लोकसभा का चुनावी समर काफी करीब आ गया है। ऐसे में, वोट बैंक की राजनीति के नए-नए दांव चलाए जाने लगे हैं। एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक चक्रव्यूह भी रचे जा रहे हैं। ताकि, आसानी से सामने वाले विपक्षी को इसमें फंसाया जा सके। यदि बात सम-सामयिक मुद्दों से ही नहीं बनती है, तो इतिहास के पन्नों को भी खंगाला जा रहा है। ताकि, विपक्ष के खिलाफ ‘इतिहास’ से कुछ कीचड़ निकाला जाए। फिर, इसी से प्रतिद्वंद्वी समूह की चमक धूमिल की जाए। कुछ इसी तरह की कोशिशें इन दिनों भाजपा और कांग्रेस के बीच दिखाई पड़ रही हैं। ‘पीएम इन वेटिंग’ बनने के बाद नरेंद्र मोदी पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में जुटे हैं। वे तो कांग्रेस के विरुद्ध वातावरण बनाने के लिए हर मसाला आजमाने के लिए तैयार रहते हैं। ताकि, वे अपने ‘मिशन पीएम’ के करीब पहुंचते जाएं। कांग्रेस ने भी पलटवार की अपनी रणनीति तेज कर दी है। पार्टी के रणनीतिकार जगह-जगह लोगों को मोदी और भाजपा के ‘खतरे’ बताने में जुट गए हैं।
मोदी तो पिछले कई महीनों से राहुल गांधी और कांग्रेस आलाकमान पर सीधे निशाने साधने में लगे रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस प्रमुख सीधे तौर पर जुबानी जंग से बचती रही हैं। यदि उन्होंने अपने भाषणों में कहीं मोदी का जिक्र भी किया, तो कटाक्ष के रूप में ही करने की रणनीति अपनाई है। लेकिन, अब तस्वीर बदलती नजर आ रही है। कांग्रेस ने यह साफ कर दिया है कि यदि चुनाव में पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आती है, तो राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के चेहरे होंगे। यह अलग बात है कि भाजपा की तरह कांग्रेस ने राहुल के नाम का औपचारिक ऐलान नहीं किया। कांग्रेस के रणनीतिकार अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि भाजपा ने जिस तरह से आक्रामक तेवर अपना लिए हैं, ऐसे में इनकी चुनावी मुहिम का मुकाबला बहुत नरमी की राजनीति से संभव नहीं है।
कांग्रेस के उस्ताद नहीं चाहते हैं कि पूरा चुनाव अभियान मोदी बनाम राहुल की जंग में केंद्रित हो जाए। क्योंकि, घाघ राजनीतिक समझे जाने वाले मोदी के मुकाबले राहुल कुछ ‘कच्चे’ हैं। वे एक दशक से सक्रिय राजनीति में जरूर हैं। लेकिन, संसद से सड़क तक उनकी राजनीति, जुझारू तेवरों की कभी नहीं रही। नेहरू-गांधी परिवार का वारिस होना ही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है। इसी के चलते पूरी पार्टी, सर्वोच्च कुर्सी पर बैठाने के लिए उनकी मनुहार करती नजर आती है। जबकि, दूसरी तरफ मोदी को इस मुकाम तक पहुंचने के लिए पार्टी के अंदर लंबी जद्दोजहद करनी पड़ी है। हालांकि, वे गुजरात में तीन बार बहुमत वाली सरकार बनवाकर ‘जीत का सिकंदर’ बन चुके हैं। लेकिन, तमाम कोशिशों के बावजूद कट्टर हिंदुत्व वाली छवि उनका पीछा नहीं छोड़ रही।
शुरुआती दौर में इसी छवि के चलते मोदी ने गुजरात में अपना राजनीतिक सिक्का चलाया था। कांग्रेस की तमाम कोशिशें उन्होंने सफल नहीं होने दीं। ऐसे में, मोदी संघ नेतृत्व के खास चेहते बन गए। वैसे भी 2002 के दंगों के दौरान मोदी की छवि एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता की बनी थी। वे राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह का भाषण करते हैं, ऐसे में संघ परिवार के तमाम घटक उनके मुरीद बनते रहे हैं। यह जरूर है कि गुजरात में मोदी ने संघ परिवार के कई बड़ों को भी बौना बनाने में देर नहीं लगाई। ऐसे लोगों ने मोदी की ‘दिल्ली मंजिल’ रोकने की अपनी तईं कोशिशें भी की थीं। लेकिन, ये लोग सफल नहीं हुए। अब तो मोदी की मुहिम रफ्तार पकड़ चुकी है। वे अब राहुल पर सीधे निशाने साध रहे हैं। कह रहे हैं कि मुकाबला एक चाय बेचने वाले पिछड़े वर्ग के शख्स से है। ऐसे में, कांग्रेस ने मुकाबले में खुलकर अपने ‘युवराज’ को उतारने की हिम्मत नहीं की। इस तरह की टिप्पणियां करके मोदी राजनीतिक समीकरण बनाने का भी खेल करते दिखाई पड़ते हैं।
मोदी के खिलाफ कांग्रेस के पास सबसे बड़ा हथियार 2002 के दंगों का ही है। पिछले दिनों अपने पहले टीवी इंटरव्यू में राहुल ने गुजरात के इन दंगों में मोदी को घेरने की कोशिश की। यही कहा कि वहां पर एक समुदाय विशेष (मुस्लिम) के लोगों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ था। इन दंगों में कहीं न कहीं उनकी भूमिका थी। ऐसे में, यह वर्ग कभी भी उन पर विश्वास नहीं कर सकता। जब उन्हें याद दिलाया गया कि किसी अदालत ने मोदी को दोषी नहीं ठहराया, तो उन्होंने झट से कह दिया कि अदालत ने भले कोई फैसला न दिया हो, लेकिन उन्हें तो मीडिया के तमाम लोगों ने प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर बताया है कि उनकी भूमिका ठीक नहीं थी। जब उन्हें 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस की चर्चित भूमिका की याद दिलाई गई, तो वे कन्नी काटते नजर आए।
जब उनसे पूछा गया कि गुजरात के दंगों और 84 के सिख विरोधी दंगों में क्या बड़ा फर्क महसूस करते हैं? तो उन्होंने कहा कि उस समय दिल्ली में कांग्रेस की सरकार ने दंगा नियंत्रण के लिए जरूरी कदम उठाए थे। जबकि, गुजरात में ऐसा नहीं किया गया। इस तरह की विवादित टिप्पणी करके राहुल ने जाने-अनजाने विवाद का एक नया पिटारा खोल दिया है। भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली कहते हैं कि दंगों पर काबू करने के लिए मोदी सरकार ने कुछ घंटों में ही सेना बुला ली थी। पुलिस और सेना ने 200 से ज्यादा दंगाइयों को गोली का निशाना बनाया था। जबकि, सिख विरोधी दंगों में पुलिस ने एक भी दंगाई को मार नहीं गिराया। इससे राहुल के दावे की पोल खुल जाती है। सच्चाई तो यह है कि कांग्रेसी उस दौर में ‘खून के बदले खून’ के नारे लगाकर सिखों का कत्लेआम करा रहे थे। कई आरोपी कांग्रेसियों को कांग्रेस ने टिकट देकर सांसद और मंत्री तक बनवाया है। यदि मुख्यमंत्री के तौर पर राहुल, मोदी को दोषी मानते हैं तो वे इसी फार्मूले से तत्कालीन प्रधानमंत्री अपने पिताश्री राजीव गांधी को दोषमुक्त कैसे मानते हैं?
जबकि, गुजरात में 800 से ज्यादा लोगों को दंगों के मामले में सजा मिल चुकी है। मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री रहीं माया कोडनानी सजा काट रही हैं। अकाली दल के सांसद नरेश गुजराल भी राहुल की टिप्पणी से आहत हैं। उन्होंने कहा है कि इस तरह की बात कह कर कांग्रेस उपाध्यक्ष ने सिखों के साथ क्रूर मजाक किया है। सोनिया गांधी भी पिछले दिनों एक रैली में कह चुकी हैं कि उन लोगों ने एक ऐसे शख्स (मोदी) को प्रधानमंत्री बनवाने का सपना देखा है, जो कि हमेशा से लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को ठेंगा दिखाता रहा है। पूरी दुनिया इनके बारे में अच्छा नजरिया नहीं रखती। भला, ऐसा व्यक्ति वहां कैसे पहुंच सकता है?
वोट बैंक की राजनीति में कांग्रेस सहित सपा जैसे दल भी अल्पसंख्यक कार्ड का खेल जमकर खेल रहे हैं। राष्ट्रीय वक्फ विकास निगम के उद्घाटन समारोह के दौरान यहां दिल्ली में बुधवार को एक मुस्लिम युवक ने हंगामा किया। उसका ऐतराज यही था कि सरकार अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर तमाम घोषणाएं करती हैं। लेकिन, इनका अमल नहीं हो पाता। कहीं इस हंगामे का गलत राजनीतिक संदेश अल्पसंख्यकों के बीच न जाए, ऐसे में हंगामा करने वाले शख्स की मनुहार की गई। इस बीच अलीगढ़ विश्वविद्यालय की किशनगंज (बिहार) शाखा के शिलान्यास समारोह को लेकर जदयू और कांग्रेस के बीच ठन गई है। क्योंकि, उद्घाटन के लिए सोनिया गांधी का कार्यक्रम बना, तो राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश को न्यौता तक नहीं दिया गया। ऐसे में, वे कांग्रेस को कोसने लगे हैं। यह बवाल वोट बैंक की राजनीति से जुड़ा है। ‘सेक्यूलर’ दलों के ऐेसे टंटों से भाजपाई रणनीतिकार भला खुश क्यों न हों?
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।