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सुख-दुख...

वाजपेयी के दत्तक दामाद वरिष्ठ संपादकों की देख-भाल में निजि रुचि रखते थे

संजय बारू की किताब 'The Accidental Prime Minister: The Making and Unmaking of Manmohan Singh' राजनीतिक गलियारों में हलचल मचाए हुए है। बारू लिखते हैं कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को ऐसा टाइट कर रखा था कि वो स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते थे। लेकिन इन राजनीतिक बातों से इतर, बारू की किताब मीडिया जगत की उन महीन बातों पर भी रोशनी डालती है जो आम लोगों के सामने नहीं आ पातीं।

संजय बारू की किताब 'The Accidental Prime Minister: The Making and Unmaking of Manmohan Singh' राजनीतिक गलियारों में हलचल मचाए हुए है। बारू लिखते हैं कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को ऐसा टाइट कर रखा था कि वो स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते थे। लेकिन इन राजनीतिक बातों से इतर, बारू की किताब मीडिया जगत की उन महीन बातों पर भी रोशनी डालती है जो आम लोगों के सामने नहीं आ पातीं।

2004 में मीडिया सलाहकार के रूप में प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़ने से पहले बारू 'फाइनेन्शियल एक्सप्रेस' के एडिटर थे। बारू ने जब अपने बॉस शेखर गुप्ता को अपने नए जॉब के बारे में बताया तो उन्होने कहा कि ये समय की बर्बादी है। गुप्ता का मानना था कि वाम दल और कांग्रेस एक साथ काम नहीं कर पाएंगे औऱ सरकार 6 महीने से ज्यादा नहीं चलेगी। गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के सीईओ भी थे सो उन्होने अपने 'एडिटर' के लौटने की उम्मीद में 'फाइनेन्शियल एक्सप्रेस' को 6 महीने बिना एडिटर के चलाया। लेकिन सरकार चल गयी और बारू 2008 तक पीएमओ में टिके रहे।

धीरे-धीरे बारू को पता चला कि पीएमओ में मीडिया सलाहकार का असल काम क्या है। बारू लिखते हैं कि वाजपेयी की सरकार में प्रधानमंत्री के विदेश दौरों के समय कुछ ख़ास वरिष्ठ संपादकों को विशेष सुविधाएं दी जातीं थीं। उन्हे भारतीय दूतावास से लिमोसीन जैसी लग्ज़री गाड़ी उपलब्ध कराई जाती थी जबकि बाकी की मीडिया खेप पीछे-पीछे बस में आती थी। बारू को पता चला कि वाजपेयी के (दत्तक) दामाद रंजन भट्टाचार्या ने बहुत से वरिष्ठ संपादकों से दोस्ती गांठ रखी थी और वो उनकी देख-भाल में निजि रुचि भी रखते थे। बारू लिखते हैं कि उन्होने यो सारी सुविधाएं बंद कर दीं। इस कारण उनके बहुत से प्रोफेशनल दोस्त नाराज़ भी हो गए। लेकिन पीएम के प्लेन में बढ़िया क्वालिटी की शराब परोसने की सुविधा उन्होने जारी रखी।

काम सम्हालने के बाद बारू ने पाया कि बहुत बड़ी संख्या में पत्रकार पेशेवराना तरीके से अपना काम कर रहे हैं। जब तक उनको ठीक से डील किया जाए उनकी 'एक अच्छी स्टोरी' की मांग को पूरा किया जाए तब तक वे अपनी रिपोर्टिंग में वस्तुनिष्ठता को बनाए रखते थे। और कभी-कभी तो बिना बारू के प्रयास के उनकी मदद कर दिया करते थे। जो दूसरी कैटेगरी के पत्रकार थे, वो थोड़ा लल्लो-चप्पो टाइप के थे। ऐसे पत्रकार चाहते थे कि उनका अधिक ध्यान रखा जाए। ऐसे लोग एक्सक्लूज़िव स्टोरीज़ की मांग ज़्यादा करते थे। तीसरी कैटेगरी उन पत्रकारों की थी जो हमेशा पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग किया करते थे। ऐसे पत्रकार या तो प्रो-बीजेपी थे, या प्रो-लेफ्ट, प्रो-सोनिया, प्रो- प्रणब मुखर्जी या फिर उसकी तरफ जिससे उनकी ट्यूनिंग अच्छी हो। बारू कहते हैं कि उन्होने ऐसे लोगों को थोड़ा दूरी पर रखा। इससे बहुत लोग नाराज़ भी हो गए ख़ासकर वे जो सोनिया गांधी के करीबी थे और मानते थे कि सरकार उनकी है इसलिए पीएमओ को उनके ठीक व्यवहार करना चाहिए।

मीडिया का उपयोग कैसे राजनीतिक संकेतों को देने के लिए किया जाता था इसकी बानगी भारत-अमरीका न्यूक्लियर डील के दौरान देखने को मिली। 2005 में  मनमोहन सिंह ने संसद में 'द टेलीग्राफ' की माणिनी चटर्जी को एक इन्टरव्यू दिया। अगली सुबह 'द टेलीग्राफ' ने एक स्टोरी छापी 'दुखी पीएम लेफ्ट सेः अगर आप समर्थन वापस लेना चाहते है, तो ठीक है।' इस ख़बर से कांग्रेस पार्टी नाराज़ हो गई। सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने पत्रकारों को बताया कि मनमोहन सिंह उस गठबंधन को समाप्त नहीं कर सकते जो उन्होने नहीं किया। बारू लिखते हैं कि इस एक ख़बर के माध्यम से दो शिकार हो चुके थे। सोनिया गांधी औऱ वाम दलों तक मनमोहन का संकेत पहुंच चुका था।

12 अक्टूबर 2005 को, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह दोनो ही हिन्दुस्तान टाइम्स सम्मेलन में बोले। वीर सांघवी उस समय हिन्दुस्तान टाइम्स के एडिटर थे। बारू कहते हैं कि उस दिन सांघवी ने सोनिया गांधी से पूर्वनियोजित सवाल पूछा और मनमोहन सिंह से एक कठिन सवाल किया। सांघवी के पूर्वनियोजित सवाल के जवाब में सोनिया ने कहा कि सरकार का चलना न्यूक्लियर डील से अधिक महत्वपूर्ण है। इसके ठीक बाद मनमोहन सिंह आए तो सांघवी का सवाल था कि आपने न्यूज़ पेपर में एक स्टेटमेंट दिया है जो आपके व्यक्तित्व से मेल नही खाता। क्या आप समझते हैं कि आप ने सीमा का उल्लंघन किया है? मनमोहन सिंह ने सीधा सपाट जवाब दिया कि उन्होने कोई ऐसा काम नहीं किया है और वो जानते हैं कि उन्हे क्या कहना है और क्या नहीं।

इसी तरह जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के लिए एमके नारायणन के नाम पर मूहर लगाने की तैयारी हो रही थी, तब भी सांघवी ने एक पक्षपातपूर्ण लेख लिखा। दरअसल भारतीय विदेश सेवा ये मानने लगी थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद उनकी जागीर है। नारायणन की नाम चला तो मीडिया का उपयोग  उनकी नियुक्ति को रोकने के लिए किया गया। सांघवी इस कैंपेन का हिस्सा थे, उन्होने नारायणन की आलोचना में लेख लिखा और इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तो विदेश सेवा का ही होना चाहिए।

उस समय के आउटलुक के एडिटर विनोद मेहता पर भी बारू सोनिया कैंप का होने का आरोप लगाते हैं। अपने 2004 की न्यूक्लियर डील पर एक कवर स्टोरी में आउटलुक ने लिखा था कि सोनिया मनमोहन को एक पॉलिटिकल पीएम के रूप में देखना चाहती हैं, वो नहीं चाहतीं कि मनमोहन एक प्रशासक की तरह काम करें। बारू कहते हैं कि ये मेहता का तरीका था सोनिया को बताने का कि वो सोनिया के विरोधी कैंप में नहीं हैं। बताते चलें कि विनोद मेहता ने अपनी आत्म कथा में बारू की आलोचना की है और अभी हाल ही में एक न्यूज़ चैनल पर मेहता ने कहा भी था कि सोनिया ने उन्हे बताया कि बारू 'मिसचिफ मेकर' थे।

मीडिया का उपयोग किस तरह नियुक्तियों में विवादों से बचने के लिए किया जाता था बारू को इसकी बानगी 2006 में देखने को मिली। एक दिन पोलॉक चटर्जी(सोनिया गांधी के खास और पीएमओ में पीएम के प्रधान सचिव) बारू के कमरे में आए और बोले नए विदेश सचिव की नियुक्ति के बारे में सरकारी वक्तव्य जारी करने में कितना समय लगेगा। बारू ने कहा कि सिर्फ दो मिनट। पोलॉक को यकीन नहीं हुआ, बारू ने उन्हे बताया कि उन्हे सिर्फ टाइम्स नाउ, एनडीटीवी और सी-एनएन के एडिटर्स को एक एसएमएस करना होगा और काम हो जाएगा। इस तरह मीडिया का उपयोग कर भारत के तब के नए विदेश सचिव शिव शंकर मेनन की नियुक्ति की अधिकारिक तौर पर घोषणा की गई औऱ किसी दूसरे को इस पद पर दावा करने का समय ही नहीं मिला।

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इसे भी पढ़ेंः

 जब प्रणय रॉय ने कहा, 'वो प्रधानमंत्री की तरह नहीं एक हेडमास्टर की तरह बात कर रहे थे' http://bhadas4media.com/article-comment/18983-sanjay-baru-media-advisor.html
 

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