकेला राज्य है, जहां अनिवार्य मतदान विधेयक को विधानसभा से पारित किया गया है। इससे पहले आडवाणी देश में बहुदलीय संसदीय प्रणाली की जगह अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली की वकालत भी कर चुके हैं। दूसरी ओर कई विश्लेषकों की राय में आडवाणी का यह विचार ‘मजबूत केंद्र और अनुशासित जनता’ के दक्षिणपंथी सोच से प्रेरित है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए हर मतदाता की राजनीतिक जिम्मेवारी है कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग करे, लेकिन अहम सवाल यह भी है कि क्या उसे मतदान के लिए मजबूर किया जाना उचित होगा? इतना ही नहीं, भारत जैसे विशाल राज्य में वोट नहीं देनेवालों की पहचान कर उन्हें दंडित करने की प्रक्रिया काफी जटिल और खर्चीली भी होगी।

धन्नासेठ और उनके परिवार वाले आमतौर पर वोट डालने नहीं जाते। वे मतदान करने को अपनी हेठी समझते हैं। उन्हें लगता है कि वे आम लोग नहीं हैं, वह विशेष लोग हैं। और मतदान करना और अन्य कानूनी प्राविधानों का पालन करना आम आदमी का काम है। आडवाणी या ऐसे ही लोग क्या कुमार मंगलम बिड़ला या ऐसे ही अन्य धन्नासेठों को मतदान न करने पर अदालत में खड़ा देखने का बयान देखने की हिम्मत दिखा सकेंगे? विडंबना देखिये कि उसी सभा में आडवाणी यह भी कहते हैं कि मौजूदा आम चुनाव के परिणाम तो मतदान से पहले ही लोगों द्वारा तय कर दिये गये हैं। ऐसे में उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि जब परिणाम पहले ही तय हो सकते हैं, तो सबको मतदान के लिए मजबूर करने की जरूरत क्या है?

यह आडवाणी की तानाशाही सोच को प्रतिबिंबित करता है। राइट टू रीकॉल का सवाल उठाते ही राजनीतिकों को पसीना आ जाता है। अगर अनिवार्य मतदान की व्यवस्था लागू की जानी जरूरी लगती है तो फिर यह व्यवस्था भी लागू होनी चाहिए कि जो जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार के समय किए गये वादे पूरे नहीं करता है, जनभावनाओं की उपेक्षा करता है उसे हटाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। नेता और नेताओं या व्यवस्था को संचालित करने वाली आर्थिक शक्तियों का संकट निरंतर बढ़ रहा है इसलिए वे विभिन्न बहानों से इस व्यवस्था को दुरुस्त बताने का अभियान चलाए हुए हैं और इसे बनाएं रखने के लिए तमाम बहाने बना रही हैं साथ ही जनता को तमाम जकड़बंदियों में डालने के प्रयास में हैं। यही नहीं वे जनता के मन में तमाम तरह के विभ्रम भी पैदा कर रही हैं। येन-केन-प्रकारेण यही व्यवस्था व्यवस्थापकों के लिए मुफीद है और कोई जनपक्षीय व्यवस्था उनके लिए घातक है। तमाम समस्याओं में जकड़ी जनता कहीं इसके खिलाफ विद्रोह न कर दे, इसकी फिक्र व्यवस्था को बहुत अधिक है।

इंटरनेशनल पॉलिटिकल साइंस रिव्यू द्वारा 2011 में 36 देशों में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक जिन देशों में मतदान अनिवार्य है, वहां औसत मतदान 85.7 फीसदी, जबकि अन्य देशों में 77.5 फीसदी था। मौजूदा आम चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में भी मतदान प्रतिशत में वृद्धि हो रही है। और फिर मतदान में अपेक्षाकृत कम भागीदारी उन्हीं तबकों की हो रही है, जो विकास का अधिक लाभ हासिल कर रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र की खामियों का उपचार कठोर कानूनों से नहीं, बेहतर शासन के जरिये ही हो सकता है। और देश को आजाद हुए सात दशक होने वाले हैं, व्यवस्था और राजनीतिज्ञ अपने काम-काज से जनता को सहमत नहीं कर पाए हैं। इसलिए अनिवार्य मतदान जैसा कोई भी फैसला लेने से पहले इसकी खूबियों एवं खामियों पर राष्ट्रव्यापी बहस जरूरी है। और इस बहस में केवल अनिवार्य मतदान ही नहीं खराब जनप्रतिनिधि को हटाने की भी आसान व्यवस्था हो। जितनी तरह की सीखें जनता को दी जाती हैं उतनी जनप्रतिनिधियों, अफसरों को आखिर क्यों नहीं दी जातीं ? जनता को इस सोचना चाहिए।

 

अयोध्या प्रसाद ‘भारती’, (लेखक-पत्रकार), गदरपुर (ऊधम सिंह नगर) उत्तराखंड। मो. 09897791822
 

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