‘चाल-चरित्र और चिंतन’ के अपने जुबानी एजेंडे पर इतराने वाली भाजपा इन दिनों गहरे आंतरिक संकट से गुजर रही है। पार्टी का नेतृत्व अपने आंतरिक अनुशासन को लेकर इतराता रहा है। लेकिन, इस चुनावी दौर में भाजपा के अनुशासन तंत्र की पोल खुल गई है। टिकटों के झगड़े में यहां दूसरे दलों के मुकाबले ज्यादा ‘लट्ठम-लट्ठ’ की स्थिति दिखाई पड़ने लगी है। मन चाही चुनावी टिकट न मिलने के कारण पार्टी की तमाम तपे-तपाए बुजुर्ग नेता भी ‘धुर कांग्रेसी’ तेवर दिखाने लगे हैं। इन लोगों के व्यवहार में इनके चाल-चरित्र और चिंतन के नारे को भी गैर-मौजूं बना दिया है। टिकटों को लेकर पार्टी के अंदर विद्रोह की बयार तेजी से बहने लगी है। हालांकि, पार्टी के रणनीतिकार ‘डैमेज कंट्रोल’ की कवायद तेजी से कर रहे हैं। लेकिन, अंदरूनी संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है।
टिकटों के झमेले की शुरुआत शीर्ष नेताओं की नाराजगी से हुई थी। इसकी शुरुआत पार्टी के पितृपुरुष माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी से ही हुई। दरअसल, संघ की एक मजबूत लॉबी ने कार्य योजना तैयार की थी। जिसके मुताबिक आडवाणी जैसे बुजुर्ग नेताओं को लोकसभा का चुनाव न लड़ाने की बात कही गई थी। ऐसे में, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को राज्यसभा में भेजने की सलाह भाजपा नेतृत्व को दी गई थी। लेकिन, यह रणनीति अमल में आती, इसके पहले ही यह मीडिया में ‘लीक’ हो गई थी। इसकी भनक लगने के बाद आडवाणी ने दबाव की रणनीति बनाई। उन्होंने खुलकर यह बात जाहिर कर दी कि वे गांधीनगर से इस बार भी लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं। उनकी इस चाहत की नेतृत्व ने अनदेखी करने की कोशिश की।
भाजपा ने टिकटों की पहली सूची 27 फरवरी को जारी की थी। आडवाणी का खेमा उम्मीद लगाए बैठा था कि इसी सूची में ही आडवाणी का नाम आ जाएगा, लेकिन नहीं आया। जब तीन सूचियां जारी होने के बाद भी उनका टिकट तय नहीं हुआ, तो उनका सब्र टूटने लगा। इसके बाद उन्होंने नाराजगी के तेवर दिखाते हुए गांधीनगर के बजाए भोपाल संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर कर दी। आडवाणी के इस दांव से मोदी खेमा चौकन्ना हुआ। शायद, उसे आशंका होने लगी कि कहीं भोपाल से राजनीतिक ऑक्सीजन लेकर आडवाणी, मोदी के बराबर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को खड़ा करने की राजनीति न कर दें। वैसे भी, आडवाणी की खास सिपहसालार समझी जाने वाली सुषमा स्वराज विदिशा से चुनाव लड़ती हैं। ऐसे में आडवाणी, चौहान व सुषमा की तिगड़ी कभी भी मोदी का खेल बिगाड़ सकती है। सो, दबाव डाला गया कि आडवाणी भोपाल से नहीं, गांधीनगर से ही चुनाव लड़ें।
जबकि, पहले गांधीनगर सीट को लेकर मोदी खेमा सस्पेंस बनाए हुए था। लेकिन, जब भोपाल की चर्चा शुरु हुई, तो दबाव बढ़ाया गया। जब आडवाणी ने जिद पकड़ी, तो मीडिया में भी कई दिनों तक इसकी जमकर चर्चा हुई। मोदी को भी इस संकट से बचने के लिए संघ प्रमुख मोहन भागवत की परिक्रमा दिल्ली में करनी पड़ी थी। राजनाथ, सुषमा व जेटली जैसे नेताओं ने आडवाणी के घर जाकर मनुहार की। लेकिन, बात नहीं बनी। अंतत: संघ प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप से ही आडवाणी गांधीनगर से चुनाव लड़ने के लिए राजी हुए। वह भी तब, जबकि मोदी ने गांधीनगर से आडवाणी को भारी बहुमत से चुनाव जितवाने की ‘गारंटी’ ली। दरअसल, इस बीच आडवाणी और मोदी के बीच विश्वास का संकट काफी बड़ा हो गया है। ऐसे में, आडवाणी खेमे को यह डर भी सताने लगा था कि कहीं अपमानित कराने के लिए गांधीनगर सीट से हरवाने की साजिश न कर दी जाए। यह आशंका संघ नेतृत्व तक पहुंचाई गई थी। इसी के बाद मोदी से भागवत ने आडवाणी को सम्मानजनक ढंग से जितवाने का आश्वासन लिया था।
इसी बीच वाराणसी सीट को लेकर भी पार्टी के अंदर काफी उठा-पठक दिग्गज नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने करा दी थी। वे पिछला चुनाव वाराणसी से ही जीते थे। इस बार जब उन्होंने अनुकूल राजनीतिक मौसम देखा, तो इसी सीट से चुनाव लड़ने के लिए अड़ गए। जबकि, संघ नेतृत्व ने सलाह दी थी कि काशी नगरी से मोदी चुनाव लड़ें, ताकि अप्रत्यक्ष रूप से हिंदुत्वादी राजनीति के एजेंडे को भी पुचकारा जा सके। लेकिन, मुश्किल यह खड़ी हुई कि डॉ. जोशी अपनी सीट बदलने को तैयार नहीं थे। जबकि, उन्हें कानपुर सीट का विकल्प दिया गया था। कई दिनों तक इस प्रकरण को लेकर भी झमेला चला था। अंतत: डॉ. जोशी को कानपुर से लड़ाने का फैसला हुआ। लेकिन, कई दिनों तक डॉ. जोशी के अड़ियल रवैये ने भी किरकिरी कराई थी।
इन झमेलों के बीच ही पूर्व रक्षा मंत्री जसवंत सिंह अपने गृह क्षेत्र की बाड़मेर सीट से ही चुनाव लड़ने के लिए अड़ गए। जबकि, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया पहले ही मन बना बैठी थीं कि इस बार जसवंत सिंह को झटका देना है। राज्य की राजनीति में लंबे समय से जसवंत और वसुंधरा के रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं। लेकिन, पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा को भारी जीत मिली। मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा में वसुंधरा की राजनीतिक हैसियत काफी बढ़ गई है। जबकि, जमीनी स्तर पर जसवंत सिंह की पकड़ उतनी मजबूत नहीं रही। वसुंधरा ने काफी पहले बाड़मेर से अपनी पसंद के शख्स को टिकट देने की तैयारी कर ली थी। उनकी पहल पर ही पूर्व सांसद कर्नल सोनाराम कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे। उन्हें टिकट का आश्वासन दे दिया गया था। लेकिन, जसवंत बाड़मेर से ही टिकट के लिए अड़ गए। जबकि, नेतृत्व दबाव बना रहा था कि वे दूसरे क्षेत्र से चुनाव लड़ें।
उल्लेखनीय है कि जसवंत सिंह चित्तौड़गढ़ से चुनाव लड़ते रहे हैं। उन्होंने पिछला चुनाव दार्जिलिंग से जीता था। लेकिन, इस बार उन्होंने दबाव बनाने के लिए कह दिया कि वे जीवन का आखिरी चुनाव लड़ना चाहते हैं। ऐसे में, उनकी पसंद की सीट से ही टिकट दिया जाए। दरअसल, बाड़मेर सीट का मामला वसुंधरा और जसवंत के बीच राजनीतिक प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया। इसके चलते केंद्रीय नेतृत्व की दुविधा भी बढ़ी। लेकिन, नेतृत्व ने वसुंधरा की नाराजगी का जोखिम नहीं उठाया। ऐसे में, कर्नल सोनाराम को ही टिकट दिया गया। इस फैसले के बाद जसवंस सिंह ने विद्रोही तेवर दिखाने शुरू किए। जबकि, नेतृत्व ने उन्हें संदेश दिया कि सरकार बनने के बाद उन्हें कहीं अच्छी जगह ‘एडजस्ट’ किया जाएगा। ताकि, उनके अनुभव का लाभ सरकार को मिले।
सूत्रों के अनुसार, उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त करने का भरोसा भी दिया गया था। लेकिन, वे नहीं माने। उन्होंने तीखी बयानबाजी शुरू की। कह दिया कि राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे ने उनका राजनीतिक अपमान किया है। जबकि, वे 9 बार सांसद रह चुके हैं। दबाव बनाने के लिए जसवंत एक जनसभा में रो भी पड़े थे। इसका असर यह हुआ कि राजपूत बिरादरी के तमाम समर्थक उनके पक्ष में खड़े हुए। इन लोगों ने कहा कि अपमान का बदला लेना है, तो बाड़मेर से भाजपा उम्मीदवार को चुनौती दो। जसवंत ने यही किया भी। उन्होंने सोमवार को बाड़मेर से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में पर्चा भर दिया है। लोगों से भावुक अपील की है कि वे अपमान का बदला भाजपा उम्मीदवार को चुनाव में हराकर दें। नाराज जसवंत ने आडवाणी जैसे नेता के अपमान का भी मुद्दा उठाया है। कहा है कि असली भाजपा में ‘बाहरी’ लोगों ने अतिक्रमण शुरू कर दिया है। इसीलिए, वे जंग में उतरे हैं। तमाम अटकलों के बावजूद जसवंत ने भाजपा से इस्तीफा नहीं दिया। उन्होंने कहा है कि वे कांग्रेस या किसी और दल का हाथ नहीं थामने वाले। लेकिन, भाजपा के चाल चरित्र और चिंतन के एजेंडे को प्रदूषित करने वाले तत्वों को सबक जरूर सिखाएंगे। इसकी चाहे जो कीमत उन्हें देनी पड़े।
विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह से परास्त किया है। ऐसे में, पार्टी के रणनीतिकार उम्मीद लगाए थे कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की आंधी चल जाएगी। लेकिन, जसवंत सिंह के विद्रोह ने इन संभावनाओं पर तमाम सवाल खड़े किए हैं। क्योंकि, जसवंत की ‘पीड़ा’ पर राजपूत बिरादरी में गुस्सा उफनने लगा है। वसुंधरा राजे भी बीच बचाव का रास्ता निकालने के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने जसवंत लॉबी को चुनौती दे दी है। आज वे बाड़मेर में अपना शक्ति प्रदर्शन करने वाली हैं। कर्नल सोनाराम, आज ही नामांकन पत्र भी भरेंगे। इस मौके पर एक रैली का आयोजन किया गया है। जिसमें वसुंधरा राजे, जसवंत गुट के खिलाफ हुंकार लगाने जा रही हैं। जाहिर है कि इस तनातनी के चलते इस राजनीतिक रार का असर राजस्थान की कुछ और सीटों पर पड़ सकता है।
इस बीच टिकटों को लेकर कुछ और राज्यों में विद्रोह की हवा तेज होने लगी है। बक्सर (बिहार) संसदीय क्षेत्र से लालमणि चौबे चार बार सांसद रहे हैं। वे पांच बार विधायक भी चुने गए हैं। बुजुर्ग हो चले इस नेता को इस बार पार्टी ने टिकट नहीं दिया। इनकी जगह भागलपुर के रहने वाले अश्विनी चौबे को टिकट दिया गया है। इसको लेकर लालमणि को गुस्सा आ गया है। उन्होंने कहना शुरू किया है कि भाजपा नेतृत्व पाखंडी लोगों के पास चला गया है। ऐसे में, वे निर्दलीय चुनाव लड़कर पार्टी उम्मीदवार को हराने की कोशिश करेंगे। चौबे ने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी कोसा है। उन्होंने सोमवार को मीडिया से कहा कि राजनाथ तो गुलाम किस्म के नेताओं के अध्यक्ष हैं। ऐसे में, वे उनका सम्मान नहीं करते। इस बुजुर्ग नेता का गुस्सा मोदी तक जा पहुंचा है। बक्सर के पड़ोस में ही वाराणसी है। यहां से मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। लालमणि ने कहा है कि वे खांटी ब्राह्मण हैं। ऐसे में, वे मोदी को राजनीति श्राप देने के लिए वाराणसी भी जाएंगे। वहां लोगों से कहेंगे कि ‘मोदी एंड कंपनी’ आडवाणी, जसवंत सिंह व उन जैसे लोगों के साथ इंसाफ नहीं करती, तो भला सत्ता में आने के बाद इनकी सरकार तुम्हारे साथ क्या इंसाफ करेगी?
अहमदाबाद (पूर्व) के सांसद हरेन पाठक सात बार संसद में पहुंच चुके हैं। इस बार पार्टी ने उनका भी टिकट काट दिया है। उनकी जगह पर फिल्म अभिनेता परेश रावल को टिकट दिया गया है। माना जा रहा है कि मोदी की नाराजगी की गाज पाठक पर पड़ी है। वैसे भी, हरेन को आडवाणी का करीबी माना जाता है। इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा है। हरेन ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया है। उन्होंने सोमवार को ऐलान कर दिया कि वे विद्रोही उम्मीदवार के रूप में अहमदाबाद (पूर्व) से ही ताल ठोकेंगे। जरूरत पड़ने पर वे मोदी के गुजरात विकास मॉडल की असलियत भी देश को बताएंगे। हालांकि, कोशिश की जा रही है कि हरेन पाठक को मना लिया जाए। इसके लिए संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी को लगाया गया है। लेकिन, मुश्किल यह है कि मोदी के तेवरों को देखते हुए हरेन की पार्टी नेतृत्व ज्यादा मनुहार भी नहीं कर सकता। भाजपा की मुश्किल यह है कि इन विद्रोही नेताओं ने एक अपना क्लब-सा बना लिया है। ये लोग संगठित होकर ‘विद्रोही गोले’ चलाकर भाजपा नेतृत्व को लहूलुहान कर देने पर उतारू नजर आ रहे हैं।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।