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सुख-दुख...

झा जी कहिन (3) : काश मैंने प्रोमो नहीं देखा होता तो खबरिया चैनलों के इस छलावे से बच जाता

मैंने ''विशेष'' को खासतौर पर से समझने के लिए बहुत जी-तोड़ और आँख-फोड़ कोशिश की और उसके बाद जो कुछ समझ पाया उसका सरमाया पेश कर रहा हूं. ''विशेष'' जैसा कार्यक्रम दिखाने की परंपरा 1955 से प्रारंभ हुई थी और 70 के दशक तक आते आते उसका प्रचलन बीबीसी के अलावा ऑस्ट्रेलिया के एबीसी चैनल और अमेरिका के एनबीसी चैनल में हो गया था। वियतनाम युद्ध के बाद बीबीसी के अलावा एक और ऑस्ट्रेलियाई चैनल ने उस युद्ध से जुड़े विशेष मुद्दों को लेकर 20 मिनट से आधे घंटे तक के कार्यक्रम बनाए थे जिनमें खबरों के भीतर की खबर का विश्लेषण किया गया था।

मैंने ''विशेष'' को खासतौर पर से समझने के लिए बहुत जी-तोड़ और आँख-फोड़ कोशिश की और उसके बाद जो कुछ समझ पाया उसका सरमाया पेश कर रहा हूं. ''विशेष'' जैसा कार्यक्रम दिखाने की परंपरा 1955 से प्रारंभ हुई थी और 70 के दशक तक आते आते उसका प्रचलन बीबीसी के अलावा ऑस्ट्रेलिया के एबीसी चैनल और अमेरिका के एनबीसी चैनल में हो गया था। वियतनाम युद्ध के बाद बीबीसी के अलावा एक और ऑस्ट्रेलियाई चैनल ने उस युद्ध से जुड़े विशेष मुद्दों को लेकर 20 मिनट से आधे घंटे तक के कार्यक्रम बनाए थे जिनमें खबरों के भीतर की खबर का विश्लेषण किया गया था।

80 के दशक में सीएनएन ने इस क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई। ईरान-इराक युद्ध के समय सीएनएन की विशेष रिपोर्ट दर्शकों में काफी खलबली मचाई और 90 के दशक आते-आते कई न्यूज चैनलों में विशेष कार्यक्रमों को तैयार करने की टीम बनाने की कवायद शुरू हो गई। भारत में दूरदर्शन पर गाहे-बगाहे कुछ विशेष कार्यक्रम दिख जाते थे जिनका स्तर उस जमाने के ख्याल से काफी ठीक-ठाक होता था। बीबीसी जैसे चैनलों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाले संवाददाताओं और प्रस्तुतकर्ताओं की टीम आज भी इतनी ही पुख्ता और संजीदा है जितनी पहले थी। मगर भारत में खबरिया चैनलों की आई बाढ़ के बाद इन विशेष कार्यक्रमों की शक्ल ही नहीं बल्कि उनकी सोच में भी नकल और नक्कारेपन का दीमक लगना शुरू हो गया है।

जब तक वरिष्ठ पत्रकार श्री रजत शर्मा जी न्यूज के प्रमुख रहे तब तक हर दो तीन दिन में किसी महत्वपूर्ण विषय पर कोई न कोई विशेष कार्यक्रम अवश्य दिख जाता था। मगर पिछले 10 सालों में विशेष कार्यक्रम बनाने वाली टीम का न ही सिर्फ ढर्रा बदला है बल्कि उनकी सोच, छायांकन और कथानक में भी भयानक बदलाव आया है। जिस तरह पिछले दस सालों में खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ गई है उसी तरह विशेष या स्पेशल कार्यक्रम के फेहरिस्त में भी काफी इजाफा हुआ है और आज आलम ये है कि हर खबरिया चैनल एक अदना से विषय पर भी रातो-रातों आधे विशेष खड़ा कर देता है।

विशेष कार्यक्रमों की श्रेणी में श्री सिद्धार्थ काक और रेणुका सहाणे द्वारा प्रस्तुत ‘सुरभि’ नामक कार्यक्रम को निश्चय ही सिरमौर कहा जाएगा। ‘सुरभि’ ने कम समय में ही लोकप्रियता का आसमान छूना शुरू कर दिया था और उसमें पूरे राष्ट्र का परिपेक्ष्य मिलता था। उसके बाद आई विनोद दुआ की ‘परख’ जिसका अपना अलग ही मुकामों-मयार रहा और श्री दुआ का प्रस्तुती करण और विषयों का चयन भी काफी अलग सा था। मगर उसके बाद कुछ और प्रस्तुतकर्ताओं ने इसी ढर्रे पर विशेष कार्यक्रम बनाने की कोशिश तो जरूर की। मगर वो लोकप्रियता के पायदान पर उनता ऊंचा नहीं पहुंच पाए।

खबरिया चैनलों में आज तक ने सबसे पहले विशेष नामक आधे घंटे के कार्यक्रम की शुरुआत की थी और कई महत्वपूर्ण विषयों पर ईमानदारी से जांच फड़ताल करने की कोशिश की थी। मगर विगत 3 से 4 सालों में उस कार्यक्रम का स्तर भी काफी गिरा है। और विशेष कार्यक्रम की विशेष नकल करने वाले चैनलों की तो बात ही निराली है। यूं लगने लगा है जैसे हर दिन खबरिया चैनलों में विशेष कार्यक्रमों की बारिश सी होने लगी है। विषय चाहे कोई भी लेकिन जब तक उसकी खींचतान आधे घंटे तक नहीं हो और उसमें विभिन्न किस्मों के लटके झटके या तड़का नहीं लगाया जाए तो कई प्रस्तुत कर्ताओं की नजर में उसका महत्व ही नहीं रह जाता। आलम ये है कि हर खबरिया चैलन में विशेष कार्यक्रम बनने के लिए एक टीम तैनात कर दी जाती है। स्पेशल टास्क फोर्स की तरह ये टीम रोज आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम रचने की काम युद्ध स्तर पर करते हैं। जैसे रोज आधे घंटे का खास सर्कस अपने खबरिया चैनल के दर्शकों को ऐसे दिखाने है कि विशेष प्रोग्राम देखने वाला दर्शक बिचकने न पाए और विशेष प्रोग्राम की टीआरपी का ग्राफ रातों-रात उपर चढ़ जाए।

आज हालात ये हो गये है कि हर रोज आधे घंटे के विशेष प्रोग्राम की बारिश जरूर होती है चाहे उसमें दर्शक भीगे या न भीगे। पर विशेष टीम के भाई लोग पसीने जरूर तर हो जाते हैं जब टीआरपी मन मुताबिक नहीं आती। अब भाई हर रोज विशेष के नाम पर बेतुके विषय पर आधे घंटे का प्रोग्राम दर्शकों के गले से नहीं उतरा तो वो क्या करें।

बारिश का भी अपना मौसम होता है। बरसात के दिनों में रोज बारिश हो तो चलता पर बिन मौसम बरसात को झेलना आसान नहीं होता। यहां तो खबरिया चैलनों ने कसम खा रखी है की रोज आपको आधे घंटे का विशेष जरूर दिखाएंगे और आपको देखने पर मजबूर भी कर देंगे। रहस्यवाद का ऐसा तानाबान बुनेंगे कि आप 2 घंटा पहले से ही खबरिया चैनलों पर आने वाले विशेष कार्यक्रम का इंतजार करने लगेंगे। भाई लोग ऐसे-ऐसे प्रोमो बनाएंगे कि आम दर्शक प्रोमो देखकर चौंक पड़ेगा। उसे लगेगा इस धरती का आज ये आखिरी दिन है और खबरिया चैनल का विशेष प्रोग्राम देख लें तो शायद हमारी जान बच जाए।

प्रोमो की लाइन…….

सावधान ! बर्फ पिघल रही है,

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धरती जल में समा जाएगा !

अब क्या होगा इस दुनिया का ?

क्या होगा आपका ?

कैसे बच सकती है आपकी जान ?

बताएंगे रात 8 बजे सिर्फ महा ज्ञानी चैनल पर !

अब दफ्तर से थका-हारा घर लौटा बेचारा आम आदमी सीधे कहिए तो खबरिया चैनलों के लिए टीआरपी का बकरा, जब खबरिया चैलनों पर डरावनी आवाज में ऐसे प्रोमो देखता है तो सब काम छोड़कर विशेष देखने की तैयारी करने लगता है। सभी घरवाले सारे काम निपटा कर विशेष प्रोग्राम देखने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं। विशेष प्रोग्राम की बर्फ मोन्टाज के साथ पिघलनी शुरू होती और आधे घंटे में तरह-तरह के विजुअल के चमत्कार के साथ पिघल कर पानी हो जाती है। और बेचार दर्शक ठगी का घूट पी कर ऐसे टीवी बंद करके सोचता है कि काश मैने प्रोमो नहीं देखा होता तो खबरिया चैनलों के इस छलावे से बच जाता।

लेकिन वही दर्शक तोते की तरह खबरिया चैलनों के शिकारियों की जाल में बार-बार फंसता है और विशेष प्रोग्राम देखकर अपने आप को छला हुआ महूसस करता है। विशेष प्रोग्राम तानाबाना पहाड़ की तरह होता है और जब आधे घंटे का विशेष प्रोग्राम दर्शक देखता है तो उसे खबर के नाम पर चुहिया भी हाथ नहीं लगती और वो बेचारा हाथ मलता रह जाता है। लेकिन अब खबरिया चैलनों के दर्शक ‘विशेष’ शब्द से ऐसे बिदक रहे है जैसे विशेष का मतलब ही बदल गया हो। विशेष का मतबल कोई खास प्रोग्राम नहीं, आधे घंटे का ऐसा सर्कस हो जो हर हाल में दर्शक को आधे घंटे तक बांधे रखे चाहे विषय कोई भी हो।

दरअसल विशेष प्रोग्राम का अर्थ खबरिया चैलनों के लिए अलग है। विशेष प्रोग्राम का मतलब सबसे ज्यादा टीआरपी दिलाने वाला प्रोग्राम। जिसे प्रोग्राम से टीआरपी का झोला भर जाए वही खबरिया चैलनों का जीवन दाता है। विषय जाए तेल लेने। अगर किसी ने अच्छे विषय की गलती से बात भी छेड़ दी तो उसे टीवी की समझ कहां? उसके साथी ही उसको सबसे पहले नोचना शुरू कर देते हैं। असली टीवी के पारखी वही भाई लोग हैं जो आधे घंटे का ऐसा तिलिस्म तैयार करते हैं कि दुनियां भर के जासूस प्रोमों देखकर उसका पार नहीं पा सकते। फिर दर्शक की क्या औकात ?

विशेष की बारिश से चवन्नी छाप प्रोग्रामों की ऐसी बाढ़ आ गई है। और अपनी -अपनी नाव लेकर खबरिया चैनल बाढ़ में दर्शकों को बचाने के लिए उतर पड़े हैं। अब दर्शक पर निर्भर करता है कि वो किस महा ज्ञानी खबरिया चैलने के विशेष की बारिश में नहाएगा और सौ जन्मों का पुण्य प्राप्त करेगा और बदले में टीआरपी का दान ‘विशेष’ बनाने वाले पंडों को देगा।

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विशेष की बारिश में लगातार भीग रहा दर्शक अब समझदार होता जा रहा है और हर महा ज्ञानी खबरिया चैनल के विशेष की बारिश में नहीं भीगता। यही वजह है हर खबरिया चैलने के हलवाई टीआरपी की दौड़ में आगे नहीं निकल पाते। जगन्नाथ पुरी के पंडों की तरह चैनल के चालक ताक लगाये बैठे रहते है कि कब दर्शक उनके विशेष के फंदे में फंसे और वो अच्छी टीआरपी का स्वाद चखे। दर्शकों और खबरिया चैनलों के बीच लुका-छिपी का खेर जारी है। और विशेष की बारिश हो रही है छाता लेकर खबरिया चैनल देंखे तो शायद भीगने से बच जाएं……।

लेखक अजय एन झा वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई न्यूज चैनलों और अखबारों में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं. इससे पहले का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- झा जी कहिन सीरिज

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