शारदा फर्जीवाड़े मामले को सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक साजिश का नतीजा बताकर भले ही बंगाल की मां-माटी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है, लेकिन इसका आगामी लोकसभा चुनाव नतीजों पर कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है। न निवेशकों को उनका पैसा वापस मिल रहा है, न रिकवरी की कोई सूरत है और न चिटफंड कारोबार केंद्रीय एजंसियों की सक्रियता के बावजूद बंद हो पाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया है कि दस दिनों के भीतर शारदा फर्जीवाड़े मामले की केस डायरी, एफआईआर, चार्जशीट की प्रतिलिपि सर्वोच्च अदालत में जमाकरें और साथ में यह भी बतायें कि इस भारी घोटाले की साजिश में आखिरकार कौन कौन लोग थे, किन्हें शारदा समूह को खुल्ला छूट देने का फायदा मिला और किन्हें इस कंपनी से सुविधाएं वगैरह मिली हैं। जैसे सहाराश्री को निवेशकों का पैसा लौटाने की योजना बताने को कहा गया है, ठीक उसी तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को भी आदेश दे दिया है कि वह बतायें कि कैसे शारदा में पैसे लगाकर ठगे गये लोगों को उनकी रकम वापस दिलायेगी सरकार। अचरज की बात तो यह है कि बंगाल के राजनीतिक हल्कों में शारदा प्रकरण पर सन्नाटा है जैसे सबको सांप सूंघ गया है।
अब तक प्रगति यह है कि केंद्रीय एजंसियों की गतिविधियां इस सिलसिले में ठप हैं और सेबी को पुलिसिया अधिकार देने के बावजूद इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो सकी है। हालंकि श्यामल सेन आयोग ने शारदा समूह की संपत्ति बिक्री कर निवेशकों की संपत्ति लौटाने का निर्देश दिया है।
जबकि दिन के उजाले की तरह जगजाहिर है कि शारदा समूह की कंपनियों में बेहतर मुनाफे का लालच दिए जाने पर लोगों ने अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई लगा रखी थी। कंपनी पिछले दिनों डूब गई और निवेशकों को उनका पैसा वापस नहीं कर पाई।
शारदा समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुदीप्त सेन और उनके कई सहयोगी सलाखों के पीछे हैं। धोखाधड़ी और षडयंत्र के आरोप में उन पर कानूनी कार्रवाई चल रही है। सत्तादल के सांसद कुणाल घोष भी जेल में हैं।
गौरतलब है कि इससे पहले पहले शारदा चिटफंड घोटाले में गिरफ्तार राज्यसभा के सांसद कुणाल घोष ने इस पूरे मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और मुकुल रॉय को घसीटा भी है, फिर भी विपक्ष इस मामले को मुद्दा नहीं बना सका, यह बंगाल में विपक्ष की बदहाली का आलम है।
हालांकि सहारा मामले में सहाराश्री की गिरफ्तारी के बाद बाद बंगाल में भी निवेशकों के पैसे लौटाने के हालात बन जाने चाहिए थे, जो हरगिज नहीं बने। गौरतलब है कि गोरखपुर से शुरू हुआ 'सहारा' का सफर आज अरबों रुपयों तक पहुंच चुका है। चिटफंड से लेकर कई नामी स्कीम्स चलाने के साथ ही सहारा ने रियल स्टेट्स, स्पोर्ट्स स्पॉन्सरशिप, फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया के कारोबार में अपनी मजबूत पकड़ बनाई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहारा को भी निवेशकों को पैसे लौटाने की पहल के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
लेकिन दूसरी तरफ, बंगाल में ऐसा कुछ होने के आसार अब भी नहीं बने हैं और न शारदा फर्जीवाड़े में गिरफ्तार सुदीप्तो और देवयानी से साजिश की परतें खुल पायी है।
अब अगर राज्य सरकार अपनी ओर से पहल करके दोषियों को सजा दिलाने के साथ निवेशकों को उनका पैसा वापस दिलाने का काम कर देती है तो विपक्ष को आरोप लगाने का भी मौका नहीं लगेगा।
दरअसल बंगाल में सत्तापक्ष को सड़क पर चुनौती देने वाली कोई ताकत है ही नहीं। कांग्रेस अब साइन बोर्ड जैसी पार्टी हो गयी है और उसकी जगह तेजी से भाजपा ले रही है। लेकिन शारदा फर्जीवाड़े मामले को चुनावी मुद्दा में बदलने की कोई कवायद न कांग्रेस ने की है और भाजपा ने।
वामपक्ष अपने बिखराव से बेतरह परेशान है और उसे खोये हुए जनाधार की वापसी की जितनी फिक्र है, मुद्दों पर जनता को गोलबंद करने की उनकी तैयारी उतनी नहीं है। अचानक चुनाव के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के इस मंतव्य को चुनावी मुद्दा बनाने की हालत में बगाल की राजनीति कतई नहीं है और न ममता बनर्जी उन्हें कोई मौका देने की भूल करेंगी।
दरअसल इस घोटाले के साथ देशव्यापी चिटफंड कारोबार का पोंजी नेटवर्क का तानाबाना ऐसा है कि हर दल के रथी महारथी इस जंजाल में फंसे हुए हैं।
इसलिए पार्टियों के सामने अपनी अपनी खाल बचाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह गया और किसी राजनीतिक दल ने इसे मुद्दा बनाकर कोई जनांदोलन नहीं छेड़ा।
इस घोटाले के पर्दाफाश से जो शुरुआती प्रतिक्रिया हुई, विपक्ष की निष्क्रियता से सत्तापक्ष ने उसको भी रफा दफा कर दिया। मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी नेताओं पर गंभीर आरोप होने के बावजूद ममता ने आक्रामक रवैया अपनाकर उनका बचाव कर लिया और विपक्ष शुरुआत में सीबीआई जांच की रट लगाते रहने के बावजूद खारिज हो गया।
भाजपा बेहतर हालत में थी क्योंकि राज्य और केंद्र में सत्ता से बाहर होने की वजह से उसके नेता फंसे नहीं हैं। लेकिन रहस्यमय चुप्पी ओढ़कर भाजपा ने वह मौका गंवा दिया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला तब आया है जबकि राजनीतिक दलों ने अपने अपने उम्मीदवार घोषित भी कर दिये। सत्तापक्ष के आरोपित सभी लोग चुनाव मैदान में हैं, इसके बावजूद अपनी अपनी मजबूरी की वजह से राज्य के राजनीतिक दल इसे लेकर संबद्ध लोगों की घेराबंदी कर पायेंगे, इसकी संभावना भी कम है।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास