आसान जीत की ओर बढ़ रहे अभिषेक सिंह का राजतिलक लगभग तय है लेकिन इसके बाद खुद को साबित करने की चुनौती मुंहबांये खड़ी है. अब तक राजनांदगांव से खुद को दाँव पर लगाने वालों की सच्चाई यह है कि राजनीतिक रोटियां सेंकने के सिवाय वे कोई खास चमत्कार नहीं कर सके अत: परिवार से लेकर जनता-जनार्दन तक में आशा की यह डोर बंधी है कि शुक्ल-युग का अवसान होने के बाद देश के राजनीतिक-शीर्ष पर युवा छत्तीसगढिय़़ा की जो कमी राज्य महसूस कर रहा है, अभिषेक इसे भरने में कामयाब होंगे, ठीक राहुल गांधी, सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह.
जादुई स्पर्श लिए मुस्कान और अदाभरी शालीन चुप्पी के साथ अभिषेक सिंह जब चुनाव-प्रचार के लिये घर से निकलते हैं तो छह फीट से अधिक की काया वाले इस शख्स से हाथ मिलाने को लोग बेताब हो उठते हैं. बुढ़ापा ओढ़े दो शख्स के बीच खड़ी एक नन्हीं बिटिया के सर पर बाबा हाथ फेरते हैं और बुजुर्गों से कहते हैं, 'इस क्षेत्र की सेवा करना चाहता हूं. आपका आर्शीवाद चाहिये. जोश से भरी युवाओं की टोली नारे लगाती है और काफिला आगे बढ़ जाता है. लेकिन कांगे्रस-जोकि विपक्षी चुनौती के तौर पर सामने है-के झण्डे-बैनर देखना मुश्किल पड़ रहा है. इसकी वजह साफ करते हुए पार्टी के वरिष्ठ नेता कहते हैं, 'जनमत का दबाव या सत्ता के लोभ का असर कह लीजिये, विद्रोह और विरोध की हर चिंगारी जलने से पहले ही बुझ गई.
लेकिन राजा-रजवाड़ों के प्रभुत्व वाले इस शहर में ऐसा कब नहीं हुआ? सत्ता का तो चरित्र ही यही है. क्षेत्र का संसदीय इतिहास गवाह है कि राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह से लेकर रानी पद्मावती देवी, शिवेंद्र बहादुर सिंह, मोतीलाल वोरा, राजा देवव्रत सिंह, डॉ. रमनसिंह और मधुसूदन यादव तक में मात्र यादव ही तो थे जो महल बनाम हल की लड़ाई जीतकर संसद पहुंचे और अब यह नारा कांग्रेस प्रत्याशी कमलेश्वर वर्मा लगा रहे हैं. अभिषेक पर अप्रत्यक्ष प्रहार करते हुए वे कहते हैं, 'मतदाता चाहकर भी महल के प्रत्याशी (अभिषेक सिंह) से नहीं मिल पायेंगे. अभिषेक इसके जवाब में मौन साध लेते हैं.
पन्द्रह लाख से ज्यादा की आबादी वाले राजनांदगांव लोकसभा में चुनावी बिसात सज चुकी है. हाथों में मुद्दे और आरोपरूपी तलवार के साथ मोहरे मैदान में हैं और पार्टी के दिगगज रणनीतियों के साथ एक-दूसरे को धराशायी करने में लगे हैं. तस्वीर साफ है कि गुजरे विधानसभा में भाजपा और कांग्रेस चार-चार सीटें जीतकर बराबरी पर रही थीं और यदि कांग्रेस ने वर्तमान की तुलना में मजबूत प्रत्याशी उतारा होता तो अभिषेक को गहरी चुनौती से जूझना पड़ता लेकिन अब खुला खेल फर्रूखाबादी हो चला है. राजनीतिक पंडितों का आंकलन है कि जब प्रदेश की राजनीति में नई जमात दहाड़ रही है तब अभिषेक ने धमाकेदार एण्ट्री मारी है.
लडखड़़ाहटों के साथ ही सही, अभिषेक ने अपने राजनीतिक कैरियर की शानदार शुरूआत की है. कुछ अभिषेक को पैराशूट कैंडीडेट मान रहे हैं मगर वे गफलत में हैं. विरोधी तर्क देते हैं कि उनका कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है और सिर्फ एक ही योगयता है कि वे मुख्यमंत्री के सुपुत्र हैं. इसे बचाव में वरिष्ठ पत्रकार विजय कानूगा कहते हैं, 'ऐसे लोगों के लिये सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को याद करना चाहिये जिन्होंने कम अनुभव के बावजूद पिता की विरासत संभाली और राजनीति में सफल हुए. आप देखिएगा, अभिषेक की जीत एक लाख से ज्यादा मतों से होगी.
दरअसल राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र पर बाबा की नजर तीन साल पहले लग गई थी. सीट तय होने के बाद मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह के सलाहकार विवेक सक्सेना को वहां का प्रभार सौंपा गया जिन्होंने दिन-रात एक करके स्थानीय समीकरणों को साधा, रास्ते की रूकावटों को साफ किया, असंतुष्टों को मनाया और सरकारी मशीनरी को झोंकते हुए विकास की गंगा बहा दी. इलाका चमन हो चुका है और यहां के सडक़ मार्ग से गुजरते वक्त आप इसका नजारा बखूबी देख सकते हैं.
गुजरे विधानसभा चुनाव में बाबा की नेतृत्व-क्षमता को परखने का वक्त था सो पर्दे के पीछे रखते हुए उन्हें राजनांदगांव सीट का चुनाव संचालक बनाया गया. पूरे दो महीने तक अभिषेक ने जिस सूझबूझ से चुनाव संचालन किया और पिताश्री को पैंतीस हजार से ज्यादा की लीड से विजयश्री का वरण कराया, उसने भाजपा संगठन, आम आदमी और पिता का दिल जीत लिया. इस सफलता के बाद इस बात पर मुहर लग गई थी कि अगला लोकसभा चुनाव अभिषेक ही लड़ेंगे. ऐसा नहीं है कि वर्तमान सांसद मधुसूदन यादव की टिकट काटने से पार्टी और संगठन में खदबदाहटें नहीं हुईं लेकिन उसे जादू की झप्पी के साथ बेहद खामोशी से दफन कर दिया गया. सुना है कि इस कुर्बानी के बदले मधुसूदन को लालबत्ती से नवाजते हुए युवा आयोग का अध्यक्ष बनाया जा सकता है.
अब जबकि अभिषेक सांसद बनने की ओर हैं तब एक बड़ा सवाल जेहन में यह है कि वे लम्बी राजनैतिक पारी खेलेंगे या देवव्रत सिंह और मधुसूदन यादव जैसे युवा चेहरों की तरह अगले चुनाव तक फुस्स हो जायेंगे. अंचल का दुर्भागय कह लीजिये कि राजपरिवार के आश्रय में पल-बढ़ रहा राजनांदगांव आज भी देश में पहचान के लिये मोहताज है. अगले पांच साल बाद तय होगा कि बाबा ने खुद का राजनैतिक धरातल किस कदर मजबूत किया है? फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के संसदीय फलक पर जो युवा चेहरे जमे हैं, उनमें तरूणाई तो गायब सी हो गई है. भाजपा के दिनेश कश्यप, कांग्रेस के देवव्रत सिंह और कुछ हद तक दुर्ग की सरोज पाण्डे को छोड़ दें तो अभिषेक सिंग के रास्ते में ज्यादा अवरोध नहीं है. वे अपने पिता की तरह ही छुपे रूस्तम साबित हो सकते हैं क्योंकि सियासी शालीनता और परिपक्वता के मुकाबले अभिषेक सबसे बीस ही नजर आते हैं. मगर फिर भी बाबा को जंग खाई मुरझाई सोच को तिलांजलि देकर आगे बढऩा होगा. पिता का आभामण्डल-जो इनके इर्द-गिर्द बना है-को तोडक़र खुद की देशव्यापी छवि बनाने की चुनौती है. मन में आशा के फूल खिले हैं कि अभिषेक उस शून्य को जरूर भरेंगे जो शुक्ल-युग के अवसान के बाद देश की राजनीति में छत्तीसगढ़ के लिये पैदा हो गया है. हमारी शुभकामनाएं साथ हैं.
लेखक अनिल द्विवेदी राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।