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सुख-दुख...

इसीलिए कांग्रेस के सामने मैं अपना शीश झुकाता हूं

'केवल नेता ही नहीं, कांग्रेस के कार्यकर्ता तक संवेदनशील रहे हैं, आज के दौर में तो केवल लूट-खसोट में मशगूल हैं कांग्रेसी। ज्यादातर लुच्चेा-लफंगों की जमात बन गयी है कांग्रेस'

लखनऊ: तारीख की तो ठीक-ठाक याद तो नहीं है, लेकिन हल्का-सा याद है कि यह करीब सन-73 के आसपास की बात होगी। या हो सकता है कि सन-74 ही रहा होगा। तब हवाई हमलों का दौर का भले न रहा हो, लेकिन उसकी आशंकाएं लगी रहती थीं। रात में हवाई जहाज उड़ते थे, और उसी वक्तस तेज सायरन बजा करता था। हल्ला मच जाता था कि हर आदमी अपने घर की सारे लालटेन-ढिबरी-चूल्हे वगैरह बुझा दे, वरना पुलिस पकड़ लेगी।

'केवल नेता ही नहीं, कांग्रेस के कार्यकर्ता तक संवेदनशील रहे हैं, आज के दौर में तो केवल लूट-खसोट में मशगूल हैं कांग्रेसी। ज्यादातर लुच्चेा-लफंगों की जमात बन गयी है कांग्रेस'

लखनऊ: तारीख की तो ठीक-ठाक याद तो नहीं है, लेकिन हल्का-सा याद है कि यह करीब सन-73 के आसपास की बात होगी। या हो सकता है कि सन-74 ही रहा होगा। तब हवाई हमलों का दौर का भले न रहा हो, लेकिन उसकी आशंकाएं लगी रहती थीं। रात में हवाई जहाज उड़ते थे, और उसी वक्तस तेज सायरन बजा करता था। हल्ला मच जाता था कि हर आदमी अपने घर की सारे लालटेन-ढिबरी-चूल्हे वगैरह बुझा दे, वरना पुलिस पकड़ लेगी।

उसी दौर की बात है। मैं दूसरी या तीसरी बार घर से भाग कर कानपुर चला गया था। कई ढाबों-होटलों में खटते हुए अपना बचपन खोता-खरोंचता-मसलता रहा। हमारी ही तरह की सैकड़ों हजारों बच्चों की ही तरह, जो अपने घर से भाग कर कानपुर पहुंचते हैं और सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर जीआरपी वाले उन्हें प्यार से ट्रेन से उतार कर थाने के पास बिठाते हैं। अगली सुबह ही कानपुर भर के होटल-ढाबे मालिक कप-प्लेट-बर्तन धुलवाने के लिए नौकर खोजने यहां पहुंचते हैं और ऐसे बच्चों की एक महीने की पगार का पैसा पुलिसवालों की जेब में ठेल कर इन बच्चों को हासिल कर लेते हैं। लेकिन इसके बाद इन बच्चों को कभी भी पगार नहीं मिलती। अगर किसी बच्चे ने पैसे की ज्यादा मांग की तो उसे मार-पीट कर नौकरी से निकाल दिया जाता है और इसी के साथ यह बच्चे और होटल-ढाबा मालिक लोग फिर नये मुर्गे फंसाने के लिए रेलवे स्टेशन पर जम जाते हैं।

खैर, बहुत कष्टकारी हैं यह यादें। आपको जल्दी-जल्दी असल बात तक पहुंचा देता हूं, ताकि आप बोर न हों और आपका टाइम भी न खोटा हो सके। तो भइया, कई नौकरियों के बाद जिस नौकरी पर मैं लगा, वह कानपुर के हालसी रोड पर बना एक बड़ा होटल था। होटल का नाम था कंचन होटल। अरे सेंट्रल रेलवे स्टेशन के बाहर घंटाघर चौराहे से जब आप जैसे ही परेड की ओर बढेंगे, यहां बादशाही नाका चौराहा मिलेगा। इसके एक फर्लांग बाद दाहिनी ओर एक चार मंजिला होटल था कंचन होटल। इसके बाद कुली बाजार चौराहा और फिर मूलगंज चौराहा होते हुए नई सड़क और आखिरकार परेड बाजार। तो यहां मुझे मसालची की नौकरी मिली थी।

मसालची का काम मतलब, सारे भांड़े-बर्तन मांजना-धोना के अलावा फर्श-सीढी व बारामदा वगैरह का पोंछा लगाना जैसा काम। पैसा मिलता था 15 रूपये महीना। मालिक तो मालिक ही होता है ना, इसीलिए वह कभी-कभार ही किसी से मिलता था। उनका बेटा अक्सर अपने जूते पालिश कराने के लिए हम लोगों में से किसी का दायित्व सौंप देता था। इनाम मिला करता था कभी दस-बीस या फिर चवन्नी। चूंकि मालिक ने तय कर दिया था कि हर महीने के पगार मत लिया करो, वरना चोरी हो जाएगी। इसीलिए हम लोगों को समझा दिया गया था कि जब भी घर वापस जाना होगा, सारा पैसा मालिक अदा कर देगा। लेकिन कसम से कहता हूं, कि मैंने अपने उस दौर में कभी भी अपनी पगार का पैसा मालिक के हाथों से नहीं हासिल किया। जब भी पैसा की बात होती थी तो किन्हीं न किन्हीं आरोप में हम जैसे कर्मचारी को नौकरी पर निकाल दिया जाता था।

हां, कुक, वेटर, वगैरह सीनियर कर्मचारियों का पैसा हजम कराने की हैसियत ही किसी मालिक में नहीं होती थी। लेकिन हम जैसे लोग अक्सर पिट ही जाते थे। सीनियर कर्मचारी लोगों का व्यवहार हम लोगों पर तो इंद्र की बारिश की तरह बहुत मिलती थी। कभी-कभी यह लोग हम लोगों बख्शीश भी दे दिया करते थे, लेकिन मालिक के बारे में कोई भी चूं तक नहीं करता था। एक दिन की बात है, तब के एक मशहूर भजन गायक नरेंद्र चंचल इस होटल में आये थे। पूरा होटल समारोह टाइप सज गया था। शायद हजारों की भीड़ जुट गयी थी। मैं अपनी प्रवृत्ति के चलते चंचल के पास पहुंचने की कोशिश में लगा था। इसी प्रक्रम में कई बार सीनियरों ने मुझे झंपडि़या भी दिया, लेकिन मैं भी परले का बेशर्म। सौ-सौ जूतों खाय, चित्तर में एक न लेना, वाली इस्टाइल थी मेरी।

आखिर में मैनेजर ने मुझे बुरी तरह पीट दिया। अपमान का आवेग आंसुओं की राह से निकल पड़ा। तय कर लिया कि अब इस होटल में काम नहीं करूंगा। अगले ही दिन मैंने अपना जी कड़ा किया और मैनेजर से कह दिया कि मेरा हिसाब कर दिया जाए, मैं अपने देस जाना चाहता हूं। (हम लोगों को पता था कि घर का असली पता बता दिया तो होटल और पुलिसवाला और परेशान करेगा। इसीलिए हम जैसे लोग अपना देस शब्द ही दोहराया करते थे। मजे की बात यह कि हम लोगों के इस गुप्त-ज्ञान का भान हर होटल-ढाबे मालिक को ही नहीं, सारे जीआरपी तक को पता था। खैर, मेरी इस ख्वाहिश सुन कर मैनेजर ने मुझे होटल मालिक के पास भेजा। मगर वहां पगार मिलना को दूर, मैं बुरी तरह लतिया दिया गया। जोरदार पिटाई हुई थी। पैसा झांट नहीं मिला।

मैं रोता-बिलखता हुआ कुली बाजार चौराहे के पास बैठ गया। जाहिर है कि मैं तब अपनी किस्मत को ही कोस रहा था। सुबह का समय था, भूख से पेट कुलबुला रहा था। सोचा, कि बेकार में ही बवाल ले लिया। अरे नाश्ता-भोजन करने के बाद यह करम करता तो यह नौबत तो नहीं आती। लेकिन इस दुनिया में भलेमानुस भी होते हैं। एक अधेड़ ने मेरी हालत देखी तो पसीज गया। पूछने पर सारा माजरा मैंने बयान कर दिया। इस अधेड़ ने मुझे एक चाय पिलायी और साथ में एक पावरोटी भी। इसी बीच सने सलाह दी कि यह साला होटल वाला अक्सर कोई न कोई झंझट करता है और तुम जैसे बच्चों को पीटता-लूटता है। अब तो तुम लोग सीधे अध्यक्ष जी के पास ही पहुंच जाओ तो तुम्हारी सारी दिक्कत दूर हो जाएगी। उस अधेड़ ने अध्यक्ष जी का नाम और उनके घर का रास्ता समझा दिया और चला गया।

मैं अध्य‍क्ष जी के घर के पास पहुंच गया। मुझे उन अध्यक्ष जी के नाम की तो याद नहीं है, लेकिन इतना तय है कि उनका घर कुली बाजार के करीब दो-तीन फर्लांग अंदर बायीं हुआ था। अध्य‍क्ष जी पूजा से निकले ही थे। कई लोग पहले से मौजूद कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मैं कुचला-मरोड़ा कपड़ा पहने हुए दरवाजे के पास ही जमीन पर पालथी मार कर बैठ गया। अध्यक्ष जी का अंदाज लाजवाब और भव्य रहा। मैं वहां सकपका गया या फिर उनके सामने पिघल गया, अचानक बुरी तरह फफक कर रोने लगा। लेकिन मुझे रोता देख कर अध्यक्ष जी द्रवित होते हुए बोले:- “क्या। बात है बेटा, क्यों रो रहे हो।" मैंने पूरी बात, सैंकडों हिचकियों के बीच, बता दी। गजब धैर्य में था इस शख्स में। उसने मेरी सारी बातें पूछीं ही नहीं, खोद-खोद कर पूछीं। लगातार वह मेरे गालों और बाहों पर अपने हाथ थपथपाते जा रहे थे।

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इसी बीच न जाने उन्होंने कौन सी मिठाई मुझे खिलायी, पानी का ग्लास दिया और फिर बोले: “मेस्टन रोड जानते हो ना बेटा। वहीं पर कांग्रेस का दफ्तर है। वहीं पर एक घंटे बाद वहीं पहुंच जाना। मैं वहीं पर मिलूंगा। और हां, रोना-धोना मत। अच्छे बच्चों की तरह हंसो, हां इसी तरह। “मैं वाकई रोते-रोते हंस पड़ा। (यकीन मानिये कि आज इस समय जब यह लाइनें लिख रहा हूं, ठीक उसी तरह की रूलाई मेरी आंखों से बरस रही है, जैसे कुली बाजार में अध्यक्ष जी के घर में उनके सामने हो रही थी।)
 
यह शहर कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यालय था। मैं वहीं जम गया। दर्जनों लोग पहले सही मौजूद थे, अध्य्क्ष जी पहुंचे और मुझे अपने पास बुलाया। दो अन्य कार्यकर्ताओं को इशारा करके बुलाया और मेरी सारी बातें उन्होंने खुद ही सुनाते हुए कहा कि इसकी समस्या का समाधान कर दिया जाए। टोपी-कुर्ता-धोती वाले उन कार्यकर्ताओं ने मुझे साथ लिया और सीधे कंचन होटल तक पहुंचे। पैदल ही पैदल। मैनेजर को जैसे ही पता चला उसने उन लोगों को सीधे मालिक के पास पहुंचा दिया। मुझे भी वहीं पर बुलवाया गया। मैं बुरी तरह सहमा हुआ था, दो-तीन घंटा पहले हुई जोरदार पिटाई का असर होना लाजिमी था। बातचीत शुरू हो गयी।

कांग्रेस-जन :- “आपने इस बच्चे की पगार नहीं दी ?"
होटल-मालिक:- “अरे यह तो पक्का चोर है।“
कांग्रेस-जन :- “क्या आपने या किसी और ने उसे कभी चोरी करते हुए रंगेहाथों पकड़ा ?”
होटल-मालिक:- “इतना तो याद नहीं है अब।“
कांग्रेस-जन :- “उसने चोरी भी की और कई बार की, और कमाल की बात है कि सात महीने से यह बच्चा आपके होटल में भी काम करता रहा है। फिर आज अचानक आपको उसकी चोरी की याद कैसे आ गयी ?"
होटल-मालिक:- “इसने मेरा बहुत नुकसान किया है। कई क्राकरी तोड़ी है। मैं तो सिर्फ यह सोच कर चुप रहा कि बच्चा है।"
कांग्रेस-जन :- “कितना नुकसान किया है इसने ?"

मालिक ने आनन-फानन कुछ हिसाब बताने की कोशिश की। लेकिन उसके चेहरे से झूठ तो उबल ही रहा था। न जाने कैसे करीब शायद 33 रूपये के नुकसान का दावा किया होटल मालिक ने। लेकिन इन कांग्रेसियों ने सख्त तेवर दिखाये और साफ कहा कि बच्चा समझ कर होटल मालिक इस बच्चे को मूर्ख मत बनाये। आप अपराध कर रहे हैं, और अगर ऐसी शिकायतें अध्यक्ष जी तक पहुंचती जाएंगी तो आप पर संकट आ सकता है।
 
इन कांग्रेसियों ने जोड़ कर बताया कि मेरी पगार 105 रूपया है और नुकसान करीब 33 रूपयों का है। तय हुआ कि इनमें 18 रूपयों का नुकसान होटल मालिक सहन करेगा और पांच रूपयों का नुकसान मेरे हिस्से में आयेगा। बिजली की तरह हिसाब-किताब हुआ और मुझे आनन-फानन नकद 85 रूपयों का भुगतान मिल गया। गजब का गणितीय-हिसाब लगा दिया वहां बैठे-बैठे इन दोनों कांग्रेसियों ने। भावावेश में मैंने उन कांग्रेसियों का लपक कर पैर छू लिया। न जाने क्या हुआ कि मेरे झुके हुए सिर को उन्होंगने थामा और फिर अपने सीने से लगा लिया।

उसके बाद उन्हीं लोगों के साथ मैं कांग्रेस अध्यक्ष जी के कार्यालय पर पहुंचा, लेकिन पता चला कि दोपहर की ट्रेन से ही अध्यक्ष जी दिल्ली से रवाना हो गये हैं। अब दस-पांच दिन बाद ही उनसे भेंट हो सकेगी। लेकिन हा दुर्भाग्य, उसके बाद अध्यक्ष जी से कभी भी भेंट नहीं हो सकी। हां, लेकिन आप लोग इतना तो अंदाज लगा ही सकते हैं कि अगर आज के दौर के अध्यक्ष या कार्यकर्ता होते तो उनकी क्रिया-विधि क्या और कैसी होती।

इति श्री महान कांग्रेसी कथा।

 

कुमार सौवीर यूपी के वरिष्‍ठ तथा तेजतर्रार पत्रकार हैं।
 

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