राजनीति के प्रति सामान्य समझ विकसित करने वाली की फिल्मों में ‘गुलाल’ याद आती है। अनुराग कश्यप नई पीढ़ी के प्रतिभावान फिल्मकारों में से हैं। इस पीढ़ी के फिल्मकार कहानी को अलग नजरिए से कहने का संकल्प रखते हैं। अनुराग हर बार कुछ अलग-अनकही किस्म की प्रस्तुती लेकर आते हैं। उनकी ‘गुलाल’ को देखकर यह विश्वास मजबूत हुआ। गुलाल का शुमार अनुराग कश्यप की बेहतरीन फिल्मों में किया जा सकता है। कहानी राजपुताना सनक के जरिए राजनीति की एक व्यापक हक़ीकत को बयान कर सकी थी। राजपुताना का ख्वाब बेचकर जातिगत, राजनीतिक व नीजि हित साधने वाला दुकी बना(मेनन) हों या फिर इंसानियत में पड़े लेकिन नपुंसकता की सीमाओं में घिर गए दिलीप सिंह(राज सिंह चौधरी) के किरदार समाज का एक हिस्सा मालूम देते हैं।
कालेज व यूनिवर्सिटी राजनीति से गुजरे लोग अनुराग की बातों शायद बेहतर ढंग से समझ पाए होंगे कि एक किस्म की मैनुपुलेटिंग नजरिए से वो बात को सशक्त तरीके से कहना चाहते थे। राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के लिए दुकी छात्रों को भटकाव की स्थिति में कायम रखना चाहता है। अब सत्तर दशक के छात्र आन्दोलन का समय नही रहा था। गुलाल में नयी सदी के युवा आंदोलनों को समझने की एक पहल हुई थी। आज के युवा आंदोलन छात्रों द्वारा नियंत्रित ना होकर एक प्रायोजित किस्म का होता है। फिल्म को देखते वक़्त विश्वविद्यालयों का चुनावी माहौल की फिजाएं याद आती हैं। रैगिंग के भय से नए विद्यार्थियों का नामर्दगी की हद तक सीनिअर्स के हुक्मपरस्ती दिखाना असहज कर गया…किंतु अब की कालेज स्तरीय व्यवस्था इससे ग्रसित है।
सीनियर्स की बात ना मानने पर जुनियर्स की पिटाई को ‘रैगिंग’ की जगह गुंडागर्दी कहना चाहिए। जातिगत-क्षेत्रगत-भाषागत आदि समीकरणों से छात्र संगठनों की नींव पड़ती है। आने वाले कल की नींव पड़ती है। बडे स्तर की राजनीति में भी इन्हीं चीजों को सबसे ज्यादा भुनाया जाता है। कालेजों में भय व ड्रग एडिक्शन के दम पर युवाओं को गुमराह किया जाता है। भविष्य रचने वालों का कल खतरे में डालने का काम होता है। अनुराग कश्यप, पियूष मिश्रा इन चीजों से परिचित मालूम पड़ते हैं। गुलाल में उनका अनुभव सच्चाई की हद तक अभिव्यक्त हुआ था। फिल्म इस मायने में भी ज़मीनी हो गयी कि इसमें देश के साथ समकालीन विश्व के हालात को भी बता दिया गया। …इराक में घुस गया अंकल सैम' इस ताल्लुक से उल्लेखनीय लगा। गुलाल में कहानी भले ही राजपूताना एंगल से कही गयी लेकिन यह हालात क्षेत्रगत-जातिगत-धर्मगत निर्मित सभी समाजों पर लागू दिखाई देते हैं। राजनीति इसका लाभ उठाती रहती है। जाने-अनजाने आम आदमी भी इस कुचक्र में सहयोगी ही बन जाता है। व्यवस्था को बदलना भी उसे आता है। राजनीति के छल-प्रपंच को पहचानना आना चाहिए।
दिलीप सिंह इस तरह के संकट से पीडित युवक के अक्स में जी रहा। उसके दुख को आसानी से नहीं समझा जा सकता। दुकी बना एक पुराने किंतु जीवित सामंती ढांचे का आधुनिक चेहरा है। इस व्यवस्था में औरतों को केवल एक आब्जेक्ट की तरह देखा जाता है। इस चलन में बरसों पुरानी मानसिकता को महिमांडित किया जिसमें ‘मेन इ्ज सबजेक्ट आफ डिजायर एण्ड विमेन इज आब्जेक्ट आफ डिजायर’ लोकप्रिय होता है। दुकी की पत्नी पति की सामंती चाहरदीवारी में बंद रहने को अभिशप्त थी, उसे यह जानने का हक़ नहीं कि पति ने अपनी रात किसके साथ बिताई? किरण का किरदार एक पल को यह भ्रम दे गया कि वह सताई स्त्रियों से थोड़ा जुदा है। लेकिन आगे की कहानी में यह भ्रम भी जाता रहा। अपने भाई के राजनीतिक स्वार्थ का तिनका बन गयी। कमाल की बात यह रही कि उसे इस किस्म की जिंदगी ठीक लग रही थी। रणंजय सिंह(अभिमन्यु) का किरदार पिता की हुक्मपरस्ती वाली दुनिया से नफरत करता है। फिर भी एक तरह से उस व्यवस्था के पोपुलर फार्मूले की पैरवी करता नजर आया……राजपूत हो? असल..…? सामंती ठसक का विरोधी होने के बावजूद उसी सिस्टम के पैरोकार दुकी बना का सहयोगी बनना उसे क्यों मंजूर हुआ? शायद राजनीतिक मोहरा बनाया गया था।
गुलाल इस कद़र कठिन फिल्म रही कि उसे एक बार में समझना मुश्किल था। लेकिन अनुराग ने इसी मिजाज की फिल्म बनाई। एक कठिन किंतु प्रभावी फिल्म। गुलाल को देखकर कास्टिंग-स्टारकास्ट की तारीफ करने को दिल करता है। यहां आया हरेक कलाकार अदाकारी का फनकार साबित हुआ। आप मेनन के दुकी बना में भय वाला व्यक्तित्व महसूस करेंगे। उनकी स्क्रीन प्रेजेंस देखकर डर जाना साधारण बात थी। दुकी बना की वाणी में गजब का दमखम नजर आया, बनावट के उसूलों को तिलांजली देना मेनन से सीखना चाहिए। राज सिंह चौधरी के सीधे-सपाट किरदार में आंदोलित कर देने वाला परिवर्तन भी देखने लायक था । दिलीप सिंह का बदला हुआ निर्भय चेहरा देखें…क्रांति का गुलाल नजर आएगा।
संयोग से फिल्म के लेखक राज सिंह चौधरी ही थे। उभरते हुए अभिनेता दीपक डोबरियाल को हालांकि सीमित सीन व संवाद दिए गए फिर भी अदाकारी में उनका प्रदर्शन बेहतरीन था। आदित्य श्रीवास्तव अनुराग को सत्या के समय से जानते रहे होंगे। सत्या में उनका किरदार आज भी याद आता है। आदित्य को हमेशा से रेखांकित होने वाले किरदार मिलते रहे हैं…गुलाल में अनुराग ने उन्हें फिर से एक रोल दिया। फिर किरण की भूमिका में आएशा मोहन ने बढ़िया अभिनय किया। अनुराग ने देव डी की लीड माही गिल को भी एक स्पेशल अपीरियंस में यहां रखा। आज के जमाने की तवायफ ‘माधुरी’ में मधुर भंडारकर की चांदनी(तब्बु) याद आती हैं। माही की माधुरी तब्बु को बेहद पसंद करती है। उसके ब्युटी पार्लर में लगी तब्बु की तस्वीरे यहां काबिले गौर हैं। उसे तब्बु के गाने सुनना-देखना बहुत पसंद है… पानी पानी रे का प्रयोग इस नजरिए से उन पर जंचता है। पीयुष मिश्रा को यहां बहुमुखी किरदार मिला था। दुकी बन्ना के भाई का यह किरदार फिल्म की जान कहा जा सकता है। उनके दमदार डायलाग व गानों के सहारे कहानी को दिशा मिलती रही। हास्टल वार्डन के रूप में पंकज झा भी बेहतर लगे। अभिमन्यु सिंह भी गुलाल की जान थे…काश उन्हें कुछ अधिक स्पेस मिला होता। अभिमन्यु के रणंजय मे आधुनिक राजपूतों की ठसक रही…आज का राजस्थानी लडाका कहें तो ज्यादा ठीक होगा।
'गुलाल' मजबूत फिल्म नहीं बनती अगर पियूष मिश्रा जैसा किरदार उसमें नहीं होता। फिल्म में जिस तरह के तनाव को फिल्मकार ने रचा, वो पियूष के अर्धपागल किरदार के मार्फ़त बेहद गंभीरता को पा लेता है। इस किरदार के हिस्से में आए संवाद, कवितायें लाईव थिएटर का मजा देती हैं। पियुष का पात्र नेपथ्य की भूमिका में कहानी को पोशीदा तरीके से सामने लाने वाला सुत्र था। अनुराग की 'गुलाल' अदाकार या संगीतकार, या निर्देशक की फिल्म न होकर कलाकारों की फिल्म थी। फिल्म का एक-एक दृश्य व घटनाक्रम हमारे सफ़ेद-सतब्ध चेहरों पर गुलाल को मल देता है। एक सवाल फिर भी टीस देता रहा कि 'ये दुनिया गर मिल भी जाए तो क्या है। क्या प्रजातंत्र का वास्तविक स्वरूप इससे अलग नहीं हो सकता था? समूची कहानी में एक वाक्य हर जगह कायम रहा……डेमोक्रेसी बीयर’ क्या ऐसे प्रतीकों के मार्फ़त अनुराग आज की राजनीति का सच कह रहे थे? इस किस्म की व्यवस्था के सर्वव्यापी होने की वजह से सकारात्मक बातें हाशिए पर चली जाती हैं। खराब बातों का असर ज्यादा होता है। अनेक मामलों में सकारात्मक स्वर दुकी बना किस्म के लोकतंत्र के मुखौटों से भयभीत होकर हाशिए पर चला जाया करता है। पीयूष मिश्रा के किरदार में इसी पीड़ा को व्यक्त किया गया। अनुराग की यह फिल्म राजनीतिक मुखौटों का दस्तावेज थी। गुलाल फंतासियों के माध्यम से अपनी बात नहीं करती ना ही बेमानी आदर्शों का सहारा लेती है। वो एक बात निर्भयता से कह रही थी कि सबने चेहरों पर गुलाल मल रखा है। आदमी की पहचान व नफा-नुकसान जाने-अनजाने इसी से निर्धारित हो रही।
एक फिल्म में अनेक कहानियों का कोलाज लेकर भी फिल्मकार आते हैं। अनुराग कश्यप की गुलाल को उसी लीग में रखा जा सकता है। गुलाल में अनुराग कश्यप ने छात्र राजनीति, अल्हड़ मुहब्बत और अलगाववाद को एक सूत्र में पिरोकर घटनाक्रम रचे थे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि तीनों विषयों का एकाकार कर दिया था। राजपूत रजवाड़ों का अतीत व भविष्य बचाने वास्ते वर्त्तमान एक विषम संघर्ष के मुहाने पर खड़ा दिखाया गया। किरदारों मंक मेनन-राज सिंह-आयशा मोहन के अलावा पीयुष मिश्रा व अभिमन्यु सिंह के किरदार आज भी याद आते हैं। लेकिन जेसी रंधावा के साथ अनुराग न्याय नहीं कर पाए। फिल्म में रंगीन प्रकाश के माध्यम पात्रों के भावों को उकेरने का बढिया प्रयोग हुआ था। गालियों का इस्तेमाल कभी ठीक लगा तो कभी बेमानी। क्या अनुराग इसे कम कर सकते थे? फिर भी कहा जा सकता है कि राजनीति, प्रेम और अलगाव के रंगों की गुलाल सच का एक आईना थी।
अनुराग की फिल्में तकनीकी स्तर पर हमेशा से बढ़िया रही हैं। कम बजट में आंखे खोल देने वाली फिल्में बनाने का संकल्प यहां जीवित था। राजस्थान के बीकानेर व जयपुर को कहानी के एक किरदार के रूप में इस्तेमाल किया गया। यहां आए गीत किसी बाहरी दुनिया के ना होकर कथन के हिस्से की तरह आए। यह सब कहते हुए कसक रही कि घटनाओं के प्रकाश में कहानी का समापन दिलचस्प था।
सैयद एस. तौहीद। संपर्कः [email protected]