शाहजहांपुर। बारह साल के बालक वैभव की मौत के पीछे आखिर ऐसा कौन सा रहस्य है जिसके कारण पुलिस लगातार परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को नजरंदाज करती रही है? घटना के तथ्यों के साथ भी न सिर्फ छेड़छाड़ की गई है, बल्कि घटना के तमाम अभिलेखीय साक्ष्य भी नष्ट कर दिए गए। पुलिस की यह करतूत तब और भी प्रासंगिक हो जाती है जब फारेंसिक जांच में हत्या की पुष्टि हो चुकी है और तमाम अफसर मौखिक तौर पर इस बात को बेहिचक मानते हैं कि घटना प्रीप्लॉन्ड मर्डर थी।
साढ़े तीन साल पहले हुए वैभव मर्डर केस में करीब एक दर्जन जांचें हो चुकी हैं। हर बार पुलिस नए सिरे से जांच करती है और हर बार नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहता है। पुलिस जांच में यह तो सिद्ध कर देती है कि हत्या हुई, लेकिन यह नहीं बता पाती है कि हत्यारा कौन है। जबकि पुलिस अगर अपनी जांच में इन तथ्यों को शामिल करे कि घटना के बाद से अब तक किस पुलिस कर्मी ने किसके इशारे पर क्यों साक्ष्यों की अनदेखी की और किसने क्यों साक्ष्यों को मिटाया तो दोषी पुलिस कर्मियों के गिरेबां से होते हुए कानून के हाथ हत्यारों तक आसानी से पहुंच सकते हैं। वर्तमान में, एक बार फिर इस घटना की जांच क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर उमाशंकर द्वारा की जा रही है।
वारदात 26 जुलाई 2010 की है। शहर के मोहल्ला कटिया टोला निवासी पत्रकार शैलेंद्र बाजपेई का इकलौता बारह वर्षीय पुत्र वैभव सुदामा स्कूल में आठवीं का छात्र था। उस दिन दूसरी शिफ्ट में शाम सवा पांच बजे स्कूल से छुट्टी होने के बाद वह घर पहुंचा और कपड़े बदलकर कुछ देर बाद साइकिल लेकर घर से निकल गया। इसके बाद से लापता हुए वैभव का नग्न शव अगली सुबह घर से तीन किमी दूर पीपल घाट पर पड़ा मिला था।
परिजनों से पहले पुलिस मौके पर पहुंच चुकी थी। पुलिस का कहना है कि शव पानी में पड़ा था और दो लोगों से शव को निकलवाया था। पुलिस ने उन लोगों के नाम तक नहीं नोट किए। शव एकदम नग्न था, सूनसान इलाके में था, साइकिल व कपड़े गायब थे और गले पर लिगेचर मार्क था जो साफ हत्या की ओर इशारा कर रहे थे, लेकिन पुलिस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। हत्या की ओर इशारा करते तमाम बिंदुओं के बावजूद पुलिस ने न तो डॉग स्क्वाड बुलाने की कोशिश की न फारेंसिक टीम बुलाई गई। पुलिस ने बालक की साइकिल कपड़े भी तलाश करने में रूचि नहीं दिखाई। यह भी नहीं सोचा कि बालक घर से अकेला इतनी दूर सूनसान इलाके में कैसे पहुंचा, जबकि उस शाम आंधी के साथ भयंकर बरसात भी हुई थी। काफी प्रयास के बाद पुलिस ने हत्या में रिपोर्ट तो दर्ज कर ली, लेकिन जब पीएम(पोस्ट मॉर्टम) रिपोर्ट में पानी में डूब कर मौत होने की पुष्टि हुई तो पुलिस ने एफआर लगाने की तैयारी कर ली। पुलिस ने पीएम रिपोर्ट को इस ढंग से नहीं लिया कि बच्चे को डुबा कर भी मारा जा सकता है।
खैर बालक के पिता ने पुलिस के एफआर लगाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया और हत्या से जुड़े तमाम तथ्यों को प्रकाश में ला दिया जिससे जांच फिर आगे बढ़ गई। इस हत्याकांड में हत्यारों तक पहुंचने की सबसे मजबूत कड़ी कुछ लोगों की कॉल डिटेल के रूप में पुलिस के हाथ लगी थी। कॉल डिटेल की जांच तत्कालीन एसओजी इंचार्ज विनोद मिश्रा द्वारा की जा रही थी। आरोप है कि विनोद मिश्रा ने कॉल डिटेल की फाइल गायब कर दी। यही नहीं एसपी की साइबर सेल के कंप्यूटर से वैभव हत्याकांड से जुड़े तमाम सबूत भी नष्ट कर दिए गए। पुलिस की इस करतूत की डीजीपी कार्यालय द्वारा कराई जांच में पुष्टि भी हो चुकी है। खास बात यह रही कि पुलिस ने कभी हत्या मानकर मामले की विवेचना ही नहीं की। पुलिस की मामले में लीपापोती को देख बालक के पिता शैलेंद्र बाजपेई शासन स्तर तक मामले को ले गए। नतीजन विधि विज्ञान प्रयोगशाला लखनऊ से आई फारेंसिक एक्सपर्टों की टीम ने घटनास्थल पर जाकर घटना का पूरा खाका खीचते हुए जांच पड़ताल की और अपनी रिपोर्ट में हत्या की पुष्टि की। इसके बाद पुलिस की जो भी जांचें हुईं, उनमें हत्या की पुष्टि तो होती रही, लेकिन हत्यारा कौन है, इस ओर पुलिस की जांच आज तक आगे नहीं बढ़ी है। गौर करने वाली बात यह है कि जब कई कई बार हत्या की पुष्टि हो चुकी है तो पुलिस हर बार नए सिरे से विवेचना कर उसी तथ्य को दोहराने के बजाय जांच को अपराधियों तक पहुंचने की दिशा की ओर क्यों नहीं ले जा रही है? इसका भी सीधा सा जवाब है कि ऐसा होने पर हत्यारों को बचाने के लिए तथ्यों से छेड़छाड़ करने वाले पुलिस कर्मियों की गरदनें नप सकती हैं।