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साहित्यिक-सांस्कृतिक कवरेज को लेकर गंभीर नहीं हैं लखनऊ के समाचार पत्र

पिछले दिनों लखनऊ में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन हुआ। शिवपूजन सहाय की स्मृति में हुए इस समारोह में गिरिराज किशोर, अरुण कमल, रवीन्द्र वर्मा, नरेश सक्सेना, वीरेन्द्र यादव, अखिलेश, आउटलुक के सम्पादक नीलाभ मिश्र सहित कई प्रमुख लेखकों, पत्रकारों ने शिरकत की। बताने की जरूरत नहीं गिरिराज किशोर, अरुण कमल, नीलाभ मिश्र सहित कई लोग दूसरे नगरों से समारोह में आए थे लेकिन रचनाकारों के   इस बड़े जमावड़े का पता दूसरे दिन के प्रमुख समाचार पत्रों से नहीं चला। एक बड़े समाचार पत्र ने तो पूरी खबर ही गोल कर दी। दूसरे ने छापी मगर सिंगल कालम, बहुत मुश्किल से उसे खोजा जा सकता था।  यह समारोह नगर के बड़े अखबारों के लिए कोई महत्वपूर्ण खबर नहीं बन सका ।

पिछले दिनों लखनऊ में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन हुआ। शिवपूजन सहाय की स्मृति में हुए इस समारोह में गिरिराज किशोर, अरुण कमल, रवीन्द्र वर्मा, नरेश सक्सेना, वीरेन्द्र यादव, अखिलेश, आउटलुक के सम्पादक नीलाभ मिश्र सहित कई प्रमुख लेखकों, पत्रकारों ने शिरकत की। बताने की जरूरत नहीं गिरिराज किशोर, अरुण कमल, नीलाभ मिश्र सहित कई लोग दूसरे नगरों से समारोह में आए थे लेकिन रचनाकारों के   इस बड़े जमावड़े का पता दूसरे दिन के प्रमुख समाचार पत्रों से नहीं चला। एक बड़े समाचार पत्र ने तो पूरी खबर ही गोल कर दी। दूसरे ने छापी मगर सिंगल कालम, बहुत मुश्किल से उसे खोजा जा सकता था।  यह समारोह नगर के बड़े अखबारों के लिए कोई महत्वपूर्ण खबर नहीं बन सका ।

लखनऊ के समाचार पत्रों से साहित्यिक-सांस्कृतिक कवरेज को लेकर गंभीरता का अभाव दिखने लगा है। हालांकि इसके पीछे संस्थानों का कोई सर्वेक्षण नहीं है लेकिन यह मान लिया गया है कि ऐसी खबरों के पाठक कम हैं। रविवार की साप्ताहिकी जिसमें साहित्य, संस्कृति, कला या विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर गंभीर लेख हुआ करते थे, पूरी तरह फिल्म और टेलीविजन पर आधारित कर दी गई है। राजनीति, अपराध, सरकारी योजनाओं या नागरिक समस्याओं के बाद फिल्म और टेलीविजन की खबरें ही अखबारों के लिए महत्वपूर्ण बन गई हैं। अब कतई यह जरूरी नहीं रह गया है, कि इन अखबारों के दर्जनों रिपोर्टरों में कम से कम एक रिपोर्टर ऐसा हो जिसकी साहित्य, कला, संगीत या फिल्मों की जानकारी और दृष्टि दुरुस्त हो। ऐसा न करने के पीछे इन संस्थानों का यह दंभ झलकता है, कि किसी से भी इन कार्यक्रमों की कवरेज करायी जा सकती है। यही कारण है कि ज्यादातर ऐसी रिपोर्टिंग वे नवोदित पत्रकार कर रहे हैं जो या तो प्रशिक्षु हैं या कुछ समय पहले सब एडिटर बने हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बड़ी-बड़ी फोटो लगाकर अखबार को तो आकर्षक बना लिया जाता है लेकिन अखबार की हकीकत का पता उन कार्यक्रमों की खबरों से चलता है।

गंभीर जानकारी के अभाव और ग्लैमर की दुनिया से आक्रान्त ये साथी इस क्षेत्र में एक छद्म संसार को बढ़ावा दे रहे हैं जो प्रतिबद्ध कला और लेखन जगत पर हावी हो गया है। ऐसा ही एक उदाहरण पिछले दिनों हुआ रेपेटवा नाट्य समारोह का रहा जिसे खूब कवरेज मिली। टीवी और फिल्म कलाकारों तथा हास्य-सेक्स के संवादों से भरे इन नाटकों की कवरेज के दौरान किसी रिपोर्टर साथी ने यह सवाल उठाने की कोशिश नहीं की कि क्या हमारे समाज की जरूरी समस्याएं या द्वंद इनमें उभर पा रहे हैं या नहीं?

विडम्बना यह है कि ऐसी कवरेज में लगे ज्यादातर साथी टीवी-फिल्म कलाकारों के साथ फोटो खिंचाते और फेसबुक पर अपलोड करते-करते जल्द ही आत्ममुग्ध स्थिति में आ जाते हैं। वे पं. हरिप्रसाद चौरसिया से यह पूछते हुए नहीं हिचकते कि आप क्या बजाते हैं? और पंडित जी अगर इस बात पर नाराज हो जाए तो अपनी कवरेज में उनकी ऐसी-तैसी कर सकते हैं। ये वे साथी हैं जिनके लिए सुरेन्द्र वर्मा और सुरेन्द्र शर्मा या हबीब तनवीर और जावेद हबीब में फर्क करना मुश्किल होता है लेकिन क्या दोष सिर्फ उनका है?

 

पत्रकार आलोक पराड़कर की फेसबुक वॉल से।

 

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