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Fraud Nirmal Baba (74) : बाबागिरी का पाखंड और न्‍यूज चैनल्‍स पर फूहड़ता की फिक्सिंग

न्यूज चैनल्स पर पखवाडे भर से बाबागिरी के पाखंड का पब्लिसिटी स्टंट जारी है। मूढ़ दर्शक को धता बताने के लिए जबरदस्त पैतरेबाजी की जा रही है। बुद्धू बक्से के छोटे परदे पर पाखंड का धुंध कायम है। “बदनाम हुए तो क्या हुआ? नाम तो होगा।“ पब्लिसिटी की आसान सी इस थ्योरी को बखूबी भूनाया जा रहा है। न्यूज चैनलों के टॉप टेन कार्यक्रमों में बाबा बने हुए हैं। बाबा की महिमा की कृपा से एक न्यूज चैनल ने विरोध का मोरचा थाम रखा है, दूसरे ने बहस के नाम पर बाबा के पाखंड को परोसने का खुबसूरत स्वांग रच रखा है, तो तीसरा सीना ठोंककर बाबा का आकर्षण बरकरार रहने की बात को प्रचारित कर रहा है। बकायदा बाबा का अगला विषमागम कब, कहां हो रहा है? और दर्शक किस तरह उस विषमागम में शामिल हो सकते हैं? इसकी समय और तारीख बताई जा रही है।

न्यूज चैनल्स पर पखवाडे भर से बाबागिरी के पाखंड का पब्लिसिटी स्टंट जारी है। मूढ़ दर्शक को धता बताने के लिए जबरदस्त पैतरेबाजी की जा रही है। बुद्धू बक्से के छोटे परदे पर पाखंड का धुंध कायम है। “बदनाम हुए तो क्या हुआ? नाम तो होगा।“ पब्लिसिटी की आसान सी इस थ्योरी को बखूबी भूनाया जा रहा है। न्यूज चैनलों के टॉप टेन कार्यक्रमों में बाबा बने हुए हैं। बाबा की महिमा की कृपा से एक न्यूज चैनल ने विरोध का मोरचा थाम रखा है, दूसरे ने बहस के नाम पर बाबा के पाखंड को परोसने का खुबसूरत स्वांग रच रखा है, तो तीसरा सीना ठोंककर बाबा का आकर्षण बरकरार रहने की बात को प्रचारित कर रहा है। बकायदा बाबा का अगला विषमागम कब, कहां हो रहा है? और दर्शक किस तरह उस विषमागम में शामिल हो सकते हैं? इसकी समय और तारीख बताई जा रही है।

अंधे टीआरपी की होड में औंधे मुंह हांफते दौड़ते न्यूज चैनल्स के एयर टाइम में से पाखंड के प्रचार पर कितना वक्त दिया जा रहा है, इसे रोकने टोकने अथवा गौर करने के लिए कोई तैयार नहीं। मेरी गणना है कि पाखंडी बाबा के एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, बहस और विरोध के नाम पर जितना प्रचार या दुष्प्रचार दिया जा रहा है वह एक सामान्य दर्शक के लिए उकताने वाला है। खबर अथवा सामान्य ज्ञान की भूख वाले जिज्ञासू दर्शकों को न्यूज चैनल्स पर बाबा की तस्वीर और वीडियो ने विचलित कर रखा है।

न्यूज चैनल्स की फूहडता पर सवाल उठना नई बात नहीं है? या, यूं कहें कि न्यूज चैनल्स गलत सामग्री को हवा देने के इल्जाम भरे विवाद में अक्सर फंसते रहते हैं। न्यूज़ चैनल्स में बरसों काम करने की वजह से मुझे वो भी वक्त याद है जब देश भर की मंदिरों में भगवान को दूध पिलाने की होड़ मची थी तो रात के न्यूज कार्यक्रम में नीर-क्षीर विवेक रखने वाले मशहूर संपादक ने मोची के लोहे को दूध पी रहा दिखला दिया। स्वर्गीय एसपी सिंह ने संपादकीय पहल से देश विदेश में दिनभर के फैले पाखंड को झटके में तहसनहस कर दिया था। अफसोस कि सोच या विवेक का वो दमखम अब किसी टीवी न्यूज़ संपादक में नहीं दिखता। बल्कि संपादकीय विवेक पर अंगुली उठाने जाने पर संपादकों की गिरोहबंदी नजर आती है। फूहडता के नाम पर सरकारी कार्रवाई से बचने के लिए बडे व्यवसायिक हित वाले कुलीन चैनल्स के संपादकों की संस्था रजिस्टर्ड करा ली जाती है। प्रभाव और पैसे के दमखम पर संपादकों की यह टोली सरकारी अमला को यह समझाने में कामयाब हो जा रहा है कि टीवी न्यूज़ चैनल्स को स्वविवेक अथवा सेल्फ रेगुलेशन की हालत पर छोड़ दिया जाए।

ऐसा नहीं है कि न्यूज़ दर्शकों की हालत पर सरकार सदा से मौन रही है। बल्कि टीआरपी के कोढ़ को खुजलाने से न्यूज चैनलों को रोकने की सरकारी कोशिश बीते दस साल में कई बार हुई है। दस साल पहले दलील दी जाती थी कि देश में न्यूज चैनल का कारोबार नया है। इसलिए कुछ वक्त में खुद ही सब ठीक हो जाएगा। सरकार भी छोटे परदे पर न्यूज दिखाने वाले दिग्गजों की छेड़ने से इसलिए बचती रही कि नाहक उसपर मीडिया से छेड़छाड़ करने का आरोप मढ़ जाएगा। लेकिन पिछली मर्तबा जब मंहगाई और भ्रष्टाचार के नाम पर सरकार की मिट्टी पलीद करने वाले कार्यक्रमों को टीआरपी मिलने लगी और महंगाई डाईन सब खाए जात है का गान कर रहे न्यूज चैनलों की भेड़चाल में सरकार फंसने लगी तो चैनल्स पर शिकंजा कसने की जरूरत शिद्दत से महसूस हुई। सरकारी अमले में फूहड़ कार्यक्रमों पर आने वाली शिकायतों का हवाला देकर न्यूज चैनलों को नोटिस थमाने की परंपरा ने जन्म लिया। बाद में पेड न्यूज के मामले ने सरकार को कार्रवाई के लिए मजबूत डंडा थमा दिया। लेकिन ‘रेक्ते के एक तुमहीं उस्ताद नहीं हो गालिब’ की तर्ज पर न्यूज चैनल वाले भी कहां बाज आने वाले थे। टीआरपी की गला काट प्रतिद्वंदिता को छोड़ सब सरकार की तरफ से नोटिस भेजे जाने की परंपरा के खिलाफ गोलबंद हो गए। बंद मुट्टी की ताकत का अहसास कराते हुए सरकार की नीयत पर सवाल करके बखेड़ा खड़ा कर दिया गया।

न्यूज चैनल्स की तरफ से एकसुर में कहा गया कि कोई सरकार, सूचना व प्रसारण मंत्रालय अथवा प्रेस कॉसिल ऑफ इंडिया नहीं बल्कि खुद न्यूज चैनल वाले की अपनी रेगुलेशन का तरीका तय करेंगे और सरकार व प्रबुद्ध दर्शकों की शिकायतों को दूर करेंगे। न्यूज चैनल वालों के प्रभाव के आगे सरकार निस्तेज हो गई और चैनलों की आपत्तिजनक सामग्रियों पर सूचना व प्रसारण मंत्रालय की तरफ से नोटिस भेजने की बढ़ी रफ्तार को मंद कर दिया गया। आपदा से निपटने के लिए न्यूज सामग्रियों पर निगरानी और स्वशोधित करने का दंभ भरा गया। न्यूज चैनल मालिक और न्यूज चैनल के संपादकों की दो अलग-अलग संगठन खड़ी हो गईं। दोनों का एकमात्र मकसद सरकार को न्यूज चैनलों की मनमर्जी के खिलाफ किसी कडे़ कदम से रोकना है। न्यूज़ चैनल्स के कर्णधारों की कोशिश रंग लाई। हाल में पेड न्यूज का मामला दब सा गया है और सरकार की तरफ से फूहड़ सामग्री के निगरानी पर कार्रवाई का अंदेशा कम हो गया है।

बात बन गई, संकट टल गई इसलिए ये दोनों संगठन भी अब कान में तेल रखकर सो गए लगते हैं। इनमें से एक, न्यूज ब्राडकास्टर एसोसिएशन (एनबीए) है। यह न्यूज चैनल के मालिक अथवा मुख्य कार्यकारी अधिकारियों का संगठन है, तो दूसरा मालिकों की हित की रक्षा के लिए गोलबंद हुए अग्रणी न्यूज चैनल के संपादकों का संगठन, ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) है। दोनों संगठनों की हालत की गवाह इनकी वेबसाइट्स हैं। न्यूज चैनल मालिकों के संगठन न्यूज ब्राडकास्टर एसोसिएशन का वेबसाइट बता रहा है कि इसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में सिर्फ आठ लोग हैं। बाकी न्यूज चैनल्स को भागीदार बनाने के लिए एबीए की सब कमेटी बनाने का काम अधूरा पड़ा है। इसी तरह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन में उन्हीं चैनल्स के संपादक शामिल हैं जिनपर न्यूज़ सामग्रियों से खिलवाड़ का सबसे गंभीर आरोप हैं। न्यूज़ चैनल्स पर फूहड़ता परोसे जाने से रोकने में ग्यारह संपादकों की टोली वाले इस संस्था बीईए के किसी एक संपादक का कोई विवेकपूर्ण योगदान नजर नहीं आता है।

न्यूज़ चैनल्स पर फूहड़ता की फिक्सिंग की बात होती है, तो सदा टीआरपी नाम के फिक्सर की कहानी कही जाती है। न्यूज़ चैनल में काम करने के दिनों की बात करूं तो बरबस याद आता है कि टीआरपी की नीम मदहोशी में सदा डूबे रहने वाले एक मित्र संपादक के घर जब बिटिया पैदा हुई, तो दफ्तर में ये मजाक तेजी से पसर गया कि फलां ने अपनी बिटिया का नाम ही टीआरपी रख लिया है। टीआरपी के जरिए बाजार से पैसा उगाहने वाले धंधे में काम करते हुए खुद को पत्रकार कहूं या ना कहूं का धर्मसंकट मेरे लिए भी कई बार आया। एकबार ऐसे ही एक संकट से उबरने के लिए मैने फूहड़ तर्क गढ़कर जान छुड़ाई कि जैसा दर्शक होगा वैसा ही कार्यक्रम दिखाया जाएगा। आखिरकार बाजारवाद के इस दौड़ में ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाकर दिखाने पर ही तो न्यूज़ चैनल्स के विज्ञापन के दर बढ़ाए जाते हैं। टीआरपी मंथन से ही संस्थान को आर्थिक लाभ पहुंचाया जा सकता है।

ऐसे में टीआरपी नाम की व्यवस्था को बदलने की जिम्मेदारी सरकार पर है। साथ ही सरकार को बेहिचक ये जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए कि लोगों का सामान्य ज्ञान बढ़ाने और समाचार मुहैया कराने की अर्जी पर सेटलाईट अपलिंकिंग का लाइसेंस लेने वाले न्यूज़ चैनल सही रास्ते पर बने रहें। अब वो बात भी नहीं रही कि जब दलील दी जाती थी कि भारत में यह माध्यम नया है इसलिए सुधरने और खुद ब खुद स्थिर होने का वक्त दिया जाए। बल्कि सच्चाई यह है कि न्यूज़ चैनल्स का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है और देश के सबसे पुराने समाचार माध्यमों का एजेंडा भी न्यूज़ चैनल्स से तय होने लगा है।

लेखक आलोक कुमार ने कई अखबारों और न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उन्होंने 'आज', 'देशप्राण', 'स्पेक्टिक्स इंडिया', 'करंट न्यूज', होम टीवी, 'माया', दैनिक जागरण, ज़ी न्यूज, आजतक, सहारा समय, न्यूज़ 24, दैनिक भास्कर, नेपाल वन टीवी में अपनी सेवाएं दी हैं.  झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के दिल्ली में मीडिया सलाहकार रहे. कुल तेरह नौकरियां करने के बाद आलोक इन दिनों मुक्त पत्रकारिता की राह पर हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.


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