उत्तर प्रदेश में मीडिया और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच दंगल चल रहा है। प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार का कोई आचरण समाजवादी नहीं है। उसकी आलोचना स्वाभाविक है लेकिन पत्रकार भी दूध के धुले नहीं हैं जिसकी वजह से जनता दोनों की लड़ाई में तटस्थ है और तमाशे की तरह यह देख रही है कि इस युद्ध में आखिर जीत किस महाबली की होगी।
जनता दल सरकार के युग तक पत्रकारिता की स्थिति दूसरी थी उसे जनमत का संवाहक माना जाता था और लोकतंत्र में लोगों की ओर से सरकार पर अंकुश लगाने की भूमिका अदा करने के कारण उस पर कोई प्रहार होता था तो जनता अखबार या पत्रकार के पक्ष में लामबंद हो जाती थी। लेकिन लोगों का इस विधा के प्रति मोहभंग तब हुआ जब 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने मुलायम सिंह सरकार की अन्य बातों के साथ-साथ पत्रकारों पर भी राजकोष से मेहरबानी का काला चिट्ठा खोल दिया। डा.वेदप्रताप वैदिक, स्व.घनश्याम पंकज और ज्ञानेन्द्र शर्मा जैसे लोगों के चेहरे बेनकाब हुए कि किस तरह बिना बीमार हुए या जेबी संगठन के आधार पर उन्होंने मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से खैरात लेकर मुलायम सिंह की स्तुति वंदना को अपना धंधा बनाये रखा था। पहली बार पश्चिम के एक बड़े अध्येता द्वारा पत्रकारों के बारे में की गयी यह टिप्पणी हिन्दुस्तान में भी लोगों को सटीक लगी कि यह कलम की वैश्यायें हैं।
बहरहाल इसके बावजूद तब काफी गनीमत थी क्योंकि उक्त नाम कम से कम उन लोगों के थे जिनके पत्रकार होने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता। खराब शुरूआत इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रसार और उसका दबदबा बढ़ने के बाद हुई। पत्रकारों को खारिज करके समाचार प्रबंधक संपादक बनाये जाने लगे। जिनके अंदर कोई शील नहीं है। जनमत की बजाय बाज़ार पत्रकारिता का दिशा निर्देशक बन गया। मिशनरी दौर में जब संपादक की नियुक्ति के लिये विज्ञापन में यह आह्वान किया जाता था कि आवश्यकता ऐसे संपादक की है जो दो सूखी रोटियों पर गुजारा कर सके। जो देश के लिये जेल जाने के लिये तैयार हो और जिसे खरारी खटिया पर सोने में कोई असुविधा न होती हो। उसकी बजाय पैकेज पर संपादक बनने के लिये धंधेबाज आने लगे जिन्होंने संस्करण मुख्यालय से लेकर जिलों तक उन्हें सहयोगी नियुक्त करने का रिवाज चलाया जिनकी कोई सामाजिक प्रतिबद्घता हो या न हो लेकिन जो उगाही के एक्सपर्ट हो।
आज पत्रकारिता खुलेआम ब्लैकमेलिंग और मुनाफे का भी धंधा है तो पत्रकारों को वे सरकारी सुविधायें क्यों दी जानी चाहिये। जब इन्हें ये सुविधाएं देने की जरूरत महसूस की गयी थी तब वे वास्तव में जनता के हितों के पहरेदार थे और रूखी सूखी में काम चलाते थे। इस नाते सरकारों का नैतिक कर्तव्य था कि उनके लिये आवास, चिकित्सा, नि:शुल्क यात्रा और अन्य सुविधाओं की चिंता करें। आज तो यह खाकी से भी ज्यादा बदनाम लुटेरों का गिरोह है। किसी चैनल और अखबार में समाजसेवा का कोई भी बड़ा और कितना भी निस्वार्थी ईवेंट पत्रकारों की जेब में पैसे डाले बिना नहीं छप या प्रसारित हो सकता। रंगदारी वसूल करने वाले गुंडों से भी ज्यादा बदतमीजी का उनका बोलचाल होता है जो प्रोफेसर जैसे तमाम विद्वता के क्षेत्र वाली हस्तियों को भी नाचीज की तरह हड़काने में संकोच अनुभव नहीं करते। सूचना की भूख लोकतंत्र का आवश्यक तत्व है लेकिन इसकी एक सीमा है। जिस तरह से इलेक्ट्रानिक चैनल में सूचना की हवस लोगों में जगायी जा रही है उससे पत्रकारिता का पूरा कार्य व्यापार और मुनाफे के धंधे में तब्दील हो गया है। जनहित और समाजहित से पत्रकारिता का कोई संबंध नहीं रह गया। पत्रकार सबकी टोपी उछालना चाहते हैं लेकिन वे मुफ्तखोरी में जिस हद तक आगे बढ़ रहे हैं उस पर कोई कुछ न कहे। इस तानाशाही में तो उन्होंने सत्ता को भी पीछे छोड़ दिया है। आज पत्रकारिता से लोकतंत्र के किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो रही। जिलों में प्रशासन को कठपुतली बनाकर फर्जी रिपोर्टें दर्ज कराना असली मुलजिमों को बचाना यह सब काम पत्रकारिता के जरिये इस सीमा तक हो चला है कि यह अराजकता के पर्याय बन गये हैं और किसी भी व्यवस्था के लिये खतरा हैं। फिर भी किसी भी आचार संहिता से बंधने से इन्हें इन्कार है।
अब पत्रकारिता की स्वतंत्रता सामाजिक रूप से प्रतिबद्घ विचारक की स्वतंत्रता नहीं बल्कि दबंग को उद्दंडता की स्वतंत्रता का पर्याय बन गयी है। इन प्रश्नों पर मंथन होना चाहिये। अखिलेश सरकार ने पत्रकारों के खिलाफ जो दमन चक्र शुरू किया है, उनके इन्हीं कर्मों की वजह से जनता में इसे लेकर विपरीत प्रतिक्रिया नहीं हो रही। चूंकि नेता, अधिकारी और पत्रकार चोर-चोर मौसेरे भाई बन चुके हैं। इसलिये अगर पत्रकारिता में सीना-जोरी का यह दौर जारी रहा तो किसी दिन संभव है कि आततायी राजनीतिक सत्ता की तरह लोग लाठी डंडे लेकर पत्रकारों के खिलाफ भी खड़े हो जायें।
लेखक के. पी. सिंह उरई, जलौन, के वरिष्ठ पत्रकार हैं।