मोदी को पीएम की कुर्सी चाहे 272 में मिलती हो लेकिन संघ का टारगेट 395 सीटों का है। संघ के इस टारगेट का ही असर है कि अगले एक महीने में मोदी के पांव जमीन पर तभी पड़ेंगे, जब उन्हें रैली को संबोधित करना होगा। यानी हर दिन औसतन चार से पांच रैली। और यह तेजी मोदी के रैली में इसलिये लायी जा रही है क्योंकि मोदी के पांव जिस भी लोकसभा सीट पर पड़ते हैं, उस क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवकों में उत्साह भी आ जाता है और क्षेत्र में लोग संघ परिवार के साथ संबंध बनाने से भी नहीं चूक रहे। स्वयंसेवकों के लिये टारगेट का नाम बूथ जीतो रखा गया है। इसके तहत कम से कम 395 सीटों पर बीजेपी पूरा जोर लगाएगी। 100 से ज्यादा सीटें ऐसी, जिस पर जीत पक्की। 120-130 सीटें ऐसी, जिन पर थोड़ी मेहनत से ही जीत तो पक्की। यूपी, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड से कम से कम 90 सीटें जीतने का टारगेट। लेकिन पहली बार सवाल सिर्फ पीएम की कुर्सी को लेकर टारगेट का नहीं है बल्कि देशभर में आरएसएस अपने स्वयंसेवकों की संख्या कैसे दुगुनी कर सकती है, नजरें इस पर भी हैं और इसीलिये समूचे संघ परिवार के लिये 2014 का चुनाव उसके अपने विस्तार के लिये इतना महत्वपूर्ण हो चला है और यह मोदी के मिशन 272 पर भी भारी है।
क्योंकि संघ के स्वयंसेवक पहली बार चुनाव में मोदी के लिये वोटरों को घरों से निकालने के नाम पर देश के हर गांव में जा पहुंचे हैं। लोगों से जुड़ाव राजनीतिक तौर पर नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर है लेकिन आरएसएस के साथ जुड़कर कौन कैसे कितना सहयोग कर सकता है स्वयंसेवकों का समूचा काम इसी पर जा टिका है। असर इसी का है कि हर सुबह हर गांव में संघ का कैप लगने लगा है। चर्चा वर्तमान राजनीतिक माहौल से होते हुये मोदी पर केन्द्रित हो रही है। और संघ के कार्यकर्ताओं की तादाद में लगातार वृद्दि हो रही है। असर इसी का है कि मोदी की रैली ज्यादा से ज्यादा हो संघ का दबाब भी बीजेपी पर है और बीजेपी को भी लगने लगा है कि मोदी की पहुंच जितनी ज्यादा जगहों पर होगी उसे चुनावी जीत उतनी ही ज्यादा जगहों पर मिलेगी। तो रैली के जरीये हर जगह पहुंचा नहीं जा सकता है तो इसके लिये अब तकनीक का आसरा भी बडे स्तर पर लेने की तैयारी है।
अगले 30 दिन में दर्जन भर थ्री डी तकनीक के जरीये विजय संकल्प रैली की जायेगी। जिससे 11 मई तक देश के 395 सीटों को मोदी अपनी रैली से तो छू ही लें। लेकिन यहीं से पहली बार नया सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या मोदी पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर संघ परिवार को ही विस्तार दे रहे हैं। या फिर संघ के विस्तार के साथ ही मोदी का मिशन 272 भी पूरा होगा। असल में यह दोनो मिशन 2014 के चुनाव को लेकर जिस तरह घुल-मिल गये हैं, उसमें मोदी के पीछे संघ परिवार है या संघ परिवार के लिये मोदी है। इसी का लाभ मोदी को मिल रहा है। जिसके दायरे में बीजेपी के पुराने कद्दावर नेताओं का कद भी छोटा हो गया है और आडवाणी तक को कहना पड रहा है कि पार्टी उन्हें जो काम देगी उन्हें मंजूर है। और पार्टी का मतलब ही जब मोदी हो चला हो और पार्टी से बड़ा मोदी को बनाने में वहीं आरएसएस हो जो अक्सर सामूहिकता पर जोर देता रहा हो तो संकेत साफ है कि यह अपनी तरह का पहला चुनाव है जब आरएसएस चुनाव के जरीये संघ परिवार का सबसे बडा विस्तार देख रहा है।
बीजेपी यह मान कर चल रही है कि मोदी की लोकप्रियता मोदी की हर रैली से देश भर में बढ़ भी रही है और जीत भी दर्ज करा देगी। लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिये बीजेपी चाहे लोकसभा के मैदान में कमजोर हो लेकिन आरएसएस ने कैसे कमर कस ली है यह भी अपने आप में नायाब है। क्योंकि संघ के कार्यकर्ताओं के टारगेट 'बूथ जीतो के तहत ही देश के हर गांव में स्वयंसेवकों की मौजूदगी पक्की की गयी है। जहां तक संभव हो हर बूथ स्तर तक पर संघ के स्वयंसेवकों की मौजूदगी होनी चाहिये। इसे आरएसएस ने अपनी तरफ से पक्का किया है। वहीं हर राज्य में प्रांत प्रचारकों को एक एक ऑफ लाइन टैब दिया गए हैं, जिसमें उनके राज्य के हर संसदीय क्षेत्र का ब्यौरा भी है और हर गांव की जानकारी भी है। यानी स्वयंसेवकों को पता रहे कि इस बार टारगेट चुनाव में जीत का भी है। इतना ही नहीं हर बूथ स्तर के आरएसएस कार्यकर्ताओं को इलेक्टोरल रॉल पहुंचाए गए हैं।
हर स्वयंसेवक के ऊपर 200 घरों की जिम्मेवारी है और उन्हे न सिर्फ इन घरों से संपर्क में रहना है बल्कि उन्हें घऱ से बूथों तक लाने का काम भी करना है। साथ ही प्रोफेशनलों और देश के कोने कोने में मौजूद संघ के संवाद केन्द्रों से फीड बैक भी लगातार जमा किए जा रहे हैं। जिनके जरीये बीजेपी के उम्मीदवारों को बताया जा रहा है कि उन्हे अपने क्षेत्रो में कैसी चुनावी रणनीति बनानी है। यानी बीजेपी से कही ज्यादा सक्रिय आरएसएस है। जो चुनाव को लेकर संघ के एक ऐसे विस्तार को अंजाम देने में लगी है जिसका आधार राजनीति है। यानी अभी तक संघ जिन सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को लेकर राजनीतिक मंथन पर जोर देता था। पहली बार वहीं संघ राजनीतिक मंथन खुद कर सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को बदलने का स्टांप पेपर नरेन्द्र मोदी को थमा रहा है। और मोदी विकास का जो खाका खींच रहे हैं, उसके दायरे में संघ परिवार के तमाम सदस्य खारिज हो रहे हैं। स्वदेशी जागरण मंच से इतर कारपोरेट की धड़कन मोदी के साथ जुडी है। आरएसएस की सहयोगी किसान संघ की सोच से इतर से इतर खेती का आधुनिकीकरण बीजेपी के घोषणापत्र का हिस्सा है। भारतीय मजदूर संघ की कोई जरुरत मोदी के विकास मॉडल में नहीं है। देवालय से पहले शौचालय की थ्योरी तले विश्व हिन्दू परिषद का मंदिर राग पहले ही बंद हो चुका है। यानी संघ अपने विस्तार के लिये मोदी को किसी भी हद तक अधिकार देने को तैयार है और मोदी पीएम की कुर्सी तक पहुंचने के लिये संघ की ही सोच को हर हद तक दफन करने को तैयार है।
वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार।
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